शुद्ध सनातन धर्म में वेदों के बाद जिन दो महाकाव्यों को सबसे ज्यादा महत्वपूर्ण और पवित्र ग्रंथ माना गया है वो हैं वाल्मीकि रचित ‘रामायण’ और श्री कृष्ण द्वैपायन व्यास रचित ‘महाभारत’ । दोनों ही सनातन धर्म के प्रमुख स्तंभ माने जाते हैं । राम कथा में जहां श्री हरि विष्णु के अवतार मर्यादा पुरुषोत्तम श्री राम की यात्रा और उनके महान कार्यों का वर्णन है वहीं महाभारत में श्री हरि विष्णु के ही पूर्ण अवतार श्री कृष्ण और उनके सहयोगी पांडवो के महान कार्यों के द्वारा धर्म संस्थापना की कथा है । राम कथा की रचना जहां त्रेता युग में हुई वहीं महाभारत का काल द्वापर युग है । द्वापर का प्रारंभ त्रेता युग के बाद होता है । सो स्वाभाविक है कि महाभारत जैसे महाकाव्य में श्री कृष्ण से पहले अवतरीत हुए भगवान श्री हरि विष्णु के अवतार श्री राम का भी वर्णन हो ।
महाभारत में है ” रामोपाख्यान “ :
महाभारत के वन पर्व में अध्याय 273 से 291 तक श्री राम कथा का वर्णन है । जब द्रौपदी का अपहरण जयद्रथ के द्वारा किया जाता है और पांडव द्रौपदी को जयद्रथ के कैद से छुड़ाते हैं तब युधिष्ठिर बहुत दुखी हो जाते हैं । उन्हें लगता है कि आखिर द्रौपदी जैसे सत्य परायण और पतिव्रता स्त्री को अपने जीवन में इतने दुखों का सामना क्यों करना पड़ा । युधिष्ठिर को ये भी लगता है कि आखिर पांडव भाइयों को अपने सच्चरित्रता, सत्य परायणता और धर्म के अनुसार चलने के बाद भी वनवास और इतने दुख क्यों उठाने पड़े ?
मार्कण्डेय मुनि सुनाते हैं श्री राम कथा :
धैर्यवार्य युधिष्ठिर द्रौपदी के चीरहरण के वक्त भी उतने विचलित नहीं होते हैं लेकिन जब जयद्रथ के द्वारा द्रौपदी के हरण का प्रयास किया जाता है तो उनके धैर्य का बांध टूट जाता है । तब जब वन पर्व में युधिष्ठिर इन्ही बातों का चिंतन कर जब बहुत दुखित हो गए तब उन्होंने चिरंजीवी ऋषि मार्कण्डेय से अपने दुख का कारण पूछा और प्रश्न किया कि क्या कोई और भी अपने धर्म का पालन करने और सत्यपरायणता के कारण इतने दुख पहले उठा चुका है। युधिष्ठिर मार्कण्डेय ऋषि से प्रश्न करते हैं कि क्या कारण है कि द्रौपदी जैसी पतिव्रता नारी को इतने कष्ट उठाने पड़े हैं ? क्या संसार में इससे पहले कोई ऐसा मनुष्य हुआ है जो युधिष्ठिर की तरह भाग्यहीन हो और उसे धर्म के मार्ग पर चलने की वजह से इतने कष्ट उठाने पड़े हैं ? तब मार्कण्डेय ऋषि युधिष्ठिर को श्री राम कथा बताते हैं ।
” रामोपाख्यान ” में रावण की उत्पत्ति की कथा भी है :
मार्कण्डेय जी सबसे पहले श्री राम उनके तीनों भाइयों और माता सीता के जन्म की कथा बताते हैं । इसके बाद मार्कण्डेय जी रावण, कुंभकर्ण , शूर्पनखा , विभीषण और खर के भी जन्म की कथा बताते हैं । जहां मार्कण्डेय श्री राम और माता सीता के जन्म का उल्लेख भर करते हैं वहीं वो रावण और उनसे परिवार के जन्म और पराक्रम की कथा थोड़े विस्तार से बताते हैं जो मूल वाल्मीकि रामायण में उपलब्ध नहीं है ( उत्तरकांड को मूल वाल्मीकि रामायण का अंग मानने में विवाद है , मूल वाल्मीकि रामायण को युद्ध कांड अर्थात रावण के वध और श्री राम के अयोध्या में राजतिलक के बाद ही समाप्त माना गया है ) मार्कण्डेय अपनी कथा में रावण की माता का नाम पुष्पोत्कटा बताते हैं जबकि लोकश्रुतियों और रामायण के अलग- अलग उत्तरकाडों के रचयिताओं ने उसकी मां का नाम कैकशी बताया है जो राक्षसराज सुमालि की पुत्री थी ।
मार्कण्डेय के मुताबिक भी रावण के पिता का नाम विश्रवा ही था जो पुलत्स्य ऋषि के पुत्र नहीं बल्कि उनके ही एक दूसरे स्वरुप थे और पुलत्स्य ऋषि के शरीर के आधे भाग थे । अलग – अलग राम कथाओं में रावण के पिता विश्रवा को पुलत्स्य का पुत्र बताया गया है । अलग – अलग राम कथा के अनुसार कुबेर रावण का सौतेला भाई था और कुबेर के पिता का नाम पुलत्स्य था । रावण के पिता का नाम विश्रवा था ( यानि वो भी पुलस्त्य ऋषि ही थे ), यहां महाभारत में भी दोनों सौतेले भाई हैं । रावण अपने सौतेले भाई से लंका जीत लेता है और कुबेर और रावण के बीच शत्रुता स्थापित हो जाती है ।
रावण, विभीषण और कुंभकर्ण की तपस्या :
महाभारत में मार्कण्डेय ऋषि रावण और उसके भाइयों की तपस्या का वर्णन करते हैं । रावण ब्रम्हा जी से अमरता का वरदान मांगता है तो ब्रम्हा जी इंकार कर देते हैं । लेकिन रावण को वो वरदान देते हैं कि वो मनुष्यों को छोड़कर सभी के लिए अवध्य होगा । यही बात वाल्मीकि रामायण के बालकांड में भी है जब सभी देवता रावण से मुक्ति के लिए ब्रम्हा और विष्णु के पास जाते हैं और विष्णु जी मनुष्य के रुप में रामावतार लेते हैं, कुंभकर्ण को निद्रा का वरदान मिलता है जिसका वर्णन भी वाल्मीकि रामायण में जस का तस है । लेकिन विभीषण को ब्रम्हा जी अमरता का वरदान देते हैं क्योंकि विभीषण ब्रम्हा जी से जो वरदान मांगता है उससे ब्रम्हा जी प्रसन्न हो जाते हैं । विभीषण को ब्रम्हा ये भी वरदान देते हैं कि उसके मन में कभी भी पाप का विचार नहीं होगा और वो कभी भी ब्रम्हास्त्र का प्रयोग नहीं कर सकेगा । इसके बाद रावण अपने सौतेले भाई कुबेर से लंका और पुष्पक विमान छीन लेता है ।
महाभारत में ” मंथरा ” का विशेष वर्णन :
मार्कण्डेय जी मंथरा के साथ महाभारत में न्याय करते हैं । वाल्मीकि रामायण और दूसरी राम कथा में मंथरा को दुष्ट बुद्धि , राम द्रोही और षड़यंत्रकारी दिखाया गया है । लेकिन मार्कण्डेय ऋषि महाभारत में मंथरा को इस पाप से बचाते नज़र आते हैं। महाभारत के अनुसार मंथरा को एक गंधर्वी बताते हैं जिसने ब्रम्हा के आदेश से ब्रम्हा जी के महान उद्देश्य को पूरा करने के लिए मंथरा के रुप में जन्म लिया । ताकि ब्रम्हा की योजना के अनुसार मंथरा श्री राम को वनवास भेजने का माध्यम बन सके । मंथरा मन के वेग के अनुसार चलने वाली थी और ब्रम्हा जी के आदेश के अनुसार वो वैर फैलाने का कार्य करने लगी । मंथरा के षड़यंत्र के मुताबिक और ब्रम्हा जी की योजना के अनुसार ही कैकयी ने दशरथ से श्री राम के लिए चौदह वर्ष का वनवास मांगा ।
सीता माता का हरण और लक्ष्मण रेखा :
शूर्पनखा के नाक – कान काटने के क्रोधित होकर रावण माता सीता के अपहरण की योजना बनाता है तब मारीच मजबूरी में उसका साथ देता है । अपना ही श्राद्ध कर्म कर वो हिरण का रुप धारण करता है और इसके बाद छल से रावण माता सीता का हरण कर लेता है। महाभारत में लक्ष्मण रेखा का वर्णन नहीं है । ऐसा वाल्मीकि रामायण में भी नहीं है । सिर्फ बाद की श्री राम कथा में लक्ष्मण रेखा का जिक्र आता है । जब रावण माता सीता को आकर्षित करने का प्रयास करता है तो माता सीता पहले तो उसका विरोध करती हैं और बाद में भय से मूर्छित हो जाती हैं । रावण उन्हें बल पूर्वक पुष्पक विमान पर बिठाता है तब जटाउ माता सीता के बचाव के लिए आते हैं लेकिन रावण उन्हें घायल कर डालता है ।
वाल्मीकि रामायण की तरह ही महाभारत में भी जटाउ को घायल अवस्था में जब श्री राम देखते हैं तो पहले माता सीता के अपहरण का दोषी उसे ही मानते हैं और जटाउ को मारने के लिए धनुष बाण खींच लेते हैं। तब जटाउं अपना परिचय देते हैं कि वो दशरथ के मित्र हैं और उन्होंने नहीं बल्कि रावण ने माता सीता का अपहरण किया है ।
हनुमान जी और सुग्रीव से मित्रता :
राम कथा में श्री राम और सुग्रीव की जब मित्रता हनुमान जी करवाते हैं तो सुग्रीव उन्हें माता सीता का वह वस्त्र देते हैं जो उन्होंने अपहरण के वक्त रास्ते में गिराया था । महाभारत में यह वस्त्र है जबकि रामायण में सुग्रीव माता सीता के स्वर्ण आभूषण दिखाते हैं । जब तारा वालि को सुग्रीव से लड़ने से रोकती हैं तो महाभारत के अनुसार वालि को शक हो जाता है कि तारा सुग्रीव से प्रेम करती है । वालि के वध के बाद यह शंका सच होती है जब महाभारत के अनुसार तारा सुग्रीव को प्राप्त हो जाती है । यह बात अन्य रामायणों में नहीं है ।
त्रिजटा और अविंध्य राक्षस का जिक्र :
महाभारत में मार्कण्डेय त्रिजटा से साथ एक अन्य धर्मपरायण राक्षस अविंध्य का जिक्र करते हैं । अविंध्य का जिक्र किसी अन्य रामायण में नहीं मिलता है । त्रिजटा सीता के आश्वस्त करती है और बताती है कि अविंध्य नामक धर्म परायण राक्षस ने संदेश भेजा है कि राम कथा और सुग्रीव की मित्रता हो चुकी है और वो जल्दी ही लंका जीतेंगे । अविंध्य यह भी संदेश भेजता है कि रावण से डरने की जरुरत नहीं है क्योंकि वो किसी भी स्त्री को उसकी अनुमति के बिना समागम नहीं सकता क्योंकि रावण को नलकुबेर की पत्नी और अपने भाई कुबेर की पुत्रवधू रंभा को भ्रष्ट करने पर शाप मिला है । त्रिजटा अपने स्वप्न के बारे में भी बताती है कि रावण का वध निश्चित है ।
हनुमान जी की लंका यात्रा :
राम कथा में सुग्रीव श्री राम को बताए बिना ही हनुमान और अन्य वानरों को विभिन्न दिशाओ में भेजते हैं । यह बात श्री राम को पता नहीं होती है तो वो सुग्रीव पर शक करते हैं और लक्ष्मण को सुग्रीव को वचन याद दिलाने के लिए भेजते हैं । सुगीव श्री राम के पास आते हैं और बताते हैं कि सभी वानरों को भेजा जा चुका है । तभी हनुमान जी और अंगद आदि के वापस आने की खबर मिलती है।
हनुमान का लंका यात्रा वर्णन :
महाभारत में हनुमान जी श्री राम को अपनी लंका यात्रा और माता सीता से भेंट की कथा सुनाते हैं। इसमें वो सुरसा और लंकिनी का जिक्र नहीं करते बल्कि सिर्फ यह बताते हैं कि वो समुद्र में रहने वाली एक राक्षसी का वध करते हैं जो शायद सिंहिंका है जिसका वर्णन लगभग सभी रामायणों में हैं ।
माता सीता और हनुमान जी की भेंट :
महाभारत के मुताबिक हनुमान जी माता सीता को श्री राम की कोई अंगूठी नही देते ( क्योंकि महाभारत के मुताबिक वो श्री राम से मिले बिना ही लंका पहुंचे थे ) । हनुमान जी अपना परिचय देते वक्त जब सुग्रीव का नाम लेते हैं तो माता सीता उनसे कहती हैं कि वो राक्षस अविंध्य के कहने पर यह विश्वास कर रही है कि हनुमान जी श्री राम के दूत हैं। अविंध्य ने ही पहले त्रिजटा से संदेश भिजवाया था कि श्रीराम और सुग्रीव की दोस्ती हो चुकी है और वो जल्द ही लंका आने वाले हैं । माता सीता हनुमान जी को अपने मस्तक से मणि उतार कर देती हैं और उस कौवे की कथा सुनाती हैं जिसे श्री राम ने एक सींक को बाण बना कर उस समय काना बना दिया था जब वो माता सीता पर हमला करता है । यह कथा सभी रामायणो में भी है ।
हनुमान जी द्वारा लंका दहन :
राम कथा में हनुमान जी द्वारा लंका दहन का संक्षिप्त जिक्र है जिसमें हनुमान जी कहते हैं कि उन्होंने जान बूझ कर खुद को राक्षसों से पकड़वाया और लंका को जला दिया । यह कथा वाल्मीकि रामायण में भी है । लेकिन रावण और हनुमान जी की भेंट का जिक्र रामोपाख्यान में नहीं है ।
समुद्र पर सेतु बनाने की कथा :
महाभारत में श्री राम द्वारा समुद्र पर सेतु बनाने की कथा थोड़ी अलग है। वाल्मीकि रामायण और अन्य रामायणों में विभीषण और सुग्रीव से श्री राम समुद्र पार करने के विषय में सलाह लेते हैं। रामायण में सेतु बनाने से पहले ही विभीषण श्री राम की शरण में आ जाते हैं । लेकिन महाभारत में श्री राम सिर्फ सुग्रीव से सलाह लेते हैं। श्री राम को सभी वानर नौका से समुद्र पार करने की सलाह देते हैं लेकिन श्री राम इंकार कर देते हैं। श्री राम कहते हैं कि अगर नौका से पार करेंगे तो रास्ते में ही रावण हमारी सेना को डुबो देगा । दूसरे श्री राम कहते हैं कि नौका लेने के लिए व्यापारियों की नौकाओं को लेना होगा इससे व्यापार पर बुरा असर पड़ेगा । श्री राम कहते हैं कि वो इतने स्वार्थी नहीं हो सकते कि उनकी वजह से व्यापार बंद हो जाए ।
श्री राम कहते हैं कि वो समुद्र से प्रार्थना करेंगे और अगर समुद्र रास्ता नहीं देगा तब वो समुद्र को सुखा डालेंगे ।
समुद्र श्री राम की अराधना से प्रसन्न होकर स्वप्न में दर्शन देता है और सीधा मार्ग देने से मना कर देता है । समुद्र का तर्क ये है कि अगर उसने अभी सीधे मार्ग दे दिया तो भविष्य में कोई भी अपने धनुष बाण और वीरता की धमकी से मार्ग मांगने लगेगा और गलत परंपरा की शुरुआत हो जाएगी । समुद्र उन्हें वानर नल के वरदान की कथा बताता है जिसे वरदान था कि वो कोई भी पदार्थ ( चट्टान, वृक्ष आदि ) समुद्र में डालेगा तो वो तैर जाएगा । अन्य रामायणों में समुद्र ब्राह्ण का रुप धर कर श्री राम के सामने आता है जबकि महाभारत में वो स्वप्न में आता है। तुलसी के रामचरित में यह वरदान नल और नील नामक विश्वकर्मा के दो पुत्रों को हासिल था । लेकिन वाल्मीकि रामायण और महाभारत दोनों में सिर्फ नल को मिले वरदान का जिक्र है ।
तुलसी और तमिल संत कम्ब के राम कथाओ में समुद्र को मंद बुद्धि और जड़ बुद्धि दिखाया गया है, जबकि वाल्मीकि रामायण और महाभारत में समुद्र को एक विचारवान व्यक्ति के रुप में दिखाया गया है।
विभीषण का श्री राम की शरण में आना :
इसके बाद विभीषण श्री राम की शरण में आते हैं और विभीषण की सलाह के मुताबिक श्री राम सेतु का विधिवत एक महीने में निर्माण करते हैं। विभीषण को वो लक्ष्मण का सुह्द और अपना सलाहकार बना लेते हैं । श्री राम अंगद को दूत बनाकर रावण के दरबार में भेजते हैं ।
लंका में युद्ध :
महाभारत में जब राक्षस मायावी युद्ध करते हुए अंतर्धान हो जाते थे तब विभीषण ने अपनी विद्या का प्रयोग कर राक्षसों की इस शक्ति का खात्मा कर दिया और वो वानरों के सामने अदृश्य नहीं हो पाने लगे तब वानरों ने राक्षसों का संहार शुरु कर दिया । जहां वाल्मीकि रामायण और अन्य सभी राम कथाओं में कुंभकर्ण का वध श्री राम के हाथों होता है वहीं महाभारत में लक्ष्मण कुंभकर्ण का वध करते हैं । इसके बाद लक्ष्मण दूषण के दो भाइयों से युद्ध करते हैं जिन्हें हनुमान जी और नल मार डालते हैं।
मेघनाद का श्री राम और लक्ष्मण को मूर्छित करना :
महाभारत और वाल्मीकि रामायण दोनों की ही कथाओं में कुंभकर्ण के वध के बाद इंद्रजीत यानि मेघनाद युद्ध के लिए आता है और श्री राम और लक्ष्मण दोनों को ही अपने बाणों से मूर्छित कर देता है। लेकिन जहां वाल्मीकि रामायण में जाम्बवंत के निर्देश पर हनुमान हिमालय से संजीवनी बूटी लाकर श्री राम और लक्ष्मण सहित अन्य मूर्छित वानरों को होश में लाते हैं। वहीं महाभारत में विभीषण अपने प्रज्ञास्त्र द्वारा दोनों को होश में ले आते हैं । सुग्रीव विश्ल्य औषधि के द्वारा श्री राम और लक्ष्मण के घावों को भर देते हैं। वाल्मीकि रामायण में यह औषधि भी हनुमान जी हिमालय से संजीवनी के साथ लाते हैं ।
कुबेर के द्वारा श्री राम की सहायता :
राक्षसों विशेषकर रावण और मेघनाद के मायावी युद्ध से बचाने के लिए कुबेर एक विशेष जलपात्र भेजते हैं । यह पात्र विभीषण श्री राम और उनकी सेना को देते हैं जिसके जल से अपने नेत्रों को सभी धो लेते हैं और मायावी युद्ध के लिए पूरी तरह तैयार हो जाते हैं। यह कथा किसी भी राम कथा में नहीं पाई जाती हैं। जहां वाल्मीकि रामायण में मेघनाद के वध के बाद रावण के बाण के द्वारा लक्ष्मण मूर्छित हो जाते हैं और श्री राम विलाप करते हैं। हनुमान जी दोबारा हिमालय जाकर संजीवनी बूटी लाते हैं और लक्ष्मण को होश आता है । वहीं कुछ राम कथाओं में और लोकश्रुतियों में लक्ष्मण मेघनाद के शक्तिबाण से मूर्छित होते हैं और हनुमान जी के लाये गये संजीवनी बूटी से जीवित होते हैं। यह कथा महाभारत में नहीं है । महाभारत में लक्ष्मण जी मेघनाद को मार डालते हैं । एक बार फिर महाभारत में अविंध्य के द्वारा श्री राम की सहायता का वर्णन है । जब मेघनाद के वध के बाद रावण डर जाता है तो अविँध्य ही उसे उकसा कर दोबारा युद्ध में भेजता है।
श्री राम -रावण युद्ध :
रावण से युद्ध में इंद्र श्री राम की सहायता के लिए अपना रथ भेजते हैं । मातालि उसका सारथि है । यह कथा सभी राम कथाओं में समान है । लेकिन जहां कुछ राम कथाओ में विभीषण के द्वारा रावण की नाभि में अमृत का गुप्त राज़ बताए जाने की बात है । वहीं वाल्मीकि रामायण में मातालि श्री राम को महर्षि अगत्स्य द्वारा दिये गए उस बाण की याद दिलाता है जो उन्होंने सूर्य की उपासना से प्राप्त की थी । महाभारत मे श्री राम ब्रम्हास्त्र निकाल कर रावण का वध करते हैं और इस दौरान वो अपने ही विवेक से रावण को मारते हैं न कि किसी की सलाह के द्वारा ।
माता सीता की अग्नि परीक्षा :
जहां वाल्मीकि रामायण , तुलसीदास रचित रामचरितमानस और अन्य कई राम कथाओ में माता सीता के द्वारा अग्नि परीक्षा दिये जाने का वर्णन है वही महाभारत में अग्नि परीक्षा देने के स्थान पर कई देवताओं द्वारा सीता की पवित्रता की सिर्फ गवाही देने का वर्णन है । माता सीता को सबसे पहले अविंध्य ही लेकर श्री राम के सामने आते हैं और उनकी पवित्रता की गवाही देते हैं । इसके अतिरिक्त माता सीता की पवित्रता की गवाही वायु देव , अग्नि देव और वरुण देव तीनों देते हैं । ब्रम्हा जी भी श्री राम को रावण के उस शाप की बात बताते हैं जो रंभा ने रावण को दिया था कि वो किसी स्त्री को बिना उसके इच्छा के स्पर्श नहीं कर सकता था । साथ में दशरथ जी भी विमान से आते हैं ( यह वाल्मीकि और अन्य राम कथाओं में भी है ) और श्री राम को माता सीता को अपनाने का आदेश देते हैं ।
श्री राम का राज्याभिषेक :
श्री राम माता सीता को अपनाते हैं । माता सीता हनुमान जी को अमरता का वरदान देती हैं । श्री राम और माता जानकी लक्ष्मण जी और अन्य वानरों के साथ अयोध्या लौटते हैं और श्री राम का राज्याभिषेक होता है । इस पवित्र श्री राम कथा को कहने के बाद चिरंजीवी मार्कण्डेय ऋषि युधिष्ठिर को दुखी होने से मना करते हैं और समझाते हैं कि उनका दुख तो श्री राम के दुखपूर्ण जीवन का अणु मात्र भी नहीं है । इसके बाद जाकर युधिष्ठिर का चित्त शांत होता है ।