शुद्ध सनातन धर्म में शिव को आदिदेव महादेव कह कर उनकी वंदना की गई है। शिव का अर्थ ही है कल्याण । अर्थात वह ईश्वरीय शक्ति जो आपका कल्याण कर दें । श्रेष्ठतम् गुरु भगवान शिव की कल्याणमयी शक्ति से पूरा संसार चकित रहता है । वो आदिदेव महादेव हैं। उनका न तो जन्म हुआ है और न ही उनका कभी अंत होगा । शिव न केवल महान ईश्वरीय सत्ता हैं बल्कि वही प्राणीमात्र को मार्ग दिखा कर अंतिम मुक्ति भी देते हैं । उनके पास ही भय मुक्त होकर मुक्ति देने की शक्ति हैं ।
चौरासी लाख योनियों में भटकती आत्मा का अंतिम आश्रय मोक्ष है । बिना गुरु के आत्मा संसार के आवागमन के चक्र में फंसी रहती है। गुरु ही वो सत्ता है जो इन योनियों के चक्र से हमें मुक्त करती है । लेकिन जिनका कोई श्रेष्ठतम् गुरु नहीं उन्हें कौन मार्ग दिखाएगा । यह प्रश्न सभी आम इंसानों के मन में हमेशा आता रहता है । योगिनी तंत्र में माता जगदंबा पार्वती महादेव से प्रश्न करती हैं कि जिनका कोई गुरु नहीं उनका गुरु कौन है तो भगवान शंकर इसका समाधान करते हुए कहते हैं –
आदिनाथो महादेवी महाकालो ही य: स्मृत:!
गुर; स एवं देवेशि सर्वमन्त्रे अधुना पर !
अर्थात: हे महादेवी आदिनाथ महाकाल ही इस काल में सबके गुरु हैं और वही सभी मंत्रों के ज्ञाता कहे गए हैं ।
वास्तव में गुरु का अर्थ ही यही होता है जो अंधकार से प्रकाश की तरफ ले जाए । गु अर्थात अंधकार और रु अर्थात प्रकाश । सिर्फ ईश्वर ही प्राणी को अंधकार से प्रकाश की तरफ ले जाता है तभी ईश्वर से प्रार्थना करते हुए कहा गया है कि –
तमसो मा ज्योतिर्गमय : अर्थात हे ईश्वर हमें अंधकार से प्रकाश की तरफ ले चलो ।
मृत्योर्मां अमृतगमय : अर्थात हमें मृत्यु से अमरता की तरफ ले चलो ।
देवाधिदेव महादेव के लिए जिस महामंत्र को सबसे ज्यादा पवित्र माना गया है उसे मृत्युंजय मंत्र कहा जाता है । यह इस प्रकार है –
उं त्रयंम्बकं यजामहे सुगन्धि पुष्टिवर्धनम् ।
उर्वारुक मिव बन्धनान् मृत्योर्मुक्षीय मामृतात ।
अर्थात : हे तीन नेत्रों वाले शिव हमें आप उसी प्रकार मृत्यु के भय से मुक्त कर दें जैसे फल शाखा से मुक्त हो जाता है ।
भगवान शंकर को सभी शास्त्रों का उत्पत्ति कारक माना जाता है । कहा जाता है कि 64 कलाओं और सारी विद्याओं के जनक वही हैं । इन कलाओ और विद्याओं का उद्देश्य मनुष्य को ज्ञान के द्वारा मोक्ष प्रदान कराना है । भगवान शंकर से ही सारी विद्याओं चाहे वो ज्योतिषशास्त्र हों या फिर नाट्य शास्त्र या फिर तंत्र शास्त्र सभी उन्हीं से उत्पन्न हुए हैं । इसी लिए किसी भी शास्त्र की रचना के प्रारंभ में ही उनकी स्तुति और उनके मार्गदर्शन की अपेक्षा की जाती है ।
तुलसीदास जी भी जब रामचरितमानस की रचना करते हैं तो उसका प्रारंभ भगवान शँकर और माता पार्वती की वंदना से करते हैं –
भवानीशङ्करौ वन्दे श्रद्धाविश्वासरूपिणौ।
याभ्यां विना न पश्यन्ति सिद्धाःस्वान्तःस्थमीश्वरम्॥२॥
अर्थात : श्रद्धा और विश्वास के स्वरूप श्री पार्वती जी और श्री शंकर जी की मैं वन्दना करता हूँ जिनके बिना सिद्धजन अपने अन्तःकरण में स्थित ईश्वर को नहीं देख सकते।
तुलसीदास जी स्पष्ट कहते हैं कि माता पार्वती के प्रति श्रद्धा और भगवान शंकर श्रेष्ठतम् गुरु, के प्रति विश्वास के बिना किसी के भी अंतकरण में ईश्वर की स्थापना संभव नहीं है, ईश्वर की अंतकरण में स्थापना करना ही गुरु का सबसे प्रथम कार्य है जिसके बाद शिष्य जन्म मरण के आवागमन से मुक्त होकर ईश्वर तत्व में विलीन होने का ज्ञान प्राप्त कर सकता है ।
तुलसी इसके आगे के दोहे में स्पष्ट कर देते हैं कि ईश्वर को अंतकरण में स्थापित करने वाले गुरु शंकर ही हो सकते हैं –
वन्दे बोधमयं नित्यं गुरुं शङ्कररूपिणम्।
यमाश्रितो हि वक्रोऽपि चन्द्रः सर्वत्र वन्द्यते॥३॥
अर्थात : मैं उन गुरु रुपी शंकर की वंदना करता हूं जिनके आश्रय मात्र में रहने से टेढ़ा चंद्रमा भी सभी जगह पूजित होता है । गुरु का कार्य ही यही होता है कि वो मिट्टी के लोंदे समान शिष्य को एक महान मूर्ति में बदल दे । भगवान शंकर आदिदेव हैं बिना उनकी कृपा के ज्ञान की प्राप्ति असंभव हैं।