shuddh Geeta

श्रीमद्भगवद्गीता : कर्म, अकर्म और विकर्म क्या हैं ( अध्याय-4, श्लोक 16- 18)

भगवान अध्याय 4 के श्लोक 13 में बताते हैं कि चारों वर्णों की सृष्टि मैंने ही की है । भगवान ने चारों वर्णों की सृष्टि के दो आधार बताएं हैं। पहला है- ‘गुण’ अर्थात सत् ,रजस और तमस जो त्रिगुणात्मक माया कहलाती है। इन तीनों गुणों के आधार पर ही किसी वर्ण में कोई जीवात्मा जन्म लेती है।

जीवात्मा के शरीर धारण करने का दूसरा आधार उसके कर्म हैं। अब ये कर्म क्या हैं इसकी मीमांसा भगवान आगे के श्लोंकों में कर रहे हैं, साथ ही ये भी बता रहे हैं कि कर्म , अकर्म और विकर्म क्या हैं?  क्यों कर्म, अकर्म और विकर्म के स्वरुपों को समझना बहुत ही कठिन है?

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌॥

kiṅ karma kimakarmēti kavayō.pyatra mōhitāḥ.
tattē karma pravakṣyāmi yajjñātvā mōkṣyasē.śubhāt৷৷4.16৷৷

अर्थः- कर्म क्या है? अकर्म क्या है? इस प्रकार इस विषय में कवि यानी विद्वान भी मोहित हैं। वह कर्म मैं तुम्हें अच्छी प्रकार से बताऊँगा जिसे जानकर तू अशुभ से मुक्त हो जाओगे।

व्याख्याः- भगवान अध्याय 4 के श्लोक 14 में कह चुके हैं कि “न तो मुझे कर्म लिप्त करते हैं और न ही मेरी लालसा कर्मफल में है। इस प्रकार जो मुझे जानता है वो कर्मो से नहीं बंधता है।“

भगवान अध्याय 4 के श्लोक 15 में कहते हैं कि पहले मुमक्ष पुरुषों के द्वारा भी इस प्रकार जान कर कर्म किया जा चुका है इसलिए, तू भी पूर्वजों के द्वारा पूर्वकाल में किए जाने वाले कर्मों को ही कर

भगवान इन दो श्लोकों में तीन बातें कहते हैं। पहली ये कि अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश होने की वजह से वे त्रिगुणात्मक माया का आवरण लेकर जो शरीर धारण करते हैं, उनका वह शरीर कर्मों के प्रति लिप्त नहीं होता।

  1. भगवान जिस ईश्वर प्राप्ति हेतु किये जाने वाले कर्म या यज्ञकर्म को करने की बात कर रहे है , उसके फल के प्रति लालसा भी उन्हें नहीं है, क्योंकि उसका लक्ष्य अविनाशी सत् को प्राप्त करना है । चूंकि वो जानते हैं कि वे स्वयं अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश हैं तो फिर वो स्वयं को प्राप्त करने का लक्ष्य कैसे रख सकते हैं?
  2. वो ये कहते हैं कि सिर्फ वे ही नहीं बहुत सारे ऐसे और भी लोग हैं, जिन्हें इस बात का ज्ञान है कि वो सभी अविनाशी सत् के ही अँश हैं। इसलिए वो भी भगवान की तरह कर्मों के बंधन में नहीं बंधते हैं।

भगवान और भक्त एक हैं

भगवान कहते हैं कि “सिर्फ मैं ही नहीं बल्कि बहुत सारे मुमुक्षु अर्थात अविनाशी सत् की प्राप्ति में संलग्न लोग भी ये जानकर कर्म करते हैं”। अर्थात कर्मों में लिप्त न होना और कर्मों के फल की लालसा न रखना सिर्फ भगवान का विशेषाधिकार नहीं है, बल्कि मुमुक्षु लोग भी ऐसा करते रहे हैं और अविनाशी सत् को प्राप्त करने में सफल रहे हैं।

भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तू भी ऐसे मुमुक्षु लोगों की तरह ऐसा कर्म कर सकता है। ये संभव है। लेकिन इसे करने से पहले ये जानना आवश्यक है कि आखिर कर्म क्या है?

किं कर्म किमकर्मेति कवयोऽप्यत्र मोहिताः ।
तत्ते कर्म प्रवक्ष्यामि यज्ज्ञात्वा मोक्ष्यसेऽशुभात्‌॥
kiṅ karma kimakarmēti kavayō.pyatra mōhitāḥ.
tattē karma pravakṣyāmi yajjñātvā mōkṣyasē.śubhāt৷৷4.16৷৷

अर्थः- अर्थः- कर्म क्या है? अकर्म क्या है? इस प्रकार इस विषय में कवि यानी विद्वान भी मोहित हैं। वह कर्म मैं तुम्हें अच्छी प्रकार से बताऊँगा जिसे जानकर तू अशुभ से मुक्त हो जाओगे।

व्याख्याः- भगवान कर्म, अकर्म की परिभाषा देने से पहले यहां बता रहे हैं कि कर्म और अकर्म की परिभाषा को जानना इतना आसान नहीं है । इस विषय में बड़े- बड़े कवि यानी विद्वान भी मोहित हैं।

हम अक्सर लोगों से यही सुनते हैं कि अच्छा कर्म करो, किसी को नहीं सताओं , किसी के साथ दुष्टता का व्यवहार नहीं करो, असत्य मत बोलो। लेकिन युधिष्ठिर ने तो असत्य बोला था। अर्जुन ने भी अज्ञातवास के वक्त वृहन्नला बन कर असत्य बोला था। तो क्या इन सांसारिक कर्मों को ही कर्म कहा जाता है?

ये सब सांसारिक कर्म हैं, लेकिन भगवान जिस कर्म के बारे में बता रहे हैं वो निश्चयात्मक बुद्धि से समत्व भाव से ईश्वर प्राप्ति के लिए किया जाने वाला वो प्रयास है जो अंतर्जगत में किया जाता है । वो यज्ञ कर्मकांड नहीं जिसमें हम देवताओं की तुष्टि के लिए पूजा करते हैं , हवन करते हैं। भगवान जिस कर्म की बात करते हैं उसे समझना उनके ही शब्दों में बड़े-बड़े विद्वानों के लिए भी मुश्किल है।

कवि कौन है ? मुमुक्षु और कवि में क्या अंतर है ?

भगवान दो प्रकार के पुरुषों का उदाहरण देते हैं। पहले को मुमुक्षु कहते हैं, जो कर्मों में लिप्त नहीं होता और न ही कर्मफल की लालसा उसे होती है। वो राग द्वेष से परे होता है , शम दम आदि नियमों से बंधा होता है और नित्य उस अविनाशी सत् के प्रति ध्यान से युक्त होता है । राजा जनक, शिबि, ययाति, नहुष आदि राजर्षि उसके उदाहरण हैं।

भगवान कहते हैं कि तू भी अपने पूर्वजों (जिन्हें वो राजर्षि कहते हैं) जो कि मुमुक्षु रहे हैं, वैसा ही कर्म कर न कि मोहित कवियों जैसा कर्म ।

क्या वाल्मीकि रामायण का उदेश्य सत्य की प्राप्ति है?

कवि वो है जो अप्रकट भावों को शब्दों में प्रगट कर काव्य रचना करता है । अप्रगट तो अविनाशी सत् भी है लेकिन कवि अविनाशी सत् को कई बार प्रगट करने में असफल रहते हैं। आदि कवि वाल्मीकि जी हुए है, वो अविनाशी ईश्वर के सत् को जानते थे, लेकिन उन्होंने जिस रामायण महाकाव्य की रचना की उसका उद्देश्य उन्होंने सीमित कर दिया।

रामायण के बालकांड के सर्ग 4 में उन्होंने रामायण की रचना का उद्देश्य बताया है –

काव्यं रामायणं कृत्स्न्नं सीतायाश्चरितं महत् |
पौलस्त्यवधमित्येवं चकार चरितव्रतः || १-४-७

अर्थः- रामायण काव्य की रचना का उद्श्य सीता के चरित्र की महानता और रावण के वध का वर्णन है।

वाल्मीकि जी ईश्वर के तत्व को जानते थे और रामायण की रचना के द्वारा अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश श्रीराम के स्वरुप का विवेचन करने निकले थे, लेकिन इस मार्ग से विचलित होकर उन्होंने रामायण के उद्देश्य को सांसारिक लक्ष्यों तक सीमित कर दिया।

रामायण पूरी तरह से वेदसम्मत है, रामायण के अंदर का ज्ञान ईश्वर प्राप्ति करा सकता है , लेकिन जाने क्यों वाल्मीकि जी ने इसके उद्देश्य को सीमित कर दिया और इसे फलयुक्त बना दिया, इसलिए भगवान कहते हैं कि बड़े- बड़े कवि भी कर्मों के विषय में मोहित हो जाते हैं।

 किसके जैसा कर्म करें ?

भगवान कर्मों की कठिनता के बारे में बताते हुए अर्जुन को कहते हैं कि मुमुक्षु पुरुषों की तरह कर्मों से अलिप्त होकर और बिना कर्मों के फल की लालसा के लिए आचरण युक्त कर्म को करना चाहिए, न कि कवियों जैसा फलयुक्त कर्म करना चाहिए जैसा वाल्मीकि जी ने रामायण लिखने के कर्म को फलयुक्त ये उद्देश्य से सीमित कर दिया।

भगवान ‘कर्म’ शब्द से मुमुक्षु पुरुषों के द्वारा अविनाशी सत् की अराधना करने से लगाते हैं और ‘अकर्म’ शब्द से तात्पर्य है उस अविनाशी सत् के स्वरुप का ज्ञान । भगवान कहते हैं कि मैं तुम्हें कर्मों के वो प्रकार बताऊँगा जैसा मुमुक्षु पुरुष करते हैं, जिससे तू इस अशुभता यानि संसार चक्र या बंधन से मुक्त हो जाएगा।

यहां श्लोक 16 में ‘यद् ज्ञात्वा’ से तात्पर्य आचरण से है क्योंकि जानना वही है जिसे आचरण में लाया जा सके। मुमुक्षु पुरुष जिसे जानते हैं उसे आचरण में लाते है, कवि उसे आचरण में भी लाए ये जरुरी नहीं,क्योंकि वो फल की आकांक्षा से युक्त भी हो सकता है ।

कवि वाल्मीकि और मुमुक्षु जनक में अंतर

आदिकवि वाल्मीकि जी ने माता सीता पर लगे कलंक को देखा था, रावण के द्वारा माता सीता का अपहरण करने पर उनके चरित्र पर जो मिथ्या कलंक लगा था और माता सीता को दोबारा वनवास लेना पड़ा था, ये वाल्मीकि ने प्रत्यक्ष देखा था।

 माता सीता वाल्मीकि जी के आश्रम में रही थीं। वाल्मीकि जी श्रीराम के द्वारा माता सीता के त्याग से दुखी थे , वाल्मीकि जी माता सीता पर लगे इस कलंक को खत्म करना चाहते थे। वाल्मीकि जी ये भी जानते थे कि इस कलंक का जिम्मेवार रावण था जिसने माता सीता का अपहरण किया था।

इन दो उद्देश्यों को ध्यान में रख कर ही वाल्मीकि जी ने रामायण की रचना की थी । हालांकि वो अविनाशी सत् के बारे में जानते थे लेकिन फल की आंकाक्षा इतनी बलवती थी कि उन्होंने अविनाशी सत् की प्राप्ति को अपना लक्ष्य न बना कर माता सीता को कलंक से मुक्त कराना अपना लक्ष्य बना लिया।

दूसरी तरफ रामायण में मिथिला नरेश जनक भी हैं जिन्हें विदेह भी कहा जाता है । वो मुमुक्षु पुरुष थे। वो राजर्षि थे। वो इस संसार में रह कर भी सांसारिक कर्मों से लिप्त नहीं थे । दूसरे वो इसे अपने आचरण में भी उतार रहे थे। उनका कर्म ईश्वर की प्राप्ति था, इसलिए वो ईश्वर के यथार्थ स्वरुप को जानने के लिए विद्वानों से शास्त्रार्थ  रुपी अकर्म(ज्ञान प्राप्ति) कर रहे थे।

जनक माता सीता के पिता थे लेकिन उनका उद्देश्य सांसारिक नहीं था बल्कि उनके कर्म भगवद् अराधना के लिए थे। वो अविनाशी सत् के यथार्थ स्वरुप को जानने के लिए ज्यादा उत्सुक थे। इसलिए भगवान अर्जुन को कवियों की तरह नहीं बल्कि मुमुक्षु पुरुषों की तरह कर्म करने के लिए कहते हैं।

विकर्म क्या है?

भगवान कर्म और अकर्म के अलावा विकर्म के बारे में भी सूचित करते हैं, विकर्म क्या है और ये कर्म से कैसे अलग है। इस श्लोक में भगवान कहते हैं इन तीनों को जानना चाहिए –

कर्मणो ह्यपि बोद्धव्यं बोद्धव्यं च विकर्मणः ।
अकर्मणश्च बोद्धव्यं गहना कर्मणो गतिः ॥
karmaṇō hyapi bōddhavyaṅ bōddhavyaṅ ca vikarmaṇaḥ.
akarmaṇaśca bōddhavyaṅ gahanā karmaṇō gatiḥ৷৷4.17৷৷ 

अर्थः- कर्म के विषय में भी जानना चाहिए और अकर्म( ज्ञान) के विषय में भी जानना चाहिए तथा विकर्म के बारे में भी जानना चाहिए, क्योंकि कर्म की गति गहन है।

व्याख्याः- ‘विकर्म’ से तात्पर्य सांसारिक कर्मों से है। इसे नित्य ,नैमैत्तिक और काम्य कर्मों में विभक्त किया गया है। ‘नित्य कर्म’ से तात्पर्य है प्रतिदिन ईश्वर की प्राप्ति हेतु किया जाने वाला कर्मकांडीय कर्म, जैसे रोज गायत्री मंत्र का जप या अपने इष्ट देवता के मंत्रों का जप।

‘नैमैत्तिक कर्मों’ से तात्पर्य है कर्मकांडीय यज्ञ के द्वारा देवताओं को प्रसन्न करना और उनसे भौतिक सुखों की प्राप्ति करना। ‘काम्य कर्मों’ से तात्पर्य है रोज के वे कार्य जिससे आपकी इच्छाओं की पूर्ति होती है। संतान प्राप्ति के लिए प्रयास करना, पैसे कमाने के लिए नौकरी करना आदि।

भगवान कहते हैं कि अविनाशी सत् की प्राप्ति के लिए समत्व भाव से मुमुक्षु पुरुषों के द्वारा किए जाने वाले कर्मों को विषय में जानना चाहिए। ईश्वर के स्वरुप को जानने के लिए ज्ञान अर्जन जैसे ‘अकर्म’ के विषय में जानना चाहिए, जिसे शास्त्रार्थ या विद्वानों के प्रवचनों को सुन कर जाना जा सकता है।

इसके अलावा सांसारिक इच्छाओं की पूर्ति के लिए किये जाने वाले ‘विकर्म’ के बारे में भी जानना चाहिए। कई बार हम सोचते हैं कि मंत्र जप लेने से अविनाशी सत् की प्राप्ति हो जाएगी। लेकिन ऐसा जरुरी नहीं है क्योंकि भगवान कहते हैं किन इन तीनों मे अंतर करना बहुत कठिन है। कर्म की गति को समझना कवियों के लिए भी मुश्किल है फिर आम जनों की बात ही अलग है।

भगवान ने पहले ही कहा है कि मोक्ष प्राप्ति के लिए निश्ययात्मक बुद्धि से समत्व भाव किया जाने वाला प्रयास ही कर्म कहलाता है। इसका अर्थ है कि बिना निश्चयात्मक बुद्धि से समत्व भाव के बिना अगर हम पूजा पाठ भी करते हैं तो हमें मोक्ष की प्राप्ति नहीं हो सकती है।

कर्मण्य कर्म यः पश्येदकर्मणि च कर्म यः ।
स बुद्धिमान्मनुष्येषु स युक्तः कृत्स्नकर्मकृत्‌ ॥
karmaṇyakarma yaḥ paśyēdakarmaṇi ca karma yaḥ.
sa buddhimān manuṣyēṣu sa yuktaḥ kṛtsnakarmakṛt৷৷4.18৷

अर्थः- जो पुरुष कर्म में अकर्म( आत्म ज्ञान) और अकर्म में कर्म में अकर्म देखे, वह मनुष्यों में बुद्धिमान है, वही युक्त है और सभी कर्मों को करने वाला है।

व्याख्याः- निश्चयात्मक बुद्धि से समत्व भाव से युक्त होकर अविनाशी सत् की प्राप्ति हेतु जो अपने अंतर्जगत मे उतरता है वही कर्म करता है। जो आत्मज्ञान हेतु मुमुक्षु पुरुषों के द्वारा ज्ञान को ग्रहण करने का कार्य करता है वो तो ईश्वर प्राप्ति ही कराता है इसलिए वो अकर्म होते हुए भी कर्म है और ऐसा कर्म ही अकर्म है।

भगवान कहते हैं कि निश्चयात्मक बुद्धि से युक्त वो पुरुष जो कर्म और अकर्म में एकता स्थापित करता है, वही बुद्धिमान है। कई बार हम ज्ञानियों से ज्ञान प्राप्ति (अकर्म) करते हैं, लेकिन उसे ईश्वर प्राप्ति हेतु कर्म में नहीं लगाते , वैसा ज्ञान व्यर्थ है।

 भगवान कहते हैं कि जो कर्म और अकर्म से युक्त है वही निश्चयात्मक बुद्धि से और समत्व भाव से युक्त होकर सब कर्मों( ईश्वर प्राप्ति के लिए किया जाने वाला प्रयास) को करने वाला है । 

Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published.

Translate »