श्रीमद्भगवद्गीता

श्रीमद्भगवद्गीता की भूमिका। Bhagavad Gita: Shuddh Gita

श्रीमद्भगवद्गीता का अर्थ क्या है और शुद्ध गीता क्या है?

श्रीमद्भगवद्गीता हिंदू धर्म के सबसे महत्वपूर्ण ग्रंथों में है, लेकिन कई सौ वर्षों से इसके शुद्ध अर्थ को लेकर भ्रम फैलाया जाता रहा है । हमारा उद्धेश्य श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोकों की व्याकरणिक और धार्मिक रुप से शुद्ध अर्थ निकालना और इसकी यथारुप व्याख्या करना है। इसीलिए हमने श्रीमद्भगवद्गीता के जो अर्थ और उनकी व्याख्या की है उसे ‘शुद्ध गीता'( Shuddh Gita) का नाम दिया है।

श्रीमद्भगवद्गीता ‘महाभारत’ महाकाव्य का एक महत्वपूर्ण अंग है । इसका वाचन भगवान के द्वारा महाभारत के ‘भीष्म पर्व’ में किया गया है । ‘गीता’ शब्द की उत्पत्ति ‘गीत’ से हुई है । इस अर्थ में श्रीमद्भगवद्गीता का अर्थ है ‘भगवान का गीत’ । श्रीमद्भगवद्गीता को उपदेश के रुप में नहीं, बल्कि गीत के रुप में कहा गया है।

श्रीमद्भगवद्गीता को गीत के रुप में क्यों कहा गया है ? इसका जवाब है कि भगवान ने स्वयं को वेदो में ‘सामवेद’ बतलाया है । सामवेद में ऋग्वेद की ऋचाओं को गीत के रुप में गाया गया है। चूंकि भगवान स्वयं को वेदों में सामवेद कहते हैं , इसलिए श्रीमद्भगवद्गीता को भी भगवान का उपदेश न कह कर भगवान का गीत कहा गया है ।

श्रीमद्भगवद्गीता के अलावा कई अन्य उपदेशों को भी गीता का दर्जा दिया गया है ;जैसे, अष्टावक्र की महागीता , महाभारत में भीष्म के द्वारा युधिष्ठिर को दिए गये उपदेश को भी ‘भीष्म गीता’ कहा जाता है । महाभारत में ही एक व्याघ्र के द्वारा एक अहंकारी ब्राह्म्ण को दिए गये उपदेश को भी ‘व्याघ्र गीता’ कहा जाता है । पराशर के द्वारा युधिष्ठिर को दिये गये उपदेश को भी ‘पराशर गीता’ कहते हैं। युधिष्ठिर-यक्ष संवाद को भी ‘गीता’ का दर्जा प्राप्त है। संभवतः इसीलिए भगवान के द्वारा दिए गए इस उपदेश को अन्य उपदेशों से अलग दिखाने के लिए इसे ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ कहा गया है । 

श्रीमद्भगवद्गीता कब कही गई?

श्रीमद्भगवद्गीता का वाचन भगवान के द्वारा महाभारत के ‘भीष्म पर्व’ में किया गया। जब कौरवों और पांडवों की सेनाएं एक दूसरे के सामने युद्ध की इच्छा से खड़ी थीं और इस दौरान अपने कुटुंबों को देख कर अर्जुन के अंदर विषाद और करुणा व्याप्त हो गई थी । अर्जुन अपने कुंटुबों और गुरुजनों की हत्या के पाप से बचने के लिए युद्धभूमि मे शस्त्र रख देता है ।अर्जुन के इसी विषाद को दूर करने के लिए भगवान उसे जो ज्ञान देते हैं, उसे ‘श्रीमद्भगवद्गीता’ के रुप में जाना जाता है। 

श्रीमद्भगवद्गीता धृतराष्ट्र ने आँखों देखी सुनी?

ऐसा भ्रम है कि संजय कुरुक्षेत्र में हो रही सारी घटनाओं का लाइव टेलीकास्ट धृतराष्ट्र के सामने बैठ कर कर रहे थे । यह सच है कि महाभारत के रचयिता कृष्ण द्वैपायन व्यास ने पहले अंधे धृतराष्ट्र को दृष्टि देने की बात कही थी,जिसे धृतराष्ट्र ने यह कह कर ठुकरा दिया था कि वो अपने कुटुंबों की हत्या नहीं देखना चाहता, बस इस युद्ध का पूरा समाचार सुनना चाहता है । क्या महाभारत के युद्ध का वर्णन और श्रीमद्भगवद्गीता को धृतराष्ट्र ने आँखों देखी(Live Telecast) सुनी थी या फिर इसका वर्णन उन्हें बाद में सुनाया गया था? इसको लेकर बहुत विवाद है, जिसका निराकरण करना भी बहुत आवश्यक है । 

संजय की दिव्य दृष्टि का सच

महाभारत के ‘भीष्म पर्व’ के अध्याय 2 में वेदव्यास धृतराष्ट्र के पास आते हैं और उन्हें नेत्र देने की बात करते हैं –

यदि चेच्छसि संग्रामे दृष्टुमेतान विशाम्पते ।
चक्षुदर्दानि ते पुत्र युद्धं तत्र निशामय ।।

अर्थात – “हे पुत्र ! अगर तुम इस संग्राम को देखना चाहते हो तो मैं तुम्हें नेत्र प्रदान करता हूं, ताकि तुम इस युद्ध को देख सको ।” 

यहां गौरतलब है कि वेदव्यास जी धृतराष्ट्र को नेत्र देने की बात करते हैं न कि दिव्य दृष्टि। इसका अर्थ यह हो सकता है कि अंधे धृतराष्ट्र को नेत्र मिल जाते और वो युद्ध क्षेत्र में जाकर युद्ध देख सकता था, क्योंकि सामान्य नेत्रों से दूर बैठ कर किसी घटना और वस्तु को नहीं देखा जा सकता है । 

धृतराष्ट्र वेदव्यास जी के इस उपहार को लेने से मना करते हुए कहते हैं कि –

न रोचये ज्ञातिवधं द्रष्टुं ब्रम्हर्षिसत्तम ।
युद्धमेतत् त्वशेषेण श्रुणुयां तव तेजसा ।।

 अर्थात – “हे ब्रह्मर्षि वेदव्यास जी ! मुझे अपने जानने वालों का वध ( ज्ञातिवधं ) देखना अच्छा नहीं लगता । युद्ध की घटनाओं का शेष ( त्व शेषेण ) आपके प्रभाव से सुनना जरुर चाहता हूं। “

इसके बाद वेदव्यास जी संजय को दिव्य दृष्टि देते हैं । लेकिन इस दिव्य दृष्टि से लाइव टेलिकास्ट (Live Telecast) द्वारा युद्ध का वर्णन नहीं सुनाया जा सकता था, बल्कि संजय इस दिव्य दृष्टि के द्वारा युद्ध क्षेत्र में स्वयं उपस्थित रह कर उस युद्ध को देख सकता था और फिर वापस धृतराष्ट्र के पास आकर इस युद्ध का वर्णन सुना सकता था। 

वेदव्यास धृतराष्ट्र से कहते हैं कि –

एष ते संजयो राजन् युद्धमेतद् वदिष्यति, एतस्य सर्व संग्रामे न परोक्षं भविष्यति !
चक्षुषा संजयो राजन् दिव्यैनेव समन्वितः, कथयिप्यति ते युद्धं सर्वज्ञश्च भविष्यति !!
प्रकाशं वाप्रकाशं वा दिवा वा यदि निशि, मनसा चिन्तितमपि सर्वे वेत्स्यति संजयः !
नैनं शस्त्राणि छेत्सयंति नैनं बाधिष्यते श्रमः, गावल्यगणिरयं जीवन् युद्धाद्स्माद् विमोक्ष्यते !!

अर्थात – “राजन् !यह संजय आपको इस युद्ध का सब समाचार बताया करेगा । संपूर्ण संग्राम के दौरान कोई भी ऐसी बात नहीं होगी जो इसके समक्ष प्रत्यक्ष नहीं होगी । हे राजन् !यह संजय दिव्य दृष्टि से संपन्न होकर सर्वज्ञ हो जाएगा और तुम्हें युद्ध की बात बताएगा । कोई भी बात प्रकट हो या अप्रकट , दिन में हो या रात में अथवा किसी के मन में भी सोची गई क्यों न हो , संजय सब कुछ जान लेगा । इसे कोई भी शस्त्र मार नहीं सकेगी और न ही इसे कोई थकावट होगी । यह युद्ध में भी जीवित बच जाएगा ।” 

धृतराष्ट्र ने श्रीमद्भगवद्गीता दस दिन बाद सुनी थी

श्रीमद्भगवद्गीता का प्रारंभ ‘भीष्म पर्व’ के अध्याय 25 से होता है, जबकि ‘भीष्म पर्व’ के अध्याय 13 में ही संजय सबसे पहले युद्ध भूमि से लौट कर हस्तिनापुर पहुंचता है और धृतराष्ट्र के महल में जाकर भीष्म की पराजय और उनके शर शय्या पर लेट जाने का समाचार सुनाता है – 

वैशम्पायन उवाच :

अथ गावल्गणिर्विद्वान् संयुगादेत्य भारत, प्रत्यक्षदर्शी सर्वस्य भूतभव्यभविष्यवित् !
ध्यायते धृतराष्ट्राय सहसोत्पत्य दुःखितः, आचष्ट निहतं भीष्मं भरतानां पितामहम !!

 अर्थात – वैशम्पायन जी कहते हैं कि “एक दिन की बात है कि भूत ,वर्तमान और भविष्य के ज्ञाता और सभी घटनाओं को प्रत्यक्ष देखने वाले गवल्गण पुत्र  विद्वान संजय ने युद्ध भूमि  से लौट कर सहसा चिंतामग्न धृतराष्ट्र के पास जाकर अत्यंत दुखित होकर भरतवंशियों के पितामह भीष्म के युद्ध भूमि में मारे जाने का समाचार बताया । “

संजय उवाच :

संजयोSहं महाराज नमस्ते भरतर्षभ !
हतो भीष्मः शान्तनवो भरतानां पितामहं !!

अर्थ – संजय बोले “हे भरतश्रेष्ठ महाराज ! आपको नमस्कार है। मैं आपकी सेवा में उपस्थित हूं। भरतवंशियों के पितामह और महाराज शांतनु के पुत्र भीष्म आज युद्ध में मारे गये ।” 

इसके बाद धृतराष्ट्र भीष्म के मारे जाने पर विलाप करते हैं और फिर संजय से भीष्म के मारे जाने तक हुए पूरे युद्ध का पूरा वृतांत पूछते हैं – 

धृतराष्ट्र उवाच – 

तथा तद्भवद् युद्धं कुरुपांडवसेनयोः !
क्रमेण येन यस्मिंश्च काले यच्च यथाभवत् !!

अर्थ – धृतराष्ट्र बोले” कौरवों और पांडवों की सेनाओं का वह युद्ध जिस समय और जिस क्रम और जिस रुप में हुआ , वह सब कहो ।”

इसके बाद संजय पराशर पुत्र वेदव्यास जी को धन्यवाद कह कर युद्ध का विवरण शुरु करते हैं – 

नमस्कृत्वा पितुस्तेSहं पराशरर्याय धीमते, यस्य प्रसादाद् दिव्यं तत् प्राप्तं ज्ञानमनुत्तमम् !
दृष्टिश्चातीन्द्रियां राजन् दूराछ्रवणमेव च, परचित्तस्य विज्ञामतीतानागतस्य च !!
व्युत्थितोत्पत्तिविज्ञानामाकाशे च गतिः शुभा, अस्त्रैरसंगो युद्धेषु वरदानान्महात्मनः !
श्रुणु में विस्तरणेदं विचित्रं परमाद्भुतम् , भरतानांभूद् युद्धं यथा तल्लोमहर्षणम् !!

महाभारत , भीष्म पर्व अध्याय 15

अर्थ – “राजन !जिनके कृपा प्रसाद से मुझे उत्तम दिव्य ज्ञान प्राप्त हुआ है । इंद्रियातीत विषयों को भी प्रत्यक्ष देखने वाली दृष्टि मिली है , दूर से भी सब कुछ सुनने की शक्ति, दूसरे के मन की बातों को समझ लेने का सामर्थ्य , भूत और भविष्य का ज्ञान, शास्त्र के विपरीत चलने वाले मनुष्यों की उत्पत्ति का ज्ञान, आकाश में चलने फिरने की उत्तम शक्ति, तथा युद्ध के समय चलने वाले अस्त्रों से अपने को अछूते रहने का अद्भुत चमत्कार आदि बातें जिन महात्मा के वरदान से संभव हुई हैं , उन्हीं पराशरनंदन बुद्धिमान व्यास जी को नमस्कार करके भरतवंशियों के इस अद्भुत और विचित्र और रोमांचकारी युद्ध का वर्णन आरंभ करता हूं ।”

संजय धृतराष्ट्र के महल में नहीं युद्ध भूमि में रहता था 

उपर किये गए पूरे विवरण से यही पता चलता है कि संजय को दिव्य दृष्टि तो थी, लेकिन वो लाइव टेलीकास्ट नहीं कर रहा था या धृतराष्ट्र के पास बैठ कर युद्ध का आँखो देखा हाल नहीं बता रहा था। सच ये है कि संजय स्वयं युद्धभूमि में स्वयं उपस्थित रहता था और वो बार-बार लौट कर धृतराष्ट्र को युद्ध की घटनाएं बताता था ।

महाभारत से पता चलता है कि पहली बार संजय महाभारत के युद्ध के दसवें दिन लौटा, जब भीष्म पितामह शरशय्या पर अर्जुन के बाणों से आहत होकर गिर गए थे । इसके बाद संजय द्रोण की मृत्यु के बाद 16वें दिन फिर से आता है और धृतराष्ट्र को अगले छह दिनों की कथा बताता है । इसी प्रकार वो कुछ – कुछ अंतरालों के बाद धृतराष्ट्र के पास आता है और युद्ध का हाल बताता है ।

महाभारत का युद्ध समाप्त होने के पहले संजय को युद्ध क्षेत्र में सात्यकि और धृष्टद्युम्न कैद कर लेते हैं और संजय का वध करने ही वाले होते हैं कि व्यास प्रगट होकर संजय को बचा लेते हैं । महाभारत के शल्य पर्व के अध्याय 29 मे इस प्रसंग का वर्णन भी है – 

धृष्टध्युम्न मां दृष्टवा हसन् सात्यकिमब्रवीत, किमनेन गृहीतेन नानेनार्थोSस्ति जीवता !
धृष्ध्युनवचः श्रुत्वा शिनेर्नप्ता महारथः, उद्म्य निशितं खगं हन्तुं मामुद्तस्तदा !!
तमागम्य महाप्राज्ञः कृष्णद्वैपायनोSब्रवीत, मुच्यतां संजयो जीवन्न हन्तव्यः कथंचन !

महाभारत, शल्य पर्व अध्याय 29

अर्थ – “उसी समय मुझे ( संजय) कैद में पड़ा हुआ देखकर हंसते हुए धृष्टद्युम्न ने सात्यिकि से कहा कि इसको कैद करके क्या करना है? इसको मार डालते हैं। इसके जीवित रहने से अपना कोई लाभ नहीं है । धृष्द्युम्न की बात सुन कर शिनिपुत्र सात्यिकि मुझे मार डालने के लिए तैयार हो गए । तभी महाज्ञानी व्यास जी सहसा प्रगट हो कर बोले कि संजय को जीवित छोड़ दो । यह किसी प्रकार से वध के योग्य नहीं है ।”

महाभारत में कई ऐसे प्रसंग हैं जिनसे पता चलता है कि खुद संजय ने भी कुरुक्षेत्र में दुर्योधन की पक्ष से युद्ध लड़ा था ,जिसका उदाहरण शल्य पर्व के ही अध्याय 25 मे भी मिलता है । 

महाभारत युद्ध के दसवें दिन धृतराष्ट्र ने सुनी श्रीमद्भगवद्गीता 

इस विवरण से यह तो साफ पता चलता है कि जब संजय भीष्म की पराजय के बाद दसवें दिन हस्तिनापुर लौटते हैं तब जाकर वो पहले दिन से लेकर दसवें दिन के युद्ध तक की कथा धृतराष्ट्र को सुनाते हैं ,इसी दौरान संजय धृतराष्ट्र को श्रीमद्भगवद्गीता भी सुनाते हैं। वह ज्ञान जो श्रीकृष्ण ने अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता के रुप में सुनाया था।

श्रीमद्भगवद्गीता किस- किस ने सुनी

श्रीमद्भगवद्गीता में कुल मिलाकर चार पात्र हैं। धृतराष्ट्र , संजय, अर्जुन और श्रीकृष्ण । धृतराष्ट्र की जिज्ञासा से श्रीमद्भगवद्गीता शुरु होती है। संजय धृतराष्ट्र को गीता सुनाते हैं। अर्जुन अपने विषाद से मुक्ति के लिए कृष्ण से प्रश्न करते हैं । इसके बाद भगवान श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन के संशयों को दूर कर उन्हें ज्ञानलब्ध करा कर युद्ध के लिए प्रेरित करते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता में धृतराष्ट्र का सिर्फ एक ही श्लोक है।

श्रीमद्भगवद्गीता में किस-किस के संवाद हैं

श्रीमद्भगवद्गीता में धृतराष्ट्र का सिर्फ एक ही श्लोक है, जब वो संजय से यह पूछते हैं कि “धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से खड़े हुए उनके और पांडव पुत्रों ने क्या किया?” इसके अलावा संजय के संवाद अलग अलग अध्यायों में कई बार आए हैं, जब वो धृतराष्ट्र को श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान सुनाते हैं। अर्जुन के सारे संवाद या तो भगवान से किए गये प्रश्नों के रुप में हैं, भगवान को दिए गए कुछ निर्देशों के रुप में हैं या फिर प्रश्नों के उत्तर मिल जाने की कृतज्ञता से भरे हुए हैं । भगवान के सारे संवाद अर्जुन को संबोधित हैं । 

धृतराष्ट्र का सिर्फ एक संवाद क्यों हैं 

श्रीमद्भगवद्गीता का प्रारंभ एक विषादग्रस्त और मोहग्रस्त व्यक्ति धृतराष्ट्र से एक प्रश्न से होता है । धृतराष्ट्र सिर्फ जन्म से अंधे नहीं थे, बल्कि वो अपने पुत्र मोह में भी अंधे थे । श्रीमद्भगवद्गीता में धृतराष्ट्र एक विषादग्रस्त और चिंतामग्न हुए व्यक्ति के रुप में दिखते हैं, जिसे सिर्फ अपने लोगों की चिंता है । यहां धृतराष्ट्र अर्जुन की तरह विषाद में जरुर हैं, क्योंकि उन्हें पता चल चुका है कि युद्ध में कौरवों में श्रेष्ठ वीर भीष्म की पराजय हो चुकी है ( क्योंकि धृतराष्ट्र को संजय युद्ध के दसवें दिन यह कथा प्रारंभ से सुना रहे हैं )। धृतराष्ट्र चिंतित भी हैं। लेकिन उनकी चिंता और विषाद अर्जुन के विषाद से अलग है ।

अर्जुन इस बात से दुखी है कि उसे अपने कुंटुबों की हत्या करनी पड़ेगी और युद्ध का परिणाम किसी प्रकार सुखदायी नहीं होने वाला है। अर्जुन युद्ध की इच्छा का ही त्याग करना चाहता है । लेकिन धृतराष्ट्र का विषाद इस लिए नहीं है कि वो युद्ध नहीं चाहता , बल्कि वो युद्ध में अपने कौरव पुत्रों की संभावित हार से व्याकुल है, क्योंकि उसे पता चल चुका है कि भीष्म जैसा महारथी पराजित हो चुका है ।

धृतराष्ट्र और अर्जुन के प्रश्नों में अंतर क्या है 

 धृतराष्ट्र का मोह अपने और सिर्फ अपने पुत्रों के लिए है । जबकि अर्जुन का मोह अपने विजय के लिए नहीं है, वो अपने शत्रुओं के लिए भी चिंतित है। अर्जुन जानता है कि उसके सामने जो शत्रु खड़े हैं वो उसके रिश्तेदार भी हैं। लेकिन धृतराष्ट्र को पांडवो से कोई प्रेम नहीं है इसलिए वो ‘मामका पांडवाश्चैव’ कह कर अपने लोगों और पांडवो को अलग अलग करके ही प्रश्न पूछता है ।

अर्जुन का विषाद न सिर्फ अपने पक्ष के लोगों की संभावित हत्या से है बल्कि, उससे भी कहीं ज्यादा उसका विषाद सामने शत्रु बने उन कौरव भाइयों के लिए भी है, जिन्होंने पूरी जिंदगी पांडवों को बर्बाद करने में लगा दी थी । इसलिए धृतराष्ट्र के विषाद की लघुता को देखते हुए पूरी श्रीमद्भगवद्गीता मे उसके सिर्फ एक संवाद को ही शामिल किया गया है । इसके बाद कहीं भी धृतराष्ट्र का कोई संवाद नहीं आता  । 

धृतराष्ट्र को गीता का ज्ञान क्यों नहीं मिला

श्रीमद्भगवद्गीता में भगवान अर्जुन के सारे प्रश्नों और संशयों का उत्तर दे देते हैं । अर्जुन को ज्ञान प्राप्त हो जाता है। श्रीमद्भगवद्गीता को सुनकर संजय को भी ज्ञान प्राप्त हो जाता है , लेकिन श्रीमद्भगवद्गीता के अंतिम श्लोकों में भी कहीं भी धृतराष्ट्र के संवाद का न होना यह बतलाता है कि उसने श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान सुना जरुर लेकिन वह ज्ञानलब्ध नहीं हो पाया । वो पहले की तरह ही मोहग्रस्त और अज्ञान के अंधकार में डूबा रहा । 

दशरथ और धृतराष्ट्र मोह से ग्रस्त दो पिता

रामायण और महाभारत दोनों में दो पिताओं को मोहग्रस्त दिखाया गया है । रामायण में श्रीराम के पिता महाराज दशरथ भी पुत्र मोह से ग्रसित हैं। वो अपने पुत्र श्रीराम को लेकर इतने ज्यादा मोह से ग्रस्त हैं कि अपनी पत्नी कैकयी को दिए दो वचनों को पूरा करने में हिचकिचाते हैं। महाभारत में धृतराष्ट्र भी अपने पुत्र के प्रति मोहग्रस्त हैं, वो अपने पुत्र के राज्य छीन जाने की संभावना से डरे हुए हैं,इसलिए वो पांडवों को राज्य लौटाने का वचन पूरा करने में हिचकिचाते हैं। 

दशरथ और धृतराष्ट्र का मोह एक जैसा है लेकिन अंतर दोनों के पुत्रों के बीच के स्वभाव का है । जहां दशरथ पुत्र राम अपने पिता के वचन को पूरा करने के लिए धर्म का रास्ता पकड़ते हैं। राम अपने साथ अपने पिता की कीर्ति की भी रक्षा करते हैं और राजपाट का त्याग कर वनवास धारण करते हैं, वहीं धृतराष्ट्र का पुत्र दुर्योधन राजपाट के लिए अपने पांडव भाइयों को अधर्मपूर्वक वनवास के लिए मजबूर कर देता है । वो अपने पिता के मोह और महात्वाकांक्षाओं की पूर्ति के लिए अधर्म का सहारा लेकर जुए में पांडवों को छल से पराजित करता है । इसके पीछे दो कारण हैं –

 एक तो श्री राम धर्म के साक्षात स्वरुप हैं – रामों विग्रहवान धर्मः (वाल्मीकि रामायण) अर्थात राम साक्षात धर्म के मूर्त रुप हैं। 

दूसरे, वहीं दुर्योधन अधर्म की मूर्ति कलि का अवतार है । दुर्योधन अधर्म का साक्षात स्वरुप है । इसलिए जहां दशरथ को श्रीराम जैसे धर्मश्रेष्ठ पुत्र की वजह से स्वर्ग की प्राप्ति हुई, वहीं धृतराष्ट्र को उनके अधर्मी पुत्र दुर्योधन की वजह से सारे पुत्रों की मत्यु देखनी पड़ी और श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान सुनने के बाद भी ज्ञान की प्राप्ति नहीं हुई । धृतराष्ट्र श्रीमद्भगवद्गीता सुन कर भी मोह और शोक से घिरे रह गए।

महाभारत का संजय कौन है

महााभारत में हम कई जातियों का वर्णन पढ़ते हैं जिसमें सूत जाति(Sut Caste) एक महत्वपूर्ण और प्रभावशाली जाति के रुप में सामने आती है। रामायण में भी सूत जाति( Sut Caste) का वर्णन आता है । दशरथ के सारथी और मंत्री सुमंत भी सूत जाति( Sut Caste) से आते थे। महाभारत में भी सूत जाति(Sut Caste) के कई पात्रों का वर्णन आता है, जिसमें अधिरथ, संजय और कीचक महत्वपूर्ण हैं। संजय, अधिरथ और कीचक जन्म से सूत जाति ( Sut Caste) से आते थे।

महावीर कर्ण को भी सूतपुत्र( Son of Sut caste) कहा गया है, लेकिन कर्ण जन्म से क्षत्रिय था और कुंती का पहला पुत्र था। कुंती ने कर्ण को उस वक्त जन्म दिया था, जब वो कुंवारी थीं। बदनामी के भय से कुंती ने कर्ण का त्याग कर दिया था और उसका पालन पोषण सूत जाति( Sut Caste) के अधिरथ ने किया था। अधिरथ अंग देश का रहने वाला था और धृतराष्ट्र का सारथी भी रह चुका था । अधिरथ के लिए महाभारत में सम्मानजनक शब्दों का प्रयोग किया गया है और उसे महायशस्वी अधिरथ कह कर संबोधित किया गया है।

सूत जाति( Sut Caste) का मूल क्षत्रिय पिता और ब्राह्मण माता से माना जाता है । ये पहली वर्णसंकर जाति है जिसे द्विज( Dwija) होने का दर्जा प्राप्त था। द्विज वो होते हैं जिन्हें उपनयन संस्कार करने और वेद पढ़ने का अधिकार था । इसके अलावा वेद पढ़ने और उपनयन संस्कार का अधिकार मोटे तौर से सिर्फ ब्राह्मणों ,क्षत्रियों और वैश्यों को था । इनके अलावा सूतों( Sut) को भी वेदों को पढ़ने का अधिकार था ।

वर्तमान में अक्सर सूत जाति(Sut Caste) को अक्सर नीची जाति या दलित जाति के समकक्ष माना जाता है । ये सत्य नहीं है। सूत जाति(Sut Caste) का स्थान ब्राह्मणों और क्षत्रियों के ठीक बाद था । सूत जाति(Sut Caste) के लोग शासन व्यवस्था में उँचे पदों पर विराजमान थे । सूत जाति(Sut Caste) के लोग मंत्री और सेनापति के पदों पर सुशोभित होते थे। सारथी का कार्य भी सूत जाति(Sut Caste) के लोग करते थे। सारथी का कार्य निम्न नहीं माना जाता था और ये लोग राजाओं के निजी सचिव भी होते थे। इसलिए कर्ण को सूत जाति(Sut Caste) का बता कर उसका अपमान नहीं किया गया था।

महाभारत की पूरी कथा ही नैमिषारण्य में सूत जाति(Sut Caste) के ऋषि उग्रश्रवा सुनाते हैं। उग्रश्रवा ने जनमेजय के यज्ञ में वैशम्पायन के मुख से महाभारत की कथा सुनी थी और इसी कथा को उन्होंने नैमिषारण्य के कुलपति शौनक और अन्य ऋषियों को सुनाई थी। इससे यही पता चलता है कि सूत जाति(Sut Caste) के लोग समाज में सम्मानित पद पर थे।

मत्स्य राज्य के राजा विराट की पत्नी भी सूत जाति(Sut Caste) की थी और राजा विराट का साला कीचक भी सूत जाति(Sut Caste) का ही था। कीचक विराटनगर के राजा का सेनापति था और काफी प्रभावशाली था। कीचक का वध भीम ने उस वक्त किया था जब कीचक ने द्रौपदी के साथ छेड़खानी की थी।

संजय को सूत(Sut) गाल्वगण का पुत्र बताया गया है और पेशे से उसे कई जगह बुनकर भी बताया गया है । गौरतलब है कि श्रीमद्भगवद्गीता के पूरे प्रसंग को संजय एक बुनकर की तरह सूत्रों में पिरोकर बताता है । अगर सूत जाति(Sut Caste) नीची जाति होती तो ये संभव नहीं था कि वो कौरवों के दल में इतना अधिकार रखता। संजय पूरे महाभारत में धृतराष्ट्र का सलाहकार बना रहा । धृतराष्ट्र ने संजय को पांडवों के पास अपना दूत बना कर भेजा था। महाभारत में संजय कई जगह धृतराष्ट्र पर महाभारत के युद्ध का दोष निर्भिकता के साथ मढ़ता है। अगर संजय किसी कमजोर जाति से आता तो वो इतना प्रभावशाली नहीं होता।

संजय ने सारी इंद्रियों को जीत लिया था 

संजय नामकी उत्पत्ति ‘संञ’ से हुई है जिसका अर्थ होता है ‘मन सहित सभी दस इंद्रियों को जीतने वाला।’ संजय ने अपने मन सहित सभी दस इंद्रियों को जीत लिया था, इसलिए उसका नाम ‘संजय’ पड़ा । संजय ने अपनी सारी इंद्रियों पर विजय प्राप्त कर ली थी । संजय की प्रशंसा स्वयं श्रीकृष्ण महाभारत के उद्योग पर्व के अध्याय 29 में करते हैं –

जानन्निमं सर्वलोकस्य धर्मे विप्रेदन्द्राणां क्षत्रियाणां विशां च

अर्थ – “हे संजय! तुम तो  श्रेष्ठ ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य और संपूर्ण लोकों के इस प्रसिद्ध धर्म को जानते हो ।”

श्रीमद्भगवद्गीता दो सारथियों के ज्ञान का प्रवाह है 

कई जगह संजय को धृतराष्ट्र का सारथी भी बताया जाता है । इस नज़रिए से देखें तो श्रीमद्भगवद्गीता में दो सारथी हैं। एक कृष्ण, जो अर्जुन के रथ के सारथी हैं तो दूसरे संजय जो धृतराष्ट्र के सारथी हैं। दोनों ही अपने सामने उपस्थित संशयग्रस्त व्यक्तियों के संशयों का निराकरण करने का प्रयास कर रहे हैं। ‘रथ’ इंद्रियों को भी कहते है। सारथी उसे भी कहते हैं जो अपनी ‘रास’ या रस्सियों से हमारी दस इंद्रियों और मन के अनियंत्रित अश्वों को नियंत्रित करें। यह रास राग से परे है ।

इस ‘रास’ में ज्ञान का रस है । संजय धृतराष्ट्र की मोहग्रस्त इंद्रियों और मन को अपने ज्ञान की रस्सी या ‘रास’ से नियंत्रित कर उसे आत्म साक्षात्कार में बदलने का प्रयास करते हैं और दूसरी तरफ श्रीकृष्ण अर्जुन के सारथी हैं, जो अर्जुन की संशयग्रस्त और विषादयुक्त इंद्रियों को अपने ज्ञान रास से नियंत्रित कर उसे आत्मज्ञान की तरफ मोड़ देते हैं। 

संजय एक असफल सारथी है और कृष्ण एक सफल सारथी

जहां श्रीकृष्ण अपने सारथी होने को सफल कर देते हैं और अर्जुन को ज्ञानलब्ध बना देते हैं, वहीं संजय धृतराष्ट्र को ज्ञानलब्ध बना कर उनके मोह को दूर नहीं कर पाता । इसकी कई वजहें हैं । पहली यह कि यह ज्ञान साक्षात कृष्ण खुद अर्जुन को दे रहे हैं, तो दूसरी तरफ संजय दस दिनों के बाद धृतराष्ट्र को सेकेंड हैंड इनफॉर्मेशन दे रहा है । संजय जो कह रहा है वो उसका अपना नहीं है, जबकि कृष्ण जो कह रहे हैं वो उनका अपना है । 

दूसरे, अर्जुन युद्धभूमि में साक्षात खड़ा है और भविष्य के संभावित परिणामों को देख रहा है । धृतराष्ट्र महल में बैठे हुए हैं और उन्हें शुरु के दस दिनों के युद्ध का हाल पता चल चुका है, जिससे उन्हें यह तय लग रहा है कि अब उनके कौरव पुत्रों की हार तय है । इसलिए धृतराष्ट्र की जिज्ञासा ज्ञान प्राप्त कर अपने संशय को दूर करने की नहीं है, बल्कि अपने पुत्रों के कुशल को जानने की है । 

अर्जुन कौन है ?अर्जुन शोकग्रस्त क्यों हुआ? 

अर्जुन शब्द की उत्पत्ति “अ-ऋजु’ से हुई है । ‘ऋजु’ का अर्थ है, जो सीधा और सरल हो । ‘अऋजु’ का अर्थ है, जो संशय में हो, सरल और सीधा न हो । अर्जुन आप और हम कोई भी हो सकते हैं। जिसके भी मन में संशय हो वो अर्जुन हो सकता है। अर्जुन को ही महाभारत के युद्ध के पहले विषाद नहीं हुआ था, अर्जुन के अलावा युधिष्ठिर भी महाभारत के युद्ध के पहले शोक में डूब गए थे ।

महाभारत में युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र को भी विषाद हुआ था 

 महाभारत के युद्ध के ठीक पहले भीष्म पर्व के अध्याय 21 में युधिष्ठिर को भी विषाद होता है । युधिष्ठिर भी युद्ध के संभावित परिणामों को लेकर संशय ग्रस्त हो जाते हैं। युधिष्ठिर न केवल महाभारत के युद्ध के पहले बल्कि वो युद्ध समाप्त होने के बाद भी शोक में डूब जाते हैं । कौरवों की महान सेना को देख कर युद्ध में भी स्थिर रहने वाले युधिष्ठिर भी भयभीत हो जाते हैं। युधिष्ठिर संशय में आकर अर्जुन से प्रश्न करते हैं – 

धनंजय कथं शक्यमस्माभिर्योद्धुमाहवे ।
धार्तराष्ट्रै महाबाहो येषां योद्धा पितामह ।।

महाभारत, भीष्म पर्व, अध्याय 21

अर्थ – “हे महाबाहु धनंजय ( अर्जुन)! जिनके प्रधान योद्धा पितामह भीष्म हैं, उन धृतराष्ट्र पुत्रों के साथ हम समरभूमि में युद्ध कैसे कर सकते हैं?”

ते वयं संशयं प्राप्ताः ससैन्याः शत्रुकर्षण ।
कथमस्मान्महाव्यूहादुत्थानं न भविष्यति ।।

अर्थ –” शत्रुनाशन अर्जुन ! हम लोग अपनी सेनाओं के साथ प्राणसंकट की स्थिति में पहुंच गए हैं। इस महान व्यूह से हमारा उद्धार कैसे होगा ?” 

युधिष्ठिर का संशय भी धृतराष्ट्र की तरह ही है । वो अपने पक्ष की संभावित पराजय के भय से संशयग्रस्त हैं। दूसरे पक्ष के प्रति उन्हें कोई सहानूभूति नहीं है । उनके इस संशय का निराकरण अर्जुन इसी अध्याय में कर देते हैं –

यतो धर्मस्तो जयः।
भीष्म पर्व , अध्याय 21, श्लोक 10

अर्थः- “जहां धर्म है, वहीं जय है I”

यतो कृष्णस्तो जयः ।
भीष्म पर्व , अध्याय 21, श्लोक 11
अर्थः- “जहां कृष्ण हैं, वहीं जय है ।”

गुणभूतो जयः कृष्णे पृष्ठोSभ्येति माधवम् ।
भीष्म पर्व , अध्याय 21, श्लोक 12
अर्थ – “हे युधिष्ठिर ! विजय तो कृष्ण का एक गुण है, अतः वह उनके पीछे पीछे चलता है । “

अर्जुन के इस आश्वासन के बाद युधिष्ठिर का भय दूर हो जाता है, क्योंकि यह विषाद करुणा या अज्ञान से नहीं, बल्कि भय से उत्पन्न था और भय दूर होते ही युधिष्ठिर युद्ध के लिए तैयार हो जाते हैं। 

धृतराष्ट्र का विषाद भय और मोह दोनों से उत्पन्न हुआ। मोहग्रस्त होकर ही वो कहते हैं कि “मामका पांड्वाश्चैव” अर्थात “मेरे लोगों और पांडवों के बीच क्या हुआ ?” उनके लिए मेरे का मोह ज्यादा बड़ा है। दूसरे, धृतराष्ट्र को श्रीमद्भगवद्गीता जब सुनाई गई, तब तक महाभारत का आधा युद्ध समाप्त हो चुका था, भीष्म पराजित हो चुके थे। भीष्म कौरव सेना की रीढ़ थे। अब उनका यूँ पराजित होकर शरश्य्या पर गिर जाने से युद्ध कौरवों की तरफ एकतरफा नहीं रह गया था। इससे पहले युद्ध में कौरवों की जीत निश्चित लग रही थी, इसलिए धृतराष्ट्र भी भयभीत नहीं रहे होंगे। उन्हें उनके गुप्तचर जो भी समाचार लेकर आते होंगे, उससे वो आनंद में रहते होंगे।

 लेकिन जैसे ही संजय उन्हें भीष्म की पराजय का समाचार सुनाते हैं, वैसे ही धृतराष्ट्र भयभीत हो उठते हैं। भय से ही वो पूछते हैं कि ” किम कुर्वतः संजय ” अर्थात : मेरे और पांडवों के पुत्रों ने क्या किया , ‘क्या किया?’ का अर्थ है कि अब वो युद्ध के परिणाम को लेकर आशंकित है। अब धृतराष्ट्र युद्ध में कौरवों की विजय को लेकर आश्वस्त नहीं हैं । इस नज़रिए से युधिष्ठिर का विषाद और धृतराष्ट्र का विषाद केवल युद्ध के उन परिणामों के लेकर है। दोनों को लगता है कि कहीं वो युद्ध में हार न जाएँ।

अर्जुन का विषाद विशेष क्यों है 

अर्जुन युद्ध से पहले सिर्फ अपनी सेना के मारे जाने के संभावित परिणाम से चिंतित और शोकग्रस्त नहीं है, बल्कि सामने खड़ी अपने शत्रु कौरवों की सेना के मारे जाने के संभावित परिणाम को लेकर भी शोक में डूब जाता है। उसे युद्ध में सिर्फ अपने लोगों के खोने का दुख नहीं है, बल्कि उसे इस बात का भी दुख है कि इस युद्ध में उसके शत्रु सेना के लोग भी मारे जाएंगे । अर्जुन जानता है कि कौरव उनके शत्रु होने के साथ साथ उसके कुटुंब भी हैं ।

अर्जुन का शोक धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर के शोक से बड़ा है। अर्जुन के विपरीत धृतराष्ट्र और युधिष्ठिर को सिर्फ अपने पक्ष के लोगों के मारे जाने की चिंता है लेकिन अर्जुन दोनों तरफ के लोगों के मारे जाने की चिंता से शोकग्रस्त है । इसीलिए अर्जुन को यह धर्मयुद्ध नहीं नज़र आ रहा । उसे लग रहा है कि इस रक्तपात से बेहतर है कि वो संसार का त्याग कर दे और फिर से वनवास ले ले । ऐसे राज्य को भोगना उसे अच्छा नहीं लग रहा, जिसमें उसके कुटंबियों का खून भी शामिल हो । 

जबकि,युधिष्ठिर और धृतराष्ट्र ऐसे राज्य को पाने के बाद भी सुखी रह सकते है, जिसमें उनके कुटंबजनों का खून भी शामिल हो । हालांकि युद्ध खत्म होने के बाद युधिष्ठिर को भी इस युद्ध के परिणामों को लेकर विषाद होता है, जो भीष्म के उपदेशों से खत्म होता है और युधिष्ठिर को शांति मिलती है। अर्जुन को युद्ध के पहले ही विषाद होता है और भगवान के द्वारा उसे आत्मज्ञान भी युद्ध के पहले हो जाता है।

युद्ध के पहले युधिष्ठिर का विषाद अर्जुन के आश्वासन के बाद कुछ दिनों के लिए दब जाता है लेकिन युद्ध के बाद फिर से उभर जाता है, क्योंकि अर्जुन के आश्वासन से युधिष्ठिर का डर तो खत्म होता है, परंतु आत्मज्ञान नहीं मिलता । युधिष्ठिर को युद्ध के बाद भीष्म के उपदेशों के बाद आत्मज्ञान प्राप्त होता है और उनका शोक खत्म हो जाता है । धृतराष्ट्र को युद्ध के बीच मे ही शोक होता है और वो विषादग्रस्त हो जाते हैं, लेकिन संजय के द्वारा श्रीमद्भगवद्गीता सुनाए जाने के बाद भी उनका शोक और मोह खत्म नहीं हो पाता और वो जीवनपर्यंत मोह और विषाद से ग्रस्त रहते हैं।

अर्जुन विष्णु के नरावतार हैं

महाभारत के अनुसार अर्जुन और कृष्ण नर और नारायण के अवतार है । नर और नारायण को विष्णु का एक ही वक्त में लिया गया दोहरा अवतार माना जाता है। नर और नारायण का जन्म ब्रह्मा के मानस पुत्र धर्म और उनकी पत्नी रुचि से हुआ था । नर और नारायण के अवतरण का उद्देश्य संसार में सुख और शांति के लिए तप का मार्ग बताना था । इसलिए ये दोनों संसार के कल्याण के लिए आज भी बद्रिकाश्रम में तपस्या कर रहे हैं। 

विष्णु ने गीता सुनाई और विष्णु ने ही गीता 

अर्जुन नरस्वरुप विष्णु के अवतार हैं, जिन्हें श्रीमद्भगवद्गीता का ज्ञान विष्णु के ही नारायण अवतार श्रीकृष्ण से मिलता है । अर्थात एक नज़रिए से देखें तो विष्णु नारायण अपने ही कृष्ण अवतार के रुप में अपने ही नर अवतार विष्णु स्वरुप अर्जुन को यह ज्ञान दे रहे हैं। इसका उद्देश्य नर और नारायण द्वारा तप द्वारा प्राप्त किए गए ज्ञान को अर्जुन और कृष्ण के रुप मे पृथ्वी पर अवतरीत होकर संसार के कल्याण के लिए श्रीमद्भगवद्गीता के स्वरुप में उद्घाटित करना था । 

कृष्ण कौन हैं? क्या श्रीकृष्ण ही श्रीमद्भगवद्गीता के भगवान हैं? 

गीता के चौथे और सबसे महत्वपूर्ण पात्र हैं श्रीकृष्ण । अर्जुन श्रीकृष्ण से अपने विषाद से उत्पन्न संशयों का निराकऱण पूछते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के प्रथम अध्याय में कहीं भी श्रीकृष्ण एक भी शब्द नहीं बोलते हैं । अध्याय 2 के श्लोक नंबर 2 और 3 में पहली बार श्रीकृष्ण अर्जुन से शोक का कारण पूछते हैं और इस शोक का त्याग कर युद्ध में खड़े होने के लिए कहते हैं –

श्रीभगवानुवाच

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम्।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन॥2.2॥

अर्थ : श्रीभगवान बोले- “हे अर्जुन! अनार्य जिसका आचरण करते हों,और जो परलोक विरोधी( स्वर्ग न देने वाला हो), और कीर्तीकारक ( यश देने वाला नहीं ) नहीं है, ऐसी यह कायरता इस विषम बेला में तुझमें कहां से आ गई ?”

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥2.3॥

अर्थ :  “हे पार्थ ! नपुंसकता न ग्रहण कर, यह तुझे शोभा नहीं देती । हे परंतप ! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा ।”

गौर करने वाली बात है कि श्रीमद्भगवद्गीता में  ‘श्रीकृष्ण उवाच’ या ‘श्रीकृष्ण ने कहा’- ऐसा कहीं भी वर्णित नहीं हैं । अर्जुन बार- बार श्रीकृष्ण को संबोधित करता है, उन्हें मधूसूदन, ह्रषीकेश, केशव, महाबाहो अन्य नामों से संबोधित करता है । लेकिन श्रीमद्भगवद्गीता को लेखबद्ध करने वाले वेदव्यास जी ने एक बार भी कहीं भी ‘श्रीकृष्ण उवाच’ नहीं लिखा । जहां भी अर्जुन को उपदेश दिया जा रहा है वहां – वहां ‘श्रीभगवान उवाच’ या ‘भगवान ने कहा’- ऐसा लिखा गया है । 

तो क्या अर्जुन श्री कृष्ण से  जो कुछ भी पूछ रहा है , अपने संशय खड़ा कर रहा है उसका जवाब कृष्ण के शरीर में अवतरीत होकर कोई और दे रहा है ? क्या श्रीकृष्ण भगवान न होकर भगवान के एक माध्यम भर है जिनमें अवतरीत होकर भगवान अर्जुन को ज्ञान दे रहे हैं ?अगर ऐसा ही है तो ये भगवान कौन हैं? क्या नाम है इनका ? क्या ये श्रीकृष्ण के अलावा कोई और हैं, जिन्हें व्यास भगवान के नाम से संबोधित कर रहे हैं ? क्या जिन्हें भगवान के नाम से श्रीमद्भगवद्गीता से संबोधित किया जा रहा है वो श्रीकृष्ण ही है ? क्या वेदव्यास सिर्फ भगवान कह कर श्रीकृष्ण को भगवान के रुप में स्थापित कर रहे हैं? क्या अर्जुन जिन श्रीकृष्ण को संबोधित कर रहे हैं, वही व्यास, संजय और अर्जुन के भगवान हैं। 

इस महान प्रश्न का उत्तर श्रीमद्भगवद्गीता के अगले अध्यायों में आपको निश्चय ही मिलेगा । क्योंकि हमारा प्रयास श्रीमद्भगवद्गीता में किसी भी प्रकार के मिलावट करने का नहीं है । 

शुद्ध श्रीमद्भगवद्गीता प्रस्तुत करने का उद्देश्य क्या है ?

शुद्ध सनातन का उद्देश्य हमारे पवित्र और महान धार्मिक ग्रंथों की मन माफिक भावार्थ करने का नहीं है । न ही हमारा उद्देश्य किसी प्रकार के अलग मत या संप्रदाय चलाने के लिए हमारे महान ग्रंथो की अपने सुविधानुसार व्याख्या करना है । हमारा एकमात्र उद्देश्य हमारे ग्रंथो के श्लोकों के अर्थों का संस्कृत से दूसरी भाषाओं में जस का तस अनुवाद कर उसे आपके समक्ष रख देना है । हमने देखा है कि किस प्रकार गीता और दूसरे ग्रंथों में दिए गए संस्कृत श्लोकों का शाब्दिक अर्थ न कर उसका भावार्थ किया जाता है, ताकि श्लोक के अर्थों का अनर्थ किया जा सके और अपने संप्रदाय बना कर चलाए जा सकें। 

शुद्ध गीता लिखने का उद्देश्य भी यही है । हम गीता मे जहां भगवान उवाच लिखा गया है, वहां हम श्रीकृष्ण उवाच लिख कर भ्रम पैदा नहीं करना चाहते हैं । जहां परंपरा की बात की गई हो वहां हम गुरु परंपरा लिख कर अर्थ का अनर्थ नहीं करना चाहते हैं। उदाहरण के लिए हम आपको कुछ संप्रदायों के द्वारा कुछ श्लोकों की मन माफिक व्याख्या दिखा रहे हैं –

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥

भावार्थ : हे परन्तप अर्जुन ! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना, किन्तु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लुप्तप्राय हो गया।

स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः। भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।4.3।।

अर्थ – “तू मेरा भक्त सखा( चकार से ) प्रपन्न शिष्य हो, इसलिए वही पुराना योग मेरे द्वारा तुझे कहा गया, क्योंकि यह अति उत्तम रहस्य है ।” 

कुछ संप्रदाय इसमें परंपरा के नाम पर ‘गुरु परंपरा'(Tradition of Teachers ) लिख कर और ‘तू मेरा शिष्य है’, इन वाक्यों तोड़ मरोड़ कर प्रस्तुत करते हैं। वे गीता के इन श्लोकों के आधार पर यह बताने की कोशिश करते हैं कि श्रीमद्भगवद्गीता के ज्ञान को प्राप्त करने के लिए गुरु- शिष्य परंपरा(The tradition of teacher and pupils) में शामिल होना आवश्यक है । हम किसी संप्रदाय का नाम नहीं ले सकते परंतु आपको यह विश्वास दिला सकते हैं कि हमारा प्रयास सिर्फ शुद्ध रुप से शाब्दिक अर्थ को आपके सामने प्रस्तुत करना है ताकि आप शुद्ध गीता ( Pure Gita) पढ़ सकें ।  

और पढ़िए :

Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *

Translate »