श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 2 (Chapter 2) के श्लोक 16- 30 में भगवान ने अर्जुन को ज्ञानयोग के बारे में बताया है। इस ज्ञानयोग को ही सांख्य योग भी कहा जाता है। सांख्य योग के बारे मे भगवान श्रीकृष्ण अर्जुन को विस्तार से बताते हैं। कई विद्वानों के अनुसार भगवान ने इस योग के द्वारा ‘आत्मा’ के अजर, अमर और अविनाशी होने की बात कही है।
इन श्लोकों का ध्यानपूर्वक विश्लेषण करने से हमें पता चलता है कि जिसे विद्वानों ने आत्मा का नाम दिया है, उसका जिक्र भगवान ने कहीं भी नहीं किया है। इन श्लोकों में कहीं भी ‘आत्मा’ संबोधन का जिक्र ही नहीं है। इन श्लोकों में भगवान लगातार उस मूल तत्व के बारे में बता रहे हैं जो अजर- अमर और अविनाशी है। भगवान ने इसे सत्, नित्य शरीरी, देही (जो देह धारण करता है) आदि संबोधनों से पुकारा है।
आखिर कैसे विद्वानों ने इसका अर्थ आत्मा से ले लिया इसका विश्लेषण जरुरी है। क्या भगवान जिसे सत् कह रहे हैं, वही आत्मा है या फिर भगवान ने जिस सत् , नित्य शरीरी या देही का जिक्र किया है, वो आत्मा से अलग कोई सत्ता है ?
नासतो विद्यते भावो नाभावो विद्यते सतः ।
उभयोरपि दृष्टोऽन्तस्त्वनयोस्तत्वदर्शिभिः ॥2.16॥
nāsatō vidyatē bhāvō nābhāvō vidyatē sataḥ.
ubhayōrapi dṛṣṭō.ntastvanayōstattvadarśibhiḥ৷৷2.16৷৷
अर्थः- असत् ( Non- Eternal Essence of the Universe) का भाव नहीं है और सत् (Eternal essence of the Universe) का अभाव नहीं है। इस प्रकार इन दोनों का यह निर्णय तत्वज्ञानियों का द्वारा प्रत्यक्ष किया गया है।
व्याख्याः- असत् और सत् क्या है? भाव और अभाव क्या है ? असत् का अर्थ होता है जो अप्रकट है, अप्रत्यक्ष है, निराकार और निर्विकार है। भगवान कहते हैं कि असत् का भाव नहीं है। इसका अर्थ ये है कि असत् अप्रकट है, अप्रत्यक्ष है और निराकार एवं निर्विकार है। सत् के दो भाव या स्थितियाँ होती हैं। सत् अप्रकट भी हो सकता है, सत् प्रकट भी हो सकता है। सत् अप्रकट और प्रकट दोनों ही स्थितियों में हो सकता है। ये निराकार और साकार दोनों ही हो सकता है । भगवान कहते हैं कि सत् का ही भाव है अर्थात अपक्रट सत् ही प्रकट और प्रत्यक्ष हो सकता है ।
उदाहरण के लिए बीज के अंदर छिपा वृक्ष अप्रकट है , अप्रत्यक्ष है । लेकिन जैसे ही बीज का अंकुरण होता है उससे एक पौधे का जन्म होता है । यही पौधा बाद में वृक्ष बन जाता है। प्रश्न है कि बीज के अंदर वह वृक्ष कहाँ छिपा था। इसका जवाब है कि बीज के अंदर वृक्ष का भाव था और वो अप्रकट रुप से उस बीज में पहले से ही विद्यमान था।
ऋग्वेद के दशम मंडल के नासदीय सूक्त में सृष्टि के पूर्व की स्थितियों का वर्णन किया गया है । उस स्थिति का वर्णन किया गया है जब कुछ भी नहीं मौजूद था। न सत् था और न ही असत् था। न पृथ्वी थी और न ही आकाश था। न जल था और न ही वायु था। ऋग्वेद का ऋषि इस सूक्त में कहता है कि उस काल में जब समय भी नहीं था । ऋषि पूछता है कि फिर क्या था जिससे इस सारी सृष्टि का निर्माण हुआ है ? ऋषि कहता है कि उस वक्त चारों तरफ तम का आवरण था। उस तम में वह एक (ईश्वर) उसी प्रकार निराकार रुप में तम में मिश्रित था, जैसे पानी में दूध घुला हुआ होता है।
श्रीमद्भगवद्गीता में भाव और अभाव की बात
ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में आगे कहा गया है कि उस एक ( ईश्वर) के अंदर काम रुपी इच्छा का आविर्भाव हुआ । इस काम रुपी इच्छा से तप( सृष्टि के निर्माण की इच्छा ) का जन्म हुआ। इसके बाद सारी सृष्टि का निर्माण हुआ। भगवान श्रीमद्भगवद्गीता में जिस सत् और असत् , भाव और अभाव की बात कह रहे हैं , वो वही है। असत् का अर्थ है वो अप्रकट स्थिति जहाँ सब कुछ निराकार और निर्विकार हो, परंतु उसमें किसी प्रकार के रुप धारण करने या प्रकट होने का भाव नही हो।
भगवान सत् की संकल्पना को समझाते हुए कहते हैं कि यह वो अपक्रट और निराकार की स्थिति है, जिसमें भाव हो और वह निर्विकार न हो। सत् को ही भगवान सृष्टि का मूल मानते हैं। जब अभावात्मक और निराकार असत् भावात्मक और साकार होने का संकल्प लेता है तो सृष्टि के निर्माण की संकल्पना की शुरुआत और होती है। असत् की स्थिति में काम का भाव या सृष्टि निर्माण की इच्छा का अभाव होता है। जबकि सत् की स्थिति में काम का भाव और सृष्टि के निर्माण का आविर्भाव होता है। यही सृष्टि का मूल है। सत् के भावात्मक रुप से ही सारी सृष्टि का निर्माण हुआ है। सृष्टि के निर्माण के मूल को ज्ञानदर्शियों ने ऐसे ही बताया है।
छांदोग्य उपनिषद् में श्वेतकेतु और उद्दालक के बीच संवाद है। कथा है कि जब श्वेतकेतु अपने गुरु के यहां से शिक्षा प्राप्त कर अपने पिता उद्दालक के पास लौटा तो वो अहंकार से भरा हुआ था। उद्दालक ने अपने पुत्र से पूछा कि “क्या तुमने सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया है?” श्वेतकेतु ने जवाब दिया कि ”हां! मैंने सारा ज्ञान प्राप्त कर लिया है।‘ पिता उद्दालक ने श्वेतकेतु से पूछा कि” क्या तुमने वो ज्ञान भी प्राप्त कर लिया है, जो सभी ज्ञान का मूल है?”
श्वेतकेतु आश्चर्य में पड़ गया कि आखिर वो ज्ञान क्या है जो सभी का मूल है। तब उद्दालक ने श्वेतकेतु को एक पेड़ का बीज लाने को कहा, श्वेतकेतु एक वृक्ष का बीज लेकर आया। उद्दालक ने पूछा कि “इस बीज को तोड़ने पर तुम्हे क्या दिखता है? क्या इसके अंदर तुम्हें कोई संभावित वृक्ष नज़र आ रहा है? जब इस बीज को जमीन के अंदर बोने से इससे एक पूरा वृक्ष पैदा हो जाता है तो इसे इसके अंदर भी इसे होना चाहिए।“
श्वेतकेतु ने कहा कि “इस बीज को तोड़ने पर तो इसके अंदर कोई वृक्ष नज़र नहीं आता।“ तब उद्दालक ने पूछा कि , यह वृक्ष इस बीज में कहां से आता है?” अब श्वेतकेतु निरुत्तर हो गया ।
उद्दालक ने कहा “जो दिखता नहीं है वही सब कुछ प्रगट कर सकता है । इस बीज के अंदर ब्रह्मांड का वो सत्( Eternal Essence of the Universe) है जिससे इस बीज से वृक्ष निकलता है। वही सत्( Eternal Essence of the Universe) ब्रह्मांड के कण -कण में है। उसी सत् ( Eternal Essence of the Universe) के अंश तुम भी हो और मैं भी हूं। उसी सत् ( Eternal Essence of the Universe) को ब्रह्म भी कहते हैं।” उद्दालक ने श्वेतकेतु को कहा ‘तत् त्वम् असि श्वेतकेतु अहं ब्रम्हास्मि’ अर्थात “तुम भी वही हो और मैं भी ब्रह्म हूं।“
भगवान भी अर्जुन से यही कह रहे हैं कि सत् (Eternal Essence of the Universe) का अभाव नहीं है। सत् रुपी ईश्वर में सृष्टि के निर्माण की इच्छा का भाव है । सारे ब्रह्मांड में वही एक है, जिससे सब कुछ का निर्माण होता है। वही सत् ( Eternal Essence of the Universe) नित्य है , अविनाशी है।
आज भी आधुनिक भौतिक विज्ञान इस संशय में पड़ा हुआ है कि पदार्थ नित्य और अविनाशी है या ऊर्जा अविनाशी और नित्य है? ऊर्जा से पदार्थ का जन्म होता है या फिर पदार्थ से ऊर्जा का जन्म होता है? आईंस्टीन ने पदार्थ और उर्जा के एक दूसरे में रुपांतरण का सिद्धांत दिया। लेकिन आईंस्टीन भी यह बताने में अक्षम साबित हुए कि पदार्थ और ऊर्जा का भी मूल क्या है ?
भगवान पदार्थ और ऊर्जा से भी परे एक मूल तत्व ( Eternal Essence) की बात कहते है और उसे वो सत् ( Eternal Essence of the Universe) का नाम देते हैं।भगवान अर्जुन को यह कहते हैं कि सत् का अभाव नहीं है अर्थात भले ही सत् निराकार हो लेकिन वो निर्विकार नहीं है। सत् में सृष्टि निर्माण करने की इच्छा है या सृष्टि निर्माण का भाव है। सत् में सृष्टि संहार का भाव भी है । सत् रुपी ईश्वर के द्वारा ही सृष्टि का निर्माण और प्रलय दोनों ही होते हैं। जबकि पदार्थ और ऊर्जा के रुपांतरण से भी जो निर्मित होता है वो अनित्य है ,विनाशशील है ।
भगवान कहते हैं कि तत्वदर्शियों के द्वारा इसे प्रत्यक्ष रुप से जाना गया है । प्रत्यक्ष रुप से जानने से तात्पर्य है कि तत्वदर्शियों ने इसे प्रयोग के द्वारा स्थापित और सत्यापित किया है । ठीक वैसे ही जैसे आज के वैज्ञानिक ऊर्जा और पदार्थ के रुपांतरण के सिद्धांत को सत्यापित करते हैं।
अविनाशि तु तद्विद्धि येन सर्वमिदं ततम् ।
विनाशमव्ययस्यास्य न कश्चित्कर्तुमर्हति ॥2.17॥
avināśi tu tadviddhi yēna sarvamidaṅ tatam.
vināśamavyayasyāsya na kaśicat kartumarhati৷৷2.17৷৷
अर्थः- “जिससे यह संपूर्ण जगत( दृश्य और अदृश्य ) व्याप्त है उसको तू अविनाशी जान । इस अविनाशी का नाश करने में कोई भी समर्थ नहीं है।”
व्याख्याः- भौतिक विज्ञान का थर्मोडायनेमिक्स का प्रथम सिद्धांत (The First Law of Thermodynamics)कहता है कि ऊर्जा का न तो निर्माण किया जा सकता है और न ही इसका नाश संभव है। ऊर्जा का बस रुपांतरण किया जा सकता है । ऊर्जा नित्य औरअविनाशी है। भगवान, ऊर्जा और पदार्थ के वैज्ञानिक सिद्धांतों से भी परे एक मूल अविनाशी तत्व की बात करते हैं, जिसे वो सत् (Eternal Essence of the Universe) कहते हैं। भगवान कहते हैं कि “हे अर्जुन ! इस अविनाशी सत् (Eternal Essence of the Universe) से ही सारा जगत बना है । तू इसे नाशरहित जान ले।”
आधुनिक विज्ञान में बोसोन पार्टिकल्स ( Boson Particles) पर काफी रिसर्च किया गया है । इसे ही ‘गॉड पार्टिकल्स’ भी कहा जाता है । वैज्ञानिक निरंतर उस मूल तत्व की खोज में प्रयोगशील हैं जिससे इस ब्रह्मांड का निर्माण हुआ है। हिग्स नामक वैज्ञानिक की खोजों और सत्येंद्र नाथ बोस की थ्योरी ने इस बात को प्रूव किया कि ये समस्त ब्रह्मांड किसी एक ऐसे तत्व या कण से बना है, जो मूलभूत रुप से स्वतंत्र है। जब यह किसी शक्ति या बल ( Force) के अधीन आता है तो नए रुपों में विभक्त होता है और इससे ही सारे ब्रह्मांड का निर्माण होता है।
क्या भगवान इसी मूलभूत तत्व की ओर इशारा कर रहे हैं जिसे ‘हिग्स बोसोन पार्टिकल’ या फिर ‘गॉड पार्टिकल’ कहा जाता है ? क्या जिस मूल तत्व को विज्ञान अविनाशी कहता है और जिसे समस्त पदार्थों और ऊर्जा का मूल माना जाता है ,उसे ही भगवान सत् (Eternal essence of the Universe) कह रहे हैं ? क्योंकि भगवान कह रहे हैं कि इस सत् का सृष्टि में अभाव नहीं है। यह सत् की वो मूल तत्व है जिसके अंदर सृष्टि निर्माण की इच्छा छिपी हुई है। भगवान कह रहे हैं कि “यह सत् अविनाशी है।” इसके अलावा जो कुछ भी है वो असत् ( Non-Eternal essence of Universe) यानि निराकार और निर्विकार सत्ता है।
विज्ञान डार्क मैटर( Dark Matter) की बात कहता है । डार्क मैटर ब्रह्मांड में पायी जाने वाली वो अदृश्य सत्ता है जो ब्रह्मांड के 80 प्रतिशत भाग को घेरती है। इसे लेकर अनुंसधान जारी है । वैज्ञानिकों ने ये साबित करने का प्रयास किया है कि डार्क मैटर किसी भी ब्रह्मांडीय बल से परे है। ये गुरुत्वाकर्षण बल की सीमा से भी परे है। डार्क मैटर के ही कुछ भागों में ब्रह्मांड में पाए जाने वाले सारे पिंड, तारे, सौरमंडल बिखरे हुए है।
क्या ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में जिस तम की बात की गई है वह डार्क मैटर ही है ? ऋग्वेद के नासदीय सूक्त में कहा गया है कि सत् और असत् से परे वह एक (ईश्वर) उस तम के आवरण में मौजूद है। भगवान जिस निराकार से साकार होने वाले सत् की बात कह रहे हैं वह इसी तम या डार्क मैटर में अवस्थित है? क्या असत् डार्क मैटर का वह भाग है जो निराकार और निर्विकार है और सत् डार्क मैटर का वह भाग है जिससे इस ब्रह्मांड के सारे पिंडों , तारों और सौरमंडलों की उत्पत्ति हुई है? यह अनुसंधान का विषय है।
भगवान कहते हैं सत् का अभाव नहीं है तो इसका अर्थ ये है कि डार्क मैटर ( तम) का वो भाग जो ब्रह्मांडीय बलों को धारण करता है वह साकार रुप ले सकता है । उस भाग के अंदर काम का भाव है जिसके द्वारा सृष्टि निर्माण का प्रारंभ होता है। सत् से ही सारी सृष्टि का निर्माण हुआ है जबकि असत् वो डार्क मैटर है जो निराकार और निर्विकार दोनों ही है। असत् नित्य और अविनाशी है लेकिन वो अभावात्मक या इच्छारहित है। जबकि सत् जब निराकार स्थिति में है तो वह नित्य और अविनाशी है लेकिन जैसे ही सत् प्रकट , साकार और भावात्मक( रुपयुक्त) होता है वह अनित्य और नाशशील हो जाता है ।
जैसे समुद्र की लहर का एक अपना स्वरुप होता है लेकिन वो समुद्र का ही भाग होती है। थोड़े वक्त के लिए वो एक अलग सत्ता के रुप में दिखती है लेकिन थोड़ी देर बाद उसका रुप नाशवान होकर वापस स्वरुपहीन और आकारहीन समुद्र के जल के रुप में वापस बदल जाता है। सत् का मूल स्वरुप भी निराकार है लेकिन चूँकि वो भावयुक्त है इसलिए वो विभिन्न प्रकार के पदार्थों और प्राणियों का रुप धारण करता है, लेकिन सत् के ये साकार स्वरुप काल सापेक्ष होते हैं। कुछ समय बीतने के बाद इनका नाश हो जाता है और ये वापस अपने मूल अप्रकट और निराकार सत् में परिवर्तित हो जाते हैं।
ये सारा ब्रह्मांड , ये सारे प्राणी उसी निराकार सत् के काल सापेक्ष साकार रुप हैं और समय बीतने के साथ ही इनका क्षय होने लगता है और ये फिर से वापस सत् के विराट निराकार स्वरुप में विलीन हो जाते हैं। जब सत् के अंदर फिर से सृष्टि इच्छा के लिए काम का भाव जाग्रत होता है तो फिर से सृष्टि का निर्माण होता है । यह क्रम चलता ही रहता है । सृष्टि का सत् के आविर्भाव और फिर उसी में विलीन हो जाने की प्रक्रिया शाश्वत है।
अन्तवन्त इमे देहा नित्यस्योक्ताः शरीरिणः ।
अनाशिनोऽप्रमेयस्य तस्माद्युध्यस्व भारत ॥2.18॥
antavanta imē dēhā nityasyōktāḥ śarīriṇaḥ.
anāśinō.pramēyasya tasmādyudhyasva bhārata৷৷2.18৷৷
अर्थः- “अविनाशी अप्रमेय के नित्य शरीरी के ये सभी शरीर नाशवान या अनंत को प्राप्त होने वाले कहे गये हैं। इसलिए “हे भारत तू युद्ध कर ।”
व्याख्याः-भगवान भारतवंशी अर्जुन से कह रहे हैं कि” इसी सत् (Eternal Essence of the Universe) से सारे संसार की वस्तुओं और प्राणियों का निर्माण हुआ है । इस सत् से बने सारे शरीर या देह नाशवान हैं और ये अनंत अर्थात उसी सत् (Eternal Essence of the Universe) में मिल जाते हैं ।इसलिए इस क्षणिक नाशवान देह के प्रति उपजे मोह का त्याग करो । इसे अविनाशी सत् का एक मायावी भाग समझो और मोह से मुक्त हो जाओ।”
भगवान कहते है कि “यह नाशवान देह चाहे भीष्म जैसे महान योद्धा का हो या द्रोण जैसे गुरु का हो , इनका नष्ट होना तय है । इनके ये क्षणिक शरीर उसी अनंत रुपी सत् (Eternal Essence of the Universe) के निर्मित हैं और उसी में मिल जाएंगे।”जब इन नाशवान शरीरों का आज नहीं तो कल नष्ट होना तय है तो फिर शोक करने की जरुरत ही नहीं है। इसलिए तुम युद्ध के लिए तैयार हो जाओ और अपने मोह का त्याग कर अपने गांडीव धनुष को उठा लो ।”
य एनं वेत्ति हन्तारं यश्चैनं मन्यते हतम् ।
उभौ तौ न विजानीतो नायं हन्ति न हन्यते ॥2.19॥
ya ēnaṅ vētti hantāraṅ yaścainaṅ manyatē hatam.
ubhau tau na vijānītō nāyaṅ hanti na hanyatē৷৷2.19৷৷
अर्थः- “इसे जो मारने वाला समझता है, या मारा गया ऐसा जो मानता है, वे दोनों ही ये नहीं जानते कि ये अविनाशी अप्रमेय नित्य शरीरी (सत्) न तो तो किसी को मारता है और न ही किसी के द्वारा मारा जाता है ।”
व्याख्याः- अधिकांश विद्धानों और गीता मनीषियों ने इसी श्लोक से अविनाशी, अप्रमेयी, नित्य शरीरी का अर्थ ‘आत्मा’ के रुप में लिया है । भगवान ने इसी अध्याय 2 के श्लोक 16 में संज्ञा रुप में ‘सत्’ की ही सत्ता के बारे में कहा है । उस ‘सत्’ को जो इस सृष्टि का मूल है।इसके बाद इसी अध्याय 2 के अगले श्लोक नंबर 17 में भगवान ‘सत्’ की व्याख्या का विस्तार से करते हुए इसे अविनाशी बताते हैं। इसके बाद इसी सत् की विशेषता बताते हुए भगवान कहते हैं कि “यह अविनाशी, अप्रमेय और नित्य शरीरी है।” यहां वो सत् के लिए ‘आत्मा’ संबोधन का प्रयोग न कर ‘इमे देहा’ के नाम से सत् को संबोधित करते हैं।
भगवान संज्ञा रुप में ‘सत्'(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) शब्द का प्रयोग और इसके विशेषण के रुप में अविनाशी, अप्रमेय, नित्य शरीरी, देहा आदि शब्दों का इस्तेमाल करते हैं। कहीं भी ‘आत्मा’ शब्द का उल्लेख नहीं करते हैं। हालांकि कई महान विद्धानों ने रुढ़ अर्थ में इनका अर्थ ‘आत्मा’ के रुप में ही किया है।
अब इस श्लोक ( गीता अध्याय 2, श्लोक 19) से वो सर्वनाम का प्रयोग करते हैं। यहीं से विश्लेषण का संकट उत्पन्न होता है। सर्वनामों का अर्थ विद्वानों ने ‘आत्मा’ के अर्थ के रुप में लिया है। इस श्लोक में भगवान कहते हैं कि “जो ‘इसे'( सर्वनाम का प्रयोग) मारने वाला समझता है, या मारा गया ऐसा मानता है, वे दोनों ही नहीं जानते हैं कि ‘यह’( सर्वनाम का प्रयोग) न तो किसी को मारता है और न ही किसी के द्वारा मारा जाता है ।”
व्याकरण के अनुसार संज्ञा के बाद सर्वनाम आता है । तो यहाँ संज्ञा के बाद सर्वनामों के उपयोग से स्पष्ट है कि भगवान ‘आत्मा’ के मरने की या ‘आत्मा’ के द्वारा मारे जाने की बात नहीं कह रहे हैं। भगवान कह रहे हैं कि सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) जो कि अविनाशी है, अप्रमेय और और नित्य शरीरी है , ‘यह’ न तो किसी को मारता है और न ही किसी के द्वारा मारा जाता है । क्योंकि सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) तो अविनाशी है और संपूर्ण ब्रह्मांड का मूल तत्व है । भगवान ये भी कह रहे हैं कि इस सत् के साकार रुप धारण करने से जो भी वस्तु , शरीर या गुण निर्मित होते हैं, वो नाशवान और क्षणिक होते हैं।
न जायते म्रियते वा कदाचि, न्नायं भूत्वा भविता वा न भूयः ।
अजो नित्यः शाश्वतोऽयं पुराणो- न हन्यते हन्यमाने शरीरे ॥2.10॥
na jāyatē mriyatē vā kadāci- nnāyaṅ bhūtvā bhavitā vā na bhūyaḥ.
ajō nityaḥ śāśvatō.yaṅ purāno na hanyatē hanyamānē śarīrē৷৷2.20৷৷
अर्थः-‘यह’ न तो कभी जन्म लेता है और न ही मरता है और न ही उत्पन्न होकर फिर होने वाला है, क्योंकि ‘यह’ अजन्मा , नित्य , सनातन और पुरातन है, शरीर के मारे जाने पर भी यह नहीं मरता है।
व्याख्याः- इस श्लोक को भी इसी अध्याय 2 के श्लोक 16 का विस्तार माना जाए तो स्पष्ट है कि भगवान यहां भी ‘आत्मा’ की बात नहीं कर रहे हैं , बल्कि सर्वनामों के प्रयोग द्वारा सत् (Eternal essence of the universe or basic element of the universe) के ही अन्य गुणों के बारे मे बता रहे हैं। इससे पहले के श्लोकों में भगवान ने सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) को अविनाशी , अप्रमेय और नित्य शरीरी बताया है। अब इसकी विशेषताओं का विस्तार करते हुए कहते हैं कि ‘यह'(सत्- the basic element of the universe) अजन्मा है, नित्य है , सनातन और पुरातन है।
विज्ञान भी उर्जा – पदार्थ से परे जिस गॉड पार्टिकल की बात करता है, वह अजन्मा , नित्य और अविनाशी है । इससे बनने वाला सारा ब्रह्मांड, हमारी सृष्टि, पृथ्वी, भौतिक जगत और हमारा शरीर भले ही नाशवान हो लेकिन इसका मूल तत्व जिसे ‘गॉड पार्टिकल’ का नाम दिया जाता है , वो ब्रह्मांड, सृष्टि, पृथ्वी और शरीर आदि भौतिक जगत का विनाश होने के बाद भी नहीं मरता है। यह अनादि और अनंत है ।
भगवान अर्जुन को भीष्म, द्रोण आदि के शरीरों मे स्थित उसी ‘गॉड पार्टिकल’ या सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) को देखने का आग्रह कर रहे हैं, जो नित्य , अजन्मा , सनातन और पुरातन है । भगवान कहते हैं कि अर्जुन भीष्म आदि के शरीर नाशवान हैं और इनका मरना तय है इसलिए इन शरीरों में स्थित उस मूल तत्व को पहचान जो अजन्मा , नित्य और अविनाशी है।
बहुत से विद्धानों का कहना है कि श्रीमद्भगवद्गीता को समझने के लिए वेदों और उपनिषदों का सहारा लेना चाहिए ।इनके बिना गीता के गूढ़ श्लोकों के अर्थों को नहीं समझा जा सकता है । कुछ विद्वानों का यह भी कहना है कि श्रीमद्भगवद्गीता के दूसरे अध्यायों में ‘आत्मा’ शब्द का उल्लेख आया है। इसलिए अध्याय 2 के श्लोको में भी जिसे अजर अमर और अविनाशी कहा गया है वो ‘आत्मा’ ही है।
लेकिन हमारा प्रश्न यह है कि क्या भगवान ने अर्जुन को कहीं भी यह कहा है कि तुम मेरे इन श्लोकों को समझने के लिए पहले वेद पढ़ लो, या फिर मैं जो इस श्लोक में तुम्हें समझा रहा हूं उसका अर्थ आगे के श्लोकों से निकाल लेना। हमारी मान्यता है कि श्रीमद्भगवद्गीता का हरेक श्लोक अपने आप में पूर्ण है और इसके लिए हमें किसी अन्य ग्रंथों और अन्य श्लोकों की सहायता लेने की आवश्यकता नहीं है। भगवान ने जो कहा है वह स्पष्ट कहा है और जहां जिस श्लोक को वह कह रहे हैं वो पूर्ण रुप से अभिव्यक्त है। भगवान की वाणी इतनी दुर्बल और अस्पष्ट नहीं हो सकती कि हम इसके लिए कहीं और भटकते रहें।
भगवान ने जहां जो श्लोक कहा है उसका अर्थ वहीं निकाला जाना चाहिए । इससे भ्रम उत्पन्न नहीं होगा और शुद्ध श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान हमें प्राप्त होगा। कई विद्वानों ने दूसरे ग्रंथों और श्रीमद्भगवद्गीता के कई दूसरे श्लोकों के प्रकाश में अर्थ कर ही ये भ्रम पैदा कर दिया है जिससे हमें शुद्ध श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान नहीं मिल पाता ।
हमारी मान्यता है कि जहां भगवान ने ‘आत्मा’ का उल्लेख किया है, उसी श्लोक में हम ‘आत्मा’ की व्याख्या करेंगे । भगवान ने कई स्थानों पर आत्मा का उल्लेख शरीर, मन, बुद्धि के लिए भी किया है। इसलिए हमारा प्रयास है कि जिस श्लोक में भगवान ने जो कहा है ,उसका उल्लेख उसी स्थान और उसी श्लोक के आलोक में किया जाना चाहिए।
वेदाविनाशिनं नित्यं य एनमजमव्ययम्
कथं स पुरुषः पार्थ कं घातयति हन्ति कम् ॥2.21॥
vēdāvināśinaṅ nityaṅ ya ēnamajamavyayam.
kathaṅ sa puruṣaḥ pārtha kaṅ ghātayati hanti kam৷৷2.21৷৷
अर्थः- हे पार्थ! जो पुरुष इसको विनाशहीन यानि अविनाशी नित्य अजन्मा और अव्यय( रुप में) जानता है वो कैसे किसी को मरवाता है या मारता है?
व्याख्याः- भगवान यहां अर्जुन को कहते हैं कि “जो यह जान लेता है कि या जिसे यह ज्ञान हो जाता है कि कि यह सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) अविनाशी है, नित्य है और अजन्मा है, वह यह जान लेता है कि वह स्वयं भी उसी सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) का अंश है और सभी प्राणी और भौतिक जगत इसी सत् (Eternal essence of the universe or basic element of the universe) से बने हैं। फिर वो यह भी जान लेता है कि सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) को न तो मारा जा सकता है और न ही यह मर सकता है । उसे यह ज्ञान हो जाता है कि सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) से बने इस क्षणिक शरीर से न तो किसी को मारा जा सकता है और न ही सत् (Eternal essence of the universe or basic element of the universe) से अवस्थित शरीर किसी अन्य को मार सकता है ।”
यहां भगवान अर्जुन को कह रहे हैं कि” जिस समय तुम्हें यह ज्ञान हो जाएगा कि संपूर्ण जगत में केवल सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) का ही अस्तित्व है और वही अविनाशी है, फिर मरने और मारने का भाव ही तुम्हारे अंदर से खत्म हो जाएगा । तुम्हें यह पता चल जाएगा कि तुम्हारे शरीर में भी उसी अविनाशी और नित्य सत् (Eternal essence of the universe or basic element of the universe) का वास है और सामने वाले तुम्हारे शत्रु के शरीर के अंदर भी उसी सत् (Eternal essence of the universe or basic element of the universe) का वास है ।”
भगवान अर्जुन को कहते हैं कि” इस ज्ञान से तुम जान लोगे कि सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) से सत् का नाश नहीं हो सकता क्योंकि सत् (Eternal essence of the universe or basic element of the universe) पूर्ण है । सत् से सत् को निकालने पर सत् ही बचेगा और सत् से सत् को जोड़ने पर भी सत् ही रहेगा।इस सत् को कई ज्ञानियों ने ‘ॐ’ की भी संज्ञा दी है और इस सत् रुपी ‘ॐ’ को लेकर वृहदारण्यक उपनिषद् का एक महान श्लोक भी है-
ॐ पूर्णमदः पूर्णमिदं पूर्णात् पूर्णमुदच्यते।
पूर्णस्य पूर्णमादाय पूर्णमेवावशिष्यते॥
अर्थः- “ॐ वह पूर्ण है जिससे पूर्ण को निकाल देने से भी शेष पूर्ण ही बचता है और पूर्ण में पूर्ण को जोड़ देने से भी पूर्ण ही रहता है।” यहां ॐ को पूर्ण परमात्मा के रुप में वर्णित किया गया है, जो अनंत , अविनाशी और अप्रमेय है। भगवान ने गीता में भी कहा है कि “मैं शब्दों में ॐ हूं।” संभवतः भगवान ने सत् को ही ॐ के रुप में भी परिभाषित किया है।
वासांसि जीर्णानि यथा विहाय, नवानि गृह्णाति नरोऽपराणि ।
तथा शरीराणि विहाय जीर्णा, न्यन्यानि संयाति नवानि देही ॥2.22॥
vāsāṅsi jīrṇāni yathā vihāya, navāni gṛhṇāti narō.parāṇi.
tathā śarīrāṇi vihāya jīrṇā, nyanyāni saṅyāti navāni dēhī৷৷2.22৷৷
अर्थः- मनुष्य जैसे जीर्ण या पुराने वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण कर लेता है, उसी प्रकार देही (सत् सर्वनाम रुप में अध्याय 2 श्लोक 18 में इमे देहा का प्रयोग किया गया है ) पुराने शरीरों को छोड़ कर नए शरीरों को प्राप्त कर लेता है।
व्याख्याः- चूंकि यह समस्त सृष्टि अविनाशी सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) के विभिन्न साकार स्वरुपों और पदार्थों से ही निर्मित है। इस लिए सत् रुपी साकार विनाशशील शरीरों के अंदर वास करने वाला यह सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) या देही या नित्य शरीरी उसी प्रकार नए अनित्य, क्षणिक और विनाशशील शरीरों को धारण कर लेता है जैसे कोई मनुष्य पुराने जीर्ण वस्त्रों को छोड़ कर नए वस्त्र धारण कर लेता है।
भगवान कह रहे हैं कि भले ही मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्याग कर दूसरे वस्त्र पहन लेता है, लेकिन इन वस्त्रों के अंदर उसका सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) वही रहता है , उसमें परिवर्तन नहीं होता सत् या देही या नित्य शरीरी(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) ही अपरिवर्तनशील है , अगर कुछ परिवर्तन हो रहा है तो वो अनित्य , मरणशील शरीर का त्याग और नए मरणशील और अनित्य शरीर का धारण है।
इसलिए भीष्म, द्रोण , धृतराष्ट्र या स्वयं कृष्ण और अर्जुन के ये शरीर नाशवान हैं। इनके अंदर और समस्त ब्रह्मांड के अंदर व्याप्त सत् या नित्य शरीरी या देही ( जो देह धारण करे ) अविनाशी रुप में हमेशा विद्ममान रहता है। वो कल किसी और शरीर को धारण कर लेता है । इससे पहले किसी और शरीर को इसी देही ( जिसने देह धारण किया है) ने धारण किया था। यहां भी भगवान ने ‘आत्मा’ शब्द या संबोधन का जिक्र नहीं किया है, बल्कि वो सर्वनामों और विशेषणों के रुप में इसे ‘देही’ आदि के नाम से संबोधित कर रहे हैं।
नैनं छिन्दन्ति शस्त्राणि नैनं दहति पावकः ।
न चैनं क्लेदयन्त्यापो न शोषयति मारुतः ॥2.23॥
nainaṅ chindanti śastrāṇi nainaṅ dahati pāvakaḥ.
na cainaṅ klēdayantyāpō na śōṣayati mārutaḥ৷৷2.23৷৷
अर्थः- “शस्त्र ‘इसे’ काट नहीं सकते ,अग्नि ‘इसे’ जला नहीं सकती ,जल ‘इसे’ भीगा नहीं सकता न वायु ‘इसे’ सुखा सकती है।”
व्याख्याः- भगवान ने यहां भी ‘आत्मा’ का कोई जिक्र नहीं किया है , बल्कि सर्वनाम ‘इसे’ का प्रयोग कर पहले के श्लोक ( 2.16, 2.17, 2.19) में वर्णित सत्, नित्य शरीरी, देही,(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) आदि का ही वर्णन कर रहे हैं। भगवान कहते है कि इस नित्य शरीरी , देही, अविनाशी सत् (Eternal essence of the universe or basic element of the universe) को न तो शस्त्र काट सकते हैं, न अग्नि इसे जला सकती है, न वायु इसे सूखा सकता है।
ठीक वैसे ही जैसे ऊर्जा का न तो निर्माण किया जा सकता है , न इसे नष्ट किया जा सकता है, सिर्फ इसका रुपांतरण हो सकता है(First Law of Thermodynamics) । हिग्स -बोसोन थ्योरी के अनुसार भी ‘गॉड पार्टिकल्स’ का न तो निर्माण होता है और न ही इसे नष्ट किया जा सकता है । यह भी नित्य , अविनाशी और अप्रमेय है ।
विज्ञान और भगवान की वाणी में फर्क यही है कि विज्ञान अभी तक इस संशय से घिरा हुआ है कि वह ऊर्जा और गॉड पार्टिकल्स में किसे अविनाशी और प्रथम माने ? जबकि भगवान ऊर्जा, ‘गॉड पार्टिकल’ रुपी पदार्थीय कण से परे सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) को अविनाशी, अप्रमेय और नित्य कह रहे हैं।
अच्छेद्योऽयमदाह्योऽयमक्लेद्योऽशोष्य एव च ।
नित्यः सर्वगतः स्थाणुरचलोऽयं सनातनः ॥2.24॥
acchēdyō.yamadāhyō.yamaklēdyō.śōṣya ēva ca.
nityaḥ sarvagataḥ sthāṇuracalō.yaṅ sanātanaḥ৷৷2.24৷৷
अर्थः- “क्योंकि ‘यह’ अच्छेद्य है, यह अदाह्य, अक्लेद्य और निःसंदेह अशोष्य है तथा ‘यह’ नित्य, सर्वव्यापी, अचल, स्थिर रहने वाला और सनातन है।”
व्याख्याः- भगवान इस श्लोक में अर्जुन को सत् , नित्य शरीरी, और देही(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) की विशेषताओं का वर्णन करते हुए कह रहे हैं कि “इसे शस्त्र इसलिए छेद नहीं सकते, क्योंकि यह अच्छेद्य है, अग्नि इसलिए इसे नहीं जला सकती क्योंकि यह अदाह्य है, और जल इसलिए इसे गीला नहीं कर सकता, क्योंकि जल इसे स्पर्श करके भी इस पर कोई प्रभाव नहीं डाल पाता है। वायु भी इसे सुखा नहीं सकती क्योंकि सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) पंचतत्वों से और इसके गुणों के प्रभावों से परे है।”
विज्ञान में ऊर्जा और ब्रम्हांड के मूलभूत तत्व ‘गॉड पार्टिकल’ भी पंचतत्वों (Five basic elements that are Space, Fire, water, wind and Earth) से परे हैं। इन भी किसी भी प्रकार के किसी भी ब्रह्मांडीय बलों का असर नहीं होता है । परंतु विज्ञान यह तय नहीं कर पा रहा है कि ऊर्जा और पदार्थ में मूल तत्व क्या है जिससे इस सृष्टि का निर्माण हुआ है जबकि भगवान सृष्टि के मूल तत्व को जानते हैं और इसे वो सत् (Eternal essence of the universe or basic element of the universe) कहते हैं।
सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) से ही ब्रह्मांड के सभी पदार्थों और ऊर्जा का निर्माण हुआ है। सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) से ही पंचतत्वों का निर्माण भी होता है इसलिए सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) इन पंचतत्वों से भी परे हैं। यही वजह है कि सत् या देही या नित्य शरीरी(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) पर इन तत्वों के गुणों का प्रभाव नहीं होता । पंचतत्वों का प्रभाव उन्हीं प्राणियों या वस्तुओं पर होता है तो सत्, रज और तम गुणों के अधीन होती हैं।
अव्यक्तोऽयमचिन्त्योऽयमविकार्योऽयमुच्यते ।
तस्मादेवं विदित्वैनं नानुशोचितुमर्हसि॥2.25॥
avyaktō.yamacintyō.yamavikāryō.yamucyatē.
asmādēvaṅ viditvainaṅ nānuśōcitumarhasi৷৷2.25৷৷
अर्थः- “‘यह’ अव्यक्त है, अचिन्त्य है ।‘यह’ विकाररहित है। इसलिए ऐसा जानकर तूझे शोक नहीं करना चाहिए।”
व्याख्याः-ब्रह्मांड में जो कुछ भी निर्मित होता है वो सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) से निर्मित होता है। जैसे लकड़ी के अंदर उष्मा अव्यक्त है, लेकिन जब हम उसमें घर्षण पैदा करते हैं तो अग्नि व्यक्त हो जाती है । ठीक उसी प्रकार सत् जब त्रिगुणात्मक माया का आश्रय लेती है तब सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) से निर्मित प्राणी सत्, रजस और तमस गुणों के प्रभाव से व्यक्त रुप से दिखते हैं।लेकिन सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) मूल रुप से इन तीनों गुणों से परे होता है और विकाररहित होता है ।
ठीक वैसे ही जैसे कीचड़ से कमल निकलने पर भी वो उसमें लिप्त नहीं होता, उससे अलग होता है , वैसे ही सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) त्रिगुणात्मक माया में प्रवेश कर शरीर धारण करता है लेकिन उससे लिप्त नहीं होता । विकारहित होता है।
भगवान अर्जुन को कह रहे हैं कि “तू इस सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) , देही( The one who hold the body that is Eternal essence of the universe or basic element of the universe ), नित्य शरीरी( The Immortal non-physical body) को सभी में स्थित और अव्यक्त मान और यह जान कर शोक मत कर ।”
अथ चैनं नित्यजातं नित्यं वा मन्यसे मृतम्, तथापि त्वं महाबाहो नैवं शोचितुमर्हसि ॥2.26॥
जातस्त हि ध्रुवो मृत्युर्ध्रुवं जन्म मृतस्य च, तस्मादपरिहार्येऽर्थे न त्वं शोचितुमर्हसि ॥2.27॥
atha cainaṅ nityajātaṅ nityaṅ vā manyasē mṛtam, tathāpi tvaṅ mahābāhō naivaṅ śōcitumarhasi৷৷2.26৷৷
jātasya hi dhruvō mṛtyurdhruvaṅ janma mṛtasya ca, tasmādaparihāryē.rthē na tvaṅ śōcitumarhasi৷৷2.27৷৷
अर्थः-” हे महाबाहो ! यदि तू इसे सदा जन्म लेने और मरने वाला भी माने तो भी तूझे इस प्रकार शोक करना उचित नहीं है, क्योंकि जन्म लेने वाले की मृत्यु निश्चित है और मरे हुओं का जन्म निश्चित है ।इस लिए इस अनिवार्य परिणाम के लिए तूझे शोक नहीं करना चाहिए।”
व्याख्याः- इन दोनों ही श्लोकों के बारे में अक्सर कहा जाता है कि भगवान ने यहां ‘आत्मा के सिद्धांत’ से विषयांतर किया है और इससे पहले के श्लोकों मेंवो जिस ‘आत्मा’ को अजर अमर बता रहे हैं, उस बात को काट कर अब दूसरी बात कह रहे हैं।
विद्वानों का कहना है कि भगवान यहां कह रहे हैं कि अगर यह मान भी लिया जाए कि सभी लोगों की मृत्यु निश्चित है तो आज नहीं तो कल इन सबको मरना ही है । फिर शोक करने की कोई आवश्यकता नहीं है। तुम भीष्म आदि को नहीं भी मारोगे तो भी भविष्य में इनकी मृत्यु होनी तय ही है ,फिर क्यों न तुम इन्हें मार कर राज्य प्राप्त कर लो।
लेकिन यह एक भ्रमित करने वाली बात है । भगवान ने न तो विषयांतर किया है और न ही वो अपनी ही बातों को काट रहे हैं। पहली बात भगवान यहां भी ‘आत्मा’ की बात नहीं कह रहे बल्कि वो उसी अविनाशी , अप्रमेय सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) की बात कह रहे हैं जिसे वो ‘नित्य शरीरी’ और ‘देही'( The one who hold the body that is Eternal essence of the universe or basic element of the universe ) कहते हैं।
दूसरी बात, भगवान सिर्फ मृत्यु की निश्चितता की बात नहीं कह रहे बल्कि वो यह भी कह रहे है कि जिस प्रकार मृत्यु निश्चित है उसी प्रकार पुनः जन्म लेना भी निश्चित है । इसका अर्थ यही है कि भगवान कह रहे हैं कि सत् (Eternal essence of the universe or basic element of the universe) के त्रिगुणात्मक प्रभाव में आने से बने नाशवान शरीरों की मृत्यु निश्चित है और फिर सत् रुप अविनाशी नित्यशरीरी या देही फिर से नए शरीर को धारण कर जन्म लेगा ही । ठीक वैसे ही जैसे कोई मनुष्य जीर्ण वस्त्रों को त्याग कर नए वस्त्र धारण करता है।
भगवान यहां किसी भी प्रकार से अपने पूर्व ज्ञान के विपरीत बात नहीं कह रहे । बस वो मृत्यु और पुनः जन्म की निश्चितता की बात कह रहे हैं, जो सत् या अविनाशी नित्य देही के द्वारा शरीर त्याग और पुनः धारण करने से होती है। भगवान यही कह रहे हैं कि सत् (Eternal essence of the universe or basic element of the universe) से बने शरीर का नाश भी तय है और पुनः सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) के द्वारा नए शरीर को जन्म देने की क्रिया भी तय है। यह दोनों ही घटना निश्चित है।
भगवान यहां मृत्यु और जन्म के क्रम की निश्चितता की बात कह रहे हैं। भगवान यहां पुनर्जन्म के सिद्धांत की स्थापना कर रहे हैं जो बिना अविनाशी सत्(Eternal essence of the universe or basic element of the universe) के नित्य हुए बिना संभव ही नहीं है ।
अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥2.28॥
avyaktādīni bhūtāni vyaktamadhyāni bhārata.
avyaktanidhanānyēva tatra kā paridēvanā৷৷2.28৷৷
अर्थः- “हे भारत!मनुष्य आदि प्राणी के शरीरों की पूर्वावस्था अव्यक्त है यानि प्रत्यक्ष नहीं है और निधन के उपरांत भी जो अवस्था होगी वो भी अव्यक्त हो जाएगी।केवल मध्य की अवस्था ही प्रत्यक्ष या प्रगट है, फिर इसके विषय में चिंता क्यों करते हो।”
व्याख्याः- विज्ञान सदियों से जीवन के उत्पत्ति के रहस्य की तलाश कर रहा है । जीव विज्ञान के अनुसार सबसे पहले जल के अंदर कुछ तत्वों की रसायनिक प्रतिक्रिया से कुछ ऐसे प्रोटिन अणुओं का जन्म हुआ जिनमें अचानक किसी विद्युतीय तरंगों या किसी अन्य प्रभाव से जीवन पैदा हो गया । इससे एक कोशकीय प्राणियों का जन्म हुआ। इन्ही एक कोशकीय प्राणियों से कालान्तर में विकास के द्वारा बहुकोशकीय प्राणियों का जन्म हुआ। धीरे -धीरे इन्हीं बहुकोशकीय प्राणियों से मनुष्य पक्षी आदि प्राणियों का विकास हुआ है ।
मनुष्य आदि का जन्म पुरुष शुक्राणुओं और मादा अंडे के मिलन से होता है। हमारे शुक्राणु और अंडे के अंदर जीन्स नामक आनुवांशिक सूचनाएं होती है, जिनके आधार पर हमारे शरीर के रुप,रंग और अंगों का निर्माण होता है। जीन्स नामक आनुवांशिक सूचनाएं डीएनए नामक रसायनिक कोड्स में संचित होती है। ये पूर्णतः अशरीरी और अव्यक्त होती हैं, जिनसे हमारे व्यक्त और प्रत्यक्ष शरीर का जन्म होता है । मृत्यु के बाद पुनः हमारा शरीर प्रोटिन और रसायनों में टूट कर बिखर जाता है और अप्रत्यक्ष हो जाता है ।
इसीलिए भगवान भी कह रहे हैं कि “यह शरीर जिसे तुम प्रत्यक्ष और प्रगट मान रहे हो, यह जन्म से पहले रसानयिक अप्रत्यक्ष सूचनाओं के रुप में अव्यक्त स्वरुप में रहता है और मृत्यु के बाद फिर से ये विघटित होकर अप्रत्यक्ष हो जाता है । केवल जब शरीर निर्मित होकर कुछ काल के लिए प्रत्यक्ष होता है तब उसी प्रगट शरीर को लोग सत्य मान लेते हैं। जबकि ये सभी अनित्य हैं और इसके लिए शोक करने की जरुरत ही नहीं है , क्योंकि एक काल विशेष के बाद इस प्रत्यक्ष शरीर का नष्ट होना तय है।”
आश्चर्यवत्पश्यति कश्चिदेन, माश्चर्यवद्वदति तथैव चान्यः ।
आश्चर्यवच्चैनमन्यः श्रृणोति, श्रुत्वाप्येनं वेद न चैव कश्चित् ॥2.29॥
āścaryavatpaśyati kaśicadēna, māścaryavadvadati tathaiva cānyaḥ.
āścaryavaccainamanyaḥ śrṛṇōti, śrutvāpyēnaṅ vēda na caiva kaśicat৷৷2.29৷৷
अर्थः- “कोई एक ही इसे आश्चर्य की भांति देखता है तथा कोई एक इसे आश्चर्य की भांति इसका वर्णन करता है। इसी तरह कोई आश्चर्य की भांति इसे सुनता है पर सुन कर भी इसके यथार्थ रुप को कोई नहीं जान पाता ।”
व्याख्याः- भगवान अर्जुन से यहां कह रहे हैं कि “इस अविनाशी सत् के बारे में मैंने जो ज्ञान तुम्हें दिया है ,वह ज्ञान बहुत विरले लोगों को ही हो पाता है । यह ज्ञान गूंगे के गुड़ जैसा है । इसका वर्णन करना भी बहुत कठिन है। इस ज्ञान का वर्णन कोई विरला ज्ञानी ही कर पाता है और इसे सुन कर समझने की योग्यता प्राप्त करना भी दुर्लभ है, क्योंकि इसे सुन कर भी शायद ही कोई इसे यथार्थ रुप में जान सकता है ।”
अर्जुन ने भगवान से प्रार्थना की थी को वो उन्हें वह ज्ञान दे जो उसके लिए कल्याण का साधन हो। इसके लिए अर्जुन ने उनका शिष्यत्व भी स्वीकार किया था। लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि भगवान यह बात हम सभी के लिए भी कह रहे हैं। प्रश्न पूछना बहुत सरल है । लेकिन सही प्रश्न पूछने की योग्यता प्राप्त करना बहुत ही कठिन है । फिर अपने योग्य प्रश्नों को किसी योग्य गुरु के पास जा कर पूछा जाए यह ज्ञान होना भी बहुत कठिन है।
अर्जुन योग्य था । उसे पता था कि उसके प्रश्नों का जवाब उसके गुरु द्रोण के पास नहीं है । उसके पास वो योग्यता और दृष्टि थी कि उसने अपने संशय का निवारण कृष्ण से ही पूछा। इसके बावजूद भगवान ने कहा है कि “इस ज्ञान को सुन कर भी इसे समझ पाना बुहुत विरल है। इसके लिए बहुत योग्यता की आवश्यकता पड़ती है।” संभवतः भगवान अर्जुन को अभी उस योग्य नहीं मान रहे। इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता भगवान के इसी ज्ञान के बाद समाप्त नहीं होती । बल्कि जब अर्जुन ये सब सुन कर समझ नहीं पाता तो वह और भी प्रश्न करता जाता है । इसीलिए इस गूढ़ ज्ञान के बाद भी भगवान की गीता अगले कई अध्यायों तक चलती रहती है।
देही नित्यमवध्योऽयं देहे सर्वस्य भारत
तस्मात्सर्वाणि भूतानि न त्वं शोचितुमर्हसि ॥2.30॥
dēhī nityamavadhyō.yaṅ dēhē sarvasya bhārata.
tasmātsarvāṇi bhūtāni na tvaṅ śōcitumarhasi৷৷2.30৷৷
अर्थः- “हे भरतवंशी अर्जुन सबके देह में रहने वाला देही ( The one who hold the body that is Eternal essence of the universe or basic element of the universe ) सदा अवध्य है इसलिए इन सभी प्राणीवर्ग के लिए तूझे शोक नहीं करना चाहिए।”
व्याख्याः भगवान एक बार फिर अर्जुन को ‘देही’ (अर्थात सभी प्राणियों के देह में अवस्थित सत्) के अविनाशी होने की बात कह रहे हैं। भगवान कहते हैं कि “भीष्म, द्रोण आदि के शरीर को मार भी दोगे तो भी इनके अंदर अवस्थित देही( The one who hold the body that is Eternal essence of the universe or basic element of the universe ) अवध्य है।” इसलिए तू सिर्फ शरीर को मारेगा और देही( The one who hold the body that is Eternal essence of the universe or basic element of the universe ) को मार नहीं पाएगा। इसलिए जब देही( The one who hold the body that is Eternal essence of the universe or basic element of the universe ) अमर है और अवध्य है तो फिर क्यों इन शरीरों को मारने से डर रहा है और इनके मर जाने को लेकर शोक क्यों कर रहा है?
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