श्रीमद् भगवद्गीता, यज्ञ क्या है और यज्ञ की महिमा क्या है श्लोक- 9-16

भगवान श्रीमद् भगवद्गीता के तृतीय अध्याय में आसक्ति रहित कर्मयोग की महिमा बताते हैं। भगवान अर्जुन से कहते हैं कि समत्व बुद्धि ये युक्त होकर और स्थितिप्रज्ञता की अवस्था को प्राप्त कर आसक्ति रहित कर्म कर। लेकिन भगवान किस कर्म को करने के लिए कह रहे हैं, वो ये हमें श्लोक 9- 16 में बताते हैं।

यज्ञ किसे कहते हैं?

भगवान गीता के तृतीय अध्याय के श्लोक 9 से यज्ञ की महिमा बताते हैं और अर्जुन को यज्ञ करने के लिए कहते हैं। क्या ये यज्ञ वही है जो हम आमतौर पर देखते हैं? वो यज्ञ जिसमें हम हवनकुंड में मंत्रोच्चार के द्वारा आहुतियां डाल कर देवताओं को प्रसन्न करते हैं या फिर भगवान किसी और यज्ञ और यज्ञकर्म की बात कर रहे हैं –

यज्ञार्थात्कर्मणोऽन्यत्र लोकोऽयं कर्मबंधनः ।
तदर्थं कर्म कौन्तेय मुक्तसंगः समाचर ॥
yajñārthātkarmaṇō.nyatra lōkō.yaṅ karmabandhanaḥ.
tadarthaṅ karma kauntēya muktasaṅgaḥ samācara৷৷3.9৷৷

अर्थः- यज्ञ के लिए किये जाने वाले कर्म के सिवा अन्य कर्म ये यह लोक कर्मबंधन वाला बन जाता है। इसलिए हे कुंतीनंदन ! आसक्तिरहित होकर उस यज्ञ के लिए ही कर्तव्य कर्म करो।

व्याख्याः- भगवान यहां अर्जुन से कह रहे हैं कि सिर्फ यज्ञ के लिए किए जाने वाले कर्मों से ही तुम कर्मबंधन से मुक्त हो सकते हो। यहां दो प्रश्न उभरते हैं पहला कि यज्ञ क्या है और यज्ञकर्म किसे कहते हैं? दूसरा कर्मबंधन किसे कहते हैं?

अविनाशी सत् स्वरुप विष्णु ही यज्ञ हैं :

यज्ञ ही अविनाशी सत् हैं जिसे विष्णु स्वरुप भी माना जाता है । भगवान ने गीता के अध्याय 9 में यज्ञ को अपना ही स्वरुप बताया है –

अहं क्रतुरहं यज्ञः स्वधाहमहमौषधम् ।
मन्त्रोऽहमहमेवाज्यमहमग्निरहं हुतम् ।।
(भगवद्गीता9/16)

अर्थः मै क्रतु हूं, मै यज्ञ हूं, मै स्वधा हूं ,मै औषध हूं ,मै मन्त्र हूं ,मै घृत हूं ,मै अग्नि हूं,और मै ही हवनरूप क्रम हूं ।।

भगवान ने यह भी कहा है कि :

अहं हि सर्वयज्ञानां भोक्ता च प्रभुरेव च ।।(भगवद्गीता 9/24)
अर्थात् : “समस्त यज्ञों का भोक्ता और प्रभु (स्वामी) मै ही हूं।”

‘विष्णु धर्मोत्तर पुराण’ कहता है – ‘यज्ञो हि भगवान् विष्णुः ।।‘  (विष्णुधर्मोत्तर पुराण162/2) अर्थात् विष्णु ही यज्ञ हैं। देवी भागवत में कहा गया है- ‘यज्ञो हि भगवान – अर्थात् भगवान ही यज्ञ हैं।

श्रीमद् भागवत् पुराण कहता है कि –

देशकालः पृथग्द्रव्यं मन्त्रतन्त्रर्त्विजोऽग्नयः ।
देवता यजमानाश्च क्रतुधर्मश्च यन्मयः ।।
स एष भगवान् साक्षात् विष्णुर्योगेश्वरेश्वरः ।।(10/23/47-48)

अर्थः देश, काल, पृथक् पृथक हवनीय द्रव्य, मन्त्र, तन्त्र, ऋत्विज, अग्नि ,देवता ,यजमान, यज्ञ और धर्म -ये सभी साक्षात् भगवान विष्णु के ही स्वरूप है ।

‘पद्मपुराण’ के ‘उत्तरखण्ड’ में भी अविनाशी परम सत् स्वरुप भगवान विष्णु को ही यज्ञ और यज्ञों का स्वामी परमेश्वर कहा गया है –

असौ यज्ञेश्वरो यज्ञो यज्ञभुक् यज्ञकृद् विभुः ।
यज्ञभृद् यज्ञपुरुषः स एव परमेश्वरः ।।(पद्म पुराण,उत्तरखण्ड 226/76)

अर्थः यह भगवान विष्णु यज्ञेश्वर ,यज्ञ,यज्ञभोक्ता ,यज्ञकर्ता ,यज्ञस्वामी,यज्ञपोषक, यज्ञपुरुष और परमेश्वर कहे जाते है ।

‘विष्णु पुराण’ में भगवान को यज्ञ कह कर उनकी स्तुति की गई है –

यज्ञैस्त्वमिज्यसेऽचिन्त्य सर्वदेवमयाच्युत ।
त्वमेव यज्ञो यष्टा च यज्वनां परमेश्वर ।।(विष्णुपुराण5/21/97)

अर्थः- हे अचिन्त्य ! हे सर्वदेवमय ! हे अच्युत ! समस्त यज्ञों से आप ही का यजन किया जाता है तथा है परमेश्वर ! आप ही यज्ञ करनेवालो के यष्टा और यज्ञस्वरूप हैं।

महाभारत के अनुशासन पर्व में भीष्म जी के द्वारा कही गई और विष्णु अवतार भगवान  श्रीकृष्ण के द्वारा अनुमोदित ‘श्रीविष्णुसहस्त्रनाम’ का यह श्लोक भी ध्यान देने योग्य है –

यज्ञो यज्ञपतिर्यज्वा यज्ञांगो यज्ञवाहनः ।
यज्ञभृद् यज्ञकृद्यज्ञो यज्ञभुग्यज्ञसाधनः ।।
यज्ञान्तकृद् यज्ञगुह्यम् ।(विष्णुसहस्त्रनाम )

अर्थः- भगवान् स्वयं यज्ञ हैं ,यज्ञपति हैं ,यजमान हैं ,यज्ञांग हैं ,यज्ञ निर्वाहक हैं ,यज्ञ संरक्षक हैं ,यज्ञ विस्तारक हैं ,यज्ञशेषी हैं ,यज्ञभोक्ता हैं ,यज्ञप्राप्ति के साधन हैं , यज्ञ को पूर्ण कराने वाले हैं ,और यज्ञ के पूर्ण ज्ञाता हैं।

विष्णु कौन हैं?

आमतौर पर हम यह मानते हैं कि भगवान विष्णु परमेश्वर हैं जो क्षीर सागर में शयन करते हैं और वैकुंठ उनका लोक है। यह सही है इसमें कोई संशय नहीं है । लेकिन यह भगवान विष्णु का साकार स्वरुप है। भगवान विष्णु का मूल स्वरुप साकार और निराकार से परे हैं।

भगवान विष्णु में ‘विष्णु’ नाम का अर्थ आदिगुरु शंकराचार्य के साथ- साथ अन्य कई महान संतो ने किया है। ‘श्रीविष्णुसहस्त्रनाम’ में उस अविनाशी सत् स्वरुप विष्णु की वंदना कुछ इस प्रकार है –

ॐ विश्वं विष्णु: वषट्कारो भूत-भव्य-भवत-प्रभुः ।
भूत-कृत भूत-भृत भावो भूतात्मा भूतभावनः ।। 1 ।।

अर्थः- ‘ॐ’ अर्थात अविनाशी सत् स्वरुप, ‘विश्वम’– सारा ब्रह्मांड, ‘विष्णु’– जो सारे ब्रह्मांड में विद्यामान हो, ‘वषट्कार’– जिसका सभी यज्ञों में आह्वान किया जाता हो, ‘भूतभव्य भवत् प्रभु’– जो भूत,वर्तमान और भविष्य का स्वामी हो, ‘भूतकृत’– जो सभी प्राणियों का निर्माता हो, ‘भूतभृत’– जो सभी प्राणियों का पालनकर्ता हो, ‘भावो’– जो हमारी अंतश्चेतना में हो, ‘भूतात्मा’- जो सभी भूतों अर्थात जीव- निर्जीवो में अविनाशी सत् स्वरुप में विद्यमान हो, ‘भूतभावन्’– यानी जो सभी जीवों की उत्पत्ति का आधार और उनका पालनकर्ता हो।

आदिगुरु शंकराचार्य जी के द्वारा ‘विष्णु’ शब्द का परिभाषा

  • आदिगुरु शंकराचार्य जी ने विष्णु शब्द की परिभाषा और उत्पत्ति के बारे में अपने ‘श्रीविष्णुसहस्त्रनाम भाष्य’ में लिखते हुए ‘विष्णु’ शब्द का सर्वव्यापक के रुप में अर्थ किया है।आदिगुरु शंकराचार्य जी ने ‘विष्णु’ शब्द की व्युत्पत्ति के रुप में लिखा है कि “व्याप्ति अर्थ के वाचक नुक् प्रत्ययांत विष् धातु का रुप विष्णु बनता है, जिसका अर्थ सर्वव्यापक होता है।
  • भगवान ने गीता में कहा है कि मैं भी स्वयं द्वारा सृजित त्रैगुणात्मक माया का आवरण धारण कर साकार स्वरुप ग्रहण करता हूं। अविनाशी सत् का परम स्वरुप या वृहद्तम अँश जब त्रैगुणात्मक आवरण को धारण करता है तो वह ईश्वर के रुप में प्रगट होता है जिन्हें हम विष्णु कहते हैं।
  • अविनाशी सत् के कुछ अंश को जब परम अविनाशी सत् उसके गुणों और कर्मों के आधार पर त्रैगुणात्मक आवरण में डालता है तो जीव का निर्माण होता है। इसका अर्थ यह है कि अविनाशी सत् का महद् रुप साकार ईश्वर के रुप में प्रगट होता है और अविनाशी सत् का लघु रुप जीव के रुप में प्रगट होता है ।

भगवान अर्जुन को ‘यज्ञकर्म’ करने के लिए कह रहे हैं

भगवान ने इस श्लोक में अर्जुन को अन्य सांसारिक कर्मों को छोड़कर यज्ञ कर्म करने के लिए कहा है। यज्ञकर्म वह कर्म है जो अविनाशी सत् वृहदत्तम अँश की प्राप्ति के लिए किया जाए। अगर समत्व बुद्धि से युक्त आसक्ति रहित किसी भी कर्म को परम अविनाशी सत् की प्राप्ति के लिए किया जाता है तो वह कर्म यज्ञकर्म बन जाता है। इस कर्म में आरंभ का नाश नहीं है और फलरुप उल्टा दोष भी नहीं लगता है –

यनेहाभिक्रमनाशोऽस्ति प्रत्यवातो न विद्यते ।
स्वल्पमप्यस्य धर्मस्य त्रायते महतो भयात् ॥2.40॥

 चूंकि वह कर्म अविनाशी सत् की प्राप्ति के लिए किया गया यज्ञकर्म बन जाता है इसलिए वह युद्ध कर्म जैसा हिंसक कर्म होकर भी पापकर्म नहीं होता और उस कर्मफल का दोष पुरुष पर नहीं लगता है। भगवान यहां अर्जुन के उस प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं जिसमें उसने यह संशय किया था कि वो क्यों उसे युद्ध जैसे घोर हिंसक कर्म को करने के लिए कह रहे हैं?

कर्मबंधन क्या है?

  • भगवान अर्जुन को इस श्लोक में यह भी कह रहे हैं कि यज्ञकर्म के अलावा जो भी कर्म तू करता है उसको करने से यह लोक कर्मबंधन वाला बन जाता है। इस लोक से तात्पर्य यह संसार है । इस संसार में किसी भी कर्म को करने का एक सिद्धांत है। यह है कार्य कारण और फल का सिद्धांत ( theory of Work, cause and result)। जैसे जहां धुआं है वहां अग्नि कारण स्वरुप जरुर होगी।
  • हम किसी भी कार्य को करते हैं तो उसके पीछे कोई न कोई कारण अवश्य रहता है । हम विवाह कर्म करते हैं तो उसके पीछे काम भावना और संतान उत्पत्ति का कारण जरुर रहता है । जब हमारी काम भावना तुष्ट हो जाती है या फिर हमें संतान की प्राप्ति हो जाती है तो हमारे कारणों का अंत हो जाता है और हमें फल की प्राप्ति हो जाती है।
  • भगवान ऐसे ही कर्मों को बंधनयुक्त कर्म कहते हैं। लाभ- हानि, जय- पराजय, सुख- दुख आदि के लिए किए गए कर्म हमें संसारिक बंधनों में ही बांधते हैं। हम लगातार पूरी जिंदगी सुख की तलाश में सांसारिक कर्म करते रहते हैं लेकिन उससे मिलने वाला फल हमेशा क्षणिक होता है। जो आनंद सांसारिक कर्मों से होता है वो हमेशा कुछ काल के लिए ही होता है और नाशवान होता है।
  • लेकिन यज्ञरुप कर्म में आरंभ का नाश नहीं है और उल्टा फलरुप दोष भी नहीं लगता । क्योंकि यज्ञकर्म अर्थात परम अविनाशी सत् के अँश यानी ईश्वर की प्राप्ति के लिए किए गए कर्म से हमें उसकी ही प्राप्ति होती है। यहां कार्य कारण और फल का सिद्धांत लगता है लेकिन इससे मिलने वाला फल नाशवान नहीं होता ।
  • भगवान अर्जुन से यही कहते हैं कि यज्ञकर्म करो न कि इस लोक में वैसे कर्म करो जो तुम्हें कर्मबंधन में बांधें।

यज्ञकर्म से इच्छित फलों की प्राप्ति

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्‌ ॥
sahayajñāḥ prajāḥ sṛṣṭvā purōvāca prajāpatiḥ.
anēna prasaviṣyadhvamēṣa vō.stviṣṭakāmadhuk৷৷3.10৷৷

अर्थः- प्रजापति ने पहले यानी रचना के समय यज्ञसहित प्रजा को रच कर प्रजा को कहा था “इस यज्ञ के द्वारा वृद्धि करो , यह यज्ञ तुम्हें इच्छित फलों को देने वाला होवे।

व्याख्याः- भगवान ने इस श्लोक में अर्जुन से यज्ञकर्म की उत्पत्ति और इसके फल के विषय में कहा है। भगवान कहते हैं कि यज्ञ अर्थात अविनाशी सत् की प्राप्ति हेतु किए जाने वाला कर्मयोग सृष्टि के आदि से है। इसकी उत्पत्ति तब से है जब से अविनाशी परम सत् ने समस्त प्राणियों सहित इस संसार की रचना की थी।

प्रजापति कौन हैं?

‘प्रजापति’ शब्द आमतौर पर राजा या ईश्वर के लिए प्रयोग किया जाता है। पौराणिक ग्रंथों में ब्रह्मा के कई मानस पुत्रों को भी प्रजापति कह कर संबोधित किया जाता था। दक्ष, प्रचेता आदि प्रजापतियों की श्रेणी में आते थे। इनका कार्य संतानों की उत्पत्ति करना और इन संतानों के वंश के द्वारा मानव जाति का विस्तार करना था ।

दक्ष, प्रचेता आदि प्रजापतियों का एक कार्य प्रजा अथवा अपनी संतानों को वैदिक रीति रिवाजों पर आधारित समाज की स्थापना का आदेश देना भी था। प्रजापति का मुख्य कार्य वैदिक नियमों के आधार पर शासन और समाज का नियमन करना था। लेकिन यहां प्रजापति से तात्पर्य एक त्रैगुणात्मक आवरण के अंदर स्थित होकर परम अविनाशी सत् के द्वारा सृष्टि का निर्माण करने वाले परम पुरुष से है। 

भगवान कौन हैं क्या वो अविनाशी सत् के वृहद अंश हैं

भगवान यहां जिन प्रजापति के बारे में कह रहे हैं वो स्वयं हैं। भगवान कैसे सृष्टि सहित प्रजा की रचना करते हैं और कैसे वो स्वयं सृजित होते हैं इसके बारे में उन्होंने स्वयं श्रीमद् भगवद्गीता में कहा है-

अजोऽपि सन्नव्ययात्मा भूतानामीश्वरोऽपि सन्‌ ।
प्रकृतिं स्वामधिष्ठाय सम्भवाम्यात्ममायया ॥
ajō.pi sannavyayātmā bhūtānāmīśvarō.pi san.
prakṛtiṅ svāmadhiṣṭhāya saṅbhavāmyātmamāyayā৷৷4.6৷৷

अर्थः- मैं अजन्मा और अविनाशी स्वरुप होते हुए भी तथा समस्त प्राणियों का ईश्वर होते हुए भी अपन प्रकृति को अधीन करके अपनी योगमाया से प्रगट होता हूं।

व्याख्याः- भगवान गीता के चतुर्थ अध्याय के छठे श्लोक में कहते हैं कि वो अविनाशी सत् हैं और सत् तो अजन्मा होता है- नासतो विद्यते भावो( अध्याय 2.16) अर्थात सत् का तो अभाव नहीं है। अविनाशी सत् तो नित्यशरीरी और अजन्मा होता है।

लेकिन फिर अविनाशी सत् कैसे शरीर धारण करता है , वो कैसे जीवों और साकार ईश्वर का स्वरुप धारण करता है इसके बारे में भी भगवान स्पष्ट रुप में गीता में कहते हैं।

भगवान गीता के चतुर्थ अध्याय में श्लोक 11 में जीवों या प्राणियों या फिर मनुष्यों के निर्माण की प्रक्रिया बताते हुए कहते हैं –

चातुर्वर्ण्यं मया सृष्टं गुणकर्मविभागशः ।
तस्य कर्तारमपि मां विद्ध्यकर्तामव्ययम।।

अर्थः- ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र – इन चारों वर्णों के समूह गुण( सत्व, रजस् तम) और कर्मों( सांसारिक और आध्यात्मिक) के विभागों के आधार पर मेरे द्वारा रचा गया है। इस प्रकार सृष्टि आदि की रचनादि कर्म का कर्ता होने के पर भी मुझ अविनाशी को तू वास्तव में कर्ता ही जान ।

भगवान यहां स्पष्ट कर रहे हैं कि जब किसी की मृत्यु होती है तो उसका शरीर तो खत्म हो जाता है लेकिन उसके कर्म और उसके गुण उसके अंदर स्थित अविनाशी सत् के साथ रह जाते हैं। भगवान कहते हैं कि “ मैं उसके गुणों ( सत्व , रजस और तमस ) और उसके कर्मों के आधार पर उसे नया शरीर देता हूं। अगर उसके गुणों में सत्व की मात्रा ज्यादा है तो अविनाशी सत् एक ऐसे शरीर के रुप में जन्म लेगा जिसके कर्म सात्विक होंगे और वो ब्राह्मण के वर्ण का कहलाएगा। उसी प्रकार रजस् गुण की अधिकता वाला अविनाशी सत् अपने राजसिक कर्मों के आधार पर क्षत्रिय वर्ण धारण करेगा। इसी प्रकार अविनाशी सत् अपने गुणों की मात्रा और कर्मों के मिश्रित प्रभाव से अन्य वर्णों के शरीर को धारण करेगा।” भगवान प्रकृतिजन्य तीनों गुणों( सत्व. रजस और तमस ) और कर्मों के आधार पर या उन गुणों में किसी एक की अधिकता के आधार पर एक आवरण बनाते हैं जिसके अंदर अविनाशी सत् प्रवेश करता है और इस प्रकार किसी जीव या मनुष्य का जन्म होता है।

अविनाशी सत् कैसे संसार की सृष्टि करता है?

अविनाशी परम सत् जो अविनाशी सत् का वृहद अंश है वही सृष्टि का रचयिता है। अविनाशी परम सत् स्वयं से जड़ और चेतन प्रकृति की रचना करता है-

भूमिरापोऽनलो वायुः खं मनो बुद्धिरेव च।
अहङ्कार इतीयं मे भिन्ना प्रकृतिरष्टधा।।7.4।।
अपरेयमितस्त्वन्यां प्रकृतिं विद्धि मे पराम्।
जीवभूतां महाबाहो ययेदं धार्यते जगत्।।7.5।।

अर्थः-पृथ्वी, जल, अग्नि, वायु, आकाश, मन, बुद्धि और अंहकार भी- इस प्रकार से यह आठ प्रकार से विभाजित मेरी प्रकृति है। यह आठ प्रकार के भेदों वाली तो अपरा अर्थात मेरी जड़ प्रकृति है। हे महाबाहो! इससे दूसरी को जिससे यह संपूर्ण जगत धारण किया जाता है उसे चेतन प्रकृति जान।

भगवान कहते हैं कि संसार दो प्रकार की प्रकृतियों मे विभाजित है । पहली जड़ प्रकृति जिससे निर्जीव वस्तुएं बनी हैं और दूसरी जब जड़ प्रकृति को चेतन प्रकृति धारण करती है तब सजीव प्राणियों का सृजन होता है।

एतद्योनीनि भूतानि सर्वाणीत्युपधारय।
अहं कृत्स्नस्य जगतः प्रभवः प्रलयस्तथा।।7.6।।

अर्थः- यह जानो कि संपूर्ण भूत इन दोनों प्रकृतियों से उत्पत्ति वाले हैं। (अत:) मैं सम्पूर्ण जगत् का उत्पत्ति तथा प्रलय स्थान हूँ।।

अविनाशी सत् के सिवा दूसरा कुछ भी नहीं है

भगवान कहते हैं कि अविनाशी सत् के परम सत्ता के रुप में वही इस जगत की उत्पत्ति भी करते हैं और संहार भी वही करते हैं। क्योंकि उनके सिवा संसार में किंचित मात्र भी दूसरी कोई वस्तु नहीं हैं –

मत्तः परतरं नान्यत्किञ्चिदस्ति धनञ्जय।
मयि सर्वमिदं प्रोतं सूत्रे मणिगणा इव।।7.7।।

अर्थः- हे धनंजय ! मुझसे परे अन्य किचिन्मात्र वस्तु नहीं है। यह सम्पूर्ण जगत् सूत्र में मणियों के सदृश मुझमें पिरोया हुआ है।

भगवान यहां स्पष्ट रुप से कह रहे हैं कि अविनाशी परम सत् का वृहद अंश अर्थात वो स्वयं और यह सारा संसार अविनाशी सत् से परे नहीं है। अविनाशी सत् ईश्वर से लेकर समस्त सृष्टि में ठीक उसी प्रकार गुंथा हुआ है जैसे मोतियों के बीच से माला गुजरती है। मोतियों की माला में मोतियों के रुप में सगुण जड़ और चेतन प्रकृति है और इसके भीतर विद्युत के करेंट की भांति अविनाशी सत् विद्यमान है।

ईश्वर या भगवान अविनाशी सत् का वृहद अंश है जो त्रैगुणात्मक आवरण (माया) के आवरण में प्रवेश कर एक महान ईश्वरीय सत्ता के रुप में प्रगट होता है और उसके पास यह शक्ति होती है कि वो त्रैगुणात्मक आवरण के कई स्तरों का सृजन कर उसमें छोटे- छोटे अविनाशी सत् के अंशो को प्रवेश करा कर उन्हें प्राणियों के रुप में सृजित करता है। इसलिए भगवान कहते हैं कि “मैं स्वयं से स्वयं को भी सृजित करता हूं (तदात्मानं सृजाम्यहम) और फिर सारी प्रजाओं को भी यज्ञ सहित सृजित करता हूं। अविनाशी सत् का वृहद अंश कैसे ईश्वर का साकार स्वरुप धारण करता है

भगवान गीता के अध्याय 4 के श्लोक 7 मे कहते हैं –

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत:।
अभ्युत्थानमधर्मस्य तदात्मानं सृजाम्यहम्॥

अर्थः- भगवान कहते हैं कि जब-जब धर्म की हानि होती है और अधर्म की वृद्धि होती है तब-तब मैं धर्म के उत्थान के लिए स्वयं से स्वयं को सृजित करता हूं।

अविनाशी सत् कैसे नित्य और अनित्य शरीरी के रुप में स्वयं से स्वयं को कैसे सृजित कर सकता हैं?  भगवान श्रीमद् भगवद्गीता और श्रीमद् भागवतम् में बताते हैं कि कैसे स्वयं से स्वयं का सृजन होता है । जैसे जल से बर्फ का सृजन होता है , बर्फ जल का ही एक सगुण स्वरुप है, उसी प्रकार अविनाशी निराकार सत् का वृहद अँश त्रैगुणात्मक प्रकृति(सत्व, रजस, तम) का सृजन करता हैं और उसे अंगीकार कर उसमें प्रवेश कर जाता है ।

त्रैगुणात्मक प्रकृति जिसे योगमाया भी कहते हैं उसमें प्रवेश करते ही अविनाशी सत् का वृहद अंश सगुण रुप धारण कर लेता है और नित्य या अनित्य शरीरी के रुप में खुद को प्रगट करता है । इसी स्वरुप को हम भगवान , ईश्वर , परमेश्वर या अवतार कहते हैः-

मया ततमिदं सर्वं जगदव्यक्तमूर्तिना।
मत्स्थानि सर्वभूतानि न चाहं तेष्ववस्थितः।।9.4।।

अर्थः- यह सम्पूर्ण जगत् मुझ (परमात्मा) के अव्यक्त स्वरूप से व्याप्त है; भूतमात्र मुझमें स्थित है, परन्तु मैं उनमें स्थित नहीं हूं।।

न च मत्स्थानि भूतानि पश्य मे योगमैश्वरम्।
भूतभृन्न च भूतस्थो ममात्मा भूतभावनः।।9.5।।

अर्थः- और (वस्तुत:) भूतमात्र मुझ में स्थित नहीं है; मेरे ईश्वरीय योग को देखो कि ‘भूतों को धारण करने वाली’ और भूतों को उत्पन्न करने वाली मेरा स्वत्व(ममात्मा) उन भूतों में स्थित नहीं है।।

यथाऽऽकाशस्थितो नित्यं वायुः सर्वत्रगो महान्।
तथा सर्वाणि भूतानि मत्स्थानीत्युपधारय।।9.6।।

अर्थः- जैसे सर्वत्र विचरण करने वाली महान् वायु सदा आकाश में स्थित रहती हैं, वैसे ही सम्पूर्ण भूत मुझमें स्थित हैं, ऐसा तुम जानो।।

प्रकृतिं स्वामवष्टभ्य विसृजामि पुनः पुनः।
भूतग्राममिमं कृत्स्नमवशं प्रकृतेर्वशात्।।9.8।।

अर्थः- प्रकृति को अपने वश में करके (अर्थात् उसे चेतनता प्रदान कर) स्वभाव के वश से परतन्त्र (अवश) हुए इस सम्पूर्ण भूत समुदाय को मैं पुन:-पुन: रचता हूँ।।

अवजानन्ति मां मूढा मानुषीं तनुमाश्रितम्।
परं भावमजानन्तो मम भूतमहेश्वरम्।।9.11।।

अर्थः- समस्त भूतों के महान् ईश्वर रूप मेरे परम भाव को नहीं जानते हुए मूढ़ लोग मनुष्य शरीरधारी मुझ परमात्मा का अनादर करते हैं।।

ईश्वर या परमेश्वर या परमात्मा कौन हैं?

अविनाशी सत् के वृहद अँश के पास यह इच्छा शक्ति होती है कि वो प्रकृति को अंगीकार कर सगुण रुप धारण कर सके । अविनाशी सत् का वृहदत्तम अँश जो सगुण रुप धारण करता है उसे ईश्वर कहते हैं, उससे कम अंश के द्वारा प्रकृति को अंगीकार कर सगुण रुप धारण करने वाले (जिनमे अपनी इच्छा शक्ति हो) वो देवता कहे जाते हैं।

लेकिन इसके नीचे अविनाशी सत् के लघु अंशों के पास वो इच्छा शक्ति नहीं होती है कि वो अपने आप से सगुण शरीर धारण कर सकें।  अविनाशी सत् के वृहद अंश रुपी सगुण ईश्वर ही लघु अविनाशी सत् के अंशो को प्रकृति के गुणों और उनके कर्मों के आधार पर विभिन्न प्रकार के प्राणियों के रुप में उत्पन्न करते हैं।

सभी ईश्वरीय सत्ताएं अविनाशी सत् के वृहद अँश हैं

सनातन धर्म की विविध ईश्वरीय सत्ताएं उसी अविनाशी सत् के वृहद अँश हैं। विष्णु अविनाशी सत् के सबसे महान और वृहद अँश हैं जिनके पास समस्त भूतों को रचने की शक्ति के साथ -साथ स्वयं को भी स्वयं से सृजित करने की शक्ति है ।

भगवान शिव , ब्रह्मा भी उसी अविनाशी सत् के वृहद स्वरुप हैं । ब्रह्मा के पास लघु अविनाशी सत् के लघु रुपों को प्रकृति के गुणों के अंदर प्रवेश करा कर प्रजाओं और संसार को रचने की शक्ति प्राप्त है लेकिन वो स्वयं से स्वयं को नहीं सृजित कर सकते हैं अर्थात वो अवतार नहीं ले सकते हैं।भगवान शिव अविनाशी सत् के वृहद अंश हैं और उनमें भी प्रकृति के गुणों के प्रभाव से अविनाशी सत् के अंश के द्वारा जन्में प्राणियों और सृष्टि का संहार करने की शक्ति है ।

विष्णु अविनाशी सत् के सबसे वृहद् अँश हैं, जो अवतार ले सकते हैं

विष्णु वृहद अविनाशी सत् के वो अँश हैं जो प्रकृति को उत्पन्न करते हैं और उसी से ब्रह्मा आदि को भी सृजित करते हैं। वो स्वयं से स्वयं को अवतार रुप में भी सृजित करते हैं। वो चाहें तो स्वयं ही सारी सृष्टि के रचियता बन जाएं लेकिन वो ब्रह्मा को प्रेरणा देकर समस्त प्रजाओं की रचना करवाते हैं।अविनाशी सत् के सबसे महान और वृहद अंश के रुप में विष्णु जब सगुण रुप धारण करते हैं तो वो वैकुंठ में वास करते हैं और जब-जब धर्म की हानि होती है तब- तब वो स्वयं से ही स्वयं के विभिन्न स्वरुपों की रचना करते है जिन्हें हम अवतार कहते हैं।

 श्रीराम , भगवान परशुराम, नृसिंह आदि अवतार विष्णु के द्वारा स्वयं से स्वयं के सृजन के अवतारी परिणाम हैं। विष्णु अपने वृहदत्म अविनाशी सत् के कुछ अंशों को लेकर उसमें प्रकृति के गुणों को डाल कर अपने अँशावतारों का सृजन करते हैं । इसलिए मत्स्य, कच्छप, वाराह, नृसिंह, परशुराम और श्रीराम विष्णु  स्वरुप वृहद अविनाशी सत् के अंश के लघु रुप हैं, इसलिए ये सभी अंशावतार कहे जाते हैं।

श्रीकृष्ण अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश के पूर्णावतार हैं

अविनाशी सत् के वृहदत्तम अंश विष्णु के लघु अंशों से अँशावतारों का सृजन होता है, लेकिन श्रीकृष्ण पूर्णावतार हैं । इसका अर्थ ये है कि विष्णु स्वरुप अविनाशी सत् के पूर्ण रुप में स्वयं से स्वयं को सृजित होकर अवतार लेने वाले का नाम श्रीकृष्ण हैं। इसलिए भगवान श्रीकृष्ण ही साक्षात और पूर्ण रुपेण विष्णु स्वरुप अविनाशी सत् के वृहदतम सगुण रुप हैं।

श्रीकृष्णही श्रीमद् भगवद्गीता में वर्णित भगवान हैं

इसलिए श्रीमद् भगवद्गीता में जिन भगवान के लिए ‘भगवानुवाच’ संबोधन का प्रयोग हुआ है वो अविनाशी सत् के वृहदत्तम स्वरुप विष्णु के पूर्णअवतार श्रीकृष्ण ही हैं जो विष्णु के द्वारा एक बार फिर त्दात्मानं सृजाम्यम के सिद्धांत के अनुसार प्रकृति के एक अन्य आवरण को धारण कर श्रीकृष्ण के रुप में प्रगट हुआ है। वही अविनाशी सत् के द्वारा प्रकृति को अंगीकार करने वाले वृहदत्तम अँश विष्णु के पूर्ण स्वरुप हैं और वही प्रजापति भी हैं जिन्होंने यज्ञ (स्वयं विष्णु  ) सहित समस्त प्रजाओं की रचना की है।

अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश से विष्णु (यज्ञ और प्रजापति) प्रगट हुए

यज्ञ स्वयं अविनाशी सत् के वृहदत्तम स्वरुप विष्णु हैं । अविनाशी सत् के वृहदत्तम स्वरुप ने त्रैगुणात्मक प्रकृति का सृजन कर उसे अंगीकार कर और उसमें प्रवेश कर पहले खुद को यज्ञ ( विष्णु) के रुप में सृजित किया इसके बाद समस्त प्रजाओं के प्रजापति का रुप धारण कर प्रजाओं की रचना की और कहा कि तुम इस यज्ञ के द्वारा वृद्धि करो , यह यज्ञ तुम्हें इच्छित फलों को देने वाला होवे।

यज्ञ से वृद्धि और इच्छित फल की प्राप्ति भगवान ने अर्जुन से कहा कि –

सहयज्ञाः प्रजाः सृष्टा पुरोवाचप्रजापतिः ।
अनेन प्रसविष्यध्वमेष वोऽस्त्विष्टकामधुक्‌ ॥

अर्थः- प्रजापति ने पहले यानी रचना के समय यज्ञसहित प्रजा को रच कर प्रजा को कहा था, इस यज्ञ के द्वारा वृद्धि करो , यह यज्ञ तुम्हें इच्छित फलों को देने वाला होवे।

व्याख्याः- प्रजापति ( अविनाशी सत के वृहद अँश विष्णु या नारायण) ने जब त्रैगुणात्मक माया का सृजन कर उसे स्वयं अंगीकार किया और स्वयं को सृजित करने के बाद एक अन्य त्रैगुणात्मक आवरण रुपी माया को अंगीकार कर यज्ञ( विष्णु के एक अन्य स्वरुप) की रचना की

इसके बाद अविनाशी सत् के वृहद सगुण स्वरुप प्रजापति (विष्णु) ने फिर से अविनाशी सत् के लघु अँशो को त्रैगुणात्मक आवरण रुपी माया के अंतर्गत इस जड़ और चेतन सृष्टि की रचना की जिसमें सभी प्राणी रुप बने जिन्हें उन्होंने प्रजा के नाम से संबोधित किया। इन्हीं अविनाशी सत् के लघु अँशों जिन्हें विष्णु ने त्रैगुणात्मक आवरणों में प्रवेश करा कर प्रजा के रुप में सृजित किया, उन्हें कहा कि तुम इस यज्ञ( विष्णु स्वरुप) के द्वारा वृद्धि करो। अर्थात विष्णु स्वरुप यज्ञ के प्रति कर्म करो( यज्ञकर्म)। यही विष्णु या कृष्ण स्वरुप अविनाशी अँश के वृहद स्वरुप से तुम्हें इच्छित फलों की प्राप्ति होगी।

अविनाशी अँश के वृहद स्वरुप से इच्छित फलों की प्राप्ति

अविनाशी अँश के लघु स्वरुप जब त्रैगुणात्मक माया या प्रकृति के गुणों के आवरण में शरीर धारण करते हैं तब इस नाशवान शरीर की इच्छाएं सांसारिक होती हैं और इसके अंदर स्थित अविनाशी सत् के लघु अँश की इच्छा मोक्ष प्राप्ति की होती हैं।

यज्ञ( विष्णु) से ही सारी सृष्टि के सभी जड़ और चेतन वस्तुओं और प्राणियों की रचना होती है। नाशवान शरीर जो भी इच्छा रखता है उसके सृजन की शक्ति भी अविनाशी सत् के वृहद स्वरुप ( विष्णु या यज्ञ) के पास होती है। अगर यज्ञ रुपी इस अविनाशी यज्ञ सांसारिक इच्छित फलों की प्राप्ति के लिए भी प्रार्थना की जाए तो वही इसका सृजन कर सकता है। इसलिए भगवान कहते हैं कि तुम इस यज्ञकर्म के द्वारा अर्थात यज्ञ( विष्णु) से प्रार्थना करो।

दूसरे यदि तुम यज्ञ( विष्णु या नारायण) की प्राप्ति के लिए कर्म करते हो अर्थात यज्ञकर्म करते हो तो तुम्हारे अंदर स्थित अविनाशी सत् के लघु अँश के अविनाशी सत् के वृहद अँश से मिल जाने की संभावना बन जाएगी और तुम मोक्ष को प्राप्त हो जाओगे।  मोक्ष से तात्पर्य है अविनाशी सत् के लघु अँश के द्वारा खुद को यज्ञकर्म के द्वारा त्रैगुणात्मक माया के आवरण से मुक्त करना और मूल अविनाशी सत् के अँश में फिर से सदा- सदा के लिए विलीन हो जाना ।

देवताओं का यज्ञ के द्वारा उन्नयन

भगवान अगले श्लोक में देवताओं की बात करते हैं। वो कहते हैं कि देवताओं के साथ मिल कर यज्ञकर्म करना आवश्यक है-

देवान्भावयतानेन ते देवा भावयन्तु वः ।
परस्परं भावयन्तः श्रेयः परमवाप्स्यथ ॥
dēvānbhāvayatānēna tē dēvā bhāvayantu vaḥ.
parasparaṅ bhāvayantaḥ śrēyaḥ paramavāpsyatha৷৷3.11৷৷

अर्थः- तुम लोग इस यज्ञ द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवतागण तुम्हारी उन्नति करें। इस प्रकार परस्पर उन्नति करते हुये परम श्रेय को तुम प्राप्त होगे।

इष्टान्भोगान्हि वो देवा दास्यन्ते यज्ञभाविताः।
तैर्दत्तानप्रदायैभ्यो यो भुङ्क्ते स्तेन एव सः।।3.12।।
iṣṭānbhōgānhi vō dēvā dāsyantē yajñabhāvitāḥ.
tairdattānapradāyaibhyō yō bhuṅktē stēna ēva saḥ৷৷3.12৷৷

अर्थः- यज्ञ द्वारा पोषित देवतागण तुम्हें इष्ट भोग प्रदान करेंगे। उनके द्वारा दिये हुये भोगों को जो पुरुष उनको दिये बिना ही भोगता है वह निश्चय ही चोर है।

व्याख्याः- भगवान अध्याय 3 के श्लोक 11 और 12 में एक नई बात कह रहे हैं। वो कह रहे हैं कि तुम यज्ञकर्म( परम अविनाशी सत् स्वरुप विष्णु या श्रीकृष्ण) के द्वारा देवताओं की उन्नति करो और वे देवतागण तुम्हारी उन्नति करें। इस प्रकार परस्पर ( यानि देवतागण और शरीरधारी पुरुष) दोनों ही उन्नति करेंगे और इस प्रकार यज्ञ कर्म करने से तुम परम श्रेय को प्राप्त होगे।

बोधिसत्व का सिद्धांत

भगवान का यह वचन हमें बौद्ध धर्म के महायान शाखा के ‘बोधिसत्व’ के सिदधांत का स्मरण कराता है। बौद्ध धर्म के महायान शाखा के अनुसार सभी प्राणियों और जीवों में भविष्य के मैत्रेय बुद्ध बनने की संभावना है । सभी प्राणी अपने से नीचे के प्राणी का कल्याण कर अपने पुण्यों के कर्मों की उन्नति करते हैं औऱ अगले जन्म में वो एक बेहतर प्राणी के रुप में जन्म लेते हैं। धीरे -धीरे वो लगातार पुण्य कर्म करते हुए वो अगले जन्मों में बेहतर प्राणी के रुप में जन्म लेते जाते हैं। पूरी सृष्टि में सभी प्राणी ऐसा करते- करते एक तरह की प्रतिस्पर्धा में लगे हुए होते हैं ।

इस कल्याणकारी प्रतिस्पर्धा का जो भी विजेता होगा वो किसी एक जन्म में भविष्य में आने वाले मैत्रेय बुद्ध के रुप में जन्म लेगा और निर्वाण को प्राप्त होगा। वर्तमान में कई ऐसे बोधिसत्व हैं जो मैत्रेय होने की दिशा में बहुत नज़दीक पहुंच चुके हैं । इन बोधिसत्वों में सबसे महान नाम है अवलोकितेश्वर का । वो आज भी लगातार  अपने से नीचे से सभी प्राणियों का कल्याण कर रहे हैं और उनके किसी अगले जन्म मे मैत्रेय बुद्ध बनने की बहुत संभावना है । वे फिलहाल एक देवता की श्रेणी में पहुंच चुके हैं और लगातार प्राणियों के कल्याण में रत हैं।

यज्ञकर्म को स्वार्थ कर्म मत बनाएं

भगवान कहते हैं कि इस यज्ञकर्म( अर्थात अविनाशी परम सत् की प्राप्ति के लिए कर्म) को सिर्फ अपने तक सीमित मत रखो बल्कि अपने से शक्तिशाली अविनाशी सत् के अँश देवताओं की भी उन्नति करो। देवता अपने यज्ञकर्मों ( अविनाशी सत् के वृहद अँश के प्रति कर्म) द्वारा तुम्हारी उन्नति करेंगे और तुम उनकी उन्नति कर परम श्रेय को प्राप्त होगे ।

देवता कौन हैं ?

देव दिव् धातु से उत्पन्न शब्द है जिसका अर्थ होता है प्रकाशमान। देवता शब्द में तल् प्रत्यय लग जाने से इसका अर्थ होता है कि जो देता है वही देवता है। श्रीमद्भगवद् गीता में इन श्लोकों से यह लगता है कि देवता अविनाशी सत् के वृहद् अँश यानि ईश्वर( विष्णु, यज्ञ, नारायण) से अँश में थोड़े कम और अविनाशी सत् के लघु अंश ( सामान्य प्राणी या मनुष्य) से अँश में थोड़े बड़े होते हैं। इनके पास ईश्वर की तरह सृष्टि की रचना करने की शक्ति तो नहीं होती लेकिन उनके पास मनुष्यों को इच्छित फल देने की शक्ति जरुर होती है।

  • अविनाशी सत् का वृहद अँश अर्थात ईश्वर या विष्णु सृष्टि की रचना या संहार कर सकते हैं। देवता अविनाशी सत् के वो अँश हैं जिनकी रचना ईश्वर ने मनुष्यों से भिन्न रुप में की है। देवताओं को ईश्वर ने कुछ शक्तियां भी दी हैं।
  • लेकिन, ये शक्तियां त्रैगुणात्मक आवरण में धीरे -धीरे क्षीण भी होती हैं। ये देवता भी लगातार अपने अविनाशी सत् के अंश को वृहद अविनाशी सत् से मिलाने के लिए यज्ञकर्म करते रहते हैं अर्थात अविनाशी सत् के वृहद अँश या ईश्वर के प्रति कर्म करते रहते हैं।
  • देवता भी बोधिसत्वों की तरह हैं जो निरंतर अपने से कम अविनाशी सत् के अँश रुपी प्राणियों का कल्याण करते रहते हैं और खुद इस पुण्य रुपी यज्ञकर्म कर मुक्ति के लिए प्रयास करते हैं।
  • वहीं भगवान अर्जुन से कहते हैं कि तू भी तो अविनाशी सत् का अँश है। तूझे भी मुक्ति प्राप्त करनी है। देवताओं को भी अपने अविनाशी सत् के अँश को वृहद अविनाशी सत् के अँश में विलीन करना है । ऐसे में तू जो यज्ञकर्म करेगा वो स्वार्थ से परे होना चाहिए ।
  • ऐसे में तू अपने यज्ञकर्म के द्वारा देवताओं की उन्नति कर और देवता भी अपने यज्ञकर्म के द्वारा तेरी मुक्ति हेतु तुझे उन्नत करेंगे । दोनों एक दूसरे की उन्नति कर परम श्रेय अर्थात वृहद अविनाशी सत् के अँश में विलीन होने के लक्ष्य को प्राप्त करेंगे।

देवताओं के पास इच्छित भोग देने की शक्ति है

  • देवता चूंकि अविनाशी सत् के थोड़े ज्यादा बड़े अंश हैं इसलिए उनके त्रैगुणात्मक आवरण युक्त शरीर के पास किसी की इच्छा पूरी करने की शक्ति होती है। वे त्रैगुणात्मक प्रकृति से विभिन्न प्रकार की वस्तुएं उत्पन्न कर सकते हैं।
  • इसलिए भगवान ने अर्जुन को कहा कि तुम यज्ञ के द्वारा देवताओं की भी वृद्धि करो और वो तुम्हें इच्छित वस्तुएं और भोग प्रदान करेंगे क्योंकि ये एक प्रकार का परस्पर विनिमय समझौते की तरह होगा ।
  • तुम्हारे यज्ञ करने के देवतागण पुष्ट होंगे और उन्हें अपने त्रैगुणात्मक आवरण को तोड़ कर वृहद अविनाशी अँश में विलीन होने में सहायता मिलेगी। इसलिए वो तुम्हें बदले में पोषित भी करेंगे और प्रसन्न होकर भोग भी प्रदान करेंगे ।
  • वैदिक ऋचाओं में हमेशा देवताओं को यज्ञ के द्वारा प्रसन्न कर उनसे इच्छित वस्तुओं की प्राप्ति की मांग की गई है। भगवान अर्जुन से कहते हैं कि अगर तुझे अविनाशी सत् के साथ अपने को विलीन भी करना है, तो भी यज्ञकर्म के द्वारा देवताओं की सहायता करो और अगर तुझे इस संसार की सांसारिक वस्तुओं और भोग की भी इच्छा है तो भी देवताओं की सहायता करो।

श्रीमद् भगवद्गीता के अनुसार चोर कौन है?

भगवान कहते हैं कि यज्ञ से प्राप्त फलों को जो देवताओं के साथ नही भोगता वो निश्चय ही चोर है। चोर किसे कहते हैं? श्रीमद् भगवद्गीता के अनुसार जो सिर्फ अपने स्वार्थ हित के बारे में सोचता है और दूसरों के कल्याण के बारे में नहीं सोचता वही चोर है । वैसे भी आम भाषा में चोर का कार्य किसी की संपत्ति को अपने पास बिना अधिकार के रख लेना है। भगवान का कहना है कि यज्ञकर्म सिर्फ स्वयं की मुक्ति के लिए अगर किया जा रहा है तो वो स्वार्थ है क्योंकि बोधिसत्व के सिद्धांत के अनुसार  भी मुक्ति तभी संभव है जब आप अपने कर्म के द्वारा किसी दूसरे का भी कल्याण करें और साथ ही अपना भी कल्याण करें।

 भगवान इसीलिए अर्जुन को यज्ञकर्म के द्वारा न सिर्फ अपने को पोषित करने के लिए कहते हैं बल्कि देवताओं को भी पोषित करने के लिए कहते हैं। जबकि चोर किसी और के अधिकार की वस्तु को बिना उसे दिए खुद रख लेता है । इसलिए भगवान कहते हैं कि अगर देवताओं से प्राप्त किसी भी वस्तु का भोग सिर्फ तुम अपने लिए करते हो तो तुम्हारा कार्य चोरों की तरह है।

यज्ञशिष्टाशिनः सन्तो मुच्यन्ते सर्वकिल्बिषैः ।
भुञ्जते ते त्वघं पापा ये पचन्त्यात्मकारणात्‌ ॥
annādbhavanti bhūtāni parjanyādannasambhavaḥ.
yajñādbhavati parjanyō yajñaḥ karmasamudbhavaḥ৷৷3.14৷৷

अर्थः- यज्ञ से बचे हुए पदार्थ को खाने वाले सत्पुरुष सभी पापों से छूट जाते हैं।परंतु जो केवल अपने लिए ही पकाते हैं, वे पापी पाप ही खाते हैं।

व्याख्याः- भगवान ने अर्जुन को यज्ञकर्म के द्वारा देवताओं को पोषित करने के लिए कहा था ताकि देवता बदले में इच्छित भोग प्रदान कर सकें । वैदिक ऋचाओं में देवताओं से यज्ञकर्म के द्वारा इच्छित वस्तुओं की मांग की जाती रही है। ये वैदिक देवता मूल रुप से प्रकृति के विभिन्न स्वरुप हैं इंद्र वर्षा के देवता हैं, वरुण जल के देवता हैं, अग्नि उष्मा के देवता है, सूर्य प्रकाश के देवता हैं।

जैसा कि पहले बताया जा चुका है कि ये देवता उसी अविनाशी अँश के थोड़े बड़े स्वरुप हैं जिनके पास त्रैगुणात्मक प्रकृति से विभिन्न प्रकार की वस्तुएं और पदार्थ उत्पन्न करने की शक्ति होती है। भगवान कहते हैं कि यज्ञ कर्म अर्थात वृहद अविनाशी सत् के प्रति कर्म किए जाते वक्त जिन त्रैगुणात्मक आवरण रुपी माया से बने पदार्थों का इस्तेमाल तुम  देवताओं को पोषित करने के लिए, उन पदार्थों के बचे हुए भागों को ग्रहण करने से तुम सभी पापों से मुक्त हो जाते हो।

पापी कौन है और पाप कर्म क्या होते हैं?

  • भगवान ने पिछले श्लोक में उन लोगों को चोर कहा था जो यज्ञकर्म से प्राप्त फलों को देवताओं के साथ नहीं भोगता और फल प्राप्ति के अधिकारों को अपने तक ही सीमित रखता है और देवताओं को उनका हिस्सा नहीं देता है।
  • भगवान इसके बाद इस श्लोक में यज्ञकर्म में लगे पदार्थों को देवताओं को न देकर सिर्फ खुद खाने वालों को पापी कहते हैं। भगवान ऐसे लोगों को पापी क्यों कहते हैं? दरअसल पापी वो है जो दूसरों के कल्याण में रत नहीं है। दूसरों के द्वारा उत्पन्न किए गए पदार्थों और भोगों का अपहरण कर लेता है।
  • चूंकि देवता त्रैगुणात्मक प्राकृतिक माया से पदार्थों को उत्पन्न कर सकते हैं इसलिए उनका अधिकार इन पदार्थों पर पहला है । देवता हमें इन पदार्थों को यज्ञकर्म में लगाने के लिए देते हैं।
  • जब हम देवताओं के द्वारा उत्पन्न इन पदार्थों को अविनाशी सत् के वृहद अँश या ईश्वर की प्राप्ति के लिए यज्ञकर्म में इस्तेमाल करते हैं तो वास्तव में हम उनके ही द्वारा दिए गए पदार्थों का इस्तेमाल कर रहे होते हैं।
  • ऐसे में जिसका उन पदार्थों पर पहला अधिकार हैं उन्हें उसका बचा हुआ भाग वापस न लौटा कर स्वयं उसका अपहरण कर लेने वाला पापी होता है।
  • ऐसे बचे पदार्थों का भोग करने वाला पुरुष पापी होता है। और उन पदार्थो का भोग दरअसल पापकर्म है। इसलिए भगवान कहते हैं कि उस बचे हुए पदार्थो का भोग करने वाला वस्तुतः पाप का ही भोग कर रहा होता है।

सृष्टि के चक्र का सिद्धांत

अन्नाद्भवन्ति भूतानि पर्जन्यादन्नसम्भवः ।
यज्ञाद्भवति पर्जन्यो यज्ञः कर्मसमुद्भवः ॥
annādbhavanti bhūtāni parjanyādannasambhavaḥ.
yajñādbhavati parjanyō yajñaḥ karmasamudbhavaḥ৷৷3.14৷৷

अर्थः- सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं, वर्षा से अन्न उत्पन्न होता है,वर्षा यज्ञ से होती है, और यज्ञ कर्म से उत्पन्न होता है ।

व्याख्याः- भगवान इस श्लोक में अर्जुन को सृष्टि में पदार्थों के उत्पन्न होने के चक्र के बारे में बता रहे हैं। भगवान कहते हैं कि सभी प्राणी अन्न से उत्पन्न होते हैं। क्योंकि हम जो भी अन्न खाते हैं उससे हमारे शरीर का पोषण होता है और रक्त और वीर्य आदि की वृद्धि होती है। वीर्य और अंडज के संयोग से प्राणियों का जन्म होता है।

  • भगवान कहते हैं कि यह अन्न वर्षा से उत्पन्न होता है। वर्षा का जल समुद्र से आता है। समुद्र के देवता वरुण हैं। सूर्य वरुण से जल लेकर उसे शोषित कर लेते हैं और मेघों में संचित कर देते हैं। मेघ के देवता इंद्र हैं। इसलिए वर्षा अविनाशी सत् के थोड़े बड़े अँश देवताओं के द्वारा किए जाते हैं। भगवान कहते हैं कि वर्षा यज्ञ( विष्णु , नारायण) से उत्पन्न होती है। यज्ञ अविनाशी सत् के वृहद अंश हैं।
  • अविनाशी सत् के वृहद अँश विष्णु ही प्रजापति हैं और वही अविनाशी अँश के थोड़े बड़े अँशो को त्रैगुणात्मक आवरण में प्रवेश करा कर देवताओं को उत्पन्न करते हैं। वर्षा कराने वाले प्राकृतिक देवता भी इन्हीं यज्ञ रुपी विष्णु से उत्पन्न हैं। भगवान फिर कहते हैं कि यज्ञ तो कर्म से उत्पन्न होता है। यह कर्म कौन सा कर्म है? तो आपको बता दें कि यह कर्म अविनाशी सत् के वृहद अंश के द्वारा स्वयं को त्रैगुणात्मक माया के आवरण में प्रवेश करा कर विष्णु या यज्ञ के रुप में सगुण रुप में प्रगट होने का कर्म है । यह ईश्वरीय कर्म है ।
  • इस सिद्धांत से सभी कुछ अविनाशी सत् के वृहद अँश के द्वारा ही उत्पन्न होते हैं।इसलिए भगवान कहते हैं कि तू जो अविनाशी सत् के वृहद अँश में अपने अवनाशी सत् के लघु अँश को विलीन करने वाला यज्ञकर्म करेगा उसमें प्रयुक्त अन्नादि पदार्थ सभी यज्ञ द्वारा ही उत्पन्न हैं। इसलिए इन पदार्थों को तू यज्ञ (विष्णु स्वरुप अविनाशी सत् के वृहद अँश) को समर्पित करने के साथ- साथ पदार्थों को उत्पन्न करने के माध्यम स्वरुप अविनाशी सत् के थोड़े बड़े अँशों देवताओं को भी समर्पित कर ।

ब्रह्म और अक्षर क्या हैं?

कर्म ब्रह्मोद्भवं विद्धि ब्रह्माक्षरसमुद्भवम्‌ ।
तस्मात्सर्वगतं ब्रह्म नित्यं यज्ञे प्रतिष्ठितम्‌ ॥
karma brahmōdbhavaṅ viddhi brahmākṣarasamudbhavam.
tasmātsarvagataṅ brahma nityaṅ yajñē pratiṣṭhitam৷৷3.15৷৷

अर्थः- कर्म को तू ब्रह्म( विशिष्ट चेतन शरीर) से उत्पन्न हुआ जान और ब्रह्म( शरीर) अक्षर(जीवात्मा) से उत्पन्न हुआ है। इसलिए सर्वगत ब्रह्म (समस्तगत अधिकारीवर्ग को प्राप्त शरीर) सदा ही यज्ञ में प्रतिष्ठित है, यानी यज्ञमूलक है।

व्याख्याः- कुछ लोग इस श्लोक में उल्लिखित ‘ब्रह्म’ शब्द का अर्थ वेद, ब्राह्म्ण या अविनाशी सत् के वृहद अंश से करते हैं, जबकि ब्रह्म शब्द से प्रकृति परिणाम स्वरुप शरीर निर्दिष्ट है। ‘ब्रह्म’ शब्द से प्रकृति से निर्देश किया गया है। गीता के अध्याय 14 के श्लोक 3 में भगवान कहते है –

मम योनिर्महद्ब्रह्म (अर्थात मेरी प्रकृति महद्ब्रह्म या ब्रह्म का विस्तृत स्वरुप है) ।

भगवान इस श्लोक में कहते हैं कि त्रैगुणात्मक प्रकृति के परिणाम से शरीर उत्पन्न होता है। हमने भी आपको बताया है कि अविनाशी सत् का लघु अँश जब अविनाशी सत् के वृहद अंश के सगुण रुप विष्णु या ईश्वर के द्वारा त्रैगुणात्मक प्रकृति के अधीन किया जाता है , तो शरीर रुप में प्राणियों की उत्पत्ति होती है।

भगवान कहते हैं कि ब्रह्म रुपी इस शरीर से ही कर्म की उत्पत्ति होती है। बिना शरीर के कर्म की कल्पना भी संभव नहीं है। शरीर कर्मेंद्रियों से संचालित होता है। यही कर्मेंद्रियां शरीर को कर्म में लगाती हैं। भगवान इसके आगे इस श्लोक में कहते हैं कि ब्रह्म अर्थात शरीर की उत्पत्ति अक्षर से हुई है। शरीर के लिए भगवान ने यहां ब्रह्म शब्द का उल्लेख किया है और जीवों के शरीर के अंदर स्थित अविनाशी सत् के अँश के लिए उन्होंने ‘अक्षर’ शब्द का प्रयोग किया है । सनातन वैदिक धर्म में ‘क्षर’ और ‘अक्षर’ शब्दों का प्रयोग क्रमानुसार नाशवान और नाशरहित तत्वों के लिए किया जाता है। भगवान के अनुसार प्रकृति और उसके त्रैगुणात्मक गुण( सत्व, रजस और तम) नाशवान हैं और उनका क्षरण होता रहता है।इसलिए प्रकृति क्षर अर्थात नाशवान है।

अविनाशी सत् अक्षर है और वही जीवात्मा भी है

 त्रैगुणात्मक माया का आवरण धारण करने वाला अविनाशी सत् नाशरहित और क्षरणरहित रहता है इसलिए उसके लिए भगवान ने अक्षर शब्द का प्रयोग किया है। इसे ही जीवात्मा के नाम से भी संबोधित किया जाता है । गीता में भी अव्यक्तोsक्षर इत्युक्तः(गीता 8,21) अर्थात “वह अक्षर शरीर है”- ऐसा कहा गया है । भगवान कहते हैं कि अक्षर ( अविनाशी सत् के अँश) से ब्रह्म( नाशवान. क्षरणशील और प्रकृति के गुणों से युक्त शरीर) की उत्पत्ति होती है।

भगवान कहते हैं कि अविनाशी सत् के अँश अक्षर से ब्रह्म यानी शरीर उत्पन्न होता है और इसी ब्रह्म यानी शरीर के कर्मेंद्रियों के कर्मों की उत्पत्ति होती है। इसलिए भगवान बार- बार कहते हैं कि चूंकि तुम जो भी कर्म कर रहे हो वो तुम्हारे शरीर से उत्पन्न हो रहे हैं, तुम्हारा शरीर ‘अक्षर’ यानी अविनाशी सत् से उत्पन्न हुआ है। तुम्हारे अंदर ‘अक्षर’ यानी अविनाशी सत् का अँश बहुत थोड़ा है जबकि देवताओं के अंदर ‘अक्षर’ यानी अविनाशी सत् का अँश थोड़ा ज्यादा है और अंततः ईश्वर रुप में मैं अविनाशी सत् का वृहदत्तम अँश हूं। इसलिए तुम जो भी कर्म करोगे उसके फल को देवताओं को भी दो और मुझे भी दोगे। इसी के द्वारा तुम अपने कर्मों को यज्ञकर्म के रुप में परिणत करोगे और सांसारिक कर्मबंधनों से मुक्त हो जाओगे।

अविनाशी सत् से उत्पन्न चक्र का पालन जरुरी है

भगवान ने पिछले श्लोकों में यह बताया है कि अविनाशी सत् और उससे उत्पन्न त्रैगुणात्मक माया के आवरणों के द्वारा संचालित इस सृष्टि का एक विशेष चक्र है । तुम्हारे उस अविनाशी सत् के वृहद् अँश के प्रति किए गए कर्मों (यज्ञकर्मो) से ही तुम्हारी मुक्ति संभव है । भगवान कहते हैं –

एवं प्रवर्तितं चक्रं नानुवर्तयतीह यः ।
अघायुरिन्द्रियारामो मोघं पार्थ स जीवति ॥
ēvaṅ pravartitaṅ cakraṅ nānuvartayatīha yaḥ.
aghāyurindriyārāmō mōghaṅ pārtha sa jīvati৷৷3.16৷৷

अर्थः- हे पार्थ! जो इस प्रकार प्रचलित चक्र के अनुसार नहीं चलता है, वह इंद्रियों में रमण करने वाला (यानी विषय भोग में रत रहने वाला) पाप -जीवन मनुष्य व्यर्थ ही जीता है।

व्याख्याः- भगवान यहां इस श्लोक में अर्जुन को सभी प्राणियों के अंदर स्थित अविनाशी सत् के परम लक्ष्य की प्राप्ति के बारे में बता रहे हैं। भगवान कहते हैं कि सभी प्राणियों के अंदर स्थित अविनाशी सत् को ईश्वर के द्वारा एक त्रैगुणात्मक माया का आवरण दिया जाता है जिसे शरीर कहते हैं।

यह शरीर हमेशा संसार के पदार्थों और भोग की तरफ रमण करता रहता है । लेकिन उसके अंदर स्थित अविनाशी सत् का एकमात्र लक्ष्य अपने उस परम अविनाशी सत् के अँश यानी ईश्वर में विलीन हो जाना है। इस लक्ष्य की प्राप्ति के लिए यज्ञकर्म आवश्यक हैं। यज्ञकर्म अर्थात अविनाशी सत् के परम अँश की प्राप्ति के लिए किया गया कर्म। जो शरीरधारी अपनी इंद्रियों को विषयों से हटा कर अपने अंदर स्थित अक्षर रुपी अविनाशी सत् की तरफ लगा देता है वो निश्चय ही परम अविनाशी सत् अर्थात ईश्वर को प्राप्त कर लेता है। लेकिन जो पुरुष इस ज्ञान से रहित होकर अपनी कर्मेंद्रियों को विषयों की तरफ लगा देता है वो अपने जीवन के परम लक्ष्य को प्राप्त करने में असफल रहता है और उसका जीवन व्यर्थ हो जाता है । ऐसे जीवन को जीना अर्थहीन जीवन को जीने के बराबर है।

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