भगवान द्वारा ज्ञानयोग (ज्ञान) व कर्मयोग (कर्म) की बात बताने से अर्जुन संशय में पड़ गया और भगवान को कहने लगा कि अगर आपको कर्मयोग से ज्यादा श्रेष्ठ ज्ञानयोग लगता है तो मुझे कर्मयोग में क्यों फंसाते हैं..लेकिन फिर अपनी गलती सुधारते हुए कहता है कि भगवान मेरे लिए जो कल्याणकारी है उस बात को बताइये
इस अध्याय में भगवान ने कर्मयोग और ज्ञानयोग को विस्तार से समझाया है, भगवान कहते हैं कि दो प्रकार की साधना (निष्ठा) मैंने पहले से ही बताया हुआ है (अध्याय-2 में) एक है ज्ञान योगियों की साधना (ज्ञान योग या सांख्य योग) और दूसरी कर्म योगियों की साधना (कर्मयोग या बुद्धि योग), लेकिन ये दोनों ही साधना एक दूसरे से जुड़ी हुई हैं और दोनों एक दूसरे की पूरक हैं
न कर्मणामनारम्भान्नैष्कर्यं परुषोSश्रुते।
न च सन्नयसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति
यानी कि कर्मयोग और ज्ञानयोग मार्ग दोनों एक साथ ही चलते हैं। भगवान कहते हैं कि कर्म तो करना ही है क्योंकि हर मनुष्य जन्म से ही प्रकृति के वशीभूत है और कर्म करने के लिए बाध्य किया जाता है
न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्।
कार्यते ह्यवश: कर्म सर्व: प्रकृतिजैर्गुणै
लेकिन भगवान कहते हैं कि कर्म दो तरीके से करना है एक है इंद्रियों को वश में करना व दूसरा है यज्ञ के द्वारा भगवान की साधना..इंद्रियों को वश में करके कर्म करने वाला व्यक्ति श्रेष्ठ होता है। भगवान ब्रह्मा ने ये व्यवस्था पहले से ही की हुई है कि यज्ञ के द्वारा भगवान का आह्वान करते रहना है यानी यज्ञ से देवताओं को उन्नत करना है और देवता मनुष्य को उन्नत करेंगे और इस तरह मनुष्य परमकल्याण को प्राप्त होगा।
यज्ञ से प्रसन्न देवता तुमको इच्छित भोग देंगे जो तुम्हें देवताओं को अर्पित करना है जो ऐसा नहीं करेगा वह चोर होगा। देवता को अर्पित करने के बाद बचे हुए अन्न को खानेवाला पुरुष श्रेष्ठ कहलाएगा और सभी पापों से मुक्त हो जाएगा. संपूर्ण प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, अन्न की उत्पत्ति वृष्टि से होती है, वृष्टि यज्ञ से होती है और यज्ञ विहित कर्मों से उतपन्न होता है। कर्म करने वाला जो समुदाय है वे वेद से उत्पन्न होते हैं और वेद परमात्मा से उत्पन्न हुआ है। इसलिए परमात्मा सदा ही यज्ञ में प्रतिष्टित है। तो मनुष्य को इस परंपरा के अनुकूल अपने कर्तव्यों का पालन करना है। भगवान ने ये भी कहा कि जो मनुष्य आत्मा से ही संतोषी या संतुष्ट प्रवृत्ति का हो जाता है उसके लिए फिर कोई कर्तव्य शेष नहीं रह जाता
यस्तवात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्र्च मानव:।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्दते।।
भगवान ने यहां साफ संदेश दिया है कि जो कर्म करना है वह आसक्तरहित (बिना किसी लाभ-हानि की चिंता किए बिना) होकर करना है और जो मनुष्य ऐसा करेगा वह परमात्मा को प्राप्त हो जाएगा
तस्मादसक्त: सततं कार्यं कर्म समाचर।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पूरुष: ।।
श्रेष्ट पुरुष को ऐसा ही करना चाहिए क्योंकि साधारण मनुष्य उनका अनुसरण करता है और भगवान होने के नाते मुझे भी कर्म करना ही है ताकि साधारण मनुष्य उसका अनुसरण कर सके। यानी कि जो परमात्मा में अटल स्थित ज्ञानी पुरुष है उसे शास्त्रविहित समस्त कर्म भलीभांति करना है और साधारण मनुष्य से भी करवाना है। भगवान ये भी बताते हैं कि समस्त कर्म प्रकृति के गुणों (राग,भय और क्रोध) से प्रेषित होते हैं लेकिन जो गुणविभाग और कर्मविभाग के तत्व को जान जाता है वह प्राकृतिक दोषों में आसक्त नहीं होता। भगवान कहते हैं कि मुझ अन्तर्यामी परमात्मा में लगे हुए चित्त द्वारा अपने सभी कर्मो को मुझमें अर्पण करके आशारहित, ममतारहित और संतापसहित होकर कर्म कर
मयि सर्वाणि कर्माणि सन्न्यस्याध्यात्मचेतसा।
निराशीर्निमर्ममो भूत्वा युध्यस्व विगतज्वर ।
जो मेरे इस मत का अनुसरण करते हैं वह सम्पूर्ण कर्मों से छूट जाते हैं। और जो मुझ में दोषारोपण करते हैं उन्हें नष्ट हुआ ही समझ। भगवान कहते हैं कि मनुष्य को अपने इंद्रीय दोष यानी राग और द्वेष के वश में नहीं होना चाहिए क्योंकि ये दोनों उसके कल्याणमार्ग में विघ्न उत्तपन्न करेंगे
इन्द्रियस्येन्द्रियस्यार्थे रागद्वेषौ व्यवस्थितौ।
तयोर्न वशमागच्छेत्तौ ह्यस्य परिपन्थिनौ।।
फिर अर्जुन प्रश्न करता है कि मनुष्य किससे प्रेरित होकर पाप करता है? तो भगवान कहते हैं रजोगुण से उत्पन्न हुआ काम ही मनुष्य का सबसे बड़ा शत्रु है, ये बड़ा पापी होता है तू इसे ही अपना दुश्मन जान।
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भव:।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्।।
ये काम ही तुम्हारे मन, बुद्धि और इंद्रिय को अपने वश में करके रखता है और तुम्हारे ज्ञान को अच्छादित करता रहता है
इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्।।
इसलिए भगवान कहते हैं कि सबसे पहले तू अपने इंद्रियों को वश में कर क्योंकि इंद्रियों से पर मन है, मन से भी पर बुद्धि है और बुद्धि से पर वह आत्मा है यानी इंद्रियों को वश में कर लिया तो मन भी वश में हो जाएगा और अपनी बुद्धि से अत्यंत श्रेष्ठ आत्मा को जान पाएगा
इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्य: परं मन: । मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धे: परतस्तु स:।