माया तु महाठगिनी। यह संसार एक माया है । सब कुछ माया है । महामाया के अधीन सब कुछ है ।इन वाक्यों को हम सभी बचपन से सुनते आ रहे हैं। लेकिन यह माया या महामाया कौन है । वैष्णव ग्रंथ इसे भगवान विष्णु की क्रियात्मक शक्ति कहते हैं। गीता में भगवान श्री कृष्ण कहते हैं कि मैं स्वयं से माया का सृजन करता हूं। शैव ग्रंथ शिव को परम पुरुष मानते हैं और उनकी पत्नी माता पार्वती को प्रकृति स्वरुपा माया कहते हैं जिनसे इस संसार की सृष्टि होती है । लेकिन प्रश्न यही है कि आखिर कौन हैं महामाया जिन्होंने इस संसार को अपनी शक्ति से वशीभूत कर रखा है । शाक्त संप्रदाय इन माया को ही महामाया और आद्या शक्ति मानते हैं।
महामाया ही हैं सृष्टि की आद्या नारी शक्ति
विश्व के सारे धर्मों में सृष्टि के संचालक को पुरुष के रुप में दिखाया गया है। कुरान में अल्लाह भले ही निराकार हैं लेकिन उनके लिए जिन संबोधनों का इस्तेमाल किया जाता है वो पुरुषवाची शब्द ही हैं। ईसाइयों और यहूदियों धर्मों की किताबों बाईबिल में भी ईश्वर पुरुष ही है। सनातन धर्म में भी ईश्वर को जब निराकार दिखाया गया है तो उन्हें भी परम पुरुष के रुप में ही दिखाया गया है। लेकिन सनातन धर्म में ही शाक्त संप्रदाय ईश्वरीय सत्ता को मातृ सत्ता या स्त्री शक्ति के रुप में दिखाया गया है और वो मातृ शक्ति और कोई नहीं बल्कि महामाया देवी ही हैं।
महामाया ही सृष्टि का निर्माण, पालन और संहार करती है
महामाया ही सृष्टि का निर्माण करती हैं, सृष्टि का पालन और संहार करती हैं। त्रिदेव ब्रम्हा, विष्णु और शंकर इसी महामाया की शक्ति के माध्यम हैं। महामाया ही ब्रम्हा को सृष्टि के निर्माण के लिए प्रेरित करती हैं, महामाया ही विष्णु को योगनिद्रा में ले जाकर सृष्टि का पालन कार्य अपने हाथों में ले लेती हैं और जब सृष्टि का संहार करना हो तो वही आदि शिव की शक्ति महाकाली बन कर महाप्रलय का नृत्य करती हैं।
श्री दुर्गा सप्तशती के प्रथम अध्याय में ही ब्रम्हा द्वारा उनकी स्तुति की गई है-
त्वयैत धारयते विश्वम्, त्वैयत्सृज्यतै जगत् !
त्वयैत पाल्यते देवि, त्वमत्स्यंते च सर्वदा !!
तथा संह्रति रुपांते जगतोsस्य जगन्मये !
अर्थात : हे महामाया देवी तुम्हीं ने इस विश्व ब्रंहाड को धारण करती हो। तुम ही इसका सृजन भी करती हो और तुम्ही इसका पालन भी करती हो और तुम्ही इस संसार का संहार भी करती हो।
महामाया विष्णु को योगनिद्रा में डाल देती हैं
श्री दुर्गा सप्तशती के प्रथम अध्याय में ब्रम्हा इसी स्तुति के द्वारा महामाया को भगवान विष्णु को योगनिद्रा से मुक्त करने के लिए अनुरोध करते हैं क्योंकि महामाया के प्रभाव से ही जब भी संसार में लय होता है तो वो विष्णु को योगनिद्रा में डाल देती हैं। ऐसा माना जाता है कि विष्णु ही जगत का पालन करते हैं लेकिन श्री दुर्गासप्तशती से ऐसा आभास होता है कि महामाया विष्णु के हाथ से पालन का कार्य ले लेती हैं । वहीं वास्तव में जगत का पालन करती हैं। विष्णु सिर्फ तब निद्रा का त्याग करते हैं जब संसार के लय और गति में कोई उथल पुथल होती है । संसार का कार्य तब तक महामाया सुचारु रुप से चलाती रहती हैं जब तक उसमें कोई आसुरी व्यवधान नहीं उत्पन्न होता है ।
कब महामाया निराकार से साकार रुप धारण करती हैं
जब संसार में कोई आसुरी शक्ति प्रबल हो जाती है और संसार के पालन कार्य में व्यवधान उत्पन्न करती हैं तब महामाया ब्रम्हा की प्रार्थना से अपना निराकार स्वरुप छोड़कर साकार स्वरुप धारण करती हैं। यह साकार स्वरुप दशभुजा और दशपदी महाकाली के रुप में प्रगट होता है। उनके साकार रुप की स्तुति से ही श्री दुर्गा सप्तशती का प्रथम अध्याय शुरु होता है। इन महामाया के प्रगट स्वरुप दशभुजा- दशपदी महाकाली का ध्यान मंत्र है
ऊं खड़गं चक्रं गदेषु चापं परिघांछूंलं भुशुण्डि शिर:।
शखं संधतीं करैस्त्रिनयनां, सर्वांगभूषांवृताम।
नीलाश्मद्युतिमास्यपाददशकां सेवे महाकालिकां।
यामस्तौस्वपितौ हरो कमलजो हन्तुं मधु- कैटभम् ।
ब्रम्हा की स्तुति से प्रगट हुई महामाया महाकाली विष्णु के नेत्रो, बाहुओं और ह्दय से निकलती हैं और विष्णु जी को योगनिद्रा से मुक्त कर मधु कैटभ दैत्यों को मोहित कर उनकी बुद्धि को भ्रष्ट कर देती हैं। महामाया देवी की प्रेरणा से भी श्री हरि विष्णु मधु – कैटभ दैत्यों को मारते हैं।
कौन है मधु और कैटभ और क्यों महामाया उन्हे विष्णु से वध कराती हैं :
मधु और कैटभ सृष्टि के पहले दैत्य हैं जिन्हें महामाया की प्रेरणा से विष्णु मारते हैं। एक अलग भाव में मधु और कैटभ हमारी दो प्रकार की प्रवृत्तियां हैं – मधु अर्थात मधुर और कैटभ अर्थात कटु । माया के प्रभाव से हमारा मन सिर्फ अच्छाई और बुराई के बीच संघर्ष करता रहता है । लेकिन जब इन अच्छाई और बुराईयों को सुनते रहने से हमारे मन में अंहकार की उत्पत्ति होती है तो उस अहंकार के मूल मधु और कैटभ ( मधुर और कटु) भावों को नष्ट करने के लिए हमारा ब्रम्ह तत्व (ब्रम्हा) जाग्रत हो उठता है और माया रुपी महामाया से हमारे आत्मा स्वरुप विष्णु को जाग्रत करने के लिए प्रार्थना करता है । तब हमारी आत्मा रुपी विष्णु को जिसे महामाया ने अपने आवरण से ढंक रखा है उसे मुक्त कर देती हैं । इसके बाद आत्मारुपी विष्णु हमारे मन पर पड़े मधु और कैटभ रुपी मैल को नष्ट कर हमें मुक्त कर देते हैं ।
महामाया ही वैष्णवी शक्ति भी हैं और जगत की आधार भी हैं इन्ही महामाया देवी को वैष्णवी शक्ति भी कहा गया है और कहा गया है कि –
त्वं वैष्णवी शक्तिरंनंत वीर्या विश्वस्य बीजं परमासि माया ।
सम्मोहितं देवी समस्तमेतत्, त्वं वै प्रसन्ना भुविमुक्ति हेतु।।
अर्थात : यही वैष्णवी शक्ति जो महामाया है उन्होंने ही सारे जगत को मोहित कर रखा है और इसी मोहपाश में बंध कर लोग संसार की मोह- माया में फंसे रहते हैं। मां महामाया की अराधना से ही मनुष्य इस मोह- माया के जाल से निकल कर मुक्त हो सकता है। इसीलिए श्री दुर्गासप्तशती का प्रारंभ ही महामाया की स्तुति से होता है ताकि हम मातृ शक्ति की अराधना शुद्ध मन से कर सकें और हमारे अंदर बैठे मधु और कैटभ रुपी प्रवृत्तियों का नाश हो सके ।