शुद्ध गीता_धृतराष्ट्र

शुद्ध श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 1। धृतराष्ट्र का प्रश्न Bhagavad Gita Chapter 1, Question of Dhritarashtra

शुद्ध श्रीमद्भगवद्गीता एक नेत्रहीन व्यक्ति धृतराष्ट्र की जिज्ञासा से शुरु होती है। ज्ञान के नेत्र प्रदान करने वाली यह अद्भुत यात्रा आश्चर्यजनक रुप से एक अंधे व्यक्ति से शुरु होती है। धृतराष्ट्र न केवल शारीरिक रुप से अंधे थे, बल्कि वो कई मायनों में अंधे थे। धृतराष्ट्र पुत्र मोह में भी अंधे थे । धृतराष्ट्र राजसत्ता के मोह में अंधे थे। धृतराष्ट्र पांडवों के धर्म को जानबूझ कर अनदेखा कर रहे थे। धृतराष्ट्र सत्ता के मद में अँधे थे। वैसे, धृतराष्ट्र धर्म के ज्ञाता थे परंतु परंपरागत धर्म के ज्ञाता होने के बावजूद वो पांडवों के साथ होने वाले अधर्म को देख कर भी अंधे बने हुए थे ।

विदुर और कृष्ण जैसी ईश्वरीय सत्ताओं के समझाने के बाद भी धृतराष्ट्र अपने पुत्र दुर्योधन की महात्वाकांक्षा को नियंत्रित नहीं कर पाए । धृतराष्ट्र हमेशा संशय में थे कि क्या उनका पुत्र दुर्योधन उनके बाद हस्तिनापुर का राजा बन पाएगा? इसी मोह और भय के संशय से उत्पन्न व्याकुलता से धृतराष्ट्र संजय से प्रश्न करते हैं –

धर्मक्षेत्रे कुरुक्षेत्रे समवेता युयुत्सवः।
मामकाः पांडवाश्चैव किम कुर्वत संजय ।।1।।

अर्थः- धृतराष्ट्र बोले- हे संजय ! धर्मक्षेत्र, कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्र हुए मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया ?

व्याख्याः- धृतराष्ट्र का ये प्रश्न चिंता से भरा हुआ है। धृतराष्ट्र का ये प्रश्न भय से भरा हुआ है। धृतराष्ट्र का ये प्रश्न अपने पुत्रों के संभावित पराजय से भरा हुआ है। श्रीमद्भगवद्गीता महाभारत के भीष्म पर्व के अध्याय 25 से शुरु होती है लेकिन गीता के प्रारंभ से पहले के अध्यायों में धृतराष्ट्र लगभग 50 बार एक ही जैसा प्रश्न करते हैं? इन प्रश्नों से धृतराष्ट्र के भय और चिंता से भरे मन के बारे में जानकारी मिलती है। महाभारत के भीष्म पर्व के अध्याय 13 में संजय धृतराष्ट्र को भीष्म पितामह के पराजित होने की खबर देते हैं।

इसके बाद भीष्म पर्व के अध्याय 13 से लेकर अध्याय 24 तक धृतराष्ट्र बार- बार ये प्रश्न पूछते हैं कि आखिर भीष्म जैसा महारथी पांडवों से पराजित कैसे हो गया? बार-बार धृतराष्ट्र संजय से कहते हैं कि भीष्म की पराजय के बाद कौरवों की हार अब निश्चित है। बार- बार धृतराष्ट्र संजय को युद्ध का पूरा हाल बताने के लिए कहते हैं। धृतराष्ट्र ये विश्वास करने के लिए तैयार ही नहीं है कि भीष्म जैसा योद्धा पराजित हो सकता है और पांडवों की जीत भी हो सकती है। धृतराष्ट्र इसी व्याकुलता और चिंता से भर कर श्रीमद्भगवद्गीता के पहले श्लोक में संजय से पूछते हैं कि”धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्रित हुए मेरे और पांडु के पुत्रों ने क्या किया ?”

श्रीमद्भगवद्गीता में धृतराष्ट्र का प्रश्न क्यों है ? :

धृतराष्ट्र का संवाद श्री मद्भगवद्गीता में सिर्फ एक बार आता है । गीता के श्लोक 1 में सिर्फ धृतराष्ट्र संजय से प्रश्न करते हैं कि “”धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में युद्ध की इच्छा से एकत्रित हुए उनके और पांडवों के पुत्रों ने किया किया ?” 

धृतराष्ट्र का यह प्रश्न उनकी चिंता को प्रगट करता है  उनके विषाद को दिखाता है । लेकिन यह विषाद और दुख उन्हें अपने अज्ञान को दूर करने के लिए नहीं है जैसा कि अर्जुन का विषाद है । धृतराष्ट्र इस प्रश्न में ही यह साबित कर देते हैं कि कुरुवंश में उनके लिए ‘मामका’ यानि उनके अपने कौरव हैं और ‘पांडवाश्चैव’ यानि पांडु के पुत्र उनके अपने नहीं हैं। ‘मामका’ शब्द से  स्पष्ट हो जाता है कि इस युद्ध में धृतराष्ट्र धर्म के साथ नहीं बल्कि अधर्म के साथ खड़े हैं। यह युद्ध धृतराष्ट्र के मोह का विस्तार है।

युद्ध के दसवें धृतराष्ट्र ने सुनी श्रीमद्भगवद्गीता :

धृतराष्ट्र पूछते हैं कि “कुरुक्षेत्र में उनके अपने और पांडवों के पुत्रों ने ‘क्या किया’ ( किम कुर्वत) ?” यहां ‘क्या किया’ का प्रश्न बहुत सारगर्भित है । यह प्रश्न ‘क्या किया?’ यह बताता है कि यह सवाल किसी भूतकाल में हुई घटना के बारे में है । धृतराष्ट्र ने ऐसा नहीं पूछा कि “मेरे और पांडु के पुत्र क्या कर रहे हैं ?” इससे यह भी साबित होता है कि, संजय युद्ध का हाल लाइव टेलीकास्ट के जरिए नहीं सुना रहा था ।

शुद्ध श्रीमद्भगवद्गीता की भूमिका में हमने यह दिखाया है कि, किस प्रकार संजय युद्ध क्षेत्र में ही लगातार उपस्थित रहते थे और युद्ध में होने वाली सारी घटनाओं को देखते थे। महाभारत के युद्ध के दसवें दिन जब भीष्म की पराजय होती है और वो शरशय्या पर लेट जाते हैं ,तब संजय कुरुक्षेत्र से वापस हस्तिनापुर लौटते हैं। इसके बाद संजय युद्ध के पहले दिन से लेकर दसवें दिन यानी भीष्म की पराजय तक की कथा धृतराष्ट्र को विस्तार से सुनाते हैं। इसीलिए धृतराष्ट्र भूतकाल वाचक उपवाक्य “मेरे और पांडवों के पुत्रों ने क्या किया” कह कर संजय से पूछते हैं,  न कि “मेरे और पांडव पुत्र क्या कर रहे हैं।“ 

‘धर्म’ शब्द से शुरु होती है श्रीमद्भगवद्गीता : 

धृतराष्ट्र जो एकमात्र प्रश्न पूछते हैं, उसका पहला शब्द ही ‘धर्मक्षेत्रे’ है । ‘धर्म’ शब्द विष्णुवाचक होने की वजह से मंगलकारक है । परम पूज्य श्री त्रिदंडीस्वामी जी ने इस शब्द की व्याख्या करते हुए कहा है कि जिस भी ग्रंथ का प्रारंभ किसी मंगलवाचक शब्द से हो वह ग्रंथ पवित्र हो जाता है । किसी भी ग्रंथ के प्रारंभ, मध्य और अंत में मंगलसूचक शब्दों का प्रयोग उस ग्रंथ को ईश्वरीय और पवित्र बना देता है । 

महाभारत का प्रारंभ भी भगवान विष्णु के मंगलसूचक नाम ‘नारायण’ से होता है – 

नारायणं नमस्कृत्य नरं चैव नरोत्तमम् ।
देवीं सरस्वती व्यास ततो जयमुदीरयेत।।
महाभारत- आदिपर्व श्लोक

अर्थात – विष्णु अवतार नारायण और नर , उनकी लीला प्रगट करने वाली भगवती सरस्वती और उसके वक्ता वेदव्यास को नमस्कार कर जय (का मूल नाम जय संहिता है ) का पाठ करना चाहिए । 

महाभारत के अलावा वाल्मीकि रामायण का प्रारंभ भी मंगलसूचक शब्द ‘तप’ से होता है । 

तपः स्वाध्यायनिरतं तपस्वी वाग्विदां वरम् ।
नारदं परिप्रपच्छ वाल्मीकिमुनिर्पुंग्वम ।।
वाल्मीकि रामायण, बालकांड, सर्ग 1 श्लोक

अर्थ- “वाल्मीकि जी ने ‘तप’ और स्वाध्याय में लगे हुए विद्वानों में श्रेष्ठ मुनिवर नारद जी से पूछा ।”

‘तप’ से अशुद्धियों का नाश होने से शरीर और इंद्रियों की सिद्धि होती है । तप मानव योनि के लिए मंगलकारक है क्योंकि यह ईश्वर प्राप्ति का मार्ग है । 

यही वजह है कि श्रीमद्भगवद्गीता का प्रारंभ ‘धर्म’ शब्द से करके यह स्पष्ट कर दिया गया है कि इसका पाठ करने और इसका मनन करने वाले के लिए मंगल ही मंगल है । 

युद्धभूमि ‘कुरुक्षेत्र’ को धर्म का क्षेत्र क्यों कहा गया ? :

कुरुक्षेत्र महाभारत काल से पहले भी एक महान धार्मिक क्षेत्र माना जाता रहा है। कुरुक्षेत्र एक और नाम ‘समंतपंचक क्षेत्र’ भी है । महाभारत के ‘आदि पर्व’ के अध्याय 2 में कुरुक्षेत्र यानी समंतपंचक क्षेत्र की महिमा बताते हुए कहा गया है कि त्रेता युग और द्वापर युग की संधि में परशुराम जी ने अनेकों बार क्षत्रियों का संहार किया और इस क्षेत्र में क्षत्रियों के रक्त से पांच सरोवर बना दिये थे । इन पांचों रक्त से भरे सरोवरों में परशुराम जी ने क्षत्रियों के रक्त से अपने पितरों को तर्पण किया था ।

इसके बाद ऋचिक आदि पितृ गणों ने आकर परशुराम जी की पितृभक्ति से प्रसन्न होकर वरदान मांगने को कहा । तब परशुराम जी ने पितृगणों से वरदान मांगा कि वो क्षत्रियों के वध से हुए पाप से मुक्त हो जाएं और उनके बनाए गए रक्त के ये पांच सरोवर प्रसिद्ध तीर्थ बन जाएं । पितरों के आशीर्वाद से यह क्षेत्र पुण्य और धर्म का क्षेत्र बन गया ।

इसके अलावा महाभारत के ‘आदि पर्व’ के अध्याय 2 में ही यह कहा गया है कि इसका नाम ‘समंत’ इसलिए पड़ा क्योंकि यहां कौरवों और पांडवों की समस्त सेनाओं का अंत हो गया था (समेतानाम् अन्तों अस्मिन् स समन्तः) । 

विष्णु ने कुरुक्षेत्र में यज्ञ किया था :

यजुर्वेद में कुरुक्षेत्र को विष्णु और अन्य देवताओं की यज्ञभूमि बताकर इसकी प्रशंसा की गई है । इस तर्क से भी कि ‘धर्म’ शब्द विष्णु वाचक है और कुरुक्षेत्र विष्णु की यज्ञभूमि है, यह स्पष्ट हो जाता है कि कुरुक्षेत्र धर्म रुपी विष्णु का यज्ञक्षेत्र है । महाभारत का युद्ध धर्म की स्थापना के लिए था इसलिए इस युद्ध को धर्मस्वरुप विष्णु के यज्ञक्षेत्र में लड़ा गया। विष्णु अवतार श्रीकृष्ण ने इसीलिए कुरुक्षेत्र को युद्धभूमि के रुप में चुना क्योंकि वो अपने मूल विष्णु रुप में वहाँ यज्ञ कर चुके थे और कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र बना चुके थे। 

कौरवों और पांडवों के पूर्वज महाराज कुरु के आने के पहले यह क्षेत्र भगवान ब्रह्माजी की ‘उत्तरवेदी’ के रुप में विख्यात था । वामन पुराण के 22 वें अध्याय में इस कुरुक्षेत्र की उत्पत्ति की कथा का वर्णन आया है । कथा है कि महाराज कुरु ने पवित्र सरस्वती नदी के किनारे इस स्थान पर आध्यात्मिक शिक्षा तथा ‘आष्टांग –धर्म'( तप, सत्य, क्षमा,दया, शौच,दान , योग और ब्रह्मचर्य ) की खेती करने का निश्चय किया । जब महाराज कुरु अपने रथ से खेती करने जा ही रहे थे कि भगवान विष्णु प्रगट हो गए और महाराज कुरु से पूछा कि ‘वो क्या कर रहे हैं?”

तब महाराज कुरु ने भगवान विष्णु को बताया कि वो ‘अष्टांग धर्म’ की कृषि करने जा रहे हैं। भगवान विष्णु ने महाराज कुरु से पूछा कि ”कृषि के लिए बीज कहां है ? ”तब महाराज ने कहा कि ‘बीज उनके पास ही है। ‘भगवान विष्णु ने कहा कि टउन्हें वो बीज महाराज कुरु दे दें। ‘अब विष्णु ने स्वयं ‘अष्टांग योग’ की कृषि करने का निश्चय कर लिया । महाराज ने बीज स्वरुप अपना दाहिना हाथ भगवान विष्णु को दे दिया । भगवान विष्णु ने अपने सुदर्शन चक्र से उस भुजा के सहस्त्रों टुकड़े कर दिए और उसे जमीन में बो दिया ।

इसके बाद महाराज कुरु ने बीज स्वरुप अपना सिर भी भगवान विष्णु को समर्पित कर दिया । भगवान विष्णु ने प्रसन्न होकर महाराज कुरु से वरदान मांगने को कहा । महाराज कुरु ने भगवान विष्णु से वरदान स्वरुप इस क्षेत्र को पुण्यमयी और धर्मक्षेत्र बना कर इसे विख्यात करने का अनुरोध किया । महाराज कुरु के इस अनुरोध को विष्णु ने स्वीकार कर लिया । महाराज कुरु के वरदान के स्वरुप यहां सभी देवताओं का वास हो गया और जो भी मनुष्य इस क्षेत्र में वास करता उसे मोक्ष मिलना तय हो गया । इस प्रकार कुरुक्षेत्र धर्मक्षेत्र के रुप में विख्यात हो गया । 

युद्ध के लिए कुरुक्षेत्र को ही क्यों चुना गया :

महाभारत के युद्ध के लिए कुरुक्षेत्र को चुने जाने की कई वजहें हैं। पहला ,यह कि यह कुरुवंश के राज्य के अंतर्गत आता था,  जिससे कौरव और पांडव वंशों की उत्पत्ति हुई थी। दूसरे, यह महाराज कुरु और विष्णु के यज्ञ की वजह से मोक्षदायी क्षेत्र हो गया था । तीसरे, धृतराष्ट्र कुरुक्षेत्र को धर्मक्षेत्र बता कर यह भी इशारा कर रहे हैं कि इस क्षेत्र में होने वाला युद्ध उनके परिवार और वंश से संबंधित है ,और एक प्रकार से धृतराष्ट्र का ही राज्य क्षेत्र है ।  

                         संजय उवाच-

दृष्टवा तु पाण्डवानीकं व्यूढं दुर्योधनस्तदा ।
आचार्यमुपसंगम्य राजा वचनमब्रवीत् ॥1-2।।

अर्थः- संजय बोले – “उस समय व्यूहाकार से खड़ी पांडवों की सेना को देख कर राजा दुर्योधन ने आचार्य द्रोणाचार्य के पास जाकर यह वचन कहा।”

व्याख्या : समस्त श्रीमद्भगवद्गीता में धृतराष्ट्र – संजय संवाद, अर्जुन- कृष्ण संवाद के अलावा सिर्फ एक ही अतिरिक्त संवाद है, जो दुर्योधन का अपने आचार्य द्रोणाचार्य के प्रति है । जहां धृतराष्ट्र – संजय और अर्जुन -कृष्ण के संवाद दिए गये हैं, वो प्रश्नवाचक या संशयवाचक रुप में हैं। धृतराष्ट्र के अंदर मोह और भय से उत्पन्न संशयात्मक विषाद है तो अर्जुन के अंदर करुणा से उत्पन्न विषाद है । 

लेकिन दुर्योधन का द्रोणाचार्य के प्रति कहा गया वचन सूचनात्मक है । इससे पता चलता है कि दुर्योधन युद्ध के लिए पूरी तरह से तैयार है । उसके अंदर किसी भी प्रकार का कोई संशय नहीं है । वो युद्ध में अपने और अपने शत्रु पांडवों की संभावित मृत्यु को लेकर किसी भी प्रकार के करुणा और विषाद से ग्रसित नहीं है । उसका द्रोणाचार्य के पास जाना अपने आचार्य या गुरु से ज्ञान प्राप्ति के लिए नहीं है, बल्कि इसके विपरीत वो अपने गुरु और आचार्य द्रोणाचार्य को ही कुछ सूचनाओं का ज्ञान देने के लिए उनके पास पहुंचता है । 

द्रोणाचार्य सनातन धर्म के पहले शिक्षक हैं :

द्रोणाचार्य सनातन धर्म के पहले वेतनभोगी शिक्षक हैं। कोई गुरु जब वेतनभोगी हो जाता है तो वो शिक्षक बन जाता है । वे राज्य के वित्त पर पलते हैं, इसलिए अपने राजा के अधीन हैं। उनका ज्ञान राज्य और राजा का बंधक है । इसलिए द्रोणाचार्य अपने राजा दुर्योधन को किसी भी प्रकार का वास्तविक और धर्मानुसार ज्ञान देने में तब तक असमर्थ हैं ,जब तक कि राजा दुर्योधन इसके लिए उन्हें अनुमति न दे ।

यही वजह है कि दुर्योधन उन्हें गुरु मानकर उनसे कुछ सीखने के लिए नहीं जाता, बल्कि उन्हें आज्ञा देने और यह बतलाने के लिए जाता है, कि पांडवों की सेना किस प्रकार से व्यूह बना कर खड़ी है? दुर्योधन द्रोणाचार्य को यह आज्ञा देने के लिए जाता है कि वो भी पांडवों की रणनीति के अनुसार अपना व्यूह तैयार करें । यह एक राजा और उसके एक अधिकारी के बीच का संवाद है । 

कौरवों के सेनापति भीष्म हैं लेकिन दुर्योधन द्रोणाचार्य के पास गया

मूल तौर पर महाभारत के युद्ध में कौरवों की सेना में अलग अलग समयों में अलग अलग सेनापति हुए । सबसे पहले युद्ध के दस दिनों तक भीष्म सेनापति रहे । इसके बाद छह दिनों तक द्रोणाचार्य ने सेनापति का पद संभाला। इसके बाद कर्ण ने 2 दिनों तक सेनापति का पद भार ग्रहण किया । इसके बाद शल्य ने भी आधे दिन के लिए सेनापति का पद ग्रहण किया । जब शल्य की मृत्यु हो जाती है और दुर्योधन भी घायल और पराजित हो जाता है तब थोड़े वक्त के लिए अश्वत्थामा को ही सेनापति बना दिया जाता है । 

सवाल यह है कि आखिर दुर्योधन पांडवों की सेना का वर्णन करने के लिए अपने सेनापति और कुरु कुल में सबसे बड़े और पूज्य भीष्म के पास क्यों नहीं जाता है ? इसके कई कारण हो सकते हैं। प्रथम, ये कि यह वास्तविक रुप से द्रोणाचार्य के शिष्यों के बीच युद्ध था । कौरव और पांडव दोनों ही द्रोण के शिष्य थे। दूसरे, द्रुपद पुत्र धृष्टध्युम्न भी द्रोण का ही शिष्य था ,जो पांडवों की सेना का सेनापति था । इस युद्ध में भीष्म का कोई भी शिष्य नहीं था । संभवतः इसी लिए द्रोणाचार्य के पास ही दुर्योधन पहली बार जाता है । 

भीष्म कौरवों के प्रथम सेनापति थे और ही युद्ध में सबसे योध्दा भी थे, जिनकी रक्षा सबसे जरुरी कार्य था। भीष्म के रहते कौरवों को हरा पाना असंभव था । इसलिए भीष्म को सुरक्षित करने के लिए दुर्योधन सबसे ज्यादा चिंतित था । महाभारत के भीष्म पर्व के ही एक अध्याय में दुर्योधन युद्ध में सेनाओं के एकत्रित होने से पहले अपने भाई दुशासन के पास भी जाता है और उसे भी यही सलाह देता है कि ‘ अगर किसी भी उपाय से भीष्म को सुरक्षित रखा जाए तो युद्ध में कौरवों की जीत होनी तय है।’

अगर भीष्म के बाद कौरवों की सेना में कोई सबसे बड़ा वीर था तो वो द्रोणाचार्य ही थे। दुर्योधन का द्रोणाचार्य के पास जाना इसी बात को इंगित करता है किद्रोणाचार्य पांडवों और कौरवों की सेना का तुलनात्मक अध्ययन कर लें, ताकि वह भीष्म को सुरक्षित रखने की रणनीति बना सकें। इस पूरे विमर्श से यह भी पता चलता है कि दुर्योधन अपनी विजय के लिए भीष्म और द्रोण पर आश्रित है और उसे पूर्ण विश्वास है कि यदि ये दोनों रहे तब युद्ध में उसके पक्ष की विजय निश्चित है ।

पश्यैतां पाण्डुपुत्राणामाचार्य महतीं चमूम् ।
व्यूढां द्रुपदपुत्रेण तव शिष्येण धीमता ॥1.3।।

अर्थ – “हे आचार्य ! आपके बुद्धिमान शिष्य द्रुपद पुत्र ( धृष्टध्युम्न) द्वारा जो व्यूहाकार में खडी की गई है, पांडुपुत्रों की इस महान सेना को आप देखिए ।”

व्याख्याः- यहां दो बातें ध्यान में देने योग्य हैं। प्रथम, यह कि दुर्योधन पांडवों की सेना से दोनों सेनाओं की तुलना शुरु करता है । दुर्योधन पांडवों की सेना का वर्णन करते हुए पांडवों की शक्ति की प्रशंसा भी करता है। गौर करने वाली बात यह है कि दुर्योधन भले ही अत्याचारी और पापी था, लेकिन वो किसी हीन भावना से ग्रसित व्यक्ति नहीं था । वो इस सत्य को स्वीकार करने से नहीं हिचकिचाया कि पांडव किसी भी युद्ध को जीतने में सक्षम हैं।

आज के दौर में हम सभी पहले अपनी और अपने लोगों की प्रशंसा से ही कोई बात शुरु करते हैं। दूसरों की प्रशंसा जितनी बाद में और कम कर सकें हम वैसा ही करने का प्रयास करते हैं। दरअसल आज का अच्छा से अच्छा इंसान भी हीन भावना से ग्रसित है । जबकि महाभारत काल का सबसे दुष्ट व्यक्ति भी दूसरों की प्रशंसा से अपनी बात शुरु करता है । 

दूसरी बात यह हो सकती है कि दुर्योधन पांडवों की सेना को देख कर भयभीत हो गया हो । जब व्यक्ति भयभीत हो जाता है तो वो जिससे भय खाता है उसकी बात ही जुबान पर सबसे पहले निकालता है ।  दुर्योधन को अगर किसी का भय था तो सिर्फ भीम का था। इसीलिए वो भीम को केंद्र में रख कर पांडवों की सेना का वर्णन शुरु करता है । 

तीसरे, धृतराष्ट्र श्रीमद्भगवद्गीता के पहले श्लोक में ‘मामका पांड्वाश्चैव’ कह कर अपने पुत्रों और पांडवो के बीच भेद उत्पन्न कर देते हैं। इसी प्रकार दुर्योधन भी ‘पांडुपुत्र’ कह कर यह साबित कर देता है कि यह कुरुकुल का युद्ध नहीं बल्कि कौरवों और पांडवों का युद्ध है और दोनों एक ही पूर्वज से उत्पन्न होने के बावजूद, अब अलग अलग  कौरव और पांडव वंश से हैं । ‘पांडुपुत्र’ कह कर दुर्योधन घोषणा कर देता है कि कौरव और पांडव एक दूसरे से अलग और एक दूसरे के शत्रु हैं। दुर्योधन एक प्रकार से अपने पिता की सोच पर मुहर लगा देता है ।

अत्र शूरा महेष्वासा भीमार्जुनसमा युधि ।
युयुधानो विराटश्च द्रुपदश्च महारथः ॥1.4।।
धृष्टकेतुश्चेकितानः काशिराजश्च वीर्यवान् ।
पुरुजित्कुन्तिभोजश्च शैब्यश्च नरपुङवः ॥1.5।।
युधामन्युश्च विक्रान्त उत्तमौजाश्च वीर्यवान् ।
सौभद्रो द्रौपदेयाश्च सर्व एव महारथाः ॥ 1.6

अर्थ – “इस सेना में भीम और अर्जुन के समान युद्ध- कुशल महाधनुर्धर युयुधान, विराट तथा द्रुपद महारथी हैं। धृष्टकेतु, चेकितान,वीर्यवान केशिराज एवं पुरुजित् और कुंतिभोज तथा नरश्रेष्ठ शैव्य (महारथी) हैं । महापराक्रमी युधामन्यु, बलवान उत्तमौजा, सौभद्र (अभिमन्यु) और द्रौपदेय ( द्रौपदी के पांचों पुत्र ), ये सभी महारथी हैं।” 

व्याख्या – दुर्योधन पांडवों की सेना का वर्णन करते वक्त सबसे पहले भीम का नाम लेता है, जबकि पांडवों की सेना में अर्जुन सबसे वीर योद्धा था, जिन पर महाभारत का युद्ध केंद्रित था । लेकिन, दुर्योधन के लिए भीम सबसे प्रमुख शत्रु था क्योंकि, एक तो भीम और दुर्योधन के बीच पुरानी शत्रुता थी । दूसरे, भीम ने ही धृतराष्ट्र के सभी सौ पुत्रों के वध की प्रतिज्ञा ली थी । इस नज़रिए से दुर्योधन के लिए भीम सबसे महत्वपूर्ण शत्रु था । 

अस्माकं तु विशिष्टा ये तान्निबोध द्विजोत्तम ।
नायका मम सैन्यस्य सञ्ज्ञार्थं तान्ब्रवीमि ते ॥1.7।।

अर्थ- “दुर्योधन कहता है कि हे ब्राह्मण श्रेष्ठ, हमारी सेना को जो विशिष्ठ योद्धा हैं ,जो मेरी सेना के नायक हैं,उन्हें जान लीजिए। आपकी जानकारी के लिए मैं उनको बताता हूं ।”

भवान्भीष्मश्च कर्णश्च कृपश्च समितिञ्जयः ।
अश्वत्थामा विकर्णश्च सौमदत्तिस्तथैव च ॥1.8।।

अर्थः- “आप स्वयं, भीष्म, कर्ण, रणविजयी कृपाचार्य, अश्वत्थामा, विकर्ण और वैसे ही सोमदत्त के पुत्र भूरिश्रवा ।”

अन्ये च बहवः शूरा मदर्थे त्यक्तजीविताः ।
नानाशस्त्रप्रहरणाः सर्वे युद्धविशारदाः ॥1.9।।

अर्थः- इसके अतिरिक्त और भी बहुत से शूरवीर हैं जिन्होंने मेरे लिए अपने जीवन का समर्पण कर दिया है और अनेक प्रकार के अस्त्र शस्त्र चलाने वाले सबके सब युद्ध कला में अत्यंत चतुर हैं। 

अपर्याप्तं तदस्माकं बलं भीष्माभिरक्षितम् I
पर्याप्तं त्विदमेतेषां बलं भीमाभिरक्षितम् ॥1.10।।

अर्थः- “हमारा भीष्म के द्वारा जो अभिरक्षित सैन्यबल है , वह अपर्याप्त है,परंतु इनकी ( पांडवों की ) भीम द्वारा रक्षित सेना पर्याप्त( विजय पाने में समर्थ) है।”

व्याख्या- हालांकि दुर्योधन के पास 11 अक्षोहिणी सेना थी और पांडवों के पास कुल 7 अक्षोहिणी सेना ही थी । फिर भी दुर्योधन को भीम से इतना डर लगता था कि उसे अपनी यह विशाल सेना भी अपर्याप्त लग रही है । तभी वो कह रहा है कि भीम द्वारा रक्षित 7 अक्षोहिणी सेना भी कौरवों की 11 अक्षोहिणी सेना को पराजित कर सकती है । 

अयनेषु च सर्वेषु यथाभागमवस्थिताः ।
भीष्ममेवाभिरक्षन्तु भवन्तः सर्व एव हि ॥1.11।।

अर्थः- “आप सबके सब सभी मोर्चों पर अडिग रह कर भीष्म की रक्षा कीजिए ।” 

व्याख्या- दुर्योधन के लिए भीम से बड़ा खतरा कोई नहीं है और भीष्म से बड़ी आशा कोई नहीं है । इसलिए भयभीत दुर्योधन द्रोण से भीष्म को बचाने की बात कर रहा है, ताकि वो भीम के प्रकोप से बच सके और कौरवों की जीत हो सके । 

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