संत रविदास

संत रविदास- ईश्वर से बराबरी का संबंध स्थापित करने वाले महान संत

सनातन धर्म में ईश्वर के जिन दो स्वरुपों की वंदना की परंपरा है वो हैं निर्गुण और सगुण परंपरा। वैदिक ग्रंथों में ईश्वर को प्रकृति स्वरुप निर्गुण रुप में भी पूजने की प्रथा रही है। लेकिन वक्त आने पर पौरोहित्य कर्मों और कर्मकांड के प्रचलनों ने मूर्ति पूजा की परंपरा डाली। मूर्ति पूजा के लिए मंदिर की आवश्यकता होती थी। मंदिरों के अंदर पुरोहितों का राज़ था। हालांकि शुरु में सभी जाति और वर्णों के लोगों को ईश्वर भक्ति का अधिकार प्राप्त था। लेकिन कालांतर में पुरोहितों ने शूद्रों और दलितों को मंदिरों में प्रवेश करने से रोक दिया।

इसके विरोध में शूद्रों और दलितों ने मंदिरों का त्याग कर दिया और ईश्वर को मंदिरों से बाहर निकाल कर अपने हद्य में स्थापित कर दिया । इन महान संतों ने ईश्वर को मंदिरों की मूर्तियों से निकाल कर कण- कण में व्याप्त कर दिया । ईश्वर के इसी निराकार और मूर्तिरहित उपासना पद्धति को निर्णुण परंपरा कहा गया

संत रविदास जी द्वारा ईश्वर भक्ति को एक नई दिशा देना

मध्यकालीन भारत में वर्णव्यव्यवस्था ने इतनी गहरी जड़ें जमा ली थी, कि पूरा समाज उंचे और नीचे वर्णों और जातियों में विभाजित था। भगवान के मंदिरों में नीची जातियों का प्रवेश वर्जित था और पुरोहित समाज खुद को भगवान का माध्यम और दूत मानते हुए खुद को सबसे उंचा मानता था।

संत रविदास जी ने इस गैर बराबरी का विरोध किया और कहा कि ईश्वर की सब संतानें बराबर हैं और यहां तक की भक्त और भगवान के बीच भी बराबरी का ही संबंध होना चाहिए। संत रविदास जी की एक वाणी है-

 तू मोहे देखे मैं तोहें देखूं। प्रीत परस्पर होई।।

अर्थात : वो अपने निराकार ईश्वर से कहते हैं कि तेरी भक्ति तब ही मैं करुंगा जब तू मुझे भी बराबरी से ही प्रेम करेगा । तुझे मैं अगर देखता हूं तो तू मुझे भी देखे तब ही दोनों के बीच प्रेम होगा।

उपजी भक्ति रामानंद लाए

सबसे पहले भक्ति आंदोलन की शुरुआत आलावार और नयनार संतों ने दक्षिण भारत में की और श्रीमद् भगवद्गीता के श्लोकों का आश्रय लेकर सभी वर्णों और जातियों को भक्ति और उपासना का अधिकार दे दिया ।

इस आंदोलन को संत रामानंद जी उत्तर भारत में ले आए और यहां सगुण और निर्गुण परंपरा की नींव डाली । जहां सगुण परंपरा में मीरा, तुलसी जैसे महान संत हुए जिन्होंने भगवान के मंदिर के द्वार सभी जातियों के लिए खोलने की वकालत की , वहीं कुछ दलित वर्ग के संतों ने ईश्वर के निराकार स्वरुप की उपासना पर जोर दिया । कबीर जी, दादू जी , और संत रविदास जी इसी पंरपरा के महान संत हुए।

जाति- पाति का विरोध

संत रविदास जी ने जाति के आधार पर उंच और नीच का विरोध किया और समाज में समानता की बात की –

जाति-जाति में जाति हैं, जो केतन के पात
रैदास मनुष ना जुड़ सके जब तक जाति न जात।

संत रविदास जी कहते हैं कि जब तक जाति नहीं जाएगी तब तक एक मानव का दूसरे मानव के साथ संबंध स्थापित हो ही नहीं सकता है ।

तुलसीदास के प्रिय संत थे संत रविदास जी

कहते है कि तुलसीदास जी ने उनके घर पर जाकर जमीन पर बैठ कर खाना खाया था। तुलसीदास जी का जब विरोध हुआ तो उन्होंने कहा –

धूत कहे अवधूत कहे, रजपूत कहे जोलहा कहे कोई।
काहू की बेटी से बेटा न ब्याहूं काहू की जात बिगाड़ू न सोई।।

अर्थात : उन्हें कोई किसी भी जाति के नाम से पुकारे उन्हें फर्क नहीं पड़ता क्योंकि वो अब संन्यासी हैं और उन्हें अपनी बेटी का ब्याह किसी के बेटे से नहीं करना है।

मीराबाई के गुरु थे संत रविदास जी

कहते हैं कि मीराबाई एक बार उनके दर्शनों के लिए वाराणसी आईं। संत रविदास जी की भक्ति की निर्मलता को देख कर उन्होंने मन ही मन उन्हें अपना गुरु मान लिया और इसके बाद ही उन्होंने इस पद की रचना की –

पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
वस्तु अमोल दियो जी मेरे सतगुरु।
किरपा कर अपनायो।
पायो जी मैंने राम रतन धन पायो।
कर्मकांड के विरोधी संत रविदास जी

संत रविदास जी ने पूरे जीवन भगवान के निराकार स्वरुप की अराधना की और उन्हें कण – कण में विराजित बताया । उन्होंने कर्मकांडीय पूजा पद्धति की आलोचना की और कहा –

राम मैं पूजा कहा चढ़ाऊं, फल अरु फूल अनूप न पाऊं ॥
थन तर दूध जो बछरू जुठारी, पुहुप भंवर जल मीन बिगारी ॥
मलयागिर बेधियो भुअंगा, विष अमृत दोउ एक संगा ॥
मन ही पूजा मन ही धूप, मन ही सेऊं सहज सरूप ॥
पूजा अरचा न जानूं तेरी, कह रैदास कवन गति मोरी ॥

संत रविदास जी के राम वैसे ही निराकार हैं जैसे कबीरदास जी और नानक जी के राम कण- कण में व्याप्त हैं।

कर्मयोगी थे संत रविदास जी

संत रविदास जी कबीरदास जी की तरह ही कर्मयोगी थे। उन्होंने संसार में रहते हुए सारे सांसारिक कर्मों को ईश्वरीय कर्मों में बदल दिया । वो श्रीमद् भगवद्गीता में भगवान श्री कृष्ण के बताए हुए कर्मयोग के आधार पर जीवन पर जूते सीलने का कार्य बड़े ही गर्व से करते रहे ।

उन्होंने कभी किसी भी कर्म को छोटा या बड़ा नहीं बताया बल्कि अपने जूते सिलने के कर्म के द्वारा उन्होंने आम जनता को बताया कि किसी भी कर्म को अगर ईश्वर प्राप्ति में समर्पित कर दिया जाए तो वह कर्म यज्ञकर्म हो जाता है और ईश्वर की प्राप्ति हो जाती है।

एक परमेश्वर की अराधना का संदेश

कबीरदास जी की तरह संत रविदास जी ने अल्लाह, ईश्वर सबको एक ही माना है । उन्होंने सभी धर्मों की एकता पर जोर दिया और ईश्वर प्राप्ति का मार्ग दिखायाः

कृष्ण, करीम, राम, हरि, राघव, जब लग एक न पेखा।
वेद कतेब कुरान, पुरानन, सहज एक नहिं देखा।।

संत रविदास जी ने ईश्वर प्राप्ति के लिए किसी कर्मकांड को करने की बजाय अपने अंदर के अंहकार को समाप्त करने का संदेश दिया-

कह रैदास तेरी भगति दूरि है, भाग बड़े सो पावै।
तजि अभिमान मेटि आपा पर, पिपिलक हवै चुनि खावै।

संत रविदास जी की वाणियों का संकलन पवित्र गुरु ग्रंथ साहिब जी में भी मिलता है । गुरु ग्रंथ साहिब जी में संत रविदास जी के 40 पद संकलित हैं ।

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