श्राद्ध

पितरों के प्रति श्रद्धा से होता है श्राद्ध का जन्म

शुद्ध सनातन धर्म में न केवल मनुष्य के इस लोक में कल्याण की कामना की गई है, बल्कि इस जीवन से परे भी अगर कोई मर कर किसी और लोक में जाता है ,तो उसके कल्याण केलिए भी प्रार्थना की जाती है । श्राद्ध ऐसा ही पर्व है जो प्रत्येक वर्ष आश्विन कृष्ण पक्ष के पंद्रह दिनों तक मनाया जाता है । श्राद्ध पर्व के पंद्रह दिनों मे अपने पूर्वजों के कल्याण के लिए प्रार्थना की जाती है। पूर्वजों को समर्पित श्राद्ध जैसे पर्व का उदाहरण किसी भी अन्य धर्म में नहीं पाया जाता है । 

 अपने पूर्वजों के लिए किया जाता है श्राद्ध :

श्राद्ध
  • श्राद्ध का अर्थ ही है जो श्रद्धा से किया जाए ।
  • यह अपने पूर्वजों के प्रति श्रद्धा व्यक्त करने का पर्व है ।
  • इस पर्व में अपने पूर्वजों जिन्हें पितृ या पितर कहा जाता है, उन्हें याद किया जाता है और उनके पारलौकिक जीवन की जरुरतें पूरी करने के लिए वस्तुएं समर्पित की जाती है ।
  • ऐसा माना जाता है कि पितृलोक में रह रहे हमारे पूर्वजों को भोजन और पानी जैसे वस्तुओं की आवश्यकता पड़ती है । ऐसे में हमारा कर्तव्य है कि हम अपने पूर्वजों को भोजन और पानी मुहैया कराएं । 

इसके लिए श्राद्ध के पंद्रह दिनों में धार्मिक हिंदू एक अनुष्ठान करते हैं और उसके तहत अपने पूर्वजों को चावल के पिंड और जल समर्पित करते हैं। ऐसी मान्यता है कि हमारे द्वारा समर्पित चावल के पिंड और जल पूजा के जरिए पूर्वजों तक पहुंच जाते हैं । हमारे पूर्वज इन पिंडो और जल से तृप्त होकर हमें इस लोक मे सुख और समृद्धि देते हैं ।  

सनातन धर्म में मोक्ष और पुनर्जन्म की अवधारणा :

सनातन धर्म की मान्यता रही है कि मनुष्य की आत्मा अजर और अमर है । शुद्ध सनातन धर्म में पुनर्जन्म और मोक्ष की दो अन्य अवधारणाएँ भी हैं । इसके तहत आत्मा का मूल लक्ष्य मोक्ष की प्राप्ति करना है । मोक्ष का अर्थ है कि आत्मा और परमात्मा का मिलन । इससे पहले आत्मा चौरासी लाख योनियों में भटकती रहती है । आत्मा एक प्राणी से दूसरे प्राणी के रुप में जन्म लेती है और मृत्यु को प्राप्त करती रहती है । अपने अच्छे कर्मों के अनुसार आत्मा एक निम्न कोटि के प्राणी से उच्च कोटि के प्राणी के शरीर में प्रवेश करती है। मनुष्य के रुप में जन्म आत्मा का सर्वश्रेष्ठ शरीर की प्राप्ति है । 

मनुष्य का जीवन सर्वश्रेष्ठ है :

मनुष्य के रुप में जन्म लेना सबसे बड़े भाग्य की बात होती है । लेकिन अगर अपने कर्मों को ईश्वर के चरणो में न लगाया जाए तो यह जन्म भी विफल होता है । बुरे कर्मों को करने से मनुष्य मरने के बाद फिर पृथ्वी पर किसी और प्राणी के रुप में जन्म लेने के लिए मजबूर हो जाता है । लेकिन अगर मनुष्य को इसी जन्म में अपने कर्मों के द्वारा ईश्वर का साक्षात्कार हो जाए तो वो मोक्ष को प्राप्त हो जाता है और परमात्मा में विलीन होकर जन्म -मरण के बंधन से मुक्त हो जाता है । 

मरने के बाद कहां जाती है आत्मा :

  • शुद्ध सनातन धर्म के लगभग सारे धर्मग्रंथों में मृत्यु के बाद जीवन की कल्पना की गई है । ऐसी मान्यता है कि मनुष्य अपनी मृत्यु के बाद अपने कर्मों के अनुसार स्वर्ग, नरक या वैकुंठ आदि लोकों में वास करता है । जब उसके किए गए कर्म खत्म हो जाते हैं तो वो फिर से वापस पृथ्वी लोक पर जन्म लेने के लिए विवश हो जाता है। 
  • जब मनुष्य की मृत्यु हो जाती है तो उसकी आत्मा सर्वप्रथम पितृलोक में चली जाती है । पितृलोक में ही हमारे पूर्वज स्वर्ग या नरक जाने का इंतजार करते रहते हैं । पितृलोक में हमारे पूर्वजों को हरेक वर्ष उन सारी वस्तुओं की जरुरत होती है जो पृथ्वी लोक पर रह रहे मनुष्यों को भी होती है । उनका भोजन चावल का पिंड होता है और वो जल के द्वारा अपनी प्यास बुझाते हैं। 
  • उनकी इसी जरुरत को पूरा करने के लिए हरेक वर्ष अश्विन के महीने में कृष्णपक्ष के पंद्रह दिनों में हम अपने पूर्वजों को पिंड और जल समर्पित करते हैं ।इस कर्मकांड को ही पिंडदान कहते हैं और इसके श्रद्धापूर्वक समर्पित करने के पर्व को श्राद्ध कहते हैं  । इस पिंडदान और श्राद्ध के कर्मकांड और इसके महत्व का उल्लेख कई धर्मग्रंथो में किया गया है जिसमें महाभारत, वायु पुराण, अग्नि पुराण, स्कंद पुराण प्रमुख हैं। 

क्या है पितृलोक और कौन हैं इसके देवता :

पितृलोक जहां कुछ अवधि के लिए हमारे पूर्वज रहते हैं और स्वर्ग , नरक या फिर वापस पृथ्वी पर जन्म लेने के लिए इंतज़ार कर रहे होतें हैं उस लोक को सात गणों के द्वारा संचालित किया जाता है । इन्हें सात पितरगण भी कहा जाता है । 

वायु पुराण में कथा है कि ब्रम्हा ने जब देवताओं को सृष्टि के संचालन के लिए रचा तो देवता भोग विलास में मग्न हो गए । देवताओं ने सृष्टि को आगे बढ़ाने का कार्य तो किया, लेकिन पूजा पाठ वैगेरह नहीं किया । इस पर ब्रम्हा जी ने उन्हें चेतना शून्य हो जाने का शाप दिया । देवताओं ने जब ब्रम्हा से क्षमा मांगी और फिर से चेतना युक्त होने का उपाय पूछा तो उन्होंने कहा कि देवतागण अपने पुत्रों से ही इसके प्रायश्चित का उपाय पूछें । 

पुत्र ही मनुष्य का पिता है :

इसके बाद देवताओं को उनके पुत्रों ने ही इस पाप के प्रायश्चित का उपाय बताया । तब देवताओं ने कहा कि मेरे पुत्र ही मेरे पिता हैं, क्योंकि तुम्हारे कारण ही हमें फिर से चेतना प्राप्त हो सकी है । इसके बाद देवताओं ने अपने पुत्रों को अपने पिता होने का वरदान दिया । अब देवता के पुत्र ही उनके पिता हो गए और पितृ या पितर कहलाए। देवतागण भी अपने पुत्रों के पिता होने की वजह से पितरगण कहलाएं । अर्थात देवता और उनके पुत्रों सभी को पितरगण की श्रेणी में रखा गया है ।

श्राद्ध क्यों करें :

ब्रम्हा जी ने वंश वृद्धि के लिए इन पितरों को संतुष्ट करने के लिए जो पूजा विधान बनाया उसे ही श्राद्ध कहते हैं। श्राद्ध कर्म में अपने पूवर्जों अर्पित कर इन पितरों को जो कुछ भी अर्पण किया जाता है, उससे संतुष्ट होकर ये पितरगण हमें संतान और सुख देते हैं । अर्थात हम जो कुछ भी श्राद्ध में अर्पण करते हैं वो न केवल हमारे पूर्वजों को बल्कि इन पितरगणों को भी प्राप्त होता है । 

पितरगण या पितृगण कौन हैं :

  • सृष्टि के आदि काल में ब्रम्हा जी ने कुछ विशेष देवताओं की सृष्टि की थी । इन देवगणों को वैराज कहा जाता है ।इन्हें आदि देव भी कहा जाता है । ये देवगण कुल मिलाकर सात हैं। इन्हीं सात आदि देवों को पितरगण कहा जाता है ।
  • इन सात पितरगणों में तीन गण निराकार रुप में हैं और चार पितरगण साकार स्वरुप में हैं । ये तीन निराकार पितरगण(पितृगण) स्वर्ग लोक में सबसे उपर निवास करते हैं। उसके नीचे चार मूर्तिमान पितरगणों(पितृगणों) का निवास है । इनके नीचे देवतागण स्वर्गलोक में निवास करते हैं । उसके नीचे पृथ्वी की स्थिति है ।
  • ये सभी सात पितरगण(पितृगण) न केवल मनुष्य लोक बल्कि सभी लोकों के पितर माने जाते हैं। ये पितरगण(पितृगण) प्रसन्न होने पर सुख , संपत्ति , संतान और अन्न देने वाले हैं। ये पितरगण (पितृगण)अपने योगबल से चंद्रमा को भी शक्ति देते हैं, जिससे तीनों लोको को जीवन मिलता है ।

माता पार्वती और पितरगण :

जिन निराकार पितरगणों(पितृगणों) का वर्णन वायु पुराण में किया गया है ,उनमें वैराज प्रथम हैं। वैराज से  एक पुत्री और एक पुत्र की उत्पत्ति हुई है । पुत्री का नाम मैना और पुत्र का नाम मैनाक है । मैना माता पार्वती की मां थी ,जबकि मैनाक पर्वत को पितर(पितृ) वैराज का पराक्रमी पुत्र माना जाता है, वायु पुराण और महाभारत की कथा के अनुसार अद्रिका नामक एक अप्सरा इन्हीं निराकार स्वरुप पितरगण(पितृगण) को देख कर कामवासना से अभिभूत हो गई थी फलस्वरुप उसे सत्यवती के रुप में जन्म लेना पड़ा । सत्यवती से ही वेदव्यास का जन्म हुआ । सत्यवती के ही वंशज कौरव और पांडव थे। अग्निष्वात पितरों की पूजा यक्ष, गंधर्व, राक्षस, किन्नर, सर्प और पिशाच करते हैं। स्वर्ग में सोमपद नामक एक स्थान है, जहां ब्रम्हा के पुत्र मरिचि से उत्पन्न पितरगण(पितृगण) रहते हैं। इनकी पूजा देवतागण करते हैं। ये पितरगण अग्निष्वात के नाम से प्रसिद्ध हैं।

तीसरे निराकार पितर(पितृ) धर्ममूर्ति के नाम से विख्यात हैं। इनकी मानसी कन्या का नाम पिवरी है जिन्हें योगमाता का दर्जा प्राप्त है । 

साकार पितरगण(पितृगण) कौन हैं  :

 तीन निराकार पितरगणों(पितृगणों) के अलावा चार साकार पितरगण हैं। ये कवि अग्नि की पुत्री स्वधा से उत्पन्न हुए हैं और ज्योतिर्मास नामक लोक में रहते हैं। इनकी पूजा ब्राह्मण करते हैं। जबकि दूसरे उपहूत नामक पितरगण की पूजा क्षत्रिय करते हैं। आज्यप्पा पितरगण जो ऋषि पुलह से उत्पन्न हुए हैं उनकी पूजा श्राद्ध के दौरान वैश्य वर्ण के लोग करते हैं। वशिष्ठ से उत्पन्न हुए सुकाल नामक पितरगण की पूजा शूद्र वर्ण के लोग श्राद्ध के दौरान करते हैं ताकि उनके पूर्वजों को ये पितरगण प्रसन्न और सुखी रखें । स्वर्ग के मानस नामक लोक में शूद्रों के पितरगण सुकाल निवास करते हैं।  इसके अलावा दक्ष की पुत्री विश्वा से उत्पन्न विश्वेदेवा की भी पूजा श्राद्ध के दौरान करनी होती है । 

कहां करें श्राद्ध की पूजा :

बिहार के गया जिले, अमरकंटक और नर्मदा नदीं के किनारे, पुष्कर तीर्थ में श्राद्ध की पूजा की जाती है । इसके अलावा कुरुक्षेत्र, प्रभास क्षेत्र ( गुजरात), नासिक( महाराष्ट्र), हरिद्वार को भी श्राद्ध पूजा के लिए श्रेष्ठ तीर्थ माना गया है ।इसके अलावा जहां कहीं भी पवित्र नदियां विशेष कर गंगा का प्रवाह हो वहां श्राद्ध की पूजा करनी चाहिए । 

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