शिव और सती के अधूरे प्रेम की करुण कथा

शुद्ध सनातन धर्म में श्री राम-सीता, राधा- कृष्ण, शिव और सती की प्रेम कथा अमर रही है । इन सभी ईश्वरीय सत्ताओ ने अपने प्रेम से पूरे संसार को प्रेरणा दी। परंतु एक और प्रेम कथा थी जो अधूरी रह गई थी जिसका अंत बहुत ही दुखमय रहा। वो कथा है शिव और सती के प्रेम की कथा । इस कथा में प्रेम है, नफरत है, वियोग है, संघर्ष और युद्ध है और एक दूसरे के पूरी तरह न हो पाने की तड़प भी है । 

शिव और सती की प्रेम कथा 

पौराणिक कथाओं के अनुसार माता सती को पहली बार शिव जी की अनूभूति अनजाने में ही हुई। उनके बीच प्रेम का शुरु होना एक दैविक घटना थी जो शिव जी की प्रेरणा थी। कथा है कि एक बार माता सती बचपन में पूजा के फूल लाने के लिए थोड़ी दूर निकल गईं जहां उनकी मुलाकात कुछ ऋषियों से हुई । ऋषियो ने उनका वास्तविक स्वरुप जानकर उन्हें प्रणाम किया। लेकिन सती डर कर भागने लगीं। थोड़ी दूर जाने पर उन्होंने अपने फूल की डलिया मे एक रुद्राक्ष देखा । माता सती ने डर कर उस रुद्राक्ष को पास की नदी में फेंक दिया । 

प्रजापति दक्ष का बुरे इंसान थे

पौराणिक कथाओं के अनुसार ब्रम्हा जी के पुत्र प्रजापति दक्ष और उनकी पत्नी प्रसूति को संसार में सृष्टि को बढ़ाने का कार्य करने के लिए जाना जाता है। प्रजापति दक्ष संसार में सामाजिक व्यवस्था को कायम करने वाले देवता के रुप में जाने जाते हैं। उनका कार्य ब्रम्हा द्वारा रचित सृष्टि के कार्य को आगे बढ़ाना था। इसके लिए सभ्यता का निर्माण जरुरी था । सभ्यता का आधार परिवार होता है । बिना परिवार के किसी भी समाज और राष्ट्र की संकल्पना नहीं हो सकती है। 

प्रजापति दक्ष हैं समाज के संस्थापक 

पौराणिक कथाओं और महाकाव्यों की कथाओं के अनुसार ब्रम्हा के कई पुत्रों और पौत्रों को सृष्टि के निर्माण के लिए वैवाहिक संस्था की स्थापना करने और उसे आगे बढ़ाने का कार्य दिया गया था, प्रजापति दक्ष की पुत्रियों के बिना यह संभव नहीं था।  इनमें प्रजापति दक्ष की कई पुत्रियों का विवाह इन ऋषियों और देवताओं से किया गया । ऋषि कश्यप से प्रजापति दक्ष की 14 पुत्रियों का विवाह हुआ । कश्यप की इन्ही चौदह पत्नियों से देवता, दानव, राक्षस, सर्पों, नागों, पक्षियों आदि का विकास हुआ । राजा दक्ष की 27 अन्य पुत्रियों का विवाह चंद्रमा से किया गया जिससे चंद्र वंश की स्थापना हुई। प्रजापति दक्ष की एक अन्य पुत्री स्वाहा से अग्निदेव का विवाह  हुआ जिससे संसार में अग्नि वंश का विस्तार हुआ। कश्यप के पुत्र विव्सवान सूर्य से सूर्य वंश का जन्म हुआ। 

इस प्रकार प्रजापति दक्ष स्त्री समर्थक थे और वैवाहिक संस्था के स्थापक थे । परंतु पुराणो मे उन्हें शिव द्रोही दिखाने की परंपरा ने ऐसा जोर पकड़ा कि उनके सृष्टि में इस योगदान के लिए उन्हें भूला दिया गया । 

सती अपने पिता दक्ष की प्रिय पुत्री थीं 

प्रजापति दक्ष सभ्यता और समाज के संस्थापक थे। इस कार्य को आगे बढ़ाने के लिए उन्होंने फिर से आदि पराशक्ति की तपस्या की उन्हें पुत्री रुप में जन्म लेने के लिए वरदान मांगा । मां आदि पराशक्ति ने ही सती के रुप में जन्म लिया । सती प्रजापति दक्ष की सबसे प्रिय पुत्री थीं । प्रजापति दक्ष समाज के और ज्यादा विस्तार के लिए अपनी पुत्री का विवाह भगवान विष्णु से करना चाहते थे । लेकिन ये हो न सका । 

शिव और प्रजापति : दो सभ्यताओं का संघर्ष 

जहां एक तरफ प्रजापति दक्ष आधुनिक सभ्य समाज की स्थापना करना चाहते थे जिसका आधार शास्त्रोक्त नियमों के आधार पर हुआ विवाह था । वहीं भगवान शिव पूर्ण रुप से वैरागी और अघोरी थे। भगवान शिव नितांत अकेले पर्वत पर रहते जहां समाज नाम की व्यवस्था का अभाव था। शिव भगवान विष्णु के विपरीत किसी भी प्रकार के नियमों से परें हैं। उनकी भक्ति के लिए किसी भी प्रकार के कर्मकांड की जरुरत नहीं होती। उनके गणों में भूत – प्रेत, पिशाच और सामाजिक व्यवस्था से बहिष्कृत लोग थे। राक्षसों और असुरों के प्रति उनकी सहानूभूति थी ।

 ऐसे में प्रजापति दक्ष की योजना में भगवान शिव बिल्कुल फिट नहीं बैठते थे। यही बाद में सती के अग्निदाह की प्रमुख वजह भी बनीं । 

प्रजापति दक्ष के द्वारा विष्णु मंदिर का निर्माण

पौराणिक कथाओं के अनुसार एक बार प्रजापति दक्ष ने भगवान विष्णु के एक मंदिर का निर्माण किया । जब भगवान विष्णु की मर्ति को मंदिर के गर्भगृह में ले जाने का प्रास किया जा रहा था तो किसी भी प्रयास ये यह संभव नहीं हो पा रहा था । ऐसे में माता सती उस मूर्ति के पास जाती हैं तब भगवान विष्णु की वह मूर्ति उनके कानों में धीरे से बोलती है कि बिना शिव के वह मंदिर में स्थापित नहीं होगी । तब माता सती एक छोटे से शिवलिंग को अपने हाथ में लेकर विष्णु की वह मूर्ति मंदिर के गर्भगृह में स्थापित कर देती हैं ।  जब प्रजापति दक्ष इस शिवलिंग को देखते हैं तो क्रोध में भर कर उसे बाहर फिंकवा देते हैं। लेकिन इसके बाद से माता सती का भगवान शिव के प्रति अनुराग बढ़ने लगता है । 

सती की तपस्या 

माता सती भगवान शिव को अपने वर के रुप मे प्राप्त करने के लिए जंगल में तपस्या करती हैं। भगवान शिव उन्हें प्रगट होकर अपनी पत्नी के रुप मे अपनाने का वरदान देते हैं । इस तपस्या के दौरान कई बार रुकावटें आती हैं। एक बार तो एक असुर ने माता सती को मारने की कोशिश भी की । लेकिन बार बार भगवान शिव माता सती को बचा लेते हैं। 

सती का स्वयंवर और शिव से विवाह 

पौराणिक कथाओं के अनुसार जब प्रजापति दक्ष को पता चलता है कि माता सती भगवान शिव से ही विवाह करना चाहती हैं तब उनकी इस योजना को असफल करने के लिए दक्ष एक स्वयंवर का आयोजन करते हैं। इस स्वयंवर में सभी देवताओं को आमंत्रित किया जाता है लेकिन भगवान शिव को नहीं बुलाया जाता । 

  • भगवान शिव का अपमान करने के लिए प्रजापति दक्ष एक और दुस्साहस करते हैं। इस स्वयंवर के दौरान वो अपने दरबार के द्वार पर भगवान शिव की मूर्ति स्थापित कर देते हैं। माता सती इस स्वयंवर में आती हैं और अपने हाथों में लिए माला को द्वार पर जाकर भगवान शिव की मूर्ति को पहना देती हैं । भगवान शिव स्वयं उस मूर्ति से प्रगट हो जाते हैं और माता सती को अंगीकार कर लेते हैं।
  • माता सती और भगवान शिव का विवाह तो हो जाता है लेकिन माता सती के लिए यह राह आसान नहीं थी। एक तरफ वैवाहिक और सामाजिक संस्थाओं के संस्थापक उनके पिता प्रजापति दक्ष और दसरी तरफ वनों और पर्वतों पर रहने वाले वैरागी और असमाजिक शिव । संघर्ष स्वाभाविक था I 
  • दामाद और श्वसुर के विचारधाराओं के बीच माता सती चुनाव नहीं कर पाई। कथाओं के अनुसार प्रजापति दक्ष ने एक यज्ञ का आयोजन किया और सभी देवताओं को आमंत्रित किया। सती की अन्य बहनों और उनके पतियों को भी यज्ञ में बुलाया गया लेकिन सती और शिव जी को आमंत्रण जानबूझ कर नही भेजा गया। 
  • इसके पीछे यह वजह थी कि यज्ञ सामाजिक व्वस्था का सबसे महत्वपूर्ण धार्मिक आयोजन होता है । इस यज्ञ का भाग उसे ही मिलता था जिन देवताओ और ऋषियों ने इस व्यवस्था को अंगीकार किया हो। लेकिन शिव जी तो इस सामाजिक व्यवस्था से ही खुद को बाहर रखते थे। हालांकि कई देवताओं का मानना था कि भले ही शिव सामाजिक व्यवस्था से खुद को बाहर रखते हों और वैरागी हों लेकिन फिर भी वो देवों के देव महादेव है और यज्ञ में उनका भाग तो होना ही चाहिए।
  • लेकिन प्रजापति दक्ष ने उन्हें यज्ञ का भाग देने से इंकार कर दिया और उन्हें आमंत्रित भी नहीं किया । 

माता सती का दाह और प्रेम कथा का अंत :

माता सती इस विचारधारओं के विभाजन को मानने को तैयार नही थी । उन्होंने भगवान शिव से जिद की कि वो भी अपने पिता के यज्ञ में भाग लेंगी । हालांकि शिव जानते थे कि जब तक वो प्रजापति के रीति रिवाजों और सामाजिक व्यवस्था को मान्यता नहीं देंगे यज्ञ में उनका भाग उन्हें नहीं दिया जाएगा । इस लिए इन सबसे परे और शांत भगवान शिव ने सती को समझाने को कोशिश की । लेकिन माता सती को लगता था कि वो अपने पिता को इसके लिए मना लेंगी । 

आखिरकार जब माता सती गईं और वहां उन्होंने अपने पति को यज्ञ का भाग नहीं देने की बात सुनी और देखी तो वो क्रोध में आ गईं । माता सती ने भगवान शिव को उस व्यवस्था का भाग न मानने की अपन पिता की जिद की आलोचना की । इस पर प्रजापति दक्ष ने जो कहा उससे माता सती को अपने पति शिव का अपमान लगा । माता सती ने अपने पति के प्रेम और सम्मान की रक्षा के लिए आत्मदाह कर लिया । 

सती का दाह और शिव का तांडव :

माता सती के द्वारा आत्मदाह करने के बाद भगवान शिव क्रोधित हो गए और उन्होंने अपने गणों के द्वारा यज्ञ का ध्वंस करा दिया । वीरभद्र ने प्रजापति दक्ष का सिर काट लिया और भद्रकाली ने वहा कई ऋषियों और मुनियों को मार डाला ।  इस प्रकार भगवान शिव ने प्रजापति दक्ष के द्वारा स्थापित धार्मिक और सामाजिक नियमों को पूरी तरह से नष्ट कर दिया । 

विष्णु के द्वारा संधि का प्रयास और नए समाज का निर्माण :

जब भगवान शिव माता सती के दाह के बाद क्रोधित होकर समूची सभ्यता को नष्ट करने लगें तब विष्णु जी ने हस्तक्षेप किया और प्रजापति दक्ष के प्रति शिव का क्रोध समाप्त किया । प्रजापति दक्ष के सिर के स्थान पर बकरे का सिर लगाया गया और प्रजापति दक्ष ने भगवान शिव को अपनी सामाजिक धार्मिक व्यवस्था में महत्वपूर्ण स्थान दे दिया । 

भगवान शिव अपनी पत्नी माता सती के मृत शरीर को लेकर पूरे ब्रम्हांड में परिक्रमा करने लगे । माता सती के अंगों को अपने सुदर्शन चक्र से काट दिया । जिन 51 जगहों पर माता सती के मृत शरीर के भाग गिरें वहां भगवान शिव ने शक्तिपीठों को निर्माण किया । 

नई सभ्यता की निशानी हैं शक्तिपीठ :

प्रजापति दक्ष ने अपनी सामाजिक धार्मिक व्यवस्था में भगवान शिव की विचारधारा को पूर्ण रुप से सम्मानित स्थान तो दे ही दिया था। भगवान शिव ने अपनी पत्नी माता सती की स्मृति में 51 शक्तिपीठों का निर्माण किया और एक नई सामाजिक और धार्मिक रीति रिवाजों से पूर्ण समानांतर व्यवस्था को जन्म दिया जिसे शाक्त मत कहते हैं । शाक्त मत के अंदर प्रजापति दक्ष के रीति रिवाजों की तरह ही शक्ति और शिव से संबंधित रीति रिवाज भी हैं जिन्हें पूर्ण रुप से सनातन धर्म में वैष्णव मतों की तरह ही सम्मान और वैधता हासिल है । 

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