अगर हम अर्जुन को हमारी तरह एक साधारण मनुष्य मानें तो प्रथम अध्याय में अर्जुन को भी उस सांसारिक व प्राकृतिक संवेदनाओं (मोह-माया) से ग्रसित दिखाया गया है जिसे हम लोग अपने जीवन में महसूस करते हैं। परिवार से अत्यधिक मोह, संबंधियों व गुरुजनों के प्रति अत्यधिक आदर, वस्तुओं व रिश्तों को अहमियत देना, प्रकृतिजन्य दोष जैसे भय, भम्र, दुख-सुख, लाभ-हानि, पाप-पुण्य इत्यादि का हावी होना । युद्ध भूमि में खड़े अर्जुन के मन में भी तीन तरह के विषाद उत्पन्न हुए। प्रथम उसका पारिवारिक मोह, जब वो कहता है कि धृतराष्ट्र पुत्रों(यानी अपने कुलवंशियों) को मारना उचित नहीं है क्योंकि कुटुंब नष्ट होने से हम सुखी नहीं होंगे
तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्खबान्धवान्।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिन: स्याम माधव।।
दूसरा विषाद अर्जुन के मन बैठी उस समय की प्रचलित धाराणाएं ,जब वो कहता है कि कुल का नाश हो जाने से सनातन धर्म का नाश हो जाता है और धर्म का नाश हो जाने से सारे कुल को पाप लगता है
कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलर्धमा: सनातना: ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोSभिभवत्युत।
अर्जुन का तीसरा विषाद उसके खुद के प्रकृतिजन्य दोष थे, जब वह अपने सामने अपने संबंधियों को युद्ध के लिए आतुर देखता है और अत्यंत दुख, भ्रम में पड़ जाता है और कहता है कि मेरे हाथ से गाण्डीव धनुष खिसक रहा है, त्वचा जल रही है, मन भ्रमित हो रहा है और मैं खड़ा रहने में समर्थ नहीं हूं
गाण्डीवं स्त्रंसते हस्तात्त्वक्चैव परिदह्यते।
न च शन्कोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मन:।।
इसलिए अर्जुन को अपने परिवारजनों के प्रति हथियार उठाने से घबराहट होने लगी और उसने अपनी करुणा भगवान कृष्ण को बताई। हमारी ही तरह अर्जुन को भी लगता है कि हत्या पाप है, इससे कुल का नाश हो जाता है, सनातन कुल धर्म नष्ट हो जाता है और अगर पाप बढ़ गया तो कुल की स्त्रियां दूषित हो जाएंगी और वर्णसंकर उतपन्न हो जाएगा और हम नरक के भागी होंगें..ये मान्यताएं तब भी (महाभारत समय) प्रचलित थीं और अब भी हैं लेकिन ऐसे विचार हमें क्यों आते हैं? क्या इसे हम अपनी अज्ञानता कहेंगे या नहीं इसकी व्यख्या तो भगवान कृष्ण आगे करेंगें।।