शुद्ध सनातन धर्म में ईश्वर के विविध स्वरुपों में कल्पना कर उनकी वंदना की गई है । कभी ईश्वर को निराकार रुप में पूजा गया है तो कभी उनके साकार रुप की कल्पना की गई है । कहीं उन्हें प्रकृति स्वरुपा माना गया है तो कहीं उन्हें पुरुष रुप में माना गया है । अब्राहमिक धर्मों के विपरीत शुद्ध सनातन धर्म में ईश्वर पुरुष भी हो सकता है , नारी भी हो सकती है, साकार भी हो सकता है और निराकार भी हो सकता है क्योंकि वेदों में कहा गया है
एकं सत्यं विप्रा बहुधा वदन्ति अर्थात सत्य एक है और विद्वान गण उन्हें अलग अलग तरीके से बताते हैं।
शुद्ध सनातन धर्म में ईश्वर को मां और नारी रुप में पूजन करने वालों को शाक्त कहा जाता है । शाक्त संप्रदाय में ईश्वर को मां और आद्या प्रकृति माना गया है ।
ईश्वर मां है , ईश्वर आद्या शक्ति स्वरुपा है
शाक्त संप्रदाय ईश्वर को मां स्वरुप आद्या शक्ति माननता है । शाक्त संप्रदाय में मातृ सत्ता को विश्व की आद्य शक्ति और सृष्टि की कारण और कार्य शक्ति माना गया है। आद्या शक्ति को शाक्त धर्म में महामाया का नाम दिया गया है जो ब्रम्हा की सृष्टि शक्ति, विष्णु की पालन शक्ति और शिव की संहारकारिणी शक्ति हैं। महामाया ही माया का सृजन करती हैं जिससे सृष्टि का निर्माण होता है। महामाया ही अपनी माया से विष्णु को मोहित कर देती हैं और सृष्टि के पालन का कार्य अपने हाथों में ले लेती हैं। और माया ही भगवान शिव की संहारिणी शक्ति महाकाली बन कर महाप्रलय के महाताण्डव की साक्षिणी और सहकर्मिणी बनती हैं। प्रकृति में नारी शक्ति ही ऐसी शक्ति है जिससे समस्त सृजन का कार्य होता है, पुरुष तो केवल माध्यम होता है। नवरात्र के नौ दिन इन्ही शक्ति की अलग – अलग स्वरुपों और नामों के साथ पूजा की जाती है।
क्या है नवरात्रि का महत्व और कितने बार आती है नवरात्रियां
यूं तो वर्ष के हरेक मास के पहले नौ दिन नवरात्रि के ही माने जाते हैं लेकिन सनातन धर्म में चार नवरात्रों का विशेष महत्व है। पहला है चैत्र नवरात्रि, दूसरा है शारदीय नवरात्रि। इन दोनों नवरात्रों को प्रगट नवरात्रि कहते हैं। इसके अलावा दो गुप्त नवरात्रि भी हैं जो माघ और आषाढ के महीने में आती है। आम तौर पर इन चारों नवरात्रों को भगवान शिव की दोनों पत्नियों के अलग अलग स्वरुपों की पूजा के लिए जाना जाता है। जहां गुप्त नवरात्रों के दिन माता सती से उत्पन्न दस महाविद्याओं की गुप्त साधना की जाती है वहीं प्रगट नवरात्रों के दिन माता पार्वती से उतप्न्न नौ स्वरुपों की पूजा की जाती है।
गुप्त नवरात्रि और प्रगट नवरात्रो में क्या अंतर है
गुप्त नवरात्रि में माता सती के क्रोध से उत्पन्न उनकी 10 महाविद्याओं – काली, तारा, भुवनेश्वरी, मातंगी, त्रिपुर सुंदरी, वगलामुखी, छिन्नमस्ता, षोडशी, कमला और धूमावती की साधनाएं की जाती हैं वहीं प्रगट नवरात्रों (चैत्र और शारदीय) में मां पार्वती के नौ स्वरुपों – शैलपुत्री, ब्रह्मचारिणी, चंद्रघंटा, कूष्मांडा, स्कंदमाता, कात्यायनी, कालरात्री, महागौरी एवं सिद्धीदात्री की पूजा की जाती है।
नवरात्रि में किन देवियों की पूजा की जाती है
परंतु इन दोनों ही मातृ शक्तियों -अर्थात माता सती और माता पार्वती के अलावा भी श्री दुर्गा सप्तशती में कई देवियों का जिक्र है जिनकी पूजा नवरात्री में की जाती है।
कौन है महामाया देवी इनकी पूजा क्यों की जाती है
श्री दुर्गासप्तशती में महामाया देवी का वर्णन प्रथम अध्याय के ध्यान श्लोक में है। इस श्लोक और पूरे श्री दुर्गा सप्तशती में उन देवियों का वर्णन है जो महामाया का विस्तार हैं। महामाया ब्रम्हा की स्तुति से विष्णु के वक्ष स्थल से दशपदी और दशभुजा महाकाली के रुप में प्रगट होती है और श्री विष्णु को मधु कैटभ के संहार के लिए योगनिद्रा से जगाती हैं। श्री विष्णु महामाया के प्रभाव से उनकी ही योगनिद्रा से जागते हैं और मधु कैटभ का संहार करते हैं। ये विष्णु की क्रियात्मक वैष्णवी शक्ति हैं।
कौन हैं माता अंबिका और क्या है इनकी महिमा
दूसरे अध्याय से देवताओं के द्वारा महिषासुर को मारने के लिए एक और नारी शक्ति के प्रगटीकरण का प्रयास किया जाता है। और फिर देवताओं की स्त्री शक्तियों से जो देवी प्रगट होती हैं वो अम्बिका देवी के नाम से जानी जाती हैं। अम्बिका देवी माता सती , माता पार्वती, माता सावित्री और माता लक्ष्मी से अलग शक्ति हैं। वो सभी देवताओं की स्त्री शक्ति का संयोग हैं। त्रिदेवो( ब्रम्हा, विष्णु, महेश) और इंद्र आदि देवता अपनी स्त्री शक्ति को बाहर निकालते हैं फिर इन सबके शक्ति पुंज से अम्बिका देवी का जन्म होता है। अंबिका देवी ही महिषासुर का संहार करती हैं।
चंडिका, कालिका, कौशिकी, शिवा ये देवियां कौन हैं
इसके बाद शुम्भ और निशुम्भ दैत्यों का भी संहार करने के फिर से आद्यशक्ति का आह्वान किया जाता है। इस बार माता पार्वती के शरीर के अंदर से शिव की संहारिणी शक्ति शिवा या कौशिकी या चंडिका देवी का प्रादुर्भाव होता है। माता पार्वती के शरीर से जब कौशिकी या चंडिका देवी का प्रादुर्भाव होता है तो पार्वती माता का रंग काला हो जाता है और उनसे चंडिका की तरह ही एक और शक्ति कालिका देवी का प्रादुर्भाव होता है।
शुम्भ और निशुम्भ का वध चंडिका देवी करती हैं और कालिका देवी चंड- मुंड का संहार करती हैं और चामुण्डा के नाम से प्रसिद्ध होती हैं। कालिका देवी ही रक्तबीज के संहार का भी कारण बनती हैं।
इस दौरान चंडिका देवी के शरीर से कई दैवी शक्तियों का भी प्रादुर्भाव होता है। ये देवियां वस्तुत: कई ईश्वरीय सत्ताओं की स्त्री शक्तियां हैं। चंडिका से निकली ये शक्तियां महेश्वरी,(पार्वती नहीं) ब्रम्हाणी, इंद्राणी ( शचि नहीं), वाराही, वैष्णवी(लक्ष्मी नहीं) आदि शक्तियों के रुप में प्रगट होती हैं औऱ अन्य दैत्यों का संहार करती हैं।
क्या मां दुर्गा कृष्ण की बहन हैं
श्री दुर्गा सप्तशती के ग्यारहवें अध्याय में चंडिका देवी देवताओं की स्तुति से प्रसन्न होकर भविष्य में आने वाले दैवीय शक्ति स्वरुपों के बारे में बताती हैं। देवी कात्यायनी या चंडिका बताती हैं कि वो भविष्य में करने के लिए यशोदा के गर्भ से जन्म लेंगी कृष्ण की बहन कहलाएंगी। वो विंध्याचल में वास करेंगी और इन दैत्यों का संहार करेंगी। माता कहती हैं कि वो शताक्षी, भीमा, दुर्गा, भ्रामरी देवियों के अवतार लेकर भविष्य में कई दैत्यों का संहार करेंगी।
माता सती से निकली हैं 10 महाविद्याएं
इस प्रकार माता सती से दस महाविद्याएं, माता पार्वती से नौ स्वरुपों, महामाया से दशपदी- दशभुजा महाकाली देवी का प्राद्र्भाव होता है। पुरुष ईश्वरीय सत्ताओं के पुंज से अंबिका देवी का प्रादुर्भाव होता है।
माता पार्वती से अवतरीत देवियों की कथा क्या है
पार्वती के शरीर को माध्यम बनाकर शिव की संहारिणी शक्ति शिवा से चंडिका- कालिका देवी का प्रादुर्भाव होता है। फिर चंडिका देवी के शरीर से पुरुष ईश्वरीय सत्ताओ की स्त्री शक्तियों महेश्वरी, वाराही, नृसिंही, ब्रम्हाणी,इंद्राणी आदि देवियां प्रगट होती हैं।
इसके बाद योगमाया(महामाया नहीं) शक्ति जो ब्रम्हा की क्रियात्मक शक्ति हैं उनसे विंध्याचल निवासिनी योगमाया देवी का प्रादुर्भाव होता है। ये कृष्ण की बहन के रुप में विख्यात होती हैं। इन्ही मां विंध्याचल निवासिनी से मां दुर्गा का अवतार होगा जो दुर्ग नामक राक्षस का संहार करेंगी। इन्ही से शताक्षी, भ्रामरी, भीमा आदि दैवी शक्तियां जन्म लेंगी और हरेक युग मे दैत्यों का संहार करेंगी।
इन सभी देवियों की पूजा अलग अलग नवरात्रियों में की जाती है लेकिन शारदीय नवरात्रि का विशेष महत्व है । इसका प्रारंभ अश्विन मास के शुक्ल पक्ष में होता है शुक्ल पक्ष के पहले अश्विन कृष्ण पक्ष का मास श्राद्ध का मास होता है जब हम अपने पितरों को संतुष्ट करते है। उन्हें जल तर्पण करते हैं। जब श्राद्ध खत्म होते हैं और शारदीय नवरात्रि का प्रारंभ होता है तो दोनों के संधिकाल को महालया कहते हैं । इसका भी एक विशेष महत्व है ।
देवताओं की हार की काली रात और देवी के आविर्भाव की उम्मीदों की रात – महालया
अश्विन मास की कृष्ण पक्ष अमवस्या को पूरे देश और विशेष कर बंगाल में महालया पूजा की जाती है ! अमावस्या की ये रात सनातन धर्म में शोक की रात है क्योंकि इसी दिन महिषासुर ने देवताओं को देवासुर संग्राम में परास्त किया था और लाखों ऋषियों को मौत के घाट उतारा था।
लेकिन यही दिन है जब देवताओं के लिए एक उम्मीद की किरण भी जागी थी कहा जाता है कि जब महिषासुर ने पितृपक्ष के दौरान देवताओं से युद्ध किया था और महालया के दिन देवता गण ऋषियों की हत्या को देख कर दुखी हुए थे उसी दिन उन्होंने त्रिदेवों से जाकर महिषासुर को मारने की प्रार्थना की थी। देवताओं की इस प्रार्थना से द्रवित होकर तीनों देवों के शरीर से एक शक्ति पूंज निकला था। इसके अलावा देवताओं ने भी अपनी शक्तियों को एकत्रित किया और इन सारी शक्तियों के सम्मिलन के एक महान नारी शक्ति का आविर्भाव हुआ जिनसे अंबिका देवी का प्राग्ट्य हुआ। अंबिका देवी ने देवताओं को महिषासुर के मर्दन का आश्ववासन दिया ।
तो एक तरह से अगर महालया शोक दिवस था तो उसके साथ ही महिषासुर के मर्दन की शुरुआत भी हुई। अर्थात पराजय और जय के बीच जो शक्तियों का लय हुआ उसे ही महालय कहते हैं। यही वजह है कि इसी दिन से मां अंबिका की पूजा की शुरुआत भी होती है। बंगाल में मां की मूर्ति बनाने वाले कारिगर आज ही के दिन मां दुर्गा की मूर्ति की आंखो की रचना शुरु करते हैं।
महालय को पितृपक्ष के समापन का आखिरी दिन भी माना जाता है। अगर किसी को अपने पूर्वजों की मृत्यु की तिथि याद न रहे तो इसी दिन वो अपने पूर्वजों की तृप्ति के लिए श्राद्ध कर सकता है।