श्रीमद् भगवद्गीता | पाप और कामरुपी शत्रु | अध्याय तृतीय

भगवान अध्याय 2 और 3 में लगातार अर्जुन को समत्व बुद्धि, कामरुपी से युक्त होकर अविनाशी सत् की प्राप्ति हेतु कर्मयोग या यज्ञकर्म करने का उपदेश दे रहे हैं। अर्जुन चाहता भी है कि वो भगवान के बताए हुए रास्ते पर चले, परंतु उसका संशय यही है, कि क्या किसी के संकल्प मात्र से यह सिद्धि हो सकती है ? वो कौन सा शत्रु है जो मनुष्य को न चाहते हुए भी पाप कर्म में लिप्त कर देता है और उसे अविनाशी सत् की प्राप्ति हेतु किये जाने वाले यज्ञकर्म से विमुख करने हेतु उसकी बुद्धि को हर लेता है ।

अर्जुन भगवान से प्रश्न करते हुए पूछता है कि –

अर्जुन उवाच

अथ केन प्रयुक्तोऽयं पापं चरति पुरुषः ।
अनिच्छन्नपि वार्ष्णेय बलादिव नियोजितः ॥
atha kēna prayuktō.yaṅ pāpaṅ carati pūruṣaḥ.
anicchannapi vārṣṇēya balādiva niyōjitaḥ৷৷3.36৷৷

अर्थः- अर्जुन बोले- हे वार्ष्णेय ! फिर यह पुरुष न चाहते हुए भी किससे प्रेरित होकर पापकर्म करता है, मानो उसे पापकर्म में जबरदस्ती लगा दिया गया हो।

व्याख्याः- अर्जुन भी तो यही चाहता है कि वो हिंसा और पाप से भरे हुए इस युद्ध को न करे और भिक्षा मांग कर अहिंसक रुप से एक  निर्वसित जीवन व्यतीत करे। अर्जुन भले ही इस युद्ध में अपनी महात्वाकांक्षाओं को लेकर, अपने और अपने भाइयों और पत्नी के उपर हुए अन्याय का बदला लेने के लिए आया था। लेकिन, उसे इसके लिए भी रक्त बहाने का कर्म करना उचित नहीं लगा।

अर्जुन जानता है कि दुर्योधन आदि को भी यह मालूम है कि वो अन्याय के साथ हैं । दुर्योधन, भीष्म, द्रोण ये सभी ज्ञानी पुरुष थे , फिर भी अपनी जान की परवाह किये बिना हिंसक युद्ध कर्म को करने के लिए तत्पर हैं। अर्जुन का सवाल है कि इस ज्ञान के होते हुए कि हम जो कार्य कर रहे हैं वो पाप है , फिर भी मनुष्य ऐसा क्यों करता है । आखिर वो कौन सी शक्ति है जो विवेकशील मनुष्य को भी पापकर्म करने के लिए जबरन प्रेरित करती है।

कामरुपी तृष्णा सभी समस्याओं की जननी है

श्रीभगवानुवाच
काम एष क्रोध एष रजोगुणसमुद्भवः ।
महाशनो महापाप्मा विद्धयेनमिह वैरिणम्‌ ॥
kāma ēṣa krōdha ēṣa rajōguṇasamudbhavaḥ.
mahāśanō mahāpāpmā viddhyēnamiha vairiṇam৷৷3.37৷৷

अर्थः- भगवान बोले- रजोगुण से उत्पन्न यह काम ही क्रोध है, यह बहुत खाने वाला (यानी अतृप्त) महापापी है। यहां तू उसको शत्रु जानो।

व्याख्याः- भगवान बुद्ध ने सभी दुःखों का मूल तृष्णा को बताया है । तृष्णा से ही अज्ञान या अविद्या की उत्पत्ति होती है । अविद्या से मोह का जन्म होता है , मोह रुपी आसक्ति से क्रोध का जन्म होता है , और यह क्रोध व्यक्ति के विवेक को हर लेती है ।

भगवान भी गीता के अध्याय 2 के कई श्लोकों में यह बात कहते हैं –

श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान्‌ सर्वान्पार्थ मनोगतान्‌ ।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥2.55॥
prajahāti yadā kāmān sarvān pārtha manōgatān.
ātmanyēvātmanā tuṣṭaḥ sthitaprajñastadōcyatē৷৷2.55৷৷

अर्थः- भगवान कहते हैं – हे पार्थ ! मन से उसी में तुष्ट साधक जब सभी मनोगत कामनाओं को पूर्ण रुप से त्याग देता है, तब वह स्थितिप्रज्ञ कहा जाता है ।

इस श्लोक के अर्थ को विपरीत करके देखें तो हमें काम या तृष्णा के दुष्प्रभावों के बारे में जानकारी मिलती है। भगवान कहते हैं कि जो सभी मनोगत कामनाओं (काम) को त्याग देता है वह स्थितिप्रज्ञ हो जाता है । इसका विपरीत अर्थ यह हो सकता है कि जो सभी कामनाओं या विषयों में पड़ जाता है, वो विवेकहीन या मूढ़ हो जाता है ।

मनुष्य संसार की तरफ क्यों भागता है?

अर्जुन के इस सवाल का उत्तर भगवान पहले भी दे चुके हैं, कि व्यक्ति विवेकशील होने के बाद भी जबरन सांसारिक कर्मों में क्यों लिप्त होता है, भगवान अध्याय 2 के श्लोक 60 में  कहते हैं कि

यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥2.60॥
yatatō hyapi kauntēya puruṣasya vipaśicataḥ.
indriyāṇi pramāthīni haranti prasabhaṅ manaḥ৷৷2.60৷৷

अर्थः- भगवान कहते हैं – हे कौन्तेय!  क्योंकि प्रमथन स्वभाव वाली इंद्रियां यत्न करते हुए विवेकशील पुरुष के भी मन को बलपूर्वक हर लेती हैं।

भगवान इसी श्लोक में स्पष्ट रुप से बता चुके हैं कि इंद्रियों का स्वभाव मथ देने वाला होता है । इंद्रियों के विषय विवेकशील मनुष्य के मन को भी बलपूर्वक हर लेती हैं। तो फिर आखिर अर्जुन फिर से यही सवाल क्यों कर रहा है? दरअसल अर्जुन का सवाल यह है कि इंद्रियों के विषय कहां से उत्पन्न होते हैं और उनका मूल क्या है?

भगवान अर्जुन को बताते हैं कि त्रैगुणात्मक प्रकृति के तीनों गुण सत्व, रज और तम से काम या आसक्ति की उत्पत्ति होती है । सत्व गुण पुरुष को आत्मज्ञान की तरफ कामनायुक्त बनाता है । जबकि रजोगुण व्यक्ति को महात्वाकांक्षा रुपी कामनाओं की तरफ आसक्त होता है । जब रजोगुण से उत्पन्न कामरुपी महात्वाकांक्षाएं या सांसारिक इच्छाएं पूरी नहीं होती हैं, तो मनुष्य के अंदर क्रोध का जन्म होता है ।

काम या इच्छाएं अनंत हैं, काम महापापी है

रजोगुण से उत्पन्न सांसारिक इच्छाएं और महात्वाकांक्षाए इतनी अनंत होती हैं कि वो खत्म ही नहीं होती और मनुष्य लगातार इनकी पूर्ति के लिए इनके पीछे भागता रहता है। वह उस अनंत दौड़ में पड़ जाता है जिसका कोई अंत नहीं है। इसलिए भगवान ने इन रजोगुण से उत्पन्न कामनाओं को न अघाने वाली और महापापी की संज्ञा दी है ।

भगवान ने गीता के अध्याय 2 के श्लोक में भी इसे विस्तार से समझाया है और कहा है कि –

ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥2.62॥
dhyāyatō viṣayānpuṅsaḥ saṅgastēṣūpajāyatē.
saṅgāt saṅjāyatē kāmaḥ kāmātkrōdhō.bhijāyatē৷৷2.62৷৷

अर्थः- विषयों का ध्यान करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से काम उत्पन्न होता है,काम से क्रोध का आविर्भाव होता है ।

एक प्रकार से भगवान ने भी बुद्ध की तरह तृष्णा या आसक्ति को ही काम और क्रोध का मूल माना है। भगवान ने एक और बात कही है कि “यहां तू उसको शत्रु मानों” इसका अर्थ यह भी हो सकता है कि अर्जुन के सामने जो लोग रजोगुण उत्पन्न काम या तृष्णा के वशीभूत होकर उसके सामने युद्ध के लिए खड़े हैं, इस तृष्णा से उत्पन्न काम और क्रोध ने इन कौरवों के अंदर जिस महात्वाकाक्षां को जन्म दिया, उसी ने इन कौरवों का मन बलपूर्वक हर लिया है और वो जबरन इस पापकर्म में लिप्त हो गए हैं –

काम (Lust or Desire) छिपा शत्रु है

धूमेनाव्रियते वह्निर्यथादर्शो मलेन च।
यथोल्बेनावृतो गर्भस्तथा तेनेदमावृतम्‌ ॥
dhūmēnāvriyatē vahniryathā৷৷darśō malēna ca.
yathōlbēnāvṛtō garbhastathā tēnēdamāvṛtam৷৷3.38৷৷

अर्थः- जैसे धुएं से अग्नि और मैल से दर्पण ढंक जाते हैं, जैसे जेर या झिल्ली से गर्भ ढंका रहता है, वैसे ही उससे ( काम से ) यह समस्त जीव समुदाय ढंका है ।

व्याख्याः-अर्जुन ने भगवान से प्रश्न पूछा था कि अविनाशी सत् को प्राप्त करने की इच्छा रखने के बावजूद मनुष्य क्यों पापकर्म की तरफ जबरन प्रवृत्त होता है । इसी का जवाब देते हुए भगवान कहते हैं कि इंद्रियों के विषयों से उत्पन्न आसक्ति से उत्पन्न काम ही इसका मूल कारण है। यह काम रजोगुण से उत्पन्न होता है ।

भगवान कहते हैं कि मनुष्य या जीवात्मा मूलतः अग्नि और दर्पण की तरह शुद्ध और स्पष्ट होते हैं, लेकिन रजोगुण रुपी काम भावना उसे चारों तरफ से ढंक देती है। रजोगुण रुपी माया के आवरण से मनुष्य अपने भीतर के अविनाशी सत् को पहचान नहीं पाता है । आसक्ति से जिस अज्ञान का जन्म होता है, वह रजोगुण रुपी काम से भरा होता है , इसी अज्ञान की वजह से मनुष्य अपने अंदर के शुद्ध और स्पष्ट अविनाशी सत् को देख नहीं पाता है ।

ज्ञान कहां मिलेगा?

आवृतं ज्ञानमेतेन ज्ञानिनो नित्यवैरिणा ।
कामरूपेण कौन्तेय दुष्पूरेणानलेन च ॥
āvṛtaṅ jñānamētēna jñāninō nityavairiṇā.
kāmarūpēṇa kauntēya duṣpūrēṇānalēna ca৷৷3.39৷৷

अर्थः- हे कुंतिनंदन ! ज्ञानियों के नित्य वैरी और बड़ी कठिनता से तृप्त होने वाले कामरुपी शत्रु से यह ज्ञान ढंका हुआ है ।

व्याख्याः- भगवान इस श्लोक में अर्जुन को बताते हैं कि अविद्या या अज्ञान रजोगुण से उत्पन्न काम से पूरी तरह से संयुक्त है औऱ जीवात्मा या मनुष्य के भीतर अविनाशी सत् की प्राप्ति के लिए जरुरी ज्ञान को इसी वासना रुपी काम ने ढँक रखा है।

  • हम सभी यह जानते हैं कि हमारे शरीर के अंदर स्थित वह तत्त्व जो परमेश्वर रुपी अविनाशी सत् के वृहदत्तम साकार या निराकार रुप का ही एक अभिन्न अंग है, फिर भी हम प्रतिदिन इस त्रैगुणात्मक माया के प्रभाव से सांसारिक कर्मों में लिप्त रहते हैं। बड़े- बड़े ऋषि-मुनि और शास्त्रज्ञ इस बात को जान कर भी कामवासना के वशीभूत हो जाते हैं। ऋषि विश्वामित्र जैसे बड़े – बड़े तपस्वी भी इंद्रियों के विषयों से उत्पन्न काम के वशीभूत हो गए , फिर साधारण मनुष्य की तो बात ही क्या
  •  भगवान इस काम को ज्ञानियों का नित्य वैरी बताते हैं। वैसे तो काम सभी आम मनुष्यों का भी वैरी है , लेकिन जब आपको इस बात का संज्ञान हो जाता है या फिर आप यह जान लेते हैं कि आपका शत्रु कौन है तो वह अहसास आपको और भी ज्यादा चुभने लगता है ।
  • अज्ञानी मनुष्य तो बिना किसी अहसास के ही सांसारिक काम वासनाओं को आनंद समझ कर उसे करता चला जाता है। लेकिन जैसे ही उसे ज्ञान होता है तो वह अपनी इंद्रियों को इंद्रियों के विषयों से हटाना शुरु करता है, ऐसे में इंद्रियां और उससे उत्पन्न विषय ज्ञानी के प्रयास का विरोध शुरु कर देती हैं और इस संयम के विरुद्ध एक युद्ध शुरु हो जाता है । भगवान इसलिए इस काम को ज्ञानियों का नित्य वैरी कहते हैं।

काम वासना अतृप्त होती है

भगवान यह भी कहते हैं कि यह काम कठिनता से तृप्त होने वाला है या फिर कभी न तृप्त होने वाला है, क्योंकि त्रैगुणात्मक माया से उत्पन्न यह संसार बड़ा आकर्षक लगता है, इसके भोग की कामना अनंत होती है ।

इन्द्रियाणि मनो बुद्धिरस्याधिष्ठानमुच्यते ।
एतैर्विमोहयत्येष ज्ञानमावृत्य देहिनम्‌ ॥
indriyāṇi manō buddhirasyādhiṣṭhānamucyatē.
ētairvimōhayatyēṣa jñānamāvṛtya dēhinam৷৷3.40৷৷ 

अर्थः- इंद्रिया, मन और बुद्धि इस काम के वासस्थान माने जाते हैं। यह काम इन्हीं के द्वारा ज्ञान को ढँक कर जीवात्मा को विविध प्रकार से मोहित करता है ।

व्याख्याः- भगवान इस श्लोक में काम वासना के वासस्थानों और उसके द्वारा मोहित किये जाने के प्रकार बताते हैं। हमारी पंचेंद्रियां और कर्मेंद्रियां, इन इंद्रियों के मालिक संकल्पात्मक और विकल्पात्मक मन और निश्चयात्मिका बुद्धि के द्वारा काम पुरुष के उपर आधिपत्य जमा लेता है ।

जब हमारी आँखों(चक्षु इंद्रिय) को कोई सुंदर वस्तु भाती है ( चक्षु इंद्रिय का विषय सुंदरता उत्पन्न होती है) , तो हमारा मन उसे प्राप्त करने के लिए  कामना करता है और हमारी बुद्धि उसे प्राप्त करने के लिए उद्योग करने लगती है । इस प्रकार इस सुंदर वस्तु को देख कर हमारी इंद्रियों ,मन और बुद्धि पर उसे पाने की चाह( काम) हम पर आधिपत्य जमा लेती है।

काम को कैसे काबू में करें ?

तस्मात्त्वमिन्द्रियाण्यादौ नियम्य भरतर्षभ ।
पाप्मानं प्रजहि ह्येनं ज्ञानविज्ञाननाशनम्‌ ॥
tasmāttvamindriyāṇyādau niyamya bharatarṣabha.
pāpmānaṅ prajahi hyēnaṅ jñānavijñānanāśanam৷৷3.41৷৷ 

अर्थः- हे भरत श्रेष्ठ! इसलिए पहले इंद्रियों को रोककर ज्ञान- विज्ञान के नाश करने वाले इस पापी( काम) को निश्चय ही नष्ट कर दो ।

व्याख्याः- भगवान ने अर्जुन को पहले काम (Lust, Desire) के उत्पन्न होने की वजह बताई,इसके बाद उसके दुर्गुण बताए, फिर उसका वास स्थान बताया और अब उसे नष्ट करने का उपाय बता रहे हैं।

भगवान कहते हैं कि बिना इंद्रियों से उत्पन्न विषयों के रुपांतरण से काम पर विजय पाना संभव नही है। भगवान कहते हैं कि यह काम निश्चय ही अविनाशी सत् की प्राप्ति हेतु ज्ञान और विज्ञान(बुद्धि) का शत्रु है। इसे नष्ट किये बिना न तो समत्व बुद्धि को प्राप्त करोगे और न ही समत्व बुद्धि युक्त यज्ञकर्म से अविनाशी सत् को ही प्राप्त कर सकोगे। इसलिए किसी भी प्रकार से इन्हें नष्ट या रुपांतरित कर उनके मार्ग को बदलना जरुरी है ।

इन्द्रियाणि पराण्याहुरिन्द्रियेभ्यः परं मनः ।
मनसस्तु परा बुद्धिर्यो बुद्धेः परतस्तु सः ॥
indriyāṇi parāṇyāhurindriyēbhyaḥ paraṅ manaḥ.
manasastu parā buddhiryō buddhēḥ paratastu saḥ৷৷3.42৷৷ 

अर्थः- इंद्रियां प्रबल कही कही गई हैं, इंद्रियों से प्रबल मन है और मन से भी प्रबल बुद्धि है और बुद्धि से भी जो प्रबल है वो काम है ।

व्याख्याः- भगवान ने पहले ही कह दिया है कि रजोगुण से उत्पन्न काम ही सबसे बड़ा शत्रु है। वही हमारे आत्मज्ञान को उसी प्रकार ढँक देता है जैसे दर्पण को मैल।भगवान ने यह भी कहा है कि काम ही हमारी इंद्रियों, बुद्धि और मन को अपना वास स्थान बना कर इन पर कब्जा कर लेता है ।

भगवान अब अर्जुन को यही बता रहे हैं कि इंद्रियां अपने आप में कुछ भी नहीं हैं , उनसे जैसा चाहे वैसा कार्य कराया जा सकता है क्योंकि इंद्रियां तो बस एक उपकरण की भांति हैं। चाकू से चाहे तुम फल काट लो या किसी का वध कर लो , चाकू अपने आप में कुछ भी नहीं कर सकता है । चाकू से काटने वाला जो मनुष्य है उसकी इच्छा ही सर्वोपरि है कि वो इस चाकू से करना क्या चाहता है । इसीलिए इंद्रिय अपने आप में कुछ भी नहीं कर सकती हैं।

मन और बुद्धि क्या है ?

  • भगवान कहते हैं कि इंद्रिय से प्रबल मन है । मन क्या है ? मन तो विचारों का एक पुंज है । मन में संकल्प हों तो इंद्रियों को मन के द्वारा संचालित कर उस संकल्प को पूरा किया जा सकता है । लेकिन मन तो सिर्फ विचारों का पुंज है ।
  •  ये विचार उत्पन्न तो बुद्धि से होते हैं। इसलिए भगवान ने कहा है कि मन से भी प्रबल बुद्धि है। बुद्धि निश्चयात्मक या अनिश्चयात्मक होती है । बुद्धि के अंदर विचारों का मंथन होता है। किसी एक विचार को बुद्धि निश्चित करती है और उससे मन को संकल्पित कर देती है। मन फिर उस संकल्प को इंद्रियों की तरफ मोड़ देता है और हमारी इंद्रियां उस कार्य को करने लग जाती हैं।
  • लेकिन बुदधि में ये विचार आते कहां से हैं? ये विचार उत्पन्न होते हैं रजोगुण से उत्पन्न काम से । इस त्रैगुणात्मक माया के आवरण से बने शरीर में रजोगुण से काम उत्पन्न होता है। रजोगुण मनुष्य को संसार के प्रति मोह और क्रोध से भर देते हैं। यही मोह और क्रोध जब किसी वस्तु को प्राप्त करने या उसके विछोह से उत्पन्न होते हैं तो ये बुद्धि में विचार का रुप ले लेते हैं और बुद्धि उसे पाने की लालसा रुपी निश्चयात्मक हो जाती है । फिर उन लालसाओं के विचारक्रम संघनित होकर मन रुपी संकल्प के रुप में परिणत हो जाते हैं और हमारी इंद्रियां उस कार्य को पूरा करने के लिए सक्रिय हो जाती हैं ।

काम या तृष्णा पर काबू पाना मुश्किल है पर मुमकिन भी है

एवं बुद्धेः परं बुद्धवा संस्तभ्यात्मानमात्मना ।
जहि शत्रुं महाबाहो कामरूपं दुरासदम्‌ ॥
ēvaṅ buddhēḥ paraṅ buddhvā saṅstabhyātmānamātmanā.
jahi śatruṅ mahābāhō kāmarūpaṅ durāsadam৷৷3.43৷৷ 

अर्थः- इस प्रकार इस दुर्विजयी कामरुप शत्रु को बुद्धि से भी प्रबल जानकर , महाबाहो! कर्मयोग में स्थापित बुद्धि ( आत्मा से ) से मन को ( आत्मा को) रोक कर मार डालो ।

व्याख्याः- भगवान इस श्लोक में काम पर विजय को बड़ा ही कठिन बताते हैं और कहते हैं कि इस पर विजय प्राप्त करने का उपाय भी है।

उपाय यह है कि तुम पहले अपनी बुद्धि को अविनाशी सत् के प्रति ज्ञान से लब्ध करो इसके बाद अपनी बुद्धि को कर्मयोग में स्थापित करो । हालांकि यह बहुत कठिन कार्य है लेकिन इसे अभ्यास, आत्म जाग्रति से अथवा किसी जाग्रत महापुरुष या गुरु की संगति से किया जा सकता है । जब तुम्हारी बुद्धि कर्मोयोग में स्थापित हो जाए तो इससे मन को रोक दो । जैसे ही बुद्धि और मन कर्मोयोग में स्थापित हो जाएंगे , काम पराजित हो जाएगा।

!!…………..तृतीय अध्याय समाप्त………….!!

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