shuddh Geeta Arjun

श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 1 में अर्जुन का विषाद। Bhagavad Gita, Chapter 1, Arjuna’s Despair (Visada Yoga)

श्रीमद्भगवद्गीता अध्याय 1 अर्जुन का विषाद ,धृतराष्ट्र की चिंता और दुर्योधन के युद्ध की तैयारियों से जुड़ा है। श्रीमद्भगवद्गीता में दो पात्र धृतराष्ट्र और अर्जुन चिंता और संशय से घिरे हुए दिखाए गये हैं । अर्जुन का विषाद और श्रीकृष्ण के द्वारा उसके संशयों का निराकरण श्रीमद्भगवद्गीता का मूल कथानक है। धृतराष्ट्र की चिंता से श्रीमद्भगवद्गीता के प्रारंभ जरुर होता है लेकिन यह उसका मूल कथानक नहीं है।

श्रीमद्भगवद्गीता का म श्रीमद्भगवद्गीता का अध्याय 1 का श्लोक 1 धृतराष्ट्र की चिंता और मोह से प्रश्न को दिखाता है।जब महाभारत के युद्ध के दसवें दिन संजय हस्तिनापुर आकर यह समाचार देते हैं कि भीष्म पितामह शर- शय्या पर लेट गए हैं, तब धृतराष्ट्र शोक, भय, मोह और चिंता से भर कर संजय से प्रश्न करते हैं कि धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में क्या हुआ उनके और पांडव पुत्रों ने क्या किया ?

धृतराष्ट्र के इस इकलौते प्रश्न के उत्तर में संजय जो बताते हैं उसमें दुर्योधन के द्वारा दोनों पक्ष की सेनाओं का वर्णन और युद्ध के लिए तैयार योद्धाओं के द्वारा की गई शँख ध्वनि के अलावा कुछ नहीं है। संभवतः संजय ये समझ जाता है कि धृतराष्ट्र का प्रश्न किसी संशय निवारण के लिए और ज्ञान प्राप्ति के लिए नहीं है ,बल्कि अपने पुत्रों की संभावित पराजय से उपजी हुई चिंता मात्र है। वास्तव में श्रीमद्भगवद्गीता का प्रारंभ उस वक्त से माना जाता है, जब अर्जुन अपने स्वजनों को देख कर उनके प्रति करुणा से भर जाता है और शोक और मोह से घिर जाता है।

 युद्धभूमि में अर्जुन देखता है कि उसके स्वजन जिनमें उसके आदरणीय पितामह भीष्म और गुरु द्रोण के अलावा उसके भाई, पुत्र और पौत्र सभी जीवन का त्याग करने के लिए खड़े हैं । स्वजनों जिसमें पितामह से लेकर पौत्र तक सभी अपने जीवन के त्याग के लिए खड़े हैं। अपने स्वजनों को इस प्रकार युद्धभूमि में खड़े देख कर अर्जुन के ह्रदय में करुणा का संचार हो जाता है। इस करुणा के फलस्वरुप अर्जुन के अंदर जो विषाद उत्पन्न होता है, वहीं से श्रीमद्भगवद्गीता की वास्तविक शुरुआत मानी जा सकती है। 

श्रीमद्भगवद्गीता में धृतराष्ट्र के मोह, युधिष्ठिर के शोक और अर्जुन के विषाद में अंतर :

श्रीमद्भगवद्गीता के प्रारंभ और महाभारत युद्ध के पूर्व अपने स्वजनों को लेकर तीन लोग सबसे ज्यादा चिंतित है। पहले हैं धृतराष्ट्र, दूसरे व्यक्ति हैं युधिष्ठिर और तीसरे व्यक्ति हैं अर्जुन । महाभारत में युधिष्ठिर युद्ध से पहले कौरवों की शक्ति और अपनी संभावित पराजय से चिंतित हो जाते हैं। युधिष्ठिर की इस चिंता को अर्जुन दूर कर देते हैं। अर्जुन युधिष्ठिर को समझाते हैं कि उनकी ही विजय सुनिश्चित है। अर्जुन कहते हैं कि श्रीकृष्ण पांडवों के पक्ष में हैं और जहाँ श्रीकृष्ण हैं वहीं विजय है( यतो कृष्णस्ततो जयः)।

अर्जुन के इस आश्वासन से युधिष्ठिक की चिंता दूर हो जाती है लेकिन महाभारत के युद्ध के पश्चात इस भयानक नरसंहार को देखकर युधिष्ठिर शोकसे घिर जाते हैं।युधिष्ठिर को लगता है कि ये नरसंहार उनकी महात्वाकांक्षा का परिणाम है। युधिष्ठिर के इस शोक को भीष्म दूर करते हैं। महाभारत के युद्ध के बाद शांति पर्व और अनुशासन पर्व में भीष्म युधिष्ठिर को ज्ञान देते हैं और उनके इस शोक को दूर करते हैं।

दोनों ही स्थितियों में युधिष्ठिर की चिंता और शोक स्वयं से संबंधित हैं, जबकि अर्जुन का शोक सिर्फ अपने लिए नहीं है बल्कि वो दोनों पक्षों की संभावित मृत्यु को देखकर शोक और संशय से भर जाता है। युधिष्ठिर युद्ध की निरर्थकता को नहीं मानते उनके लिए राज्य प्राप्ति के लिए जरुरी है, जबकि अर्जुन राज्य प्राप्ति के लिए युद्ध और नरसंहार की सार्थकता पर ही प्रश्न खड़ा करता है।

युधिष्ठिर की तरह धृतराष्ट्र की चिंता भी अपने कौरव पक्ष की संभावित पराजय से जुड़ा है। उनके लिए भी युद्ध निरर्थक नहीं है अगर इस युद्ध में कौरवों की जीत हो और दुर्योधन पांडवों से अपना राज्य बचा ले। धृतराष्ट्र सिर्फ इसलिए चिंतित हैं, क्योंकि उन्हें पता है कि अब भीष्म पराजित हो चुके हैं । भीष्म की पराजय से कौरवों की हार का मार्ग खुल चुका है। अर्जुन इस युद्ध को निरर्थक मानता है , वो इस बात के लिए भी तैयार है कि अगर उसके स्वजनों की जिंदगी युद्ध न करने से बचती है तो वो अपने शस्त्र त्याग देगा और तपस्वी बन कर जंगल में चला जाएगा। अर्जुन का विषाद दूसरों के कल्याण से जुड़ा है।

महाभारत के युद्ध के पहले अर्जुन श्रीकृष्ण के ईश्वरत्व को प्रमाणित कर युधिष्ठिर की चिंता को दूर कर देता है । युद्ध के बाद भीष्म युधिष्ठिर के शोक को दूर कर देते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के ज्ञान के द्वारा श्रीकृष्ण अर्जुन के संशय और विषाद को दूर कर उसे ज्ञानलब्ध बना देते हैं। किंतु, संजय धृतराष्ट्र की चिंता को दूर नहीं कर पाता, क्योंकि संजय धृतराष्ट्र को जो ज्ञान देते हैं वो उनका अपना नहीं है, वो ज्ञान श्रीकृष्ण और अर्जुन के संवाद से उपजा है। संजय केवल एक माध्यम और वो सिर्फ धृतराष्ट्र के सामने श्रीकृष्ण के ज्ञान का वाचन कर रहे हैं। संजय स्वयं ज्ञानलब्ध नहीं है, इसलिए धृतराष्ट्र युद्ध के पहले और बाद में भी चिंता और शोक से मुक्त नहीं हो पाते हैं।

श्रीमद्बगवद्गीता में युधिष्ठिर का शोक अर्जुन के विषाद से अलग क्यों है :

युधिष्ठिर का वास्तविक विषाद युद्ध के बाद हुए नरसंहार को देखने के बाद शुरु होता है । युधिष्ठिर अपने नाम के अर्थ के अनुरुप पूरे युद्ध में स्थिर रहते हैं । लेकिन जैसे ही उनकों उनका लक्ष्य और प्राप्य मिल जाता है , वो युद्ध में मारे गए लोगों को देख कर विषादयुक्त हो जाते हैं। युधिष्ठिर धर्म के स्तंभ हैं और धर्मराज के पुत्र हैं । युधिष्ठिर का धर्म रूढ़ीवादी और परंपरावादी है । युधिष्ठर का धर्म पाप और पुण्य वाला है। युधिष्ठिर का धर्म स्वर्ग और नरक वाला है।इसलिए उनका विषाद करुणा से भरा जरुर है, लेकिन युधिष्ठिर इस बात से भी भयभीत हैं कि कहीं उन्हें इन हत्याओं का पाप न लग जाए ।

युधिष्ठिर को उनका सिंहासन रक्तरंजित लगता है। चूँकि उनका विषाद भी रुढ़ीवादी है इसलिए उनके इस विषाद को एक पारंपरिक और रुढ़िवादी ज्ञानी ही दूर कर सकता है । इसलिए युधिष्ठिर को यह ज्ञान कृष्ण के कहने पर भीष्म पितामह देते हैं । महाभारत का पूरा शांतिपर्व और अनुशासन पर्व भीष्म द्वारा युधिष्ठिर को पारंपरिक और रुढ़ीवादी धर्म का ज्ञान देने से भरा है । भीष्म के द्वारा मिले ज्ञान से युधिष्ठिर का शोक और पाप का भय दूर हो जाता है । 

अर्जुन का विषाद क्यों इतना महत्वपूर्ण है :

अर्जुन का विषाद रुढ़ीवादी युधिष्ठिर के भय युक्त शोक और धृतराष्ट्र के मोहयुक्त चिंता से बिल्कुल अलग है । युधिष्ठिर को सिर्फ अपनी चिंता है कि कहीं महाभारत के युद्ध में हुई हत्याओं का पाप उन पर लग तो नहीं गया ? धृतराष्ट्र को अपनी चिंता नहीं है बल्कि अपने पक्ष वालों यानि अपने पुत्रों और कौरव पक्ष के लोगों की चिंता है । 

इस मायने में युधिष्ठिर से बड़ा दायरा धृतराष्ट्र की सोच में दिखता है, लेकिन अर्जुन को न तो अपनी चिंता है और न सिर्फ अपने पक्ष वालों की संभावित हत्या की चिंता है। अर्जुन का विषाद अपने पक्ष वालों के साथ – साथ अपने विरोध में खड़े स्वजनों और दोनों पक्षों में युद्ध में खड़े सारे वीरों के लिए है । अर्जुन युद्ध के संभावित दुष्परिणाम जिससे दोनों पक्षों को हानि होगी, उसी को लेकर करुणा से भरा है । अर्जुन का विषाद निस्संदेह ज्यादा बड़ा है, फिर भी कृष्ण उस विषाद को महत्व नहीं देते । आखिर कृष्ण क्यों अर्जुन के विषाद को ज्यादा महत्व नहीं देते हैं? इसको समझने के लिए सबसे पहले श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन के विषाद के सत्य को देखते हैं – 

अर्जुन उवाच :

दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥1.28
सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते ॥1.29।।

अर्थः – अर्जुन ने कहा – “हे कृष्ण! युद्ध की इच्छा से अपने स्वजनों को उपस्थित देखकर मेरे सारे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है, शरीर में कम्प हो रहा है और रोंगटे खड़े हो रहे हैं।”

व्याख्या – श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 1 के श्लोक 28 में पहली बार सीधे तौर पर ‘श्रीकृष्ण’ का नाम आता है। इससे पहले इसी अध्याय के श्लोक संख्या 14 में श्रीकृष्ण को माधव नाम से संबोधित किया गया है।अगले तीन श्लोकों में श्रीकृष्ण के लिए ह्षीकेश नाम आया है। माधव भी मूल रुप से विष्णु का नाम है, क्योंकि उन्होंने मधु नामक दैत्य का वध किया था। ह्षीकेश भी भगवान विष्णु का ही नाम है। ह्षीकेश का अर्थ होता है इंद्रियों का स्वामी या ईश्वर, लेकिन पहली बार अर्जुन श्रीकृष्ण को उनके मूल नाम से उच्चारित करता है।

पूरे श्रीमद्भगवद्गीता में कहीं भी श्रीकृष्ण उवाच नहीं कहा गया है। इसके स्थान पर ‘श्री भगवान उवाच’ संबोधन का प्रयोग किया गया है। ‘श्रीकृष्ण’ नाम का प्रयोग भी विरल ही है। लेकिन यहां अर्जुन सीधे ‘श्रीकृष्ण’ नाम से संबोधित कर रहा है। इससे पहले संजय और अर्जुन दोनों ने ही ह्षीकेश और माधव जो विष्णु के नाम हैं उनसे किसी को संबोधित किया है।

जैसे ही अर्जुन श्रीकृष्ण को संबोधित करता है उससे स्पष्ट हो जाता है कि श्रीकृष्ण विष्णु के अवतार हैं और विष्णु और श्रीकृष्ण में कोई भेद नहीं है। अर्जुन के द्वारा यह स्पष्ट कर दिया जाता है कि श्रीकृष्ण, ह्रषीकेश, माधव और विष्णु में कोई फर्क नहीं हैं। श्रीकृष्ण ही भगवान हैं और उनके लिए ही ‘भगवान उवाच’ संबोधन का प्रयोग किया गया है।

श्रीकृष्ण नाम की उत्पत्ति और इसके अर्थ की सुंदर व्याख्या महाभारत के ‘उद्योग पर्व’ में की गई है – 

कृषिर्भूवाचकः शब्दो णश्च निवृर्तिवाचकः ।
विष्णोस्तद्भावयोगाच्च कृष्णो भवति सात्वतः ।।
( महाभारत उद्योग पर्व 70.5)

अर्थात : कृष् धातु सत्ता के अर्थ का वाचक है और शब्द का अर्थ आनंद होता है । इन दोनों भावों से युक्त होने के कारण यदुकुल में अवतीर्ण हुए नित्य आनंद स्वरुप श्रीविष्णु ही कृष्ण कहलाते हैं । ये जन्म मरण से खींच लेते हैं, इसलिए ‘कृष्ण’ हैं ।

अर्जुन जब विषाद से भर रहा है तो वो श्रीकृष्ण को उनके नाम से संबोधित करता है और श्रीकृष्ण के अन्य नाम ह्षीकेश ( इंद्रियों के स्वामी) से संबोधित कर अपने विषाद से उत्पन्न इंद्रियों की स्थितियो का वर्णन करता है। 

शरीर और मन एक दूसरे से अभिन्न रुप से जुड़े हुए हैं :

वैज्ञानिक शोधों और चिकित्सकीय अनुसंधानों से आज यह स्थापित हो चुका है कि हमारी मानसिक दशाओं का हमारी शारीरिक गतिविधियों पर बहुत ज्यादा प्रभाव पड़ता है । हमारे मष्तिष्क के निचले भाग में स्थित पियूष ग्रंथि ( पिट्यूटरी ग्लैंड) के ठीक उपर स्थित एक हाइपोथैलेमस ग्रंथि होती है । जब हम चिंता, शोक, भय, घबराहट आदि से भर जाते हैं तो यह ग्रंथि सक्रिय हो जाती है और कई हार्मोन्स निकलने लगते हैं । 

ये हार्मोन्स हमारी घबराहट, भय, शोक आदि की स्थिति में सबसे पहले हमारे शरीर को शिथिल कर देते हैं। इसके बाद नर्वसनेस से हमारा मुख सूखने लगता है,शरीर कांपने लगता है,शरीर के तापमान और हमारे रक्त चाप में उतार चढ़ाव होने लगता है। शरीर के तापमान और ऑक्सीजन को नियंत्रित करने के लिए हमारे शरीर के रोंगटे खड़े हो जाते हैं। 

ऐसा ही अर्जुन के साथ होने लगा जब उसे लगा कि उसके युद्ध करने से उसकी वजह से सारे स्वजनों की मृत्यु हो सकती है। उसे भविष्य में युद्ध की वजह से होने वाले दुष्परिणाम दिखने लगे और वो शोक और विषाद को प्राप्त हो गया । 

गाण्डीवं स्रंसते हस्तात्वक्चैव परिदह्यते ।
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः ॥1.30।।

अर्थः – अर्जुन उवाच- “हाथ से गांडीव फिसला जा रहा है, त्वचा पूर्णतः जल रही है .मेरा मन भ्रमित हो रहा है और मैं खड़ा भी नहीं रह सकता हूं।” ( च- कार से अपशकुन का अर्थ लगाया जा सकता है अर्थात अर्जुन की बांयीं भुजा और बायीं आंख फड़क रही है ) 

व्याख्याः – इस श्लोक से यह अंदाजा लगाया जा सकता है कि अर्जुन के मन के अंदर कितनी उथल पुथल मची हुई है? अर्जुन के सारे अंग तो पहले से ही शिथिल हो गए हैं अब उसके हाथ से उसके महान गांडीव धनुष का फिसलना भी तय लग रहा है।

 जब हमारे शरीर में नर्वसनेस बढ़ जाती है तो शरीर को वापस उस सही अवस्था में आने के लिए अतिरिक्त उर्जा की जरुरत होती है। शरीर में इस उर्जा को पूरा करने के लिए रक्त प्रवाह का बढ़ना जरुरी होता है। इसलिए हमारे शरीर के विभिन्न अंगो में एकत्रित जल रक्त में मिल जाता है उस हमारे शरीर के रक्त को पतला कर देता है, ताकि रक्त के प्रवाह की गति तेज हो सके। यही कारण है कि हमारा मुख सूखने लगता है और पानी की कमी से त्वचा भी जलने लगती है। 

अर्जुन संशयात्मक स्थिति में है। उसे समझ में नहीं आ रहा कि वो क्या करे और क्या ना करे? ऐसी स्थिति में उसका मन पूरी तरह से भ्रमित हो गया है । मन की दुर्बलता से उत्पन्न शारीरिक स्थिति की वजह से भी उसके अंग इस कदर शिथिल हो चुके हैं कि वो खड़ा भी रह पाने में खुद को असमर्थ पा रहा है।

अभी कुछ देर पहले ही अर्जुन ने युद्ध शुरु करने के लिए अपना धनुष उठा लिया था, लेकिन अब उसके हाथ से उसका प्रसिद्ध गांडीव धनुष फिसला जा रहा है। अर्जुन के लिए उसका गांडीव धनुष उसकी सबसे बड़ी प्रतिष्ठा थी। अर्जुन को जितना अपने गांडीव धनुष पर विश्वास था उतना किसी और पर नहीं था। अर्जुन ने यह प्रतिज्ञा कर रखी थी कि ‘अगर कोई उसके पराक्रम और उसके गांडीव धनुष की योग्यता पर अगर सवाल खड़ा करेगा तो अर्जुन के सामने वह उसे मार डालेगा, चाहे उस वक्त उसके सामने उसका कोई प्रिय भी क्यों न हो। 

महाभारत के ‘कर्ण पर्व’ में जब कर्ण युधिष्ठिर को बुरी तरह से पराजित कर देता है और अपमानित कर वापस छावनी में भेज देता है तो अर्जुन प्रतिज्ञा लेते हैं कि वो कर्ण को पराजित कर इस अपमान का बदला लेंगे। कर्ण और अर्जुन इस युद्ध में थक जाते हैं ।अर्जुन कृष्ण साथ युधिष्ठिर की छावनी में विश्राम के लिए प्रवेश करते हैं। 

युधिष्ठिर को ऐसा लगता है कि अर्जुन ने कर्ण का वध कर दिया है। लेकिन जैसे ही उन्हें ये पता चलता है कि अर्जुन कर्ण का वध किए बिना ही उनके पास आए हैं, तो युधिष्ठिर अर्जुन के पराक्रम और गांडीव धनुष की योग्यता पर सवाल उठा देते हैं । प्रतिज्ञा से बंधे अर्जुन युधिष्ठिर को मारने के लिए आगे बढ़ जाते हैं। कृष्ण किसी तरह युधिष्ठिर को अर्जुन के बीच मेल कराते हैं। 

आज जिस गांडीव धनुष पर अर्जुन को सबसे ज्यादा विश्वास था , वही उसके हाथ से फिसल रहा है । अर्जुन की मानसिक दशा इस स्तर पर आ गई है कि उसका विश्वास भी डोलने लगा है । 

निमित्तानि च पश्यामि विपरीतानि केशव ।
न च श्रेयोऽनुपश्यामि हत्वा स्वजनमाहवे ॥1.31।।

अर्थः – अर्जुन उवाच- “हे केशव ! सारे लक्षणों को भी मैं उल्टा देख रहा हूं और युद्ध में मैं स्वजन समुदाय को मार कर कल्याण नहीं देखता हूं।” 

व्याख्याः– श्लोक 30 में अर्जुन पहले अपनी मानसिक- शारीरिक स्थिति का वर्णन कर रहा है और अब वो इस श्लोक में इन स्थितियों के कारणों को बता रहा है । अर्जुन अपने विषाद के कारण से पहले उन लक्षणों और अपशकुनों के बारे में इशारा कर रहा है जो उसे उल्टे लग रहे हैं अर्थात् अशुभ लग रहे हैं।

अर्जुन यह कहना चाह रहा है कि युद्ध मे विजय किसी की भी हो, लेकिन युद्ध का परिणाम अशुभ ही होने वाला है। ऐसे लक्षण दिख रहे हैं जिन्हें शास्त्रों में अपशकुन की संज्ञा दी गई है। महाभारत के ‘भीष्म पर्व’ के अध्याय 2( Chapter 2) में जब वेद व्यास धृतराष्ट्र से मिलने जाते हैं तो वो भी अपशकुनों के आधार पर संभावित युद्ध से उत्पन्न होने वाले नरसंहार को बता देते हैं। अब अर्जुन को भी भावी अनिष्ट की आशंका सता रही है। वो आशंका सिर्फ अपने पक्ष के लोगों को संहार की नहीं है बल्कि दूसरे पक्ष में खड़े अपने स्वजनों के संहार की भी है। 

अर्जुन को पता है कि ये युद्ध किसी शत्रु से नहीं लड़ा जा रहा है बल्कि अपने ही कुटुम्बजनों से लड़ा जा रहा है। इस युद्ध में कोई भी विजयी नहीं होगा। इस पक्ष में दोनों पक्षों को हानि होने वाली है और इस युद्ध से किसी भी एक पक्ष को लाभ नहीं होने वाला है। 

कौरव आदि भी अर्जुन के ही स्वजन हैं और पांडव सेना भी कौरवों की ही रिश्तेदार है। ऐसे में जय- पराजय में लाभ किसी को नहीं होने वाला बल्कि दोनों पक्षों को हानि ही होने वाली है। इसलिए अर्जुन को इस युद्ध में स्वजनों को मारने में कोई कल्याण नज़र नहीं आ रहा है। 

अर्जुन यहां श्रीकृष्ण को ‘केशव’ के नाम से संबोधित करता है। ‘केशी’ नामक राक्षस का वध करने की वजह से ही श्रीकृष्ण को ‘केशव’ भी कहा जाता है। महाभारत में कहा गया है ‘केशवः पुरुषोत्तमः’ अर्थात केशव ही पुरुषोत्तम भगवान हैं ( महाभारत अनुशासन पर्व)

न काङ्क्षे विजयं कृष्ण न च राज्यं सुखानि च ।
किं नो राज्येन गोविंद किं भोगैर्जीवितेन वा ॥1.32।।

अर्थः – अर्जुन उवाच- “कृष्ण ! मैं न तो विजय चाहता हूं, न ही राज्य और सुख। हे गोविंद ! हमें राज्य से क्या प्रयोजन है ?  भोगों अथवा जीवन से ही क्या लाभ ?”

व्याख्याः – अर्जुन ने यहां श्रीकृष्ण के अलावा ‘गोविंद’ संबोधन का भी प्रयोग किया है । ‘गोविंद’ किन्हें कहा गया है, इसकी व्याख्या महाभारत के अनुशासन पर्व में की गई है –

नष्टां वै धरणीं पूर्वमविन्दं यद् गुहा गताम ।
गोविन्द इति तेनाहं देवैर्वाग्भिरभिष्टुतः ।।

भगवान विष्णु कहते हैं कि “मैं सबसे पहले गुहागत (रसातल) नष्ट पृथ्वी को लेकर आया, इस कारण वेद वाणियों और देवताओं के द्वारा ‘गोविंद’ नाम से पुकारा गया ।

अर्जुन ने एक साथ ‘कृष्ण’ ( जो जन्म मरण से खींच लेते हैं ) और ‘गोविंद’ ( नष्ट पृथ्वी का भी उद्धार कर सकते हैं ) दोनों संबोधनों का प्रयोग करते हैं। अर्जुन भगवान को कहना चाह रहा है कि वो उसे भी इस संकट से खींच निकालें और उसका भी उद्धार करें, क्योंकि उसका लक्ष्य कभी भी भौतिक नहीं रहा। अर्जुन श्रीकृष्ण को भगवान मानता है। अर्जुन भगवान को बताना चाह रहा है कि उसके जीवन का लक्ष्य भौतिक विजय, भौतिक राज्य और सुख की प्राप्ति नहीं है। उसे जीवन के विलासी भोगों में भी कोई लाभ नज़र नहीं आता।

चूंकि इस युद्ध में अपने स्वजनों की हत्या करने के बाद जो प्राप्ति है, वो तुच्छ भौतिक सुखों से ज्यादा नहीं है। इस हिसाब से यह युद्ध लाभप्रद भी नहीं हैं क्योंकि इससे प्राप्त होने वाला भौतिक सुख उसके स्वजनों के खोने के दुख से बहुत ही कम है। इसलिए अर्जुन कृष्ण या गोविंद को इस संकट से उबारने और रास्ता दिखाने के लिए कह रहा है। 

येषामर्थे काङक्षितं नो राज्यं भोगाः सुखानि च।
त इमेऽवस्थिता युद्धे प्राणांस्त्यक्त्वा धनानि च ॥1.33।।
आचार्याः पितरः पुत्रास्तथैव च पितामहाः।
मातुलाः श्वशुराः पौत्राः श्यालाः संबंधिनस्तथा ॥1.34।।
एतान्न हन्तुमिच्छामि घ्नतोऽपि मधुसूदन।
अपि त्रैलोक्यराज्यस्य हेतोः किं नु महीकृते ॥1.35।।

अर्थः – अर्जुन उवाच- “जिनके लिए हमें राज्य, सुख और भोग चाहिए, वे ही ये सभी( स्वजन) प्राण और धन की आशा को त्याग कर युद्ध में खड़े हैं (1.33)”।”आचार्यगण, पितृगण, पुत्रलोग ( च- कार से भाई लोग), उसी प्रकार पितामहगण,श्वसुर,पौत्र और साले तथा बहनोई, समधी आदि संबंधीजन हैं (1.34) ।” ” हे मधुसूदन! इनके द्वारा मारे जाते हुए भी मैं इन्हें त्रैलौक्य के राज्य के लिए भी नहीं मारना चाहता, फिर पृथ्वी के लिए कौन कहे (1.35)।”

व्याख्याः – अर्जुन इन श्लोकों में इस युद्ध के परिणाम से प्राप्त राज्य, सुखों और भोगों की व्यर्थता को बताता है। हम जीवन में अपने लिए बहुत कम अर्जित करते हैं। हमारा अधिकांश जीवन दूसरों को सुख प्राप्त कराने में ही व्यतीत हो जाता है। 

  • महर्षि वाल्मीकि को लेकर अध्यात्म रामायण में एक प्रसिद्ध कथा है। हालांकि इस कथा की सत्यता को लेकर सवाल उठाए जा सकते हैं, पर इसका भाव अद्भुत है। कथा के अनुसार वाल्मीकि पहले एक डाकू थे,और लोगों को जंगल के रास्ते पर लूटा करते थे और उनकी हत्या कर देते थे।
  • एक बार उन्होंने नारद जी को पकड़ लिया। नारद जी ने वाल्मीकि जी से पूछा कि ‘”ये पाप तुम क्यों करते हो ?” वाल्मीकि ने जवाब दिया कि वो अपने माता, पिता, पत्नी और संतानों के सुख के लिए यह पाप करते हैं। तब नारद जी ने कहा कि “उनसे जा कर यह पूछो कि क्या वो उसके पाप में भी हिस्सेदार बनेंगे?”
  • जब वाल्मीकि ने अपने परिवार वालों से पूछा तो किसी ने भी उनका पाप लेने से इंकार कर दिया । इसके बाद वाल्मीकि का ह्रदय परिवर्तन हो गया और वो एक महान संत बन गए ।
  • अर्जुन अभी वाल्मीकि जी की स्थिति में हैं । उसे लग रहा है कि उसके जीवन की सारी उपलब्धियां, उसका सारा पराक्रम उसके स्वजनों के लिए ही है । अगर इस युद्ध से उसे वो राज्य और सुख मिल भी गया तो वो किस काम का ? क्योंकि जिसके लिए वो अर्जित करना चाहता है, वो तो युद्ध में मारे जाएंगे । 
  • अभी अर्जुन का महर्षि वाल्मीकि जी की तरह ह्रदय परिवर्तन नहीं हो पाया है । उसे ये तो लग रहा है कि उसके सभी  स्वजन अपने प्राण और धन की आशा को त्याग कर युद्ध में खड़े हैं ।  लेकिन अर्जुन अपने सारे रिश्तेदारों और अपने निकट संबंधियों को देख कर यह कहता है कि इनके बिना जीवन की कोई भी उपलब्धि निरर्थक है। यहां तक कि इस युद्ध के बाद अगर तीनों लोक भी मिल जाते तो भी बेकार हैं।
  •  अर्जुन तो यहां तक कह देता है कि अपने संबंधियों के बिना जीवन पूरी तरह निस्सार है । इससे तो बेहतर है कि दुर्योधन आदि ही युद्ध में मुझे मार डालें । अर्जुन को लगता है कि वो अपने बलिदान से युदध को टाल देगा । 
  • अर्जुन को यह भ्रम है कि अगर वह युद्ध से पलायन कर जाता है तो संभवतः यह युद्ध टल जाएगा और उसके स्वजनों का जीवन बच जाएगा । लेकिन अर्जुन को यह पता नहीं है कि यह युद्ध उसकी करुणा से नहीं रुकने वाला, क्योंकि इस युद्ध में दुर्योधन और युधिष्ठिर की महात्वाकांक्षाएं उसकी करुणा पर भारी पड़ेगी । 

अर्जुन कायर नहीं है बल्कि वह अपने स्वजनों के प्रति करुणा से भरा हुआ है। इसी अर्जुन के सामने अगर उसके स्वजन नहीं होते तो उसको ये महान विचार नहीं आते। अर्जुन बुद्ध की तरह अहिंसा की बात नहीं कर रहा। अगर कोई और होता तो अर्जुन के बाण अभी तक लाखों लोगों का संहार कर चुके होते।लेकिन अर्जुन के सामने उसके स्वजन हैं। अपने स्वजनों के लिए अर्जुन युद्ध नहीं करना चाहता । अर्जुन का युद्ध न करने का संकल्प एक स्वार्थ है इसलिए अर्जुन की यह करुणा कृष्ण के लिए बेकार है। वो अर्जुन की इस करुणा को कोई महत्व नहीं देते। 

अर्जुन कृष्ण को मधूसूदन कह कर संबोधित करता है। मधुसूदन भगवान विष्णु का एक अन्य नाम है। मधु नामक दैत्य को मारने की वजह से भगवान विष्णु को ‘मधुसूदन’ कहा गया। मधु और कैटभ को मारने के बाद उन्हीं के शरीर के भागों से विष्णु जी ने इस पृथ्वी को बनाया । इसलिए पृथ्वी का एक नाम मेदनी भी है। अर्जुनश्रीकृष्ण को मधूसूदन कह कर इसीलिए संबोधित कर रहा है ,क्योंकि जिस पृथ्वी को मधूसूदन ने बनाया वो अर्जुन के लिए भी स्वजनों के बिना किसी काम की नहीं है।

निहत्य धार्तराष्ट्रान्न का प्रीतिः स्याज्जनार्दन ।
पापमेवाश्रयेदस्मान् हत्वैतानाततायिनः ॥1.36।।

अर्थः – अर्जुन उवाच- “हे जनार्दन! इन धृतराष्ट्र पक्षीय लोगों को मार कर हमें क्या प्रसन्नता होगी या क्या लाभ होगा ? बल्कि इन आतातायियों को मारने से हमें पाप ही लगेगा।” (1.36)

व्याख्याः – यहां अर्जुन श्रीकृष्ण को ‘जनार्दन’ कह कर संबोधित कर रहा है । महाभारत के ‘उद्योग पर्व’ में बताया गया है कि कृष्ण को ‘जनार्दन’ क्यों कहते हैं? 

दस्युत्रासाज्नार्दनः अर्थात – दस्यु जनों को त्रास (पीड़ा) देने के कारण कृष्ण को जनार्दन कहते हैं।
महाभारत ,उद्योग पर्व,अध्याय 70, श्लोक 6

यहां ‘प्रीति’ शब्द लाभवाचक हैं और ‘धृतराष्ट्रान’ शब्द धृतराष्ट्र के दल के लोगों के लिए आया है । अर्जुन कह रहा है कि धृतराष्ट्र के दल को मारने से भी क्या लाभ होगा ,बल्कि इन आतातायियों को मारने से उसे तो पाप ही लगेगा ।

ये कैसे संभव हैं कि अत्याचारियों को मारने से किसी को पाप लग जाएगा ? यहां ‘प्रीति’ शब्द इसीलिए मह्त्वपूर्ण हो जाता है । एक तरफ अर्जुन कौरवों को आतातायी भी मानता है और दूसरी तरफ उनको मारने से मना भी कर देता है, क्योंकि वो अर्जुन के स्वजन हैं और उनसे उसकी प्रीति है ।

एक प्रकार से अर्जुन भी कौरवों के  पापों को जानते हुए भी उन्हें नज़रअंदाज कर देने की कोशिश कर रहा है और उसके लिए तर्क भी दे रहा है । कई बार हम सभी ऐसी स्थितियों से गुजरते हैं, जब हम ये जानते हैं कि हम जिससे प्रेम करते हैं वो अधर्मी है फिर भी मोह वश हम सुविधा के तर्क गढ़ कर उसे बचाने की कोशिश करते हैं। 

अर्जुन यहां कौरवों को आतातायी कह कर संबोधित करता है । ‘वशिष्ठ स्मृति’ में ‘आतातायी’ या अत्याचारी की परिभाषा दी गई है – 

अग्निदो गरदश्चैव शस्त्रपाणिर्धनापहः
क्षेत्रदारापहर्ता च षड़ेते ह्यततायिनः

‘वशिष्ठ स्मृति’ के इस श्लोक के अनुसार छह प्रकार के दुष्टों को आतातायी कहा जाता है – 

  • जो आग लगाने वाला हो
  • जिसने किसी को विष दिया हो
  • शस्त्र लेकर मारने का प्रयास किया हो
  • जिसने किसी के धन को हड़प लिया हो
  • जिसने किसी की स्त्री का हरण करने का प्रयास किया हो
  • जिसने किसी की भूमि को हड़प लिया हो । 

‘आतातायी’ के ये सारे लक्षण महाभारत में अगर किसी में पाए जाते थे तो वो थे कौरवजन और उसमें भी विशेषकर सबसे बड़ा आतातायी था दुर्योधन। दुर्योधन ने लाक्षागृह में आग लगा कर पांडवों को मारने का प्रयास किया था।दुर्योधन ने ही भीम को भी विष दे कर मारने की कोशिश की थी।

वही दुर्योधन महाभारत के युद्ध में शस्त्र लेकर पांडवों को खत्म करने के लिए भी खड़ा था । दुर्योधन ने ही युधिष्ठिर से जुए में सारा धन हड़प लिया था। दुर्योधन ने ही पांडवों की पत्नी द्रौपदी के चीरहरण का प्रयास भी किया और उसने ही युधिष्ठिर के राज्य ( जमीन) को हड़प कर उन्हें वनवास जाने को विवश किया था। 

अर्जुन जानता है कि आतातायी के ये सारे दुर्गुण दुर्योधन में हैं ,लेकिन फिर भी चूंकि वोअर्जुन का स्वजन है, इसलिए अर्जुन मोहवश कौरवों से युद्ध न करने के लिए कह रहा है । 

तस्मान्नार्हा वयं हन्तुं धार्तराष्ट्रान्स्वबान्धवान् ।
स्वजनं हि कथं हत्वा सुखिनः स्याम माधव ॥1.37।।

अर्थः – अर्जुन उवाच – “इसलिए धृतराष्ट्र पक्षीय अपने बन्धुओं को मारना हमारे लिए उचित नहीं है। हे माधव! अपने ही स्वजनों को मार कर हम कैसे सुखी होंगे?” (1.37)

व्याख्याः- इस श्लोक में अर्जुन श्रीकृष्ण को ‘माधव’ कह कर संबोधित कर रहा है । ‘मा+धव’ से मिलकर ‘माधव’ बना है। ‘मा’ का अर्थ होता है ‘विद्या’ और ‘धव’ का अर्थ होता है स्वामी । सो ‘माधव’ का अर्थ होता है ‘विद्या के स्वामी’ । ‘वेत्ति अनया इति विद्या’ अर्थात जिससे सत् और असत् का ज्ञान हो जाए वही विद्या है । 

अर्जुन श्रीकृष्ण को ‘माधव’ कह कर आगे उनसे जो मार्गदर्शन और ज्ञान प्राप्त करने वाला है उसकी यह पूर्वभूमिका है । 

अर्जुन इस श्लोक में कह रहा है कि भले ही धृतराष्ट्र के पक्ष के लोग आतातयी हैं, लेकिन वो हमारे स्वजन हैं और अपने ही बन्धु हैं। ऐसे में हम अगर उन्हें मार भी देंगे तो अपने ही लोगों की हत्या के पाप से कभी मुक्त नहीं हो पाएंगे और हमेशा दुखी रहेंगे । 

यद्यप्येते न पश्यन्ति लोभोपहतचेतसः ।
कुलक्षयकृतं दोषं मित्रद्रोहे च पातकम् ॥1.38।।

अर्थः – अर्जुन उवाच – “यद्पि लोभ से भ्रष्टचित्त वाले ये ( धृतराष्ट्र के पक्ष वाले ) कुलनाशजनित दोष को और मित्रद्रोह से उत्पन्न पातक को नहीं देखते हैं ।” (1.38)

व्याख्याः – यहां अर्जुन को धृतराष्ट्र के पक्ष वालें लोगों के सारे दुर्गुण पता हैं। वो जानता है कि दुर्योधन आतातायी है , जो लोग उसके साथ खड़े हैं, उन्हें किसी ना किसी प्रकार का लोभ है । लोभ से उनका चित्त भ्रष्ट हो चुका है ।

द्रोण जैसे ज्ञानी और वीर अपने शैक्षिक वृत्ति में मिलने वाले वेतन के लोभ में पांडवों पर हुए सारे अत्याचारों को देखते रहे और अपने लोभ की वजह से कौरवों के अधर्मी दल से जुड़े रहे ।

दुर्योधन तो बाल्यकाल से ही लोभ से ग्रसित रहा। उसने अपने लोभ के वश में ही आकर महाभारत के इस महान युद्ध की स्थिति पैदा कर दी।दुर्योधन ने तो श्रीकृष्ण के द्वारा पांडवों को महज पांच गांव देने की बात भी ठुकरा दी। ऐसे लोभ से भ्रष्ट चित्त वाले दुर्योधन को यह नज़र नहीं आ रहा था कि पांच गांव देकर वो युद्ध को टाल दे। 

यह युद्ध पूरे कुरुकुल ( Clan of Kuru’s) के नाश का कारण था। विजयी कोई भी पक्ष होता, पराजय पूरे कुरुकुल के नाश के साथ होती। दुर्योधन अपने कुल के नाश के इस दोष को नहीं देख पा रहा था। श्रीकृष्ण दुर्योधन के लिए भी मित्र समान थे। लेकिन उनकी बात न मानकर दुर्योधन ने जो द्रोह किया उसे भी वो पापी नहीं देख पाया । 

कथं न ज्ञेयमस्माभिः पापादस्मान्निवर्तितुम् ।
कुलक्षयकृतं दोषं प्रपश्यद्भिर्जनार्दन ॥1.39।।

अर्थः – अर्जुन उवाच- ” हे जनार्दन! कुल के नाश करने से उत्पन्न होने वाले दोष को भली भांति देखने वाले हम लोगो से इस पाप से निबटने या निवृत्त होने को क्यों न सोंचा जाए या ज्ञान रखा जाए ?”

व्याख्याः – अर्जुन कहता है कि धृतराष्ट्र के पक्ष वाले तो लोभ से अंधे हैं और उनका चित्त भ्रष्ट हो चुका है, लेकिन हम तो यह देख पा रहे हैं कि इस महायुद्ध से कुल का नाश हो जाएगा । फिर हम जानबूझ कर इस पाप को कैसे होने दें, क्योंकि हम परिणाम से अवगत हैं और लोभ जनित दोष से रहित हैं। अर्जुन अब अपने स्वजनों को बचाने के लिए सुविधा के तर्क गढ़ रहा है । 

कुलक्षये प्रणश्यन्ति कुलधर्माः सनातनाः ।
धर्मे नष्टे कुलं कृत्स्नमधर्मोऽभिभवत्युत ॥1.40।।

अर्थः – अर्जुन उवाच- ” कुल के नष्ट होने से सदा से आते हुए यानि सनातन कुल-धर्म नष्ट हो जाते है और धर्म के नष्ट हो जाने से समस्त कुल धर्म को अधर्म सब ओर से दबा लेता है ।”  

व्याख्याः- अर्जुन को पता है कि इस युद्ध में पूरा कुरुकुल ही खड़ा है। वो कुरु कुल जिसकी स्थापना हजारों साल पहले हुई थी। लेकिन पहली बार ऐसी स्थिति उत्पन्न हुई है, जिसमें सारे कुल के नाश की संभावना है। अर्जुन कुल के नाश के इस भय को श्रीकृष्ण को दिखाता है और तर्क देता है कि जो कुल- धर्म की परंपरा सनातन काल से उसके कुल में चली आ रही है, वो नष्ट हो जाएगी ।

कुलधर्म दस प्रकार  के होते हैं – 

धृतिः क्षमा दमोSस्तेयं शौचमिन्द्रियनिग्रहः ।
धीर्विद्या सत्यमक्रोधो दशकं धर्मललक्षणम ।।

धीरता, क्षमा, मन को रोकना,अन्याय से दूसरे के धन को  न लेना, पवित्रता, इंद्रियों को रोकना, बुद्धि ,आत्मज्ञान, सच बोलना और क्रोध न करना, ये कुल- धर्म के दस लक्षण बताएं गए हैं। अर्जुन कहता है कि “जब इस युद्ध में भीष्म पितामह से लेकर कुल के सबसे छोटे व्यक्ति का भी नाश हो जाएगा तो कुल में स्थापित इन दस धर्म के लक्षणों से आने वाली पीढ़ी को कौन अवगत कराएगा?” जब कुल- धर्म ही नष्ट हो जाएगा तो अधर्म पूरे परिवार में फैल कर सबको दूषित कर देगा । 

अधर्माभिभवात्कृष्ण प्रदुष्यन्ति कुलस्त्रियः ।
स्त्रीषु दुष्टासु वार्ष्णेय जायते वर्णसंकरः ॥1.41।।

अर्थः- अर्जुन उवाच – “हे कृष्ण ! अधर्म छा जाने पर कुल की स्त्रियां अति दूषित हो जाती हैं । हे वार्ष्णेय ! स्त्रियों के दूषित होने पर वर्णसंकर उतपन्न हो जाता है ।” 

व्याख्याः– इस श्लोक को आधुनिक नारावादी अर्थ से देखा जाए तो यह अत्यंत पितृसत्तात्मक श्लोक है, जिसमें नारी को एक प्रकार से पुरुष के अधीन दिखाया गया है जो पुरुष के बिना चरित्रहीन हो जाती है । लेकिन उस युग की परंपराएं अलग थीं। पूरे कुरुकुल में नारियों की स्थिति बहुत ही स्वतंत्र रही है। महारानी सत्यवती के विवाह से पूर्व पराशर ऋषि से वेद व्यास नामक पुत्र थे ,जो खुद महाभारत और श्रीमद् भगवद्गीता के रचयिता हैं। सत्यवती अपनी बहुओं अम्बिका और अम्बालिका के विधवा हो जाने पर व्यास को नियोग प्रथा के लिए बुलाती हैं और उनसे धृतराष्ट्र और पांडु का जन्म होता है। 

पराशर ऋषि ब्राह्मण वर्ण से थे और सत्यवती एक केवट कन्या थी। व्यास एक वर्णसंकर हैं यानी ब्राह्मण पिता और केवट कन्या के पुत्र हैं ,लेकिन क्षत्रिय रानियों अम्बिका और अम्बालिका से धृतराष्ट्र और पांडु को उत्पन्न करते हैं। खुद कुंती विवाह से पूर्व एक पुत्र कर्ण को जन्म देती है । विवाह के बाद भी जब पांडु नपुंसक हो जाते हैं तो कुंती विभिन्न देवताओं के आह्वान के जरिए पुत्रों को जन्म देती हैं। ऐसे में अर्जुन के द्वारा कुल -धर्म का नष्ट हो जाने पर स्त्रियों के दूषित हो जाने की आशंका एक मिथ्या आरोप है ।

 दरअसल, अर्जुन किसी भी कुतर्क के द्वारा इस युद्ध को टालने की कोशिश कर रहा है, ताकि उसके अत्याचारी स्वजनो के प्राण बच जाएं । अर्जुन कह रहा है कि “जब इस युद्ध मे कुर कुल के सारे पुरुष मृत्यु को प्राप्त हो जाएंगे तो इस कुल की नारियों का चरित्र दूषित हो जा सकता है और वर्णसंकर संतानों का जन्म हो सकता है ।” 

संकरो नरकायैव कुलघ्नानां कुलस्य च ।
पतन्ति पितरो ह्येषां लुप्तपिण्डोदकक्रियाः ॥1.42।।

अर्थः – अर्जुन उवाच- “वर्णसंकर कुलघातियों और कुल को नरक में डालने वाला होता है, क्योंकि इनके पितर पिण्डदान और जलतर्पण आदि क्रियाओं के लुप्त हो जाने से गिर जाते हैं यानि उनका नरक में पतन हो जाता है ।”

 व्याख्याः– अर्जुन अब युद्ध के परिणाम को अत्यंत भयावह रुप देते हुए भविष्य में होने वाले कुल के महान पतन की आशंका का तर्क प्रस्तुत कर रहा है । अर्जुन कहता है कि “कुल के नष्ट होने पर स्त्रियां तो दूषित होंगी ही फिर उनके अनजान कुलों के पुरुषों से संबंध होने से सारा कुल नरक में चला जाएगा ।” लेकिन अर्जुन यह भूल जाता है कि स्त्रियां जिस पुरुष से संबंध कर संतान उत्पन्न करेंगी उस संतान का कुल तो उसी पुरुष के कुल से माना जाना चाहिए । 

हालांकि, उस वक्त की परंपरा के अनुसार कोई स्त्री किसी भी पुरुष से संबंध बना कर अपने होने वाले पुत्र को अपने पूर्व मृत पति के कुल का नाम दे सकती थी। ऐसा ही धृतराष्ट्र और पांडु के मामले में हुआ था ये दोनों व्यास के पुत्र हैं, लेकिन उनकी माताओं ने अपने इन दोनों संतानों को कुरुकुल का  नाम दिया । 

जैसा धृतराष्ट्र और पांडु के मामले मे हुआ, इस तर्क से जो वर्णसंकर संतानें होंगी उनको संस्कारित करने वाला कोई पुरुष इस कुल में बचा नहीं होगा । इन दोनों को कुरुकुल में संस्कारित करने का कार्य भीष्म के द्वारा किया गया था। चूंकि अब इस युद्ध में कोई नहीं बचेगा , इसलिए वर्णसंकर संतानें कुरुकुल के संस्कारों को भूल जाएंगी और अपने पितरों का पिण्डदान आदि करने में असमर्थ रहेंगी । ऐसे में इस युद्ध में जो भी लोग मारे जाएंगे, उन्हें इस कुल में आने वाले समय मे उत्पन्न होने वाली संतानें पिण्डदान नहीं करेंगी और भीष्म आदि सभी पितर नरकगामी हो जाएंगे । 

दोषैरेतैः कुलघ्नानां वर्णसंकरकारकैः ।
उत्साद्यन्ते जातिधर्माः कुलधर्माश्च शाश्वताः ॥1.43।।
उत्सन्नकुलधर्माणां मनुष्याणां जनार्दन ।
नरकेऽनियतं वासो भवतीत्यनुशुश्रुम ॥1.44।।

अर्थः- अर्जुन उवाच-” इन वर्णसंकरकारक दोषों से कुलघातियों के सनातन कुलधर्म और जातिधर्म का नाश कर दिया जाता है ।हे जनार्दन जिनके कुलधर्म नष्ट हो गये हैं उन कुलनाशक मनुष्यों का अनिश्चित काल तक नरक में वास होता है, ऐसा हमने सुना है ।” 

व्याख्याः- इन दोनों ही श्लोकों में अर्जुन जिस धर्म के नष्ट हो जाने की बात कह रहा है, उस धर्म के बारे में उसका कोई अपना अनुभव नहीं है। वो कहता है कि ‘ऐसा मैने सुना है कि कुलनाशक मनुष्य अनिश्चित काल तक नरक में वास करते हैं।”

 अर्जुन स्वर्ग की यात्रा करके लौटा था और इंद्र ने अर्जुन को स्वर्ग में ससम्मान रखा था । लेकिन अर्जुन को नरक के बारे में कुछ भी पता नही है । वो कहता है कि ‘ऐसे दुर्गुणों से युक्त लोग अनिश्चित काल तक नरक में वास करते हैं।’  

अहो बत महत्पापं कर्तुं व्यवसिता वयम् ।
यद्राज्यसुखलोभेन हन्तुं स्वजनमुद्यताः ॥1.45।।

अर्थः- अर्जुन उवाच -” अहो ! यह बड़े आश्चर्य और खेद की बाद है कि हम लोगों ने बड़ा भारी पाप करने का निश्चय कर लिया है, जो राज्य सुख के लोभ से अपने ही स्वजनों को मारने के लिए उद्यत हुए हैं।”

व्याख्याः- अर्जुन श्रीकृष्ण को ही यह बताने की चेष्टा कर रहा है कि ‘देखिए कितने खेद की बात है कि हमलोग ( अर्थात श्रीकृष्ण भी ) इस पाप को जानबूझ कर करने जा रहे हैं।’ अर्जुन कहना चाह रहा है कि अपने स्वजनों को मारने से जिन भयावह परिणामों की उत्पत्ति हो सकती है, उसके बारे में श्रीकृष्ण जैसे बुद्धिमान और जाग्रत व्यक्ति ने भी नहीं सोचा ,लेकिन भला हो कि अर्जुन को ये बुद्धि आ गई  ।

यदि मामप्रतीकारमशस्त्रं शस्त्रपाणयः ।
धार्तराष्ट्रा रणे हन्युस्तन्मे क्षेमतरं भवेत् ॥1.46।।

अर्थः- अर्जुन उवाच- ” यदि शस्त्रधारी धृतराष्ट्र पुत्र मुझ शस्त्रहीन और सामना न कर पाने वाले को रण में मार भी डालें तो भी वह मेरे लिए अधिक कल्याणकर होगा।” 

व्याख्याः- अर्जुन यहां श्रीकृष्ण को ही समझाते हुए अपने तथाकथित महान बलिदान को प्रदर्शित करना चाह रहा है कि अपने स्वजनों को बचाने और इस महायुद्ध को रोकने के लिए वो किसी भी प्रकार का त्याग करने के लिए तैयार है। यहां तक कि अपने प्राणों का त्याग करने के लिए भी अर्जुन तैयार है ।अर्जुन कहता है कि ” अपनी वीरता का त्याग करते हुए भी रणक्षेत्र में बिना शस्त्र उठाए मर जाना पसंद करेगा, लेकिन इस महायुद्ध को रोकने का कल्याण करेगा।” 

संजय उवाच

एवमुक्त्वार्जुनः सङ्ख्ये रथोपस्थ उपाविशत् ।
विसृज्य सशरं चापं शोकसंविग्नमानसः ॥1.47।।

अर्थः- संजय बोले – “ऐसा कहकर शोक में निमग्न मन वाला अर्जुन बाण सहित धनुष का त्याग कर युद्धभूमि मे रथ के पिछले भाग में जाकर बैठ गया ।” 

व्याख्याः- अर्जुन युद्ध के परिणामों से खुद भयभीत से ज्यादा शोकाकुल है, लेकिन कृष्ण को वो युद्ध के परिणामों का भय दिखाता है । अर्जुन अपने स्वजनों को लोभ से भ्रष्ट चित्त देख कर , युद्ध के संभावित परिणामों को देख कर शोक में इस प्रकार डूब जाता है कि वो श्रीकृष्ण की तरफ देखे बिना, उनसे किसी प्रकार के उत्तर को जानने की इच्छा लिए बिना, रथ के पिछले भाग में जाकर बैठ जाता है ।

यहां अभी तक श्रीकृष्ण से अर्जुन ने किसी प्रकार का मार्गदर्शन नहीं मांगा । अर्जुन ने खुद से ही निश्चय कर लिया है कि उसे युद्ध नहीं करना और न ही श्रीकृष्ण से कोई सलाह लेनी है । बस अब उसे युद्ध नहीं करना और न ही किसी से कोई बात करनी है । वह युद्ध में भाग न लेने का निश्चय कर चुका है । प्रथम अध्याय में सुनने वाले श्रीकृष्ण और धृतराष्ट्र हैं। अभी तक श्रीकृष्ण कुछ भी नहीं बोलते हैं। 

                          ।।प्रथम अध्याय समाप्त ।।

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11 thoughts on “श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 1 में अर्जुन का विषाद। Bhagavad Gita, Chapter 1, Arjuna’s Despair (Visada Yoga)

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