श्री मद् भगवद्गीता तृतीय अध्याय – कर्मयोग, श्लोक 1-8

श्री मद् भगवद्गीता के अध्याय 1 और अध्याय 2 में भगवान ज्ञानयोग के द्वारा अवनाशी सत् का अनुभव करने और अपनी बुद्धि को समत्व भाव में स्थिर करने हेतु कर्मयोग की महिमा बताते हैं। भगवान कहते हैं कि अविनाशी सत् को अनुभव करने के लिए स्थितिप्रज्ञ होना अत्यंत आवश्यक है। इसके लिए समत्व बुद्धि से युक्त हो कर कर्म करने की जरुरत होती है।

लेकिन अर्जुन अभी तक यह समझ नहीं पाया है कि जब अविनाशी सत् का ज्ञान मिल ही गया तो फिर कर्म की आवश्यकता ही क्या है। अर्जुन को यह समझ में नहीं आ रहा कि बिना स्थितिप्रज्ञता की स्थिति को प्राप्त करने के लिए कर्म किए बिना उसे अविनाशी सत् की प्राप्ति नहीं हो सकती है।

क्या युद्ध कर्म सिर्फ हिंसा कर्म है ?

तृतीय अध्याय में अर्जुन भगवान से फिर प्रश्न करता है –

अर्जुन उवाच-

ज्यायसी चेत्कर्मणस्ते मता बुद्धिर्जनार्दन ।
तत्किं कर्मणि घोरे मां नियोजयसि केशव ॥
jyāyasī cētkarmaṇastē matā buddhirjanārdana.
tatkiṅ karmaṇi ghōrē māṅ niyōjayasi kēśava৷৷3.1৷৷

अर्थः- अर्जुन बोले- हे जनार्दन! अगर आपके मत में कर्म से बुद्धि ही श्रेष्ठ है तो फिर हे केशव ! आप मुझे इस घोर कर्म ( युद्ध कर्म) में क्यों लगाते हैं ?

व्याख्याः- अर्जुन भगवान के उपदेशों को ठीक से समझ नहीं पा रहा है। वो अविनाशी सत् का ज्ञान यानि ज्ञानयोग( सांख्ययोग) और स्थितप्रज्ञता की स्थिति को प्राप्त करने के लिए किए गए कर्म को अलग- अलग मान कर उनका स्तरीकरण कर रहा है।

अर्जुन को यह लग रहा है कि ज्ञानयोग की निष्ठा और कर्मयोग की निष्ठा दोनों में कोई एक श्रेष्ठ है विशेषकर ज्ञानयोग को वो श्रेष्ठ मान रहा है । अर्जुन का कहना है कि जब ज्ञानयोग के द्वारा अविनाशी सत् का अनुभव किया ही जा सकता है तो फिर अपनी बुद्धि को स्थिर रखने के लिए कर्म की आवश्यकता ही क्या है ।

दूसरे, अर्जुन विभिन्न प्रकार के कर्मों के बीच भी अंतर नहीं कर पा रहा है। अर्जुन ज्ञानयोग के द्वारा अविनाशी सत् की प्राप्ति हेतु स्थिर बुद्धि की अवस्था को प्राप्त करने वाले कर्म को और सामान्य युदध कर्म को एक ही मान रहा है। भगवान पहले ही कह चुके हैं कि स्थिर बुद्धि को प्राप्त करते ही तू समत्व को उपलब्ध हो जाएगा और इसके बाद किये जाने वाले तेरे कोई भी कर्म सामान्य कर्म नहीं रह जाएंगे । युद्ध भी तू समत्व भाव से ही करेगा और इसके करने से तूझे किसी भी प्रकार के पाप नहीं लगेंगे।

भगवान जिस कर्मयोग की बात कह रहे हैं उसमें आरंभ का नाश नहीं है और फलरुप में उल्टा दोष भी नहीं लगता है –

यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥2.40॥

भगवान जिस कर्मयोग की बात कर रहे हैं उसमें निश्चयात्मक बुद्धि एक होती है, वह बुद्धि किसी संशय में नहीं पड़ती-

व्यवसायात्मिका बुद्धिरेकेह कुरुनन्दन ।
बहुशाका ह्यनन्ताश्च बुद्धयोऽव्यवसायिनाम्‌ ॥2.41॥

भगवान कहते हैं कि इस कर्मयोग को करने से मनुष्य पाप- पुण्य के भाव को इसी लोक में त्याग देता है और समत्व को प्राप्त हो जाता है –

बुद्धियुक्तो जहातीह उभे सुकृतदुष्कृते । तस्माद्योगाय युज्यस्व योगः कर्मसु कौशलम्‌ ॥2.50॥

परंतु अर्जुन समत्व को प्राप्त करने वाले कर्म को समझ नहीं पा रहा है और युद्ध कर्म के लिए समत्व के भाव को उपलब्ध नहीं हो पा रहा, इसीलिए उसे यह युद्ध कर्म घोर हिंसात्मक लग रहा है।

अर्जुन का भगवान से कल्याणपरक मार्ग दिखाने का आग्रह

व्यामिश्रेणेव वाक्येन बुद्धिं मोहयसीव मे ।
तदेकं वद निश्चित्य येन श्रेयोऽहमाप्नुयाम्‌ ॥
vyāmiśrēṇēva vākyēna buddhiṅ mōhayasīva mē.
tadēkaṅ vada niśicatya yēna śrēyō.hamāpnuy

अर्थः- आप मिली- जुली सी बात कह कर मेरी बुद्धि को मानों मोह रहे हैं।इसलिए आप निश्चित करके एक ही बात कहिए जिससे मैं कल्याण को प्राप्त हो जाउं।

व्याख्याः- अर्जुन भगवान से कह रहा है कि उन्होंने उसकी बुद्धि को मोहित कर दिया है , जबकि वास्तविकता यही है कि भगवान अर्जुन की बुद्धि को ज्ञानलब्ध करने हेतु ज्ञानयोग का उपदेश देते हुए समत्व बुद्धि प्राप्त करने का उपदेश दिया था।

  • भगवान ने कहा  ‘निस्त्रैगुण्यो भावार्जुन’ अर्थात सभी गुणों( सत्व, रजस और तम ) का त्याग कर दो। ‘निर्योगक्षेम आत्मवान’ अर्थात योगक्षेम में रहित हो जा और आत्मपरायण बन।भगवान ने अर्जुन को कहा कि ‘कर्मण्येवाधिकारस्ते’ अर्थात तेरा कर्म में ही अधिकार है इसलिए तू सिर्फ कर्म कर । इसलिए भगवान इन दोनों निष्ठाओं -अर्थात ज्ञानयोग से लब्ध होने के लिए कर्मयोग करने का उपदेश दिया था।
  • लेकिन अर्जुन इस प्रक्रिया को न समझ कर इसे दो अलग- अलग उपदेश समझ रहा है। इस श्लोक में अर्जुन ‘व्यामिश्रेण इव’ तथा ‘मोहयसि इव’ दोनों में ‘इव’ कह कर यह बता रहा है कि यद्यपि आप मिली जुली बात नहीं कह रहे हैं और मोह में नहीं डाल रहे हैं लेकिन फिर भी मुझे ऐसा लग रहा है ।
  • अर्जुन जानता है कि भगवान की अभिव्यक्ति स्पष्ट होती है। लेकिन उसके जैसे आम मानव को समझ में आने में फेर हो सकता है । अर्जुन पहले ही भगवान का शिष्यत्व स्वीकार कर चुका है और भगवान से वह शिक्षा मांगता है जो उसके लिए निश्चित रुप से कल्याणकारक हो-

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्‌ ॥2.7॥

ऐसे में अर्जुन अपने गुरु और भगवान की नियत पर शंका नहीं कर रहा बल्कि अपने अज्ञान के प्रति शोक प्रगट कर रहा है।

अर्जुन एक बार फिर से भगवान से आग्रह कर रहा है कि वो उसे श्रेष्ठ और कल्याणकारक मार्ग दिखाएं क्योंकि उसका मोह अभी तक खत्म नहीं हुआ है और वो ज्ञानयोग और कर्मयोग को अलग करके देख रहा है।

श्रीभगवानुवाच

लोकेऽस्मिन्द्विविधा निष्ठा पुरा प्रोक्ता मयानघ ।
ज्ञानयोगेन साङ्‍ख्यानां कर्मयोगेन योगिनाम्‌ ॥
lōkē.smindvividhā niṣṭhā purā prōktā mayānagha.
jñānayōgēna sāṅkhyānāṅ karmayōgēna yōginām৷৷3.3৷৷

अर्थः- श्री भगवान बोले- हे निष्पाप! इस लोक में दो प्रकार की निष्ठा पहले कही जा चुकी है।सांख्यों की ज्ञानयोग से और योगियों की कर्मयोग से।

व्याख्याः- भगवान यहां अर्जुन को अनघ अर्थात निष्पाप कह कर संबोधित कर रहे हैं। भगवान जानते हैं कि अर्जुन उन पर किसी प्रकार का दोषारोपण नहीं कर रहा, बल्कि पूरी मासूमियत से प्रश्न कर रहा है।

भगवान कह रहे हैं कि इस लोक में दो प्रकार अर्थात ज्ञानयोग और कर्मयोग की निष्ठाएं पहले कही जा चुकी है, लेकिन भगवान यहां स्पष्ट कर रहे हैं कि ये दोनों अलग- अलग नहीं है जैसा पहले कहा गया था। भगवान इसलिए अर्जुन को आगे कहते हैं कि ये ज्ञान जो मैं तुझे कह रहा हूं वो कालांतर में लुप्त हो गई थी या उसका स्वरुप कुछ और ही हो चुका था  जिसे लोग समझ नहीं पा रहे, इसीलिए मैं तूझे यह दोबारा बता रहा हूं। लोगों ने इन दोनों ही निष्ठाओं को अलग- अलग समझ कर इस लोक में प्रचारित कर दिया था-

श्री भगवानुवाच

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।4.1।।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।4.2।।
स एवायं मया तेऽद्य योगः प्रोक्तः पुरातनः।
भक्तोऽसि मे सखा चेति रहस्यं ह्येतदुत्तमम्।।4.3।।

अर्थः- श्रीभगवान् बोले – मैंने इस अविनाशी योगको सूर्य से कहा था। फिर सूर्यने (अपने पुत्र) वैवस्वत मनुसे कहा और मनुने (अपने पुत्र) राजा इक्ष्वाकुसे कहा।हे परंतप ! इस तरह परम्परासे प्राप्त इस कर्मयोग को राजर्षियोंने जाना। परन्तु बहुत समय बीत जानेके कारण वह योग इस मनुष्यलोकमें लुप्तप्राय हो गया। तू मेरा भक्त और प्रिय सखा है, इसलिये वही यह पुरातन योग आज मैंने तुझसे कहा है; क्योंकि यह बड़ा उत्तम रहस्य है।

ज्ञानयोग और कर्मयोग अलग-अलग नहीं है

  • भगवान कहते हैं कि ज्ञानयोग और कर्मयोग दो अलग- अलग बातें नहीं हैं बल्कि ये दोनों ही एक दूसरे की पूरक हैं। केवल ज्ञानयोग के द्वारा आत्मसाक्षात्कार नहीं किया जा सकता बल्कि इसके लिए समत्व बुद्धि से कर्म करने की आवश्यकता भी होती है।
  •  किसी एक निष्ठा को पकड़ लेने भर से अविनाशी सत् को प्राप्त नहीं किया जा सकता है । ज्ञानयोग या सांख्ययोग के द्वारा उस अविनाशी सत् के बारे में जाना जा सकता है लेकिन उस अविनाशी सत् को प्राप्त करने के लिए समत्व बुद्धि से युक्त कर्म करने की जरुरत पड़ती है।
  • जब समत्व को प्राप्त बुद्धि स्थिर हो जाती है तो कोई भी कर्म चाहे वो युद्ध जैसा हिंसक कर्म भी क्यों न हो , उससे अविनाशी सत् को प्राप्त किया जा सकता है ।

अविनाशी सत् की प्राप्ति के लिए कर्म आवश्यक है

न कर्मणामनारंभान्नैष्कर्म्यं पुरुषोऽश्नुते ।
न च सन्न्यसनादेव सिद्धिं समधिगच्छति ॥
na karmaṇāmanārambhānnaiṣkarmyaṅ puruṣō.śnutē.
na ca saṅnyasanādēva siddhiṅ samadhigacchati৷৷3.4৷৷

अर्थः- भगवान बोले-  मनुष्य न तो कर्मों के अनारंभ से निष्कर्मता( ज्ञाननिष्ठा) को प्राप्त होता है और न ही कर्मों के त्याग से ही सिद्धि को प्राप्त होता है।

व्याख्याः भगवान यहां अर्जुन से कह रहे हैं कि तू अगर ये सोचता है कि किसी भी प्रकार के कर्मों को न कर के ज्ञानयोग को प्राप्त कर लेगा और अविनाशी सत् को जान लेगा तो ये तेरी भूल है।

इसके अलावा भगवान यह भी कह रहे हैं कि आज तक तूने जो भी कर्म किये हैं उनके भविष्य में त्याग देने से ( जैसा तू युद्ध कर्म के त्याग की बात कर रहा है ) अगर तू सोचता है कि ज्ञानयोग को प्राप्त हो जाएगा तो ये तेरा भ्रम है। किसी भी स्थिति में कर्म आवश्यक है ।

 बस कर्म वैसा होना चाहिए जो समत्व बुद्धि से किया जा रहा हो तभी तू अविनाशी सत् को जान सकेगा और उसे सिद्ध कर सकेगा ।

न हि कश्चित्क्षणमपि जातु तिष्ठत्यकर्मकृत्‌ ।
कार्यते ह्यवशः कर्म सर्वः प्रकृतिजैर्गुणैः ॥
na hi kaśicatkṣaṇamapi jātu tiṣṭhatyakarmakṛt.
kāryatē hyavaśaḥ karma sarvaḥ prakṛtijairguṇaiḥ৷৷3.5৷৷

अर्थः क्योंकि कोई पुरुष किसी भी अवस्था में क्षणमात्र भी बिना कर्म किए नहीं रहता, क्योंकि परवश हुए सबों से प्रकृतिजनित गुणों के द्वारा कर्म करवाया जाता है।

व्याख्याः- भगवान इस श्लोक में अर्जुन को यह उपदेश दे रहे हैं कि कर्म करना क्यों आवश्यक है । हम सभी प्रकृतिजनित गुणों ( सत्व, रजस या तम) के अधीन हैं। या तो हम सात्विक कर्मों की तरफ प्रेरित होते हैं या रजस गुण की तरफ आकर्षित होकर कर्म करते हैं या फिर किसी तामसिक गुणों के अधीन रह कर कर्म में लीन रहते हैं। हमारे सारे अच्छे- बुरे कर्म इन्ही तीन गुणों के द्वारा संचालित होते हैं।

भगवान अर्जुन से कह रहे हैं कि कर्म तो आवश्यक हैं, लेकिन किस प्रकार का कर्म आवश्यक है यह भी जानना जरुरी है। भगवान हरेक प्रकृतिजनित कर्म को करते हुए ही उसमें समत्व का भाव लाने को कह रहे हैं। समत्व भाव से किया गया कोई भी कर्म अविनाशी सत् की प्राप्ति करा सकता है । रावण तामसिक कर्मों में लिप्त था लेकिन उसके तामसिक कर्म जब श्रीराम के विरुद्ध या उनके प्रति हो गए तो वो भी मुक्त हो गया ।

भगवान कर्मों से भागने के लिए नहीं कर रहे बल्कि अपने कर्मों के रुपांतरण और उसके प्रति जागृति के लिए कह रहे हैं। भगवान कहते हैं कि इंद्रियों के द्वारा किये गए कर्म जब  उसके विषयों से हट कर आत्मसाक्षात्कार के प्रति किये जाते हैं तो वो कर्म प्रकृतिजनित गुणों के दोष से मुक्त हो जाते हैं।

विषयों (Senses) के लिए किया गया कर्म मिथ्या है

कर्मेन्द्रियाणि संयम्य य आस्ते मनसा स्मरन्‌ ।
इन्द्रियार्थान्विमूढात्मा मिथ्याचारः स उच्यते ॥
karmēndriyāṇi saṅyamya ya āstē manasā smaran.
indriyārthānvimūḍhātmā mithyācāraḥ sa ucyatē৷৷3.6৷৷

अर्थः- जो कर्मेंद्रियों को मन से विषयों( sensual pleasures) का स्मरण कराता रहता है, वह विमूढ़ात्मा( (यानि स्वयं से विमुख) मिथ्याचारी कहा जाता है।

व्याख्याः- भगवान अर्जुन को कर्मो के प्रति जागृति लाने के लिए कह रहे हैं। भगवान अर्जुन को कह रहे हैं कि अपनी इंद्रियों को उनके विषयों से हटा कर अपने अंदर स्थिर अविनाशी सत् की तरफ लगाओ। जो अपने कर्मेंद्रियों को मन में उठने वाले विषयों की तरफ लगाता है वो स्वयं के अविनाशी सत् से विमुख कर लेता है। ऐसे मे उसके द्वारा किये गए सारे कर्म मिथ्या होते हैं और वो मिथ्याचारी कहा जाता है।

मिथ्या शब्द का अर्थ है जो नाशवान है। विषयों के प्रति किये गए सभी कर्म प्रकृतिजनित होते हैं और ये सारे नाशवान होते हैं। इसलिए ऐसे कर्म करने वाले मिथ्याचारी कहे जाते हैं।

यस्त्विन्द्रियाणि मनसा नियम्यारभतेऽर्जुन ।
कर्मेन्द्रियैः कर्मयोगमसक्तः स विशिष्यते ॥
yastvindriyāṇi manasā niyamyārabhatē.rjuna.
karmēndriyaiḥ karmayōgamasaktaḥ sa viśiṣyatē৷৷3.7৷৷

अर्थः- परंतु हे अर्जुन! जो पुरुष मन से इंद्रियों को रोक कर आसक्ति रहित हुआ कर्मेंद्रियों से कर्मयोग का आचरण करता है वही श्रेष्ठ है।

व्याख्याः- अर्जुन को भगवान एक बार फिर से समझाते हुए कहते हैं कि वास्तविक कर्म समत्व बुद्धि से किया जाता है जिसमें अपनी इंद्रियों को उनके विषयों से हटा कर आसक्ति रहित होकर अविनाशी सत् की तरफ लगाया जाता है।

जब कोई अपनी कर्मेंद्रियों को अविनाशी सत् की प्राप्ति की तरफ ले जाने वाला कर्म करता है तो ऐसा कर्म ही श्रेष्ठ होता है।

नियत कर्म क्या हैं ?

नियतं कुरु कर्म त्वं कर्म ज्यायो ह्यकर्मणः।
शरीरयात्रापि च ते न प्रसिद्धयेदकर्मणः ॥
niyataṅ kuru karma tvaṅ karma jyāyō hyakarmaṇaḥ.
śarīrayātrāpi ca tē na prasiddhyēdakarmaṇaḥ৷৷3.8৷৷

अर्थः- नियत कर्म को करो, क्योंकि अकर्म(ज्ञान के प्रति केवल निष्ठा रखना) की अपेक्षा कर्म ( कर्मयोग) श्रेष्ठ है और अकर्म से तेरी शरीर यात्रा भी सिद्ध नहीं हो सकेगी।

व्याख्याः- भगवान अर्जुन को नियत कर्म करने के लिए कह रहे हैं। नियत कर्म क्या है। यह वो कर्म है जो अविनाशी सत् की प्राप्ति के लिए समत्व भाव से या स्थितिप्रज्ञता की स्थिति को प्राप्त करके किया जाए।

भगवान कह रहे हैं कि केवल अविनाशी सत् को जान लेने से और उसका चिंतन करने से कुछ नहीं होने वाला । ऐसे चिंतन रुपी अकर्म से तू अविनाशी सत् को जान तो लेगा लेकिन प्राप्त नहीं कर पाएगा ।इसलिए आवश्यक है कि तू नियत कर्म कर अर्थात कर्मयोग में लग जा।

 कर्मयोग वह है जो सांसारिक कर्मों ( इंद्रियजनित कर्मों) को अविनाशी सत् की तरफ मोड़ दे। भगवान पहले ही कह चुके हैं कि शरीर प्रकृतिजनित गुणों के परवश है। प्रकृति उससे सारे सांसारिक कर्म करवाएगी है। हार्मोन्स की वजह से शरीर के अंदर काम, क्रोध आदि आएंगे ही। ऐसे में ये जो सारे प्रकृतिजनित गुण हैं जिनके परवश में आकर तू अपनी जिंदगी जी रहा है ,उससे तू भाग नहीं सकता ।

ऐसे में अच्छा यही है कि तू अपनी शरीर यात्रा को जारी रख और अपने इन्ही प्रकृतिजनित गुणों से उत्पन्न कर्मों को को अविनाशी सत् की प्राप्ति में लगा दे। तेरे अंदर रजस गुण की वजह से जो क्षत्रियत्व का गुण है वो जंगल में जाकर भी खत्म नहीं होगा। तू जंगल में जाकर भी अपने रजस गुण की वजह से किसी न किसी जानवर का शिकार करेगा ही । इसलिए अच्छा यही है कि तू इस रजस गुण से उत्पन्न क्षत्रियत्व के गुण को युद्ध में ही समत्व भाव से लगा दे । ऐसा करने से तूझे अविनाशी सत् की प्राप्ति हो जाएगी।  

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