सनातन धर्म के ज्यादातर ग्रंथो और शाक्त संप्रदाय के बहुत सारे शास्त्रों में माँ दुर्गा की स्तुति की गई है । माँ दुर्गा को महिषासुरमर्दनी और शुम्भ और निशुम्भ जैसे अत्याचारी राक्षसों का वध करने के लिए जाना जाता है । माँ दुर्गा अपनी दस भुजाओं से सारे संसार को समय – समय पर दुष्टों से मुक्त कराती आई हैं । माँ दुर्गा ने अपने भक्तों को वचन दिया है कि जब -जब संसार दानवों के अत्याचारों से त्रस्त होगा, तब -तब वो पृथ्वी पर अवतार लेकर दुष्ट राक्षसों से पृथ्वी को मुक्त कराएंगी
इत्थं यदा यदा बाधा दानवोत्था भविष्यति ।
तदा- तदाSवतीर्याहं करिष्यामरिसंक्ष्यम ।।
श्री दुर्गासप्तशती, अध्याय 11
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माँ दुर्गा भक्तों की रक्षा करती हैं:
माँ दुर्गा हमेशा ही अपने भक्तों की रक्षा राक्षसों के विरुद्ध करती आई हैं। माँ दुर्गा को अपनी भक्ति से कोई भी प्रसन्न कर सकता है ।लेकिन शक्ति का आह्वान कोई भी करे, आद्या शक्ति या माँ दुर्गा उसके पक्ष में जरुर आती हैं। कई बार माँ दुर्गा राक्षसी शक्तियों के पक्ष में भी खड़ी हुई हैं। आद्या शक्ति का आह्वान कोई भी करे चाहे वो राक्षस या असुर ही क्यों न हो वो अपनी शक्ति के साथ उसकी सहायता के लिए आ ही जाती हैं । जो भी उनकी अराधना पूरी शक्ति और भक्ति के साथ करता है माँ दुर्गा उसकी सहायता करने के लिए वचनबद्ध हैं ।
रावण की दुर्गा भक्ति। रावण ने कैसे किया माँ दुर्गा को प्रसन्न :
बंगाल के महान संत कृतिवास ने अपनी रामायण में रावण को न केवल भगवान शिव का महान भक्त दिखाया है, बल्कि उसे माँ दुर्गा का भी महान भक्त दिखलाया है। कृतिवास रामायण के मुताबिक जब भगवान शिव भी रावण को छोड़कर चले जाते हैं और श्रीराम के विरुद्ध युद्ध मे कोई भी ईश्वरीय सत्ता रावण के पक्ष में नहीं रहती है,तब रावण आद्या शक्ति माँ दुर्गा का आह्वान करता है और उन्हें अपने पक्ष में कर लेता है ।
रावण की दुर्गा स्तुति
प्रसंग यह है कि जब श्रीराम के हाथों रावण पहली बार पराजित होता है तो उसे लगता है कि माँ दुर्गा को छोड़कर किसी और की सहायता से श्रीराम को पराजित करना असंभव है, तब रावण माँ दुर्गा का आह्वान करता है –
कोथा मातारिनी तारा , हओ गो सदय । वेखा दिया रक्षा कर मोरे असमय ।।
पतित पाविनी पापहारिणी कालिके ।दीनजन जननी मा जगत पालिके ।।
करुणा नयने चाह कातर किंकरे । ठेकिया छि घोर दाये रामेर समरे।।
आर केह नाहि मोर भरसा संसारे ।शंकर त्यजिल, तेई डाकि मा,तोमारे ।।
तुमि दयामयी माता,शुनेछि पुराणे। तुमि शक्ति तुमि तृप्ति व्याप्त सर्वस्थाने ।।
कृतिवास रामायण ,लंकाकांड
अर्थात – “हे माँ तारिणि तारा! तुम कहां हो? मुझ पर सदय हो जाओ ।इस असमय पर दर्शन देकर मेरी रक्षा करो । हे कालिके! तुम पतित पाविनी पापहारिणि हो । हे जगतपालिके! तुम दीनों की जननी हो ।तुम इस दुखी सेवक की तरफ करुणा से देखो । राम के साथ युद्ध में मैं बड़े संकट में फंस गया हूं। संसार मे कोई भी अब मेरा सहायक नहीं रहा। भगवान शंकर ने भी मुझे त्याग दिया है । इसलिए माँ तुझे पुकारता हूं । तुम दयामयी हो, ऐसा मैंने पुराणों मे सुना है । तुम ही शक्ति, तुम ही तृप्ति हो और तुम ही सभी स्थानों में व्याप्त हो ।”
रावण की भक्ति से प्रसन्न हुईं माँ दुर्गा
रावण की स्तुति से माँ दुर्गा प्रसन्न हो जाती हैं और उसे अपनी गोद में लेकर श्रीराम के विरुद्ध युद्ध में उतर जाती हैं –
स्तवे तुष्टे हये माता दिला दरशन ।बसिलेन रथे कोले करिया रावण ।।
आश्वास करिया कन ,न कर रोदन ।भय नाई भय नाई , बाछा दशानन ।।
आसियाछि आमि ,आर कारे कर डर ।आपनि जुझिब, यदि आसेन शंकर ।।
कृतिवास रामायण , लंकाकांड
अर्थात – रावण की स्तुति से माँ दुर्गा प्रसन्न हो गईं और उन्होंने रावण को दर्शन दिया । माँ दुर्गा रावण को गोद में लेकर रथ पर बैठ गईं। माँ ने रावण को आश्वासन देते हुए कहा कि “रोओ मत ,अब तुम्हें कोई डर नहीं । मैं अब आ गई हूं, तो तुम्हें किसी से डरने की जरुरत नहीं हैं । अब चाहे शंकर भी युद्ध में आ जाएं तो भी मैं स्वयं युद्ध करुंगी ।”
राम – रावण के युद्ध और मां दुर्गा :
इसके बाद निडर होकर रावण श्रीराम से युद्ध करने के लिए फिर से रणभूमि में आता है । तब माँ दुर्गा ( पार्वती ) की गोद में रावण को बैठा देख कर श्रीराम धनुष- बाण छोड़ देते हैं और माँ दुर्गा को प्रणाम करते हैं –
अगुसरि युद्धे एल राम रघुपति । देखलिन रावणेर रथे हेमवती ।।
विस्मित हइया राम फेलि धनुर्बाण ।प्रणाम करिला तारे करि मातृज्ञान ।।
विभिषणे कन तबे , त्रिलोकेर नाथ ।रावण विनाशे मिता ,घटिल व्याघात ।।
कार साध्य विनाशिते पारे दशानने ।रक्षिछे रावणे आजि हर-वरांगने ।।
इसके बाद श्रीराम के इस कृत्य को देखकर विभीषण विस्मित हो जाते हैं। श्रीराम विभीषण से कहते हैं कि “अब रावण के विनाश में अड़चन आ गई है । अब किसका सामर्थ्य है कि वो रावण का वध कर सके, क्योंकि आज स्वयं शिव की भार्या भगवती उसकी रक्षा कर रही हैं ।”
माँ दुर्गा के रावण के पक्ष में जाने से श्रीराम निराश हो जाते हैं :
इसके बाद भगवान श्रीराम अन्याय की तरफ शक्ति को देख कर निराश हो जाते हैं। श्रीराम को निराश देखकर लक्ष्मण , सुग्रीव, हनुमान सभी रोने लगते हैं। श्रीराम को लगता है कि अब सीता का उद्धार नहीं हो सकेगा । व्यर्थ ही उन्होंने समुद्र पार कर युद्ध का इतना बड़ा परिश्रम कर लिया –
देवगण सहिते पूजिला महामाय ।एखाने चिंतित राम , कि करि उपाय ।
आमा हैते नहीं हैल रावण संहार । जनक नंदिनी सीतार ना हैल उद्धार ।।
मित्था परिश्रम कैनु संचय बानर । मिथ्या कष्टे करिलाम बन्धन सागर ।।
मिथ्या करिलाम यत राक्षस संहार ।लक्ष्मणेर शक्तिशेल क्लेशमात्र सार ।।
-कृतिवास रामायण , लंकाकांड
ब्रम्हा जी द्वारा श्रीराम को दुर्गा स्तुति का उपाय बताना :
तब इंद्र के कहने पर ब्रह्मा स्वयं श्रीराम के पास आते हैं और उनसे माँ दुर्गा की अराधना कर उन्हें अपने पक्ष में करने के लिए कहते हैं –
बिधाता कहेन प्रभु, एक कर्म कर बिभु,तबे हबे रावण संहार ।
अकाले बोधन करि , पूज देवी महेश्वरी , तरिबे एक दुख पाथार ।।
इसके बाद श्रीराम ब्रह्मा जी से मां दुर्गा की उपासना का उपाय और मूहुर्त पूछते हैं। ब्रह्माजी उनसे नवरात्रि की षष्ठी के सायंकाल से पूजा शुरु करने का अनुरोध करते हैं।
श्रीराम द्वारा माँ दुर्गा की अराधना :
इसके बाद श्रीराम के द्वारा षष्ठी के सायंकाल से माँ दुर्गा की अराधना शुरु होती हैं । श्रीराम पूरी तन्मयता और शुद्ध भाव से माँ दुर्गा की पूजा शुरु करते हैं । धीरे-धीरे सप्तमी, अष्टमी का दिवस भी बीत जाता है । इसके बाद नवमी की रात माँ दुर्गा छिप कर उनके पीछे आ खड़ी होती हैं। श्रीराम को संदेह होने लगता है कि लगता है कि माँ दुर्गा उनकी पूजा को स्वीकार नहीं कर रही हैं। ऐसे में वो फिर से निराश होने लगते हैं ।
माँ दुर्गा को नील कमल प्रिय है :
विभीषण श्रीराम को उपाय बताते हैं। वो कहते हैं कि माँ दुर्गा को नील कमल प्रिय हैं। वो 108 नील कमलों को माँ दुर्गा की पूजा में अर्पित करें तो माँ दुर्गा प्रसन्न हो जाएंगी । श्रीराम और भी चिंतित हो जाते हैं कि इतने कम समय में दुर्लभ नील कमल कहां से आएंगे, तो हनुमान जी उनके इस कार्य के लिए आगे आते हैं । हनुमान जी जह देवीदह से नील कमल के पुष्प लेने जाते हैं, तो निराश श्रीराम और भी ज्यादा भक्ति भाव से माँ दुर्गा की अराधना करने लगते हैं –
दुर्गे दुखहरा तारा दुर्गति नाशिनी । दुर्गमें सरिणि बिंध्यगिरि निवासिनी ।।
दुराराध्या ध्यानसाध्या शक्ति सनातनी । परात्परा परमा पकृति पुरातनी ।।
नीलकंठ प्रिया नारायणी निराकरा ।सारात्सारा मूलशक्ति सच्चिद साकारा ।।
महिषमर्दिनी महामाया महोदरी ।शिव सीमंतिनि श्यामा शब्बार्णी शंकरी ।।
विरुपाक्षी शताक्षी सारदा शाकंभरी ।भ्रामरी भवानी भीमा धूमा क्षेमकरी ।
काली कालहरा कालाकाले कर पार ।कुल कुंडलिनी कर कातरे निस्तार ।।
लंबोदरा दिगंबरा कलुपनाशिनी ।कृतांत दलिनी काल उरु विलासिनी ।।
-कृतिवास रामायण , लंकाकांड
इधर श्रीराम माँ दुर्गा की स्तुति कर रहे थे ,वहीं देवीदह से पवन पुत्र हनुमान जी तेजी से वायु मार्ग से 108 नील कमल लेकर आ जाते हैं और श्रीराम को समर्पित कर देते हैं ।
श्रीराम का माँ दुर्गा को नील कमल समर्पित करना :
श्रीराम माँ दुर्गा की भक्ति अराधना करते हुए उनके चरणो में नील कमल समर्पित करने लगते हैं । तभी माँ दुर्गा उनकी परीक्षा लेने के लिए छल करती हैं और एक कमल गायब कर देती हैं। श्रीराम जब 107 कमल समर्पित कर देते हैं और 108 वें नील कमल के लिए हाथ बढाते हैं तो उसे गायब पाते हैं। श्रीराम फिर निराश हो जाते हैं । उन्हें लगने लगता है कि उनकी पूजा कभी सफल नहीं होगी । वो रावण को कभी जीत नहीं पाएंगे ।ऐसा सोच कर श्रीराम की आंखो में आंसू आ जाते हैं । श्रीराम रोते हुए माँ दुर्गा की प्रार्थना करने लगते है और उनसे दया करने की प्रार्थना करने लगते हैं । वो कहते हैं कि “देखो माँ मेरी यूं परीक्षा न लो । मैं दीन हूं और मैं विपत्ति में हूं।” लेकिन माँ दुर्गा श्रीराम पर करुणा नहीं करती हैं।
श्रीराम अपनी आँखो की बलि चढ़ाने के लिए तैयार होते हैं :
विलाप करते करते श्रीराम को अचानक एक युक्ति आती है। उन्हें याद आता है कि लोग उन्हें नीले कमल जैसे नयनों वाला कहते हैं । वो लक्ष्मण को बुला कर कहते हैं कि अगर वो अपने नील कमल रुपी नेत्र माँ दुर्गा को समर्पित कर दें तो उनकी यह पूजा पूरी हो जाएगी –
भाविते भाविते राम करिलेन मने ।नीलकमलाक्ष मोरे बोले सर्ब्बजने ।।
नयन युगल मोर फुल्ल नीलोत्पल । संकल्प करिब पूर्ण बूझिबे सकल ।।
एक चक्षु दिबे आमि देविर चरणे ।एत बलि कहे राम अनुज लक्ष्मणे ।।
ऐसा कह श्रीराम ने अपने तरकश से एक बाण निकाला और अपनी आंखे निकाल कर देवी दुर्गा के चरणों में समर्पित करने के लिए तैयार हो गए –
एत बलि तूण हेते लइलेन बाण । उपाड़िते जान चक्षु करिते प्रदान ।।
लेकिन जैसे ही श्रीराम ने अपनी एक आँख से बाण को लगाया माँ दुर्गा प्रगट हो गईं और उन्होंने श्रीराम का हाथ पकड़ लिया। माँ दुर्गा ने कहा कि “हे जगत के पालक प्रभु श्री राम आपका संकल्प पूरा हुआ और आपको अपने नेत्र मुझे समर्पित करने की जरुरत नहीं हैं” –
चक्षु उपाड़िते राम बसिला साक्षाते । हेन काले कात्यायनी धरिलेन हाते ।।
कि कर कि कर प्रभु जगत गोसाईं ।संकल्प तोमार पूर्ण चक्षु नाहि चाई ।।
माँ दुर्गा ने की श्रीराम की स्तुति :
इसके बाद माँ दुर्गा प्रसन्न हो जाती हैं और स्वयं श्रीराम की वंदना करती हैं। वो प्रभु श्रीराम को उनके वास्तविक स्वरुप के बारे में बताती हैं। वो कहती हैं कि “श्रीराम आप ही तो अखिल ब्रम्हांड के सर्वस्व हैं, आप ही सनातन ब्रह्म हैं, आप ही इस चराचर जगत की गति हैं और आप ही अखंड काल हैं” –
शुन प्रभु दयामय ,अखिल ब्रम्हांड चय ,पति तुमि ब्रम्हा सनातन ।
तुमि आदि भगवान अखंड काल समान ,विश्व रहे तब लोम कूपे ।।
तुमि चराचर गति .अच्युत अव्यय अति ,व्यापकता परमाणु रुपे ।।
मायाय मनुष्य तुमि ,चतुर्व्यूह आसि भूमि, नाशिते राक्षस दुराचार ।
भव भाव्य प्रभु हओ, कभु कोन भावे रओ,शुद्धातत्व के जाने तोमार।।
कृतिवास रामायण, लंकाकांड
माँ दुर्गा ने रावण का त्याग कर दिया :
रावणे छाड़िने आमि ,विनाश करहुं तुमि ,एत बलि कैला अंतर्धान ।
नाचे गाये कपिगण, प्रेमानंदे नारायण, नवमी करिला समाधान ।।
श्रीराम के पक्ष में आते ही माँ दुर्गा ने रावण का पक्ष छोड़ दिया और वो रावण को त्याग कर अंतर्धान हो गईं। ये देख कर सभी वानरगण नाचने लगे। श्रीराम भी प्रसन्न हो गए और नवरात्रि की नवमी तिथि को रावण के वध का उपाय श्रीराम को मिल गया।
महाभारत में माँ दुर्गा की पूजा :
महाभारत में भी माँ दुर्गा की व्यापक स्तुति की गई है । माँ दुर्गा का उल्लेख महाभारत में दो स्थानों पर विशेष रुप से हैं। पहला उल्लेख विराट पर्व के अध्याय 6 में आता है जब युधिष्ठिर माँ दुर्गा की स्तुति करते हैं। दूसरा उल्लेख तब आता है जब श्री कृष्ण स्वयं अर्जुन को महाभारत युद्ध के शुरु होने से पहले माँ दुर्गा का आशीर्वाद लेने के लिए कहते हैं । यह उल्लेख भीष्म पर्व के अध्याय 23 मे आता है ।
युधिष्ठिर द्वारा माँ दुर्गा की स्तुति :
जब पांडवो का बारह वर्ष का वनवास पूरा होता है और उन्हें एक वर्ष के अज्ञातवास के लिए मतस्य नरेश विराट के यहां शरण लेने के लिए नगर में प्रवेश करना होता है, तब युधिष्ठिर माँ दुर्गा की स्तुति करते हैं और माँ दुर्गा से विराट नगर में एक वर्ष केअज्ञातवास को सफल बनाने का आशीर्वाद मांगते हैं –
यशोदागर्भसंभूता नारायणवरप्रियाम । नन्दगोपकुले जातां मंगल्या कुलवर्धिनिम ।।
कंसविद्रवणकरीमसुराणां क्षयंकरीम् । शिलातटविनिक्षिप्तामाकाशं प्रतिगामिनीम् ।
वासुदेवस्य भगिनीं दिव्यमालाविभूषिताम् । दिव्याम्बरधरां खंग्खेटकधारिणीम् ।
महाभारत विराट पर्व अध्याय 6, श्लोक 1-4
अर्थात – “जो यशोदा के गर्भ से प्रगट हुई हैं ,जो भगवान नारायण को अति प्रिय हैं ,नंदगोप के कुल में जिसने अवतार लिया है ,जो सबका मंगल करने वाली और कुल को बढ़ाने वाली हैं , जो कंस को भयभीत करने वाली और असुरों का संहार करने वाली हैं , कंस के द्वारा शिला के पट्ट पर पटकी जाने पर आकाश में उड़ गई थीं ,जिनके अंग दिव्य गंध माला और आभूषणों से विभूषित हैं, जिसने दिव्य वस्त्र धारण कर रखा है , जो हाथों में तलवार और ढाल धारण करती हैं , वासुदेव नंदन कृष्ण की बहिन उस दुर्गा देवी का मैं चिंतन करता हूं ।”
देवी दुर्गा की अनेक श्लोकों के द्वारा जब युधिष्ठिर प्रार्थना करते हैं तो देवी दुर्गा उन्हें दर्शन देती हैं और उन्हें वर देती हैं कि शीघ्र ही कौरवों के साथ संग्राम में उनकी विजय होगी । माँ दुर्गा पांडवों के पुत्रों के निरोगी होने और पांडवों के द्वारा राज्य प्राप्त करने का वर भी देती हैं।
माँ दुर्गा का भक्त था अर्जुन :
महाभारत का युद्ध जब प्रारंभ होने वाला था और कौरवों और पांडवो की सेनाएं एक दूसरे के आमने सामने थी, तब श्रीकृष्ण ने अर्जुन को कहा कि वो विजय प्राप्ति के लिए माँ दुर्गा की अराधना करें। अर्जुन युद्ध भूमि में ही माँ दुर्गा की स्तुति करते हैं –
नमस्ते सिद्ध सेनानी आर्ये मंदारवासिनि ।
कुमारि काली कपालि कपिले कृष्ण पिंगले ।।
भद्रकाली नमस्तुभ्यं महाकाली नमोस्तुते ।
चण्डी चण्डी नमस्तुभ्यं तारिणी वरवर्णिनि ।।
कात्यायनी महाभागे करालि विजये जये ।
शिखिपिच्छध्वजधरे नानाभरणभूषिते ।।
अष्टशूलप्रहरणे खंञंगखेटकधारिणि ।
गोपेन्द्रस्यानुजे ज्येष्ठे नन्दगोपकुलोद्भवे ।।
-महाभारत , भीष्म पर्व अध्याय 23, श्लोक 4-8
अर्थात – “मंदराचल पर निवास करने वाले सिद्धों की सेनानेत्री आर्ये ! तुम्हें बार- बार नमस्कार है ।तुम्हीं कुमारी, काली , कपाली,कपिला, कृष्ण पिंगला, भद्रकाली और महाकाली आदि नामों से प्रसिद्ध हो ।तुम्हें बारंबार प्रणाम है । दुष्टों पर प्रचंड क्रोध करने के कारण तुम चंडी कहलाती हो ।भक्तों के संकट को तारने के कारण तुम तारिणी हो , तुम्हारे शरीर का दिव्य वर्ण अत्यंत सुंदर है , मैं तुम्हें प्रणाम करता हूं । महाभागे तुम ही पूजनीय कात्यायनी हो और तुम ही विकराल रुप धारिणी काली हो , तुम ही विजया और जया के नाम से विख्यात हो । मोरपंख की तुम्हारी ध्वजा है ।नाना प्रकार के आभूषण तुम्हारी शोभा बढ़ाते हैं ।तुम भयंकर शूल, खड़ग और खेटक आदि आय़ुधों को धारण करती हो ।नंदगोप के वंश में तुमने अवतार लिया था इसलिए तुम श्रीकृष्ण की बहिन हो ।”
माँ दुर्गा ने अर्जुन को दर्शन दिया :
माँ दुर्गा की स्तुति अर्जुन अनेक श्लोकों से करता है । माँ दुर्गा प्रसन्न होकर अर्जुन को दर्शन देती हैं। माँ दुर्गा अर्जुन को विजय का आशीर्वाद देती हैं और अंतर्धान हो जाती हैं । देवी दुर्गा से वरदान के प्राप्त करने के बाद ही अर्जुन को श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता का उपदेश देते हैं। महाभारत के युद्ध के अंत में माँ दुर्गा के वरदान और श्रीकृष्ण के सहयोग से पांडवो की विजय होती है।