कैसे हो कर्म बंधनों से मुक्ति
इस अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण ने शरीर और आत्मा की सत्यता को बताया है..या यूं कहें कि भगवान ने शरीर और आत्मा के रहस्य से पर्दा उठाया है (इसे हम आत्मज्ञान का भी नाम दे सकते हैं)। भगवान ने कहा है कि यह शरीर नाशवान है
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ता: शरीरिण: । अनाशिनोSप्रमेयस्य तस्माद्दुध्यस्व भारत ।।
परंतु आत्मा न तो किसी काल में जन्मता है और न मरता ही है यह अजन्मा, नित्य, सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मरता (अजो नित्य: शाश्वSतोयं पुराणो । न हन्यते हन्यमाने शरीरे ।। ) इसलिए आत्मा केवल अपना शरीर बदलती है..मौजूदा शरीर खत्म हुआ आत्मा दूसरे शरीर में आ गई
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय नवानि गृह्नाति नरोSपराणि। तथा शरीराणि विहाय जीर्णान्यन्यानि संयाति नवानि देही।।
भगवान ने साफ कहा है कि सम्पूर्ण प्राणी जन्म से पहले अप्रकट थे और मरने के बाद भी अप्रकट हो जाने वाले हैं केवल बीच में ही प्रकट होते हैं
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत। अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना।।
इस अध्याय में भगवान ने ज्ञानयोग (ज्ञान) और कर्मयोग(कर्म) की बात समझाई है ।ज्ञानयोग (ज्ञान) के संदर्भ में भगवान ने उस रहस्य से पर्दा उठाया कि शरीर नश्वर है लेकिन आत्मा नश्वर नहीं है.अमर है, इसलिए जिस शरीर में तू है और तेरे जो नीयत कर्तव्य है बस तू उसको कर उसके लाभ-हानि को नहीं देख.. अब ये नीयत कर्म (कर्तत्व) क्या है और कैसे करना है इसकी व्याख्या भगवान ने अध्याय 3 में की है।
कर्मयोग (कर्म) के अंतर्गत कर्तव्य कर्मों को करते हुए सांसारिक मोह-माया से उपर उठकर अपनी बुद्धि को स्थिर करना होगा (समबुद्धियुक्त/स्थिरबुद्धि बनना होगा) यानी कि समत्वरुप योग में लगना होगा और यही कर्मबंधनों से छुटने का एकमात्र उपाय है
बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते। तस्मधोगाय युज्यस्व योग: कर्मसु कौशलम् ।।
और ये समत्वरुप योग तुझे तब हासिल होगा जब तू मोहरुपी दलदल को पार कर लेगा और तेरी बुद्धि परमात्मा में अचल और स्थिर ठहर जाएगी
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्र्चला। समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि।।
भगवान ने समत्वरुप योग हासिल करने का रास्ता भी बताया। भगवान ने कहा कि समत्वरुप योग के लिए तुझे अपनी इंद्रियों को वश में करके मेरे परायण होकर ध्यान में बैठना होगा और जब तू मेरे ध्यान में बैठेगा तो तेरी बुद्धि स्थिर हो जाएगी
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्पर: । वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।
भगवान ने यह भी कहा है कि ऐसा नहीं कि इस शरीर में ही तू स्थिरबुद्धि या स्थितप्रज्ञ हो जाएगा ..हो सकता है तूझे कई योनियों तक भटकना पड़े लेकिन जिस काल में भी तू अपने मन में स्थित संपूर्ण कामनाओं को त्याग देगा और आत्मा से आत्मा में ही संतुष्ट रहेगा उस काल में तू स्थिरबुद्धि या स्थितप्रज्ञ हो जाएगा
प्रजहाति यदा कामान्सर्वान्पार्थ मनोगतान्। आत्मन्येवात्मना तुष्ट: स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते।।
अब प्रश्न ये उठता है कि ऐसे स्थितप्रज्ञ व्यक्ति की पहचान कैसे होगी? तो भगवान ने कहा है कि जो पुरुष स्नेह रहित हुआ शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है न द्वेष करता है उसकी बुद्धि स्थिर है
य: सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् । नाभिनन्दति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता।।