कर्म

श्रीमद् भगवद्गीता | भगवान के लिए भी कर्म करना आवश्यक है | Shrimad Bhagavad Gita – Chapter 3

श्रीमद् भगवद्गीता के अध्याय तृतीय में अर्जुन को अविनाशी सत् की प्राप्ति के लिए यज्ञकर्म करने के लिए कहते हैं। यज्ञकर्म वह कर्म है जो अविनाशी सत् के वृहद्त्तम स्वरुप के सगुण परमेश्वर विष्णु की प्राप्ति के लिए किया जाए। ‘यज्ञै हि विष्णु’ अर्थात यज्ञ ही विष्णु हैं और भगवान विष्णु की प्राप्ति के लिए किया गया कर्म ही यज्ञकर्म है। अब अध्याय 3 के श्लोक 17 से भगवान महान धनुर्धर अर्जुन को यह बताते हैं कि सिर्फ प्राणी और पुरुष ही कर्म नहीं करते बल्कि अविनाशी सत् के वृहद्त्तम स्वरुप साकार विष्णु या भगवान भी कर्म करते हैं। लेकिन उनके कर्म करने की वजहें दूसरी हैं।

श्रीमद् भगवद्गीता के अनुसार आत्म संतुष्ट कौन है?

भगवान अर्जुन को अविनाशी सत् को प्राप्त कर चुके पुरुष के लक्षण बताते हुए कहते हैं कि –

यस्त्वात्मरतिरेव स्यादात्मतृप्तश्च मानवः ।
आत्मन्येव च सन्तुष्टस्तस्य कार्यं न विद्यते ॥
yastvātmaratirēva syādātmatṛptaśca mānavaḥ.
ātmanyēva ca santuṣṭastasya kāryaṅ na vidyatē৷৷3.17৷৷

इस श्लोक का अर्थ करने से पहले इसका अन्वय जानना जरुरी है। इसका अन्वय कुछ इस प्रकार है, अन्वयः- तु यः मानवः आत्मरतिः, एव च आत्मतृप्तः च आत्मनि एव संतुष्टः स्यात् तस्य कार्य न विद्यते

अर्थः- परंतु, जो मानव आत्मा में ही रमण करने वाला तथा आत्मा में ही तृप्त एवं आत्मा में ही संतुष्ट हो उसके लिए कर्तव्य नहीं है

व्याख्याः- यहां कुछ विद्वानों ने ‘यस्त्वात्मरतिरेव’, ‘स्यादात्मतृप्तश्च’ और ‘आत्मन्येव’ में ‘आत्म’ का अर्थ ‘आत्मा’ से लिया है। इसलिए हमने भी सुविधा के लिए पहले यही अर्थ लिया है। लेकिन वास्तव में इस श्लोक का अर्थ अन्वय के आधार पर यह होना चाहिए।

मूल अर्थः- परंतु, जो मानव आत्म में रमण करने वाला , आत्म में ही तृप्त और आत्म में ही संतुष्ट हो, उसके लिए कर्तव्य नहीं है।

यहां श्लोक में उल्लिखित ‘आत्म’(Self)  शब्द आत्मा(Soul) नहीं है बल्कि आत्म(Self) अर्थात स्वयं के प्रति होना है।

भगवान अर्जुन को पिछले कई श्लोकों से समझा रहे हैं कि वो आसक्ति रहित हो कर कर्म करे ताकि वो अपने अंदर स्थित अविनाशी सत् को प्राप्त कर सकें और इसके बाद वो अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश को प्राप्त कर मुक्ति प्राप्त करे ।

भगवान अर्जुन को अध्याय 2 के श्लोक 48 में समबुद्धि की अवस्था को प्राप्त कर कर्मयोग करने का उपदेश देते हैं-

योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥2.48॥
yōgasthaḥ kuru karmāṇi saṅgaṅ tyaktvā dhanañjaya.
siddhyasiddhyōḥ samō bhūtvā samatvaṅ yōga ucyatē৷৷2.48৷৷

अर्थः धनंजय! योग में स्थित हो, अपनी आसक्ति को त्याग कर, तथा सिद्धि और असिद्धि में सम होकर, तू कर्म कर। इस समता का नाम ही योग है।

भगवान कहते हैं कि जैसे ही तुम आसक्ति को त्याग कर सिद्धी और असिद्धि में सम होकर अविनाशी सत् के वृहद्त्तम अँश विष्णु या स्वयं उनके अर्थात श्रीकृष्ण के प्रति यज्ञकर्म करेगा तो तू आत्मरत अर्थात अपने ही स्वयं के सत् के प्रति रत हो जाएगा। आत्मरत होते ही तू अपने अंदर स्थित सत् को जान लेने और प्राप्त कर लेने के बाद तू आत्म तृप्त हो जाएगा और संतुष्ट हो जाएगा। अर्थात तेरे लिए कुछ भी प्राप्त करना फिर शेष नहीं रह जाएगा। ऐसे व्यक्ति के लिए फिर कोई भी कर्तव्य शेष नहीं रहते ।

मनुष्य का सबसे महत्वपूर्ण कर्तव्य क्या है?

भगवान कहते हैं कि पुरुष का प्रथम और अंतिम कर्तव्य अपने भीतर स्थित अविनाशी सत् की प्राप्ति और उसको वृहदत्तम अविनाशी सत् के अँश में विलीन करना है। इसके लिए ईश्वर स्वरुप यज्ञ के प्रति आसक्ति रहित होकर कर्म करना है। जैसे ही इस लक्ष्य की प्राप्ति होती है पुरुष आत्मरत अर्थात अपने ही अंदर स्थित सत् में रमण करने लगता है, आत्म तृप्त हो जाता है और संतुष्ट हो जाता है। फिर उसके लिए किसी भी सांसारिक कर्म को करने का कर्तव्य नहीं रह जाता है और न ही किसी प्रकार के यज्ञकर्म की भी आवश्यकता शेष रह जाती है।

अविनाशी सत् की प्राप्ति ही अंतिम कर्म है

संजय उवाच:

नैव तस्य कृतेनार्थो नाकृतेनेह कश्चन ।
न चास्य सर्वभूतेषु कश्चिदर्थव्यपाश्रयः ॥
naiva tasya kṛtēnārthō nākṛtēnēha kaścana.
na cāsya sarvabhūtēṣu kaśicadarthavyapāśrayaḥ৷৷3.18৷৷

अर्थ:- क्योंकि उसको इस लोक में न तो (साधन) करने से प्रयोजन है और न ही नहीं करने से ही कोई और न ही समस्त भूतों से भी कोई स्वार्थ का संबंध रहता है।

व्याख्याः भगवान इस श्लोक में यही बता रहे हैं कि जैसे ही अविनाशी सत् की प्राप्ति के लिए पुरुष यज्ञकर्म करता है और उसमें सफल होकर आत्मरत हो जाता है, वैसे ही वह इस लोक के सांसारिक कर्मों के बंधन से मुक्त हो जाता है ।

इसके बाद वो सांसारिक कर्मों से प्राप्त होने वाले लाभ- हानि, जय-पराजय, सुख और दुःख आदि के प्रति उदासीन हो जाता है। न ही किसी प्रकार के जड़ पदार्थों अर्थात संपत्ति, राज्य आदि के प्रति किसी प्रकार के स्वार्थ बंधन से बंधता है।

अनासक्त पुरुष परम लक्ष्य को प्राप्त करता है

तस्मादसक्तः सततं कार्यं कर्म समाचर ।
असक्तो ह्याचरन्कर्म परमाप्नोति पुरुषः ॥
tasmādasaktaḥ satataṅ kāryaṅ karma samācara.
asaktō hyācarankarma paramāpnōti pūruṣaḥ৷৷3.19৷৷

अर्थः- इसलिए सदा आसक्ति रहित होकर कर्तव्य कर्म करो, क्योंकि अनासक्त पुरुष कर्म करता हुआ भी परम को प्राप्त करता है।

व्याख्याः भगवान यहां एक बार फिर अर्जुन को आसक्ति रहित होकर समत्व भाव से यज्ञकर्म के द्वारा अविनाशी सत् की प्राप्ति हेतु ,जो पुरुष का एकमात्र कर्तव्य है उसके लिए यज्ञकर्म करने के लिए कह रहे हैं। इस स्थिति को जान कर जो सांसारिक आसक्तियों से रहित होकर जो पुरुष कर्म करेगा वो परम अर्थात अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश को प्राप्त कर लेता है।

यह कर्मयोग नया नहीं बल्कि शास्त्रोक्त और अविनाशी है

भगवान अर्जुन को जिस कर्मयोग की महत्ता बता रहे हैं वो नया नहीं बल्कि सनातन है। यह पुरातन ही नहीं अविनाशी भी है-

कर्मणैव हि संसिद्धिमास्थिता जनकादयः ।
लोकसंग्रहमेवापि सम्पश्यन्कर्तुमर्हसि ॥
karmaṇaiva hi saṅsiddhimāsthitā janakādayaḥ.
lōkasaṅgrahamēvāpi saṅpaśyankartumarhasi৷৷3.20৷৷

अर्थः क्योंकि जनकादि आसक्ति रहित कर्म के द्वारा ही परम सिद्धि ( सम्यक सिद्धि) को प्राप्त हुए। लोक संग्रह को देखते हुए तुझे भी कर्म करना ही चाहिए ।

व्याख्याः जनक आदि ज्ञानीजन अर्जुन के पहले हो चुके हैं, जबकि अर्जुन को यह ज्ञान आज मिल रहा है तो कहीं ऐसा तो नहीं कि अर्जुन को लग रहा है कि उसे भगवान जो ज्ञान दे रहे हैं वो पहली बार संसार को प्राप्त होगा? इसीलिए भगवान ने जनक आदि ज्ञानियों का नाम लेकर यह स्पष्ट कर दिया कि कर्मयोग का यह ज्ञान नया नहीं बल्कि पुरातन है।

भगवान ने गीता के अध्याय 4 के श्लोक 1 और 2 में अर्जुन को बाद में भी समझाया है कि यह कर्मयोग का ज्ञान जो मैं तुझे दे रहा हूं यह कोई नया ज्ञान या उपदेश नहीं है। यह कर्मयोग का ज्ञान अनादि काल से चला आ रहा है, और यह ज्ञान अविनाशी है –

श्री भगवानुवाच

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम्।
विवस्वान् मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत्।।4.1।।
एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप।।4.2।।

अर्थः श्रीभगवान् बोले – मैंने इस अविनाशी योग को सूर्यसे कहा था। फिर सूर्य ने (अपने पुत्र) वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने (अपने पुत्र) राजा इक्ष्वाकु से कहा। हे परंतप ! इस तरह परम्परा से प्राप्त इस कर्मयोग को राजर्षियों ने जाना। परन्तु बहुत समय बीत जानेके कारण वह योग इस मनुष्यलोक में लुप्तप्राय हो गया।

भगवान ने इसीलिए श्लोक में जनकादि कह कर जनक के अलावा कई अन्य महापुरुषों के बारे में इंगित किया है जो ज्ञानयोग के परिपूर्ण होने के बाद भी आसक्ति रहित होकर यज्ञकर्मों के द्वारा उस अविनाशी परम सत् को प्राप्त करने में सफल रहे।

ज्ञानयोगी के लिए भी कर्मयोगी होना आवश्यक है

जनक को ‘विदेह’ भी कहा जाता है। ‘विदेह’ इसलिए क्योंकि जनक सांसारिक और दैहिक कर्मों को करने के साथ-साथ अविनाशी सत् को प्राप्त करने के लिए यज्ञकर्म करने में भी महान योगी थे। भगवान इसलिए अर्जुन को कहते हैं कि ज्ञानयोग के अधिकारी होने के बावजूद कर्मयोग के द्वारा आत्मसाक्षात्कार करना आवश्यक है। भगवान अर्जुन को जनक आदि महापुरुषो के द्वारा किए गए कर्मयोग का उदाहरण देते हुए बताते हैं कि लोकसंग्रह को देखते हुए तुझे भी कर्म करना ही चाहिए। शास्त्रानुसार आचरण करने वाले पुरुष आदर्श कहे जाते हैं। जो अपने आदर्श के द्वारा दुसरों को दुराचार के मार्ग से हटा कर सदाचार के मार्ग पर चलने के लिए प्रेरित करते हैं इसे ही लोकसंग्रह कहा जाता है।

श्रेष्ठ पुरुष के कर्म दूसरों के लिए प्रेरणा बनते हैं

यद्यदाचरति श्रेष्ठस्तत्तदेवेतरो जनः ।
स यत्प्रमाणं कुरुते लोकस्तदनुवर्तते ॥
yadyadācarati śrēṣṭhastattadēvētarō janaḥ.
sa yatpramāṇaṅ kurutē lōkastadanuvartatē৷৷3.21৷৷

अर्थः क्योंकि श्रेष्ठ पुरुष जो जो आचरण करता है अन्य पुरुष भी वैसा ही आचरण करता है। वह श्रेष्ठ पुरुष जितने प्रमाण में करता है, संसार उसी का अनुवर्तन करता है।

व्याख्याः- भगवान ने अर्जुन को जनक जैसे महापुरुषों के आचरण के बारे में बता कर स्वयं अर्जुन को उनका अनुगमन करने की सलाह दी है। क्योंकि हम समाज में भी श्रेष्ठ पुरुषों के आचरण से प्रभावित होते हैं। जैसा राजा वैसी प्रजा जैसी कहावतें इसी बात को पुष्ट करती हैं।

भगवान भी अर्जुन को यही बता रहे हैं कि तू श्रेष्ठ पुरुषों की तरह कर्म कर क्योंकि बाद के काल में लोग तेरा ही अनुसरण करेंगें और समाज भी तेरा ही अनुसरण करेगा। भगवान यहां अर्जुन के उस संशय का उत्तर दे रहे हैं जब वो  कहता है कि युद्ध के दौरान जो लोग मारे जाएंगे उससे कुल की स्त्रियां दूषित होंगी और वर्णसंकर संताने पैदा होंगी और इस प्रकार समाज दूषित हो जाएगा।  भगवान कहते हैं कि अगर तू युद्ध को यज्ञकर्म या धर्मयुद्ध मानकर लड़ेगा तो तू श्रेष्ठ आचरण का उदाहरण प्रस्तुत करेगा । अगर तू युद्ध में मारा भी गया तो भी लोग तेरी श्रेष्ठता का अनुसरण करेंगे और समाज दूषित नहीं होगा। भगवान का आशय है कि व्यक्ति के शरीर से ज्यादा उसके गुण और कर्म समाज के लिए आदर्श बनते हैं।

भगवान स्वयं सबसे महान कर्मयोगी हैं

पहले भगवान ने जनक आदि महान ज्ञानियों के द्वारा कर्मयोग का आश्रय लेकर यज्ञकर्म के द्वारा अविनाशी सत् की प्राप्ति हेतु आसक्ति रहित होकर कर्म करने का उपदेश दिया । अब वो खुद अपना ही उदाहरण दे रहे हैं –

न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥
na mē pārthāsti kartavyaṅ triṣu lōkēṣu kiñcana.
nānavāptamavāptavyaṅ varta ēva ca karmaṇi৷৷3.22৷৷

अर्थः हे पार्थ मेरे लिए तीनों लोकों में न तो कुछ भी कर्तव्य है और न ही किसी अप्राप्त को प्राप्त करना है , फिर भी मैं कर्म करता ही रहता हूं।

व्याख्याः- भगवान स्वयं अविनाशी सत् के वृहदत्तम अँश के साथ साकार रुप में श्रीकृष्ण के रुप में प्रगट हुए है। भगवान अर्जुन को कहते हैं कि मैं स्वयं साकार रुप में परमेश्वर हूं, इस सारे ब्रह्मांड का रचयिता और संहारकर्ता भी हूं, मेरे लिए कुछ भी प्राप्त करना शेष नहीं हैं क्योंकि मैं स्वयं अविनाशी सत् हूं , लेकिन फिर भी मैं त्रैगुणात्मक माया की रचना कर उसे अंगीकार कर साकार और सगुण रुप में ईश्वर या अवतार (श्रीराम,श्रीकृष्ण आदि) रुप में प्रगट होता हूं तो मैं भी सब कुछ जानते हुए भी कर्म करता हूं।

भगवान ने गीता के अध्याय 7 के 26वें श्लोंक में कहा है कि –

वेदाहं समतीतानि वर्तमानानि चार्जुन।
भविष्याणि च भूतानि मां तु वेद न कश्चन।।7.26।।

हे अर्जुन ! जो प्राणी भूतकाल में हो चुके हैं, तथा जो वर्तमान में हैं और जो भविष्य में होंगे, उन सब प्राणियों को तो मैं जानता हूँ; परन्तु मेरेको कोई (मूढ़ मनुष्य) नहीं जानता। भगवान स्पष्ट रुप से कहते हैं कि वो सर्वज्ञ हैं , सर्वशक्तिमान हैं और त्रिकालदर्शी हैं, लेकिन फिर भी वो कर्म करते हैं, तो सवाल उठता है कि वो किस हेतु कर्म करते हैं?

भगवान हमारे लिए कर्म करते हैं

भगवान क्यों कर्म करते हैं जबकि उनके लिए कोई भी कर्म करना शेष नहीं हैं, तो भगवान अर्जुन को इसका रहस्य भी बताते हैं –

यदि ह्यहं न वर्तेयं जातु कर्मण्यतन्द्रितः ।
मम वर्त्मानुवर्तन्ते मनुष्याः पार्थ सर्वशः ॥
yadi hyahaṅ na vartēyaṅ jātu karmaṇyatandritaḥ.
mama vartmānuvartantē manuṣyāḥ pārtha sarvaśaḥ৷৷3.23৷৷

अर्थः क्योंकि हे पार्थ! यदि मैं सजग रह कर कदाचित कर्म में प्रवृत्त नहीं होऊं तो सभी मनुष्य सभी तरह से मेरा ही अनुसरण करते हैं। अर्थात् ऐसा ही अनुसरण कर वो भी कर्म में प्रवृत्त नहीं होंगे।

व्याख्याः- सारे धर्म और सारा संसार (नास्तिकों को छोड़कर) यही मानता है कि जो कुछ भी हो रहा है वो ईश्वर की लीला या उनके ही कर्म हैं। सारे धर्म ईश्वर को सबसे श्रेष्ठ और महान मानते हैं। भगवान ने पिछले श्लोकों में भी कहा है कि संसार में श्रेष्ठ पुरुष जो भी आचरण करते हैं, दूसरे पुरुष और समाज भी उन्ही का अनुकरण करता है

फिर, जब स्वयं अविनाशी सत् के वृहदत्तम साकार स्वरुप रुपी भगवान स्वयं शरीर लेकर प्रगट हुए हों, तो निश्चित ही संसार उनके कर्मों का अनुसरण करना चाहेगा । भले ही ईश्वर के लिए कोई भी कर्म शेष न हों, लेकिन भगवान संसार को मार्ग दिखाने के लिए श्रेष्ठ आचरणों और शास्त्रोक्त आचरणों के द्वारा उदाहरण प्रस्तुत करते हैं।

श्रीराम के कर्म हमारे आदर्श हैं

 भगवान श्रीराम ने मर्यादा की स्थापना हेतु जो आचरण किया और उसे समाज में प्रस्तुत किया, वह आज संसार के लिए आदर्श है। श्रीराम ने  अपने पिता के वचन की रक्षा के लिए वनगमन किया, पत्नी हेतु रावण का संहार किया, भाई के लिए राज्य का त्याग कर दिया और अन्य कई ऐसे उदाहरण प्रस्तुत किए जिनका अनुसरण आज भी संसार करता है।

संसार को श्रेष्ठ बनाने के लिए ईश्वर कर्म करते हैं

यही वजह है कि भगवान कहते हैं कि “मेरे लिए यूं तो कोई कर्म शेष नहीं हैं लेकिन समाज में मर्यादा और संस्कार बने रहें इसलिए वो ऐसे कर्म करते हैं जिससे समाज सुस्थिर हो सके, धर्म की संस्थापना हो सके और समाज के लोग उनका अनुसरण कर सकें।”

यदि उत्सीदेयुरिमे लोका न कुर्यां कर्म चेदहम्‌ ।
संकरस्य च कर्ता स्यामुपहन्यामिमाः प्रजाः ॥
utsīdēyurimē lōkā na kuryāṅ karma cēdaham.
saṅkarasya ca kartā syāmupahanyāmimāḥ prajāḥ৷৷3.24৷৷

अर्थः यदि मैं कर्म न करुं तो मेरे पीछे चलकर ये भी कर्महीन हो जाएंगे , ये लोग भी नष्ट हो जाएंगे और फिर मैं वर्णसंकर कर्ता बनूं और इन प्रजाओं का नाश करुं।

व्याख्याः भगवान एक बार फिर अर्जुन के उस संशय का उत्तर दे रहे हैं जिसमें उसने शंका प्रगट की थी कि युद्ध कर्म के दौरान जो लोग मारे जाएंगे उनके कुल की स्त्रियां दूषित हो जाएंगी और समाज में वर्णसंकरता फैलेगी।

भगवान ने जनक आदि महान कर्मयोगियों का उदाहरण दे कर बताया था कि श्रेष्ठ पुरुषों के कर्मों का अनुसरण समाज करता है और समाज में संस्कार बने रहते हैं। भगवान ने अर्जुन को यही ईशारा किया कि किसी के शरीर नहीं बल्कि उसे गुणों को समाज ग्रहण करता है। अगर श्रेष्ठ पुरुषो के अनुसार अर्जुन युद्ध को यज्ञकर्म माने और फिर युद्ध करे तो इससे समाज दूषित नहीं होगा। भगवान फिर अपना उदाहरण देकर कहते हैं कि मैं कर्म इसलिए भी करता हूं कि अगर मैं कर्महीन हो गया तो मेरा अनुसरण करने वाला संसार भी कर्महीन हो जाएगा। यहां कर्म से तात्पर्य अविनाशी सत् की प्राप्ति हेतु आसक्ति रहित यज्ञकर्म भी हैं और आसक्ति रहित सांसारिक कर्म भी है। भगवान कहते हैं कि अगर मैंने कर्म करना छोड़ दिया तो लोग भी कर्म से विमुख हो जाएंगे और धीरे- धीरे ये लोग नष्ट हो जाएंगे और इनके घर की स्त्रियां भी अच्छे कर्मों की महत्ता को भूल कर दूसरे पुरुषों के साथ कामवासना में रत हो जाएंगी। ऐसे स्त्रियों से जो बच्चे होंगे वो संस्कारहीन वर्णसंकर होंगे।

Spread the love

Leave a Reply

Your email address will not be published.

Translate »