गीता शास्त्र

शुद्ध श्रीमद्भगवद्गीता,अध्याय 2 :गीताशास्त्र का ज्ञान। Start of Bhagavad Gita

शुद्ध श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 2( Chapter 2) के श्लोक 11 से पहली बार भगवान अर्जुन को वह ज्ञान देना प्रारंभ करते हैं, जिसे हम ‘गीताशास्त्र’ के नाम से जानते हैं। इसके पहले के अध्याय 1( Chapter 1) और अध्याय 2( Chapter 2) के श्लोक 10 तक मूल रुप से श्रीमद्भगवद्गीता में धृतराष्ट्र का इकलौता प्रश्न, संजय के द्वारा युद्धभूमि में होने वाली घटनाओं का वर्णन, दुर्योधन के द्वारा दोनों सेनाओं की शक्तियों की व्याख्या और अर्जुन के मोहित और भ्रमित होकर युद्ध से पलायन तथा उसके विषाद का वर्णन है।

हालांकि श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 1( Chapter 1) के श्लोक 24 में श्रीकृष्ण सामने आते हैं और अर्जुन को दोनों सेनाओं के मध्य खड़ा कर अर्जुन को दोनों तरफ की ही सेनाओं का निरीक्षण करने के लिए कहते हैं, लेकिन इस श्लोक में श्रीकृष्ण द्वारा अर्जुन को किसी प्रकार के ज्ञान देने और किसी दार्शनिक तत्व की व्याख्या करने की बात नहीं कही गई है। अध्याय 2( Chapter 2) के श्लोक 10 तक श्रीकृष्ण अर्जुन के विषाद को सिर्फ सुनते हैं और कोई जवाब नहीं देते हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन की चिंता का कारण और निवारण

अध्याय 1 के श्लोक 28 से अर्जुन के विषाद का प्रारंभ होता है संजय उवाच

दृष्टेवमं स्वजनं कृष्ण युयुत्सुं समुपस्थितम् ॥1.28

सीदन्ति मम गात्राणि मुखं च परिशुष्यति ।
वेपथुश्च शरीरे में रोमहर्षश्च जायते ॥1.29।।

अर्थ: अर्जुन बोले – “हे कृष्ण ! युद्ध क्षेत्र में डटे हुए युद्ध के अभिलाषी इस स्वजन समुदाय को देख कर मेरे अंग शिथिल हुए जा रहे हैं और मुख सूखा जा रहा है तथा मेरे शरीर में कंपन और रोमांच पैदा हो रहा है ।”

व्याख्याः अर्जुन के विषाद के चिन्ह सबसे पहले उसके शरीर में होने वाले परिवर्तनों से दिखने लगता है । आमतौर पर जब हम सभी किसी ऐसी समस्या से घिर जाते हैं जिसका समाधान हमारे पास नहीं होता है और उस संकट का निवारण हमें नज़र नहीं आता है तो हमारे शरीर के अंदर हार्मोनल परिवर्तन होने लगते हैं और हम नर्वस होने लगते हैं । अर्जुन उसी स्थिति से गुजरने लगता है ।

इसके बाद अर्जुन अपनी इस नर्वसनेस की वजह बताने लगता है कि वो युद्ध इसलिए नहीं करना चाहता, क्योंकि इस युद्ध में उसके सामने उसके ही अपने परिवार के लोग खड़े हैं। उसके पूजनीय भीष्म और गुरु द्रोण खड़े हैं। भले ही धृतराष्ट्र के पुत्र पांडवों के ही शत्रु हैं, लेकिन कौरव पक्ष के लोग भी अर्जुन के परिवार के सदस्य हैं । अर्जुन मोह से ग्रस्त होकर कहता है कि वो अपने परिवार के लोगों की हत्या नहीं करना चाहता है।

आगे के श्लोकों में अर्जुन बताता है कि अपने ही कुल के नाश से कोई कल्याण नहीं हो सकता । वो इस युद्ध के परिणामों की बात भी करता है । अर्जुन कहता है कि अपने ही कुल के लोगों को मारने से उसे पाप लगेगा । उसके कुल के धर्म का नाश भी हो जाएगा । इस युद्ध में परिवार के सारे पुरुषों के मरने के बाद कुल की स्त्रियां दूषित हो जाएंगी । उसके सनातन कुल की अच्छी परंपराओं का नाश हो जाएगा। उसके कुल के जाति और धर्म के नाश होने से स्त्रियां दूसरे पुरुषों के साथ शारीरिक संबंध बना लेंगी । इससे जो संतानें पैदा होंगी वो वर्णसंकर होंगी । ऐसे संतानों और परिवार को सिर्फ नरक मिलेगा ।

अर्जुन यह भी कहता है कि उसे अपने कुल और धर्म के नाश की चिंता तो है ही, साथ ही वो इस युद्ध में अगर विजय भी प्राप्त कर लेगा तो उससे प्राप्त होने वाले सुखों का कोई मूल्य नहीं है। उसे इस युद्ध में विजय प्राप्त करने के बाद मिलने वाले राज्य का सुख भी नहीं चाहिए और न ही युद्ध में मारे जाने के बाद मिलने वाला स्वर्ग का सुख ही चाहिए, क्योंकि ये सारे सुख तो बिना परिवार के भोगे नहीं जाएंगे। अपने परिवार की कीमत पर उसे सारी पृथ्वी का राज्य भी नहीं चाहिए । परिवार की जिंदगी के मूल्य पर अर्जुन के लिए ये सारे सुख निरर्थक हैं।

अर्जुन यहां तीन चिंताओं से घिरा है । पहली चिंता है, अपने परिवार के नष्ट होने की। दूसरी चिंता है कि क्या इस युद्ध मे परिवार के नाश के बाद मिलने वाला सुख भोगने के योग्य भी हैं भी या नहीं? तीसरे, उसे यह भी लगता है कि युद्ध में वीरगति को प्राप्त होने के बाद भी जो स्वर्ग मिलेगा वो भी निरर्थक है ।

अर्जुन मानता है कि ये सभी भौतिक सुख हैं और परिवार की कीमत पर उसे ऐसे भौतिक सुख नहीं चाहिए। वस्तुतः अर्जुन को न तो राज्य का सुख चाहिए, न तो स्वर्ग का सुख चाहिए और न ही किसी प्रकार का यश ही चाहिए । अर्जुन अपने कुटुंब और परिवार के जीवन के लिए  इन तीनों सुखों का त्याग करना चाहता है । अर्जुन अपने परिवार के मोह में पड़ कर इतना भ्रमित हो जाता है कि इसके लिए वह अपने क्षत्रिय धर्म का भी त्याग कर देता है और युद्ध से पलायन कर जाता है ।

भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 2( Chapter 2) के श्लोक 2  में अर्जुन के इस असमय मोह के उत्पन्न होने पर आश्चर्य प्रगट करते हैं । भगवान कहते हैं कि “यह आचरण न तो आर्यों अर्थात श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा किया जाने वाला है , न तो स्वर्ग देने वाला है और न ही कीर्ति को देने वाला है” –

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन ॥2.2॥
kutastva kasmalamidan visame samupasthitam.
anaryajustamasvargyamakirtikaramarjuna ৷৷2.2৷৷

अर्थः श्रीभगवान बोले- “हे अर्जुन! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है।”

व्याख्याः अर्जुन के इस रवैये पर श्रीकृष्ण आश्चर्य भी प्रगट करते हैं और उस पर व्यंग्य भी करते हैं। श्रीकृष्ण हंसते हुए अर्जुन को ऐसी बचकानी बातें करने पर फटकारते भी हैं। भगवान अर्जुन के क्षत्रियत्व और पुरुषत्व को भी ललकारते हुए उसके अंदर के स्वाभिमान को जाग्रत करने का प्रयास करते हैं। यहां तक की वो उसे नपुंसक भी कह डालते हैं, जो किसी भी वीर के लिए सबसे बड़ी अपमान की बात होती है- 

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥2.3॥
klaibyan ma sma gamah partha naitattvayyupapadyate.
ksudran hrdayadaurbalyan tyaktvottistha parantapa৷৷2.3৷৷

अर्थः इसलिए “हे अर्जुन ! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर  खड़ा हो जा।”

व्याख्या – अर्जुन इतना मोहित और भ्रमित है कि वो अपना मान और अपमान भूल चूका है। वो कहता है कि युद्ध से पलायन करने के बाद अगर लोग उसे कायर भी मान लें, लोग उसका मज़ाक भी उड़ाएं तो भी उसके लिए अपने पूजनीय भीष्म पितामह और गुरु द्रोण सहित अपने भाइयों को मारना असंभव है ।

अर्जुन कहता है कि “भले ही आपकी नज़र में मैं नपुंसक हूं, लेकिन युद्ध के परिणाम के फलस्वरुप जो कुछ मिलने वाला है वो मेरे लिए घाटे का सौदा ही है । अपने परिवार को मार कर इन कामरुप भोगों को भोगने से अच्छा है कि मैं कायर ही कहलाउं, क्योंकि मुझे पूरी पृथ्वी का राज्य का सुख और स्वर्ग का सुख भी अपने परिवार को मारने के दुख से बड़ा नहीं दिखता।”

इसी मोह और भ्रम से युक्त शोक की स्थिति मेंअर्जुन श्रीकृष्ण की शरण में जाता है और उनसे कल्याणकारक शिक्षा देने की बात कहता है –

कार्पण्यदोषोपहतस्वभावः, पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेताः ।
यच्छ्रेयः स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे, शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम् ॥2.7॥
karpanyadosopahatasvabhavah, prcchami tvan dharmasanmudhacetah
yacchreyah syannisicatan bruhi tanme, sisyaste.han sadhi man tvan prapannam৷৷2.7৷৷

अर्थः- “इसलिए कायरता रूप दोष से उपहत हुए स्वभाव वाला तथा धर्म के विषय में मोहित चित्त हुआ मैं आपसे पूछता हूँ कि जो साधन निश्चित कल्याणकारक हो, वह मेरे लिए कहिए ,क्योंकि मैं आपका शिष्य हूँ, इसलिए आपके शरण हुए मुझको शिक्षा दीजिए।”

व्याख्या- अर्जुन को यह तो ज्ञान है कि वो अभी मोह और भ्रम की स्थिति में हैं। उसे पता नहीं चल पा रहा है कि क्या धर्म है और क्या अधर्म है? वो जिस कुल-धर्म की बात कह रहा था उसके बारे में भी वो निश्चित नहीं है। उस यह समझ में नहीं आ रहा है कि क्या कुल-धर्म के नष्ट होने का उसका डर सही है या गलत? क्या कौरवों को मार कर उस जो सुख मिलेगा वो धर्म सम्मत है या नहीं है ? क्या अपने पूजनीय भीष्म और गुरु द्रोण का वध करना पाप है या पुण्य है? अर्जुन को निश्चित रुप से कुछ भी पता नहीं है ।

अर्जुन इसीलिए श्रीकृष्ण की शरण में चला जाता है और उनका शिष्य बन जाता है । अर्जुन को पता है कि श्रीकृष्ण ही एकमात्र ऐसी सत्ता हैं जो उसे इस मोह और भ्रम से निकाल सकते हैं। इसलिए वह ईमानदारी से यह स्वीकार करता है कि वो कायरता के दोष से ग्रस्त हो चुका है और धर्म और अधर्म के विषय में मोहित चित्त हो चुका है । वो इसलिए श्रीकृष्ण से पूछता है कि “जो साधन निश्चित रुप से ( क्योंकि अर्जुन को जो ठीक और उचित लग रहा है उसके बारे में भी वो श्योर नहीं है) कल्याणकारी हो वह शिक्षा मुझे दीजिए।”

अर्जुन गुरु द्रोण का शिष्य है । युद्ध में उसके सामने गुरु कृपाचार्य भी हैं। अर्जुन के सामने ही महान ज्ञानी भीष्म पितामह भी खड़े हैं। लेकिन वो इनमें से किसी के पास अपने कल्याण का साधन जानने के लिए नहीं जाता है । अर्जुन सिर्फ श्रीकृष्ण का शिष्य होना चाहता है । महत्वपूर्ण  सिर्फ प्रश्न करना नहीं होता । किसके सामने प्रश्न किया जाए इसकी योग्यता और इसके लिए  ज्ञान भी अर्जित करना भी जरुरी होता है । अर्जुन के पास यह योग्यता भी है और ज्ञान भी, कि किससे और क्या प्रश्न किया जाए ?

प्रश्नों से शुरु होती है ज्ञान की यात्रा

सनातन धर्म के लगभग सभी महान ग्रंथो का प्रारंभ किसी न किसी प्रश्न से होता है । ‘वाल्मीकि रामायण’ में वाल्मीकि के पास नारद मुनि जाते हैं और उनसे एक पूर्ण पुरुष के जीवन पर एक ग्रंथ लिखने के लिए कहते हैं। वाल्मीकि पूछते हैं कि “इस समय संसार में कौन वो पुरुष हैं जिसे पूर्ण पुरुष माना जा सकता है। वो कौन पूर्ण पुरुष है जिसके गुणों और कार्यों पर कोई ग्रंथ लिखा जा सकता है ?

वाल्मीकि के  इस प्रश्न का उत्तर नारद देते हैं और उन्हें ब्रह्मा जी के द्वारा कही गई श्रीराम की कथा का संक्षेप बताते हैं । नारद वाल्मीकि को श्रीराम के गुणों और कार्यों के बारे में बताते हैं । नारद वाल्मीकि को बताते हैं कि इस समय संसार में श्रीराम ही पूर्ण पुरुष कहलाने के अधिकारी हैं। नारद वाल्मीकि को बताते हैं कि श्रीराम अपने गुणों की वजह से ही संसार में मर्यादापुरुषोत्तम के रुप में प्रसिद्ध हैं।नारद वाल्मीकि के प्रश्नों का उत्तर सटीक तरीके से देते हैं। वाल्मीकि नारद के उत्तर को सुन कर संतुष्ट हो जाते हैं और श्रीराम के जीवन ,उनके गुणों और कार्यों का वर्णन करने के लिए रामायण की रचना करते हैं।

महाभारत की कथा भी प्रश्न से ही शुरु होती है। महाभारत का प्रारंभ शौनकादि ऋषियों के प्रश्न से होता है । शौनकादि ऋषियों के प्रश्नों का उत्तर लोमहर्षण उग्रश्रवा देते हैं । लोमहर्षण शौनकादि ऋषियों महाभारत की कथा सुनाते हैं। वह कथा जो उन्होंने जनमेजय के सर्पयज्ञ में वेदव्यास के शिष्य वैशम्पायन और राजा जनमेजय के संवाद के जरिए सुनी थी। राजा जनमेजय वैशम्पायन से अपने पूर्वजों पांडवों के गुणों, कार्यों और महाभारत के युद्ध के बारे में प्रश्न करते है। महाभारत ग्रंथ के रचयिता व्यासअपने शिष्य वैशम्पायन को आदेश देते हैं कि वो राजा जनमेजय को महाभारत की पूरी कथा सुनाएं।

श्रीमद्भागवत का प्रारंभ भी प्रश्न से ही होता है। श्रीमद्भगवद्गीता का प्रारंभ भी धृतराष्ट्र के प्रश्न से होता है और आगे चलकर यह अर्जुन के संशयात्मक प्रश्नों के रुप में बदल जाती है जिसका जवाब श्रीकृष्ण देते हैं। धृतराष्ट्र- संजय और श्रीकृष्ण-अर्जुन के प्रश्नोत्तर का सार ही श्रीमद्भगवद्गीता के रुप में संसार में प्रसिद्ध है।

प्रश्न करने वाले में हमेशा यह योग्यता होनी चाहिए कि वो यह जान सके कि इस प्रश्न का उत्तर देने की योग्यता किसमें है। अर्जुन के पास यह दृष्टि और योग्यता है । वह जानता है कि गुरु द्रोण, कृपाचार्य और भीष्म के पास वह ज्ञान नहीं है, जिससे उसका मोह दूर हो सके । अर्जुन के पास उनके बड़े भाई धर्मराज युधिष्ठिर भी हैं ,लेकिन वह जानता है उसके इस मोह और संशय का निवारण धर्मराज युधिष्ठिर भी नहीं कर सकते हैं, क्योंकि स्वयं युधिष्ठिर युद्ध के पूर्व संशय से घिर चुके थे जिसका निवारण स्वयं अर्जुन ने किया था।

अर्जुन के पास अब सिर्फ श्रीकृष्ण ही विकल्प हैं जो उसके संशयों को दूर कर सकते हैं क्योंकि पूरी महाभारत में सिर्फ श्रीकृष्ण ही इकलौते ऐसे व्यक्तित्व हैं जो कहीं भी मोह, लोभ, संशय और भ्रम से घिरे नहीं दिखाये गये हैं। महाभारत में श्रीकृष्ण सभी प्रकार के द्वंद्वो से उपर दिखाए गए हैं। महाभारत काल में उन्हें ईश्वर के अवतार के रुप में मान्यता मिल चुकी थी। श्रीकृष्ण को भीष्म, अर्जुन, युधिष्ठिर, धृतराष्ट्र, द्रोण, कर्ण विष्णु के अवतार के पुप में मान्यता देते थे।

अर्जुन के प्रश्नों के बाद ही श्रीकृष्ण उसे सनातन काल से चले अविनाशी योग का ज्ञान देना शुरु करते हैं । वह योग जिसे सबसे पहले उन्होंने  सूर्य को कहा था, इसके बाद सूर्य ने अपने पुत्र मनु को कहा , मनु से उनके पुत्र इक्ष्वाकु ने जाना और फिर परंपरा से इस योग को राजर्षियों ने जाना । लेकिन यह ज्ञान समय के साथ लुप्तप्राय गया था –

श्री भगवानुवाच

इमं विवस्वते योगं प्रोक्तवानहमव्ययम् ।
विवस्वान्मनवे प्राह मनुरिक्ष्वाकवेऽब्रवीत् ॥4.1।।
Iman vivasvate yogan proktavanahamavyayam.
Vivasvan manave praha manuriksvskave.bravit৷৷4.1৷৷

एवं परम्पराप्राप्तमिमं राजर्षयो विदुः ।
स कालेनेह महता योगो नष्टः परन्तप ॥4.2।।
Evan paramparapraptamiman rajarsayo viduh.
Sa kaleneha mahata yogo nastah parantapa৷৷4.2৷৷

अर्थः- श्री भगवान बोले-” मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा। हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना, किन्तु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लुप्तप्राय हो गया।”

व्याख्याः- भगवान यहां कहते हैं कि जिस धर्म की तुम बात कर रहे हो वो तो विकृत और अज्ञान से युक्त धर्म है । इसीलिए तुम मोहित हो रहे हों क्योंकि धर्म का अर्थ ही यह है कि जो आपको प्रकाशित करे और प्रेरित करे न कि भ्रमित और मोहित करे (चोदनालक्षणोSर्थोधर्मः अर्थात धर्म का लक्षण प्रेरित करना है)वास्तविक योग और धर्म का ज्ञान तो लुप्त हो चुका है जो मैं तुम्हे फिर से बता रहा हूं।

भगवान श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय(Chapter) 4 के श्लोक 1 और 2 में उस योग की पुनर्व्याख्या की बात कह रहे हैं जो बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लुप्तप्राय हो गया है। भगवान किस योग की बात कह रहे हैं जो महाभारत काल तक आते-आते लुप्तप्राय हो चुका था? क्या भगवान किसी ऐसे योग की बात कर रहे हैं जिसकी परंपरा की शुरुआत उन्होंने भगवान सूर्य से की थी और वो राजर्षियों की परंपरा से चल रही थी। इस परंपरा को समझने की जरुरत है।

वैदिक परंपराएं और श्रीमद्भगवद्गीता

वेद का अर्थ ज्ञान होता है। वेदों की रचना किसने की? यह आज भी एक रहस्य है। ऐसा माना जाता है कि वेद अपौरुषेय हैं अर्थात् वेद ईश्वर की वाणी हैं । इसकी रचना किसी इंसान ने नहीं की थी। ये भी माना जाता है कि सृष्टि के प्रारंभ में एक ही वेद था जिसे बाद में वेदव्यास जी ने चार संहिताओं( ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अर्थववेद ) में विभक्त कर दिया था। वेद व्यास इन चारों वेदों के रचयिता नहीं है बल्कि वो इन वेदों के संकलनकर्ता और संपादक हैं।

वराह पुराण की एक कथा से वेद और उसके विभाजन के बारे में एक रोचक जानकारी मिलती है जिससे वैदिक परंपराओं पर प्रकाश डाला जा सकता है । वराह पुराण की कथा के अनुसार सृष्टि के आदि में शँखासुर या हयग्रीव नामक दैत्य ने वेद का अपहरण कर लिया था। भगवान विष्णु ने हयग्रीव अवतार लिया और शँखासुर ( इसका एक नाम हयग्रीव भी था) का वध कर फिर से वेद को स्थापित किया। विष्णु ने वेद को ब्रह्मा को सौंप दिया।

ब्रह्मा ने वेद का ज्ञान अपने मानस पुत्रों ( अत्रि, मरीचि, भृगु इत्यादि) को दिया और ‘ब्रह्म संप्रदाय’ की स्थापना की । अपने मानस पुत्रों के अलावा ब्रह्मा ने वेद का ज्ञान आदित्य या सूर्य को भी दिया। आदित्य ( सूर्य) के नाम से वेद की जो परंपरा चली उसे ‘आदित्य संप्रदाय’ कहा गया। ब्रह्म संप्रदाय की परंपरा ब्रहर्षियों के द्वारा युगों- युगों तक चलती रही । कालांतर में द्वापर युग में कृष्ण द्वैपायन व्यास ने वेद की ब्रह्म परंपरा के ज्ञान को चार संहिताओं ( ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अर्थववेद) में विभक्त कर दिया।

कृष्ण द्वैपायन व्यास( वेद व्यास) ने ऋग्वेद का ज्ञान अपने शिष्य ऋषि पैल को दिया, यजुर्वेद का ज्ञान अपने शिष्य वैशम्पायन को दिया। सामवेद का ज्ञान अपने शिष्य जैमिनी को दिया और अर्थववेद का ज्ञान अपने शिष्य सुमन्तु को दिया। ऋषि पैल की परंपरा से ब्रह्म संप्रदाय की ऋग्वैदिक परंपरा शिष्यों के द्वारा अगली पीढ़ियों तक 20 शाखाओं में विभक्त हो कर चलती रहीं। इनमें भी पांच शाखाएं प्रमुख रुप से प्रचलित रही । ये हैं- शाकल, आश्वलायन, कौषीतकि, बाष्कल और माण्डूकायन ।

वर्तमान में बाष्कल और माण्डूकायन शाखाएं पूर्णतया विलुप्त हो चुकी हैं। आश्वलायन के हस्तलेख तो उपलब्ध हैं लेकिन पाठ परंपरा का लोप हो चुका है। कौषीतकि या शांखायन की शाखा के हस्तलेख उपलब्ध हैं और पाठ परंपरा भी उपलब्ध हैं , लेकिन ये ज्यादा प्रचलित नहीं है। हमारे पास ऋग्वेद के सिर्फ शाकल शाखा का ही हस्तलेख और पाठ परंपरा सर्वसुलभ रुप से उपलब्ध है । उपर्युक्त सारी शाखाएं ब्रह्म संप्रदाय से संबंध रखती हैं।

आदित्य संप्रदाय की वेद परंपरा के संकलनकर्ता ऋषि याज्ञवल्क्य को माना जाता है । ऋषि याज्ञवल्क्य ने सबसे पहले ऋग्वेद का अध्ययन ब्रह्म संप्रदाय के ऋषि शाकल विदग्ध से किया था। लेकिन शाकल विदग्ध और याज्ञवल्क्य के बीच विवाद हो गया और याज्ञवल्क्य ने उनका ज्ञान उन्हें वापस कर दिया। इसके बाद ऋषि याज्ञवल्क्क्य ने अपने मातामह वैशम्पायन से ब्रह्म संप्रदाय के यजुर्वेद का अध्ययन किया । लेकिन याज्ञवल्क्य और वैशम्पायन में भी विवाद हो गया। याज्ञवल्क्य ने वैशम्पायन से प्राप्त यजुर्वेद के ज्ञान को भी वापस कर दिया।

याज्ञवल्क्य ने प्रतिज्ञा की कि अब वो किसी मानव शरीरधारी को अपना गुरु नहीं बनाएंगे। याज्ञवल्क्य ने भगवान आदित्य( सूर्य) से उस वेद का ज्ञान लिया जो आदित्य को ब्रह्मा ने दिया था । आदित्य ( सूर्य) ने ब्रह्मा से प्राप्त वेद के ज्ञान के आधार पर आदित्य संप्रदाय की स्थापना की थी। इस प्रकार याज्ञवल्क्य ने वेद का ज्ञान आदित्य संप्रदाय की शाखा से लिया। याज्ञवल्क्य ने आदित्य संप्रदाय से प्राप्त वेद के ज्ञान के आधार पर वेद व्यास की तरह इसे भी चार संहिताओं ( ऋग्वेद, यजुर्वेद, सामवेद और अर्थववेद) में विभाजन कर दिया।

याज्ञवल्क्य ने आदित्य परंपरा के अनुसार संकलित वेद का ज्ञान अपने शिष्यों को दिया। याज्ञवल्क्य ने आदित्य संप्रदाय के ऋग्वेद का ज्ञान अपने शिष्य शाँखायन को दिया। याज्ञवल्क्य ने आदित्य संप्रदाय के यजुर्वेद का ज्ञान अपने शिष्य कण्वमाध्यन्दिन को दिया। उन्होंने आदित्य संप्रदाय के सामवेद का ज्ञान अपने शिष्य सामश्रवा( कौथुम) को दिया और आदित्य संप्रदाय के अर्थववेद का ज्ञान अपने शिष्य शौनक को दिया।

वर्तमान में ऋ्ग्वेद के वाचन की 21 परंपराओं का उल्लेख किया जाता है उसमें 20 परंपराएं ब्रह्म संप्रदाय की हैं और 21वीं परंपरा आदित्य संप्रदाय की शाँखायन परंपरा है। यह आदित्य संप्रदाय की परंपरा ही श्रीकृष्ण के काल में भी लुप्तप्राय हो चुकी थीं। यह परंपरा केवल ऋषियों और उनके शिष्यों तक सीमित नहीं थी बल्कि भगवान आदित्य ने ब्रह्मा से प्राप्त वेद के ज्ञान को अपने पुत्र मनु को भी बताया था। मनु को मानव जाति का प्रवर्तक माना जाता है। मनु ही पृथ्वी लोक के पहले राजा भी हैं। मनु ने ही इस संसार में शासन व्यवस्था और सामाजिक व्यवस्था की नींव डाली थी।

इसका अर्थ ये है कि वेद की दो प्रकार की परंपराएं संसार में प्रचलित की गई थीं। ब्रह्म संप्रदाय और आदित्य संप्रदाय। इन दोनों संप्रदायों में भी यह गुरु शिष्य परंपरा के साथ-साथ वंशानुगत परंपरा प्रचलित रही । ब्रह्मा ने पहले अपने मानस पुत्रों के जरिए ब्रह्म संप्रदाय की परंपरा चलाई जो पिता- पुत्रों की वंशानुगत परंपरा थी। इस ब्रह्म संप्रदाय की वैदिक परंपरा को वेद व्यास ने गुरु- शिष्य परंपरा में भी बदल दिया।

आदित्य संप्रदाय की परंपरा का प्रारंभ भी पिता- पुत्र की वंशानुगत परंपरा से हुआ। आदित्य या सूर्य ने अपने पुत्र मनु को आदित्य संप्रदाय के वेद का ज्ञान दिया। मनु ने अपने पुत्र इक्ष्वाकु को दिया । चूँकि मनु और इक्ष्वाकु राजा थे इसलिए पिता -पुत्र की इस परंपरा को राजर्षि परंपरा भी कहा गया। बाद के काल में याज्ञवल्क्य ने वेद व्यास की तरह ही अपने आदित्य संप्रदाय की परंपरा को पिता- पुत्र की वंशानुगत राजर्षि परंपरा से बाहर निकाल कर गुरु- शिष्य की परंपरा में वेद के ज्ञान को प्रचलित किया।

भगवान अर्जुन को अध्याय 4( Chapter 4) के श्लोक 2 और 3 में कहते हैं कि “मैंने इस अविनाशी योग को सूर्य से कहा था, सूर्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु से कहा और मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु से कहा। हे परन्तप अर्जुन! इस प्रकार परम्परा से प्राप्त इस योग को राजर्षियों ने जाना, किन्तु उसके बाद वह योग बहुत काल से इस पृथ्वी लोक में लुप्तप्राय हो गया।”

इसका अर्थ ये हैं कि भगवान आदित्य संप्रदाय की परंपरा जिसे वैवस्वत मनु ने अपने पुत्र राजा इक्ष्वाकु को सुनाया था और ये पिता- पुत्र की वंशानुगत परंपरा से राजर्षि परंपरा के रुप में जानी गई, इस परंपरा के लुप्तप्राय होने की बात कह रहे हैं और इस राजर्षि पिता- पुत्र की वंशानुगत परंपरा को पुनर्जीवित करने की बात कह रहे हैं।

भगवान चाहते तो ब्रह्म संप्रदाय में उल्लिखित अविनाशी योग परंपरा का ज्ञान भी अर्जुन को दे सकते थे , लेकिन भगवान अर्जुन को आदित्य संप्रदाय की राजर्षि परंपरा के जरिए उस अविनाशी योग का ज्ञान देने की बात कह रहे हैं। इसकी दो वजहें हैं। एक तो आदित्य संप्रदाय की राजर्षि वंशानुगत पंरपरा का लोप हो गया था। भगवान के पृथ्वी पर अवतरण का एक उद्देश्य धर्म का पुनरुत्थान भी है जैसा कि वो श्रीमद्बगवद्गीता में कहते भी हैं –

यदा यदा हि धर्मस्य ग्लानिर्भवति भारत।

अभ्युत्थानमधर्मस्य तदाऽऽत्मानं सृजाम्यहम्।।4.7।।

अर्थात – “हे भरतवंशी अर्जुन! जब-जब धर्मकी हानि और अधर्मकी वृद्धि होती है, तब-तब ही मैं अपने-आपको सृजित करता हूँ।”

दूसरे , अर्जुन और श्रीकृष्ण मानव रुप में उसी राजर्षि परंपरा के अंश हैं जिसका सूत्रपात आदित्य ने अपने पुत्र वैवस्वत मनु के माध्यम से की थी। श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों की ही वंशपरंपरा वैवस्वत मनु से ही शुरु होती है। महाभारत के अनुसार विव्सवान सूर्य के पुत्र मनु के पुत्र इक्ष्वाकु थे। इक्ष्वाकु के वंश में ही ययाति हुए। ययाति के पांच पुत्रों अनु, यदु, द्रह्यु, पुरु और तुर्वस से ही श्रीकृष्ण और अर्जुन के पूर्वज माने गए हैं। पुरु के वंशक्रम में कौरव और पांडव हुए तो यदु के वंशक्रम से श्रीकृष्ण हुए हैं। चूँकि आदित्य संप्रदाय की परंपरा इन्ही राजाओं के माध्यम से पिता- पुत्र के वँशक्रम से चली , इसलिए अर्जुन को जिस अविनाशी योग का ज्ञान श्रीकृष्ण देना चाहते हैं वो उनके ही पूर्वजों की परंपरा से लुप्त हो चुका ज्ञान था ।

किसी भी व्यक्ति के लिए ये आवश्यक है कि वो अपनी पूर्वजों की परंपराओं को जारी रखे । अगर ये परंपरा लुप्त हो गई है तो उस परंपरा का पुनरुद्धार भी करे। श्रीकृष्ण और अर्जुन दोनों का ये कर्तव्य था कि वो अपनी पूर्वजों की राजर्षि परंपर जो आदित्य ( सूर्य) से चली आ रही है, उसको फिर से स्थापित करें। श्रीकृष्ण को वेद की उस आदित्य परंपरा का ज्ञान तो है लेकिन अर्जुन इस परंपरा से प्राप्त धर्मज्ञान के बारे में जानकारी नहीं रखता है। वो जिस धर्म को समझ रहा है वो परंपरा के लुप्त होने से दूषित हो चुकी कोई और धर्मज्ञान परंपरा है।

इसलिए श्रीकृष्ण अर्जुन को उसी अविनाशी योग का ज्ञान पुनः देने जा रहे हैं जो अर्जुन और श्रीकृष्ण के आदि पूर्वज आदित्य ( सूर्य ) ने प्रारंभ की थी। इसके अलावा श्रीकृष्ण ये भी कहते हैं कि मैंने इस अविनाशी ज्ञान को सबसे पहले सूर्य ( आदित्य) को सुनाया था। इस बात के जरिए श्रीकृष्ण अर्जुन को ये भी बता रहे हैं कि भले ही वो मानव शरीर रुप में इक्ष्वाकु की वंश परंपरा से आते हों लेकिन चैतन्य रुप से वो विष्णु को अवतार है ।

ज्ञातव्य है कि वेद का ज्ञान विष्णु ने अपने हयग्रीव अवतार में ही ब्रह्मा को दिया था जिसे ब्रह्मा ने आदित्य (सूर्य ) को भी दिया था। इस प्रकार इस श्लोक में श्रीकृष्ण खुद को विष्णु का अवतार भी घोषित करते हैं और साथ ही वो स्वयं और अर्जुन को वंशपरंपरा से आदित्य संप्रदाय के उस अविनाशी ज्ञान का अधिकारी भी घोषित करते हैं, जो समय के साथ लुप्तप्राय हो गई थी। इस प्रकार श्रीकृष्ण एक साथ दो बातें स्थापित करते हैं। पहली ये कि वो स्वयं विष्णु के अवतार हैं और उन्होंने ही अपने हयग्रीव अवतार के समय इस अविनाशी योग की परंपरा का सूत्रपात किया था। दूसरे, अपने ही द्वारा स्थापित इस आदित्य संप्रदाय की परंपरा के लुप्त हो जाने पर धर्म की फिर से स्थापना के लिए , श्रीकृष्ण के रुप में इसी वंश परंपरा में जन्म लेकर इस अविनाशी योग को फिर से स्थापित करने जा रहे हैं।

श्रीमद्भगवद्गीता में अविनाशी योग की संकल्पना

श्रीकृष्ण अर्जुन को जिस अविनाशी योग से परिचित कराते हैं, वही गीता का ज्ञान है । भगवान इस गीता के ज्ञान का अवतरण अध्याय 2( Chapter2) के श्लोक 11 से प्रारंभ कर देते हैं । इसीलिए कई महान ज्ञानियों और योगियों ने गीता का प्रारंभ इसी श्लोक से किया है –

श्री भगवानुवाच

अशोच्यानन्वशोचस्त्वं प्रज्ञावादांश्च भाषसे ।
गतासूनगतासूंश्च नानुशोचन्ति पण्डिताः ॥2.11॥
asocyananvasocastvan prajnavadaasca bhasase.
gatasunagatasunsca nanusocanti panditah৷৷2.11৷৷

अर्थः- भगवान बोले – “जिसके लिए शोक नहीं करना चाहिए उसके लिए तू शोक कर रहा है और प्रज्ञा अर्थात विवेक से युक्त बातें भी तुम कर रहे हो। लेकिन पंडित लोग ‘गतासु’ ( अर्थात मरणशील) और ‘अगतासु’( अर्थात अविनाशी) के लिए शोक नहीं करते ।”

व्याख्याः- अध्याय 2( Chapter 2) के श्लोक 11 से लेकर श्लोक 30 तक भगवान ने जो भी ज्ञान दिया है वो गीता से सबसे महत्वपूर्ण और रहस्यमय ज्ञान चर्चाओं में एक है । इन्हीं श्लोकों के अर्थों में कई ऐसे विपरीत विचारों का जन्म हुआ है, जिन्होंने कई संप्रदायों और मतों को जन्म दिया है। पश्चिमी दर्शन शास्त्र के ज्ञानियों ने भी इन श्लोकों की ऐसी कई व्याख्याएं की हैं, जिनसे भ्रम उत्पन्न हो गया है।

ज्यादातर महान विचारकों का मानना है कि भगवान यहां ‘गतासु’ अर्थात मरणशील व्यक्तियों और ‘अगतासु’ अर्थात अविनाशी आत्मा का वर्णन कर रहे हैं। यहां मरणशील के लिए ‘गतासु’ और अविनाशी के लिए ‘अगतासु’ शब्दों का इस्तेमाल किया गया है ।मरणशील के लिए ‘गतासु’ शब्द का इस्तेमाल क्यों किया गया है ? इस विचार के पीछे भी एक तर्क हो सकता है । इस संसार को ‘जगत’ कहते हैं। ‘जगत’ का अर्थ है ‘जिसमें गति हो।‘ पृथ्वी गतिशील है । हमारी पृथ्वी हमेशा अपनी धुरी पर गतिमान रहती है। जब हम कहते है कि किसी व्यक्ति के प्राण पखेरु उड़ गए और वो परमगति को प्राप्त कर गया तो इसके पीछे भी एक विज्ञान है ।

श्रीमद्भगवद्गीता और विज्ञान

विज्ञान के अनुसार किसी वस्तु को अगर 9.11 किमी./सेकेंड की रफ्तार से पृथ्वी से आकाश की तरफ फेंका जाए तो वो गुरुत्वाकर्षण शक्ति की सीमा को पार कर अंतरिक्ष में चली जाती है । इस गति को ही ‘परमगति’ या ‘इस्केप वेलोसिटी’(Escape Velocity) कहा गया है । इस गति को पार करने के बाद कोई भी वस्तु पृथ्वी पर वापस नहीं लौटती और वो अंतरिक्ष में ही रह जाती है ।

 सेटेलाइट इत्यादि को इसी गति से हमारे वायुमंडल के पार अंतरिक्ष में भेजा जाता है । ‘जगत’ (अर्थात जिसकी गति हो) से पार जाने के लिए ‘परमगति’ की आवश्यकता होती है । ‘गतासु’ अर्थात जो उस गति को प्राप्त कर गया हो। यानि वो इस संसार के पार अंतरिक्ष या किसी अन्य लोक ( स्वर्ग, नरक, वैकुंठ) चला गया हो । इस अर्थ में ही मरणशील के लिए ‘गतासु’ शब्द का प्रयोग किया गया है ।

 वो जो इस गति को प्राप्त कर गया हो और जो इस गति को प्राप्त करेगा वो इस शरीर का त्याग करके ही पा सकता है। इस शरीर के साथ हम पृथ्वी के बाहर नहीं जा सकते ( सिवाय अंतरिक्ष यात्रियों के लिए बनी पोशाक को पहन कर)। जैसे ही हम इस परमगति को प्राप्त करते हैं , इस गति को हमारा शरीर झेल नहीं पाता और हमारी मृत्यु हो जाती है ।

 इसलिए मरणशील के लिए  ‘परमगति’ या ‘गतासु’ का प्रयोग किया गया है। प्रश्न उठता है कि जब शरीर यहीं पृथ्वी पर रह जाता है, तो आखिर अंतरिक्ष या स्वर्ग या नरक में क्या जाता है? क्या वो आत्मा ही है या कोई ऐसा तत्व है जो अविनाशी है? क्या श्रीकृष्ण उसी अविनाशी तत्व को ‘अगतासु’ कह रहे हैं? अगर वो आत्मा है तो इसकी व्याख्या सरल है । लेकिन भगवान आगे के श्लोकों में भी इस अविनाशी तत्व के लिए ‘आत्मा’ शब्द का इस्तेमाल क्यों नहीं कर रहे हैं यह एक रहस्य है।

 लेकिन ज्यादातर महान विद्वानों ने ‘गतासु’ का अर्थ ‘मरणशील व्यक्तियों’ और ‘अगतासु’ का अर्थ ‘अविनाशी आत्मा’ के रुप में ही किया है,  जिसका समर्थन वो आगे के श्लोकों से करते है(गीता अध्याय 2.18. ,2.19,.2.20, 2.21), जहां यह दावा किया गया है कि भगवान आत्मा के अजर और अमर होने की व्याख्या कर रहे हैं।

 इन सभी का कहना है कि भगवान अर्जुन को यही कह रहे हैं कि ”भीष्म, द्रोण आदि शरीर रुप में मरणशील हैं और आत्मा के रुप में अविनाशी हैं। इस लिए शरीर के लिए शोक करना अनुचित है और पंडितजन उसके लिए शोक नहीं करते क्योंकि वो जानते हैं कि आत्मा अविनाशी है।”

श्रीमद्भगवद्गीता और आत्मा का सिद्धांत

लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि भगवान ने कहीं भी ‘आत्मा’ शब्द का जिक्र तक नहीं किया है। क्या भगवान की अभिव्यक्ति इतनी दुर्बल हो सकती है कि वो गीता के अध्याय 2( Chapter 2) के श्लोक 16 से 30 तक के सारे श्लोकों में आत्मा शब्द डाल पाने में अक्षम रहे हों ? बिलकुल नहीं। भगवान सर्वशक्तिमान हैं और किसी भी विचार को पूर्णरुप से अभिव्यक्त करने में सक्षम हैं। इसका अर्थ यही है कि भगवान ने संभवतः इन श्लोकों में ‘आत्मा’ की जगह किसी और तत्व की बात कर रहे हैं।

 आखिर इन श्लोकों में जब ‘आत्मा’ शब्द का जिक्र भी नहीं है तो फिर आत्मा के शरीर बदलने और उसके अजर- अमर होने की बात कहां से आई ? क्या श्रीमद्भगवद्गीता के इन श्लोकों में आत्मा के अजर- अमर होने के विचार कोकहीं और से आयातित कर डाला गया? क्या आत्मा के अजर-अमर होने का विचार श्रीमद्भगवद्गीता का मूल विचार नहीं है? क्या श्रीमद्भगवद्गीता के महान दर्शन के साथ कोई छेड़छाड़ की गई है ताकि किसी और पंथ, मत या धर्म के विचारों को श्रीमद्भगवद्गीता में डाल कर अपने विचारों को प्रचारित कर दिया जाए? ये एक शोध का विषय है।

कई महान पंडितों और ज्ञानियों का कहना है कि भगवान इस श्लोक में अर्जुन को यह कह रहे हैं कि” जिन भीष्म पितामह , गुरु द्रोण और धृतराष्ट्र के पुत्रों की संभावित मृत्यु को लेकर तुम शोक प्रगट कर रहे हो वो तो मरणशील हैं और आज नहीं तो कल मृत्यु को प्राप्त होंगे । सो इनके लिए ज्ञानी जन शोक नहीं प्रगट करते क्योंकि इन शरीरों के अंदर जो अविनाशी आत्मा है वो तो अजर अमर है ।”

 जो आत्मा अजर और अमर है उसके लिए शोक करने की आवश्यकता ही क्या है ? यही अज्ञान है कि हम शरीर को ही आत्मा मान लेते हैं। हमें शरीर के मरने का शोक होता है और इसी शोक और मोह की वजह से हम भ्रमित हो जाते हैं। लेकिन अगर हम इस श्लोक से आत्मा का आशय न लें और सिर्फ मरणशील या क्षय होने वाले तत्वों(गतासु) और अविनाशी तत्व(अगतासु) के रुप में ही लें तो इसका अर्थ पूरी तरह से बदल जाता है ।

सबसे पहले हम देखते हैं कि अर्जुन किन वजहों से भ्रमित और मोहित है। अर्जुन को लगता है कि अपने परिवार को मार कर उसे जो राज्य या स्वर्ग का सुख मिलेगा वो बेकार है। अर्जुन को भी पता है कि ये सुख स्थाई नहीं है, लेकिन फिर भी उसके लिए शोक कर रहा है ।भगवान उसे कहते हैं कि “तुम अस्थाई सुख के लिए भले ही उत्सुक नहीं हो, लेकिन तुम अस्थाई लोगों के लिए ही शोक कर रहे हो।” भगवान कहते हैं कि “अस्थाई सुख चाहे वो राज्य की प्राप्ति हो, स्वर्ग की प्राप्ति हो या फिर वीरता ,इन सुखों को भोगने में कोई बुराई नहीं है । युद्ध में विजय के बाद राज्य का सुख भोग लो और अगर युद्ध में मारे गए तब भी स्वर्ग के अस्थाई सुख को भी भोग सकने की संभावना है ।”

 अर्जुन को राज्य या स्वर्ग के सुख भोगने को लेकर शोक है, क्योंकि दूसरे अस्थाई सुख ( भीष्म और द्रोण के साहचर्य सुख )को वो युद्ध के बाद भोग नहीं पाएगा। अर्जुन के इस सेलेक्टिव अप्रोच को लेकर भगवान उसे समझाते हुए कहते हैं,” तुम शोक न करने वाले (अर्थात भीष्म और द्रोण आदि) लोगों जिन्हें आज नहीं तो कल मरना ही है , उनके लिए शोक कर रहे हो, जबकि उनका जीवन भी अस्थाई ही है।

इन क्षयशील शरीरधारी लोगों के लिए तुम राज्य तथा स्वर्ग के सुख को ठुकरा रहे हो। भले ही राज्य और स्वर्ग के सुख भी अस्थाई हों लेकिन वह तुम्हें अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करने के बाद जरुर प्राप्त होगा।” भगवान अर्जुन को कह रहे हैं कि एक अस्थाई सुख को लिए तुम दूसरे अस्थाई सुख को मत ठुकराओ।

भगवान अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि “अगर तुम्हें दोनों ही अस्थाई स्थितियों को चुनने से परहेज है तो मैं तुम्हें अविनाशी सत् ( Eternal essence of the Universe) के बारे में बताता हूं ।” इस सत् ( Eternal Essence of the Universe)  के बारे में बताते हुए भगवान कहते हैं कि “जिनकी संभावित मृत्यु के बारे में तुम चिंतित हो, वो आज से पहले और बाद में भी किसी न किसी रुप में इस ब्रह्मांड में मौजूद रहे हैं और भविष्य में भी ये मौजूद रहेंगे”।

न त्वेवाहं जातु नासं न त्वं नेमे जनाधिपाः ।
न चैव न भविष्यामः सर्वे वयमतः परम् ॥2.12॥
na tvevahan jatu nasan na tvan neme janadhipah ।
na caiva na bhavisyamaḥ sarve vayamataḥ param৷৷2.12৷৷

अर्थः- “किसी काल में ( अर्थात पहले कभी)  मैं नहीं था, तू नहीं था अथवा ये राजा लोग नहीं थे ,ऐसी बात नहीं है और इसके आगे भी हम सभी नहीं रहेंगे ऐसी बात भी नहीं है।”

व्याख्याः- विज्ञान और अध्यात्म प्रारंभ से ही ब्रह्मांड के निर्माण की उस एक ईकाई की तलाश में अनुसंधान करते रहे हैं, जिससे सारे ब्रह्मांड का निर्माण हुआ है । विज्ञान हमेशा ही यहअनुसंधान करता रहा है कि ब्रह्मांड के निर्माण की ईकाई या तो ऊर्जा है या फिर कोई ऐसा कण जो अविभाज्य हो। डॉल्टन के अणु सिद्धांत के अनुसार यह ब्रह्मांड एक ऐसे कण से बना है जिसे फिर से विभाजित नहीं किया जा सके ।

श्रीमद्भगवद्गीता में उर्जा का सिद्धांत

जब हम किसी पदार्थ  को विभाजित करते हैं तो हम उस आखिरी ईकाई की तलाश करते हैं जिससे उस पदार्थ का निर्माण हुआ है। प्रारंभ में अणु को पदार्थ की आखिरी ईकाई माना जाता था। इसके बाद जब इसे भी विभाजित करने में सफलता हासिल हुई तो आखिरी ईकाई परमाणु को माना गया । ऐसा माना जाने लगा कि परमाणु इलेक्ट्रॉन, प्रोटोन और न्यूट्रॉन से मिल कर बने हैं । लेकिन जब इन्हें भी विभाजित किया गया तो इनसे अनंत उर्जा निकली इसके बाद विवाद इस बात पर हो गया कि पदार्थ(Matter) ब्रह्मांड की मूल इकाई हैं या फिर ऊर्जा (Energy) ?

रुडॉल्फ क्लासियस (Rudolf Clausius) ने ऊर्जा का प्रथम सिद्धांत ( The First Law of Thermodynamics) दिया । इस सिद्धांत के अनुसार ‘ऊर्जा का न तो निर्माण किया जा सकता है और न ही इसे नष्ट किया जा सकता है । ऊर्जा का केवल रुपांतरण हो सकता है।‘

संभवतः भगवान इसी ओर इशारा कर रहे हैं कि “जिन भीष्म और द्रोण के जीवन को तुम अस्थाई मान रहे हो वो तो बस वर्तमान में इनका शारीरिक और पदार्थ स्वरुप है। न तो मैं और न ही तुम और न ही ये राजा लोग सिर्फ इसी पदार्थ शरीर के रुप में आज हैं, बल्कि ऊर्जा के रुप में  इसी ब्रह्मांड में सनातन काल से विद्यमान हैं।”

अलग – अलग काल में यही ऊर्जा पदार्थ का रुप धारण कर लेती है और यही पदार्थ हमें शरीर या वस्तु के रुप में नज़र आता है । ऊर्जा सनातन है और इसका बस रुपांतरण होता रहता है। भगवान इसी बात को एक अन्य श्लोक में भी कहते हैं

अव्यक्तादीनि भूतानि व्यक्तमध्यानि भारत ।
अव्यक्तनिधनान्येव तत्र का परिदेवना ॥2.28॥
avyaktādīni bhūtāni vyaktamadhyāni bhārata.
avyaktanidhanānyēva tatra kā paridēvanā৷৷2.28৷৷

अर्थः- “सभी प्राणी और पदार्थ प्रारंभ में अवय्क्त थे और बाद में भी अव्यक्त हो जाएंगे। केवल कुछ समय के लिए मध्य में व्यक्त होते हैं । इस क्षणिक व्यक्त और प्रगट स्थिति के लिए क्यों शोक कर रहे हो?”

व्याख्याः- एक कथा है कि किसी संत ने स्वयं से पूछा कि “मैं कौन हूं और कहां से आया? “तो उनके अंदर से आवाज़ आई “तू अपने माता के गर्भ से आया।” इसके बाद संत ने फिर से प्रश्न पूछा कि “मैं माता के गर्भ में कहां से आया?” तो अवचेतन जगत से आवाज़ आई कि ”तू अपने पिता के वीर्य से आया।” इसके बाद संत ने फिर प्रश्न किया कि “मैं अपने पिता के वीर्य में कहां से आया?” तो प्रश्न का जवाब मिला कि” तू पंचतत्वों (Five basic elements) से बन कर अपने पिता के वीर्य में आया।” फिर संत ने प्रश्न किया कि “मैं पंचतत्वों में कैसे आया ?” तो प्रश्न का जवाब मिला कि “तू शून्य से आया ।”

प्रश्न यही है कि जब हम माता के गर्भ में आते हैं तो उसके पहले हम कहां थे और मृत्यु के बाद कहां चले जाते हैं? तो इसका जवाब यही है कि हम उर्जा के रुप में पहले भी थे और उर्जा के रुप में ही मृत्यु के बाद भी रुपांतरित हो जाते हैं। केवल प्रगट और जीवन के रुप में हम पदार्थ या शरीर के रुप में दिखते हैं।

भगवान अर्जुन को यही बता रहे हैं कि “हम सभी पहले भी मौजूद थे, लेकिन किसी और रुप में मौजूद थे,आज हम कृष्ण, अर्जुन, भीष्म और द्रोण के रुप में हैं, और मृत्यु के बाद ऊर्जा के रुप में या किसी अन्य शरीर के रुप में फिर से प्रगट हो जाएंगे । लेकिन जो ऊर्जा हमें प्रगट करती है, वो सनातन है । वह ऊर्जा अविनाशी है।”

देहिनोऽस्मिन्यथा देहे कौमारं यौवनं जरा ।
तथा देहान्तरप्राप्तिर्धीरस्तत्र न मुह्यति ॥2.13॥
dēhinō.sminyathā dēhē kaumāraṅ yauvanaṅ jarā.
dēhāntaraprāptirdhīrastatra na muhyati৷৷2.13৷৷

अर्थः- “देहधारी (अर्थात जिसने यह शरीर धारण किया है) को इस शरीर में जैसे कुमारावस्था, यौवन और बुढ़ापे की प्राप्ति होती है , वैसे ही देहान्तर ( मृत्यु के बाद किसी अन्य स्वरुप अथवा उर्जा के रुप में रुपांतरित होना) की भी प्राप्ति होती है ।”

व्याख्याः- भगवान अर्जुन को बता रहे हैं कि उर्जा या एनर्जी का यह रुपांतरण ठीक वैसे ही होता है जैसे शरीर बचपन, जवानी और बुढ़ापे में रुपांतरित होता है। शरीर की अलग – अलग अवस्थाओं का यह परिवर्तन हमारे शरीर में ऊर्जा के रुपांतरण की वजह से ही होता है। मृत्यु के बाद यह ऊर्जा किसी अन्य शरीर या फिर किसी अन्य ऊर्जा स्वरुप में बदल जाती है। यह किसी अन्य देह के रुप में भी हो सकती है।

श्रीमद्भगवद्गीता और अल्बर्ट आईंस्टीन का सिद्धांत- E = mc2    

अल्बर्ट आईंस्टीन ने पदार्थ और ऊर्जा के एक दूसरे में रुपांतरण के सिद्धांत को E = mc2      

के गणितीय इक्वेशन के रुप में प्रस्तुत किया । आईंस्टीन के इस सिद्धांत के अनुसार अगर किसी पदार्थ को प्रकाश की गति दे दी जाए तो वो पूर्णतः ऊर्जा के रुप में परिवर्तित हो जाता है और ऊर्जा भी पदार्थ के रुप में परिवर्तित हो सकती है।

जब किसी प्राणी के प्राण चले जाते हैं तो सनातन धर्म में उसे ‘परमगति’ को प्राप्त होना भी कहते हैं। यह संभव है कि जिस ‘परमगति’ की सनातन धर्म बात कहता है वो किसी अवस्था में प्रकाश की गति हो । प्राण जब ‘परमगति’ को प्राप्त कर लेता है तो हमारा स्थूल शरीर मृत हो जाता है और शरीर की की प्राण ऊर्जा किसी अन्य ऊर्जा या सूक्ष्म या कारण शरीर( Cause body) में रुपांतरित हो जाती है।

हालांकि इसी लेख में हमने ‘परमगति’ की तुलना इस्केप वेलोसिटी से भी की है और कहने का प्रयास किया है कि हो सकता है कि जब हमारी मृत्यु हो जाती है तो हमारे अंदर की कोई चीज़ इस्केप वेलोसिटी की गति से अंतरिक्ष में चली जाती हो । तो फिर प्रकाश की गति और इस्केप वेलोसिटी में किसे ‘परमगति’ कहा जाए?

श्रीमद्भगवद्गीता में स्थूल शरीर, सूक्ष्म शरीर और कारण शरीर की व्याख्या



इसका जबाव सनातन धर्म में ही है । ऐसा कहा गया है कि हमारी प्राण ऊर्जा तीन अवस्थाओं में तीन प्रकार के शरीर धारण कर सकती है । प्रथम अवस्था है ‘स्थूल शरीर’( Materialistic Body) की , दूसरी अवस्था है ‘सूक्ष्म शरीर’( Microscopic body) की और तीसरी अवस्था है ‘कारण शरीर’( Cause Body) की। ‘स्थूल शरीर’ को ही सामान्य शरीर कहा जाता है, जिसके अंदर प्राण का वास जब तक रहता है हम जीवित कहे जाते हैं।

लेकिन  प्राण उर्जा जब ‘इस्केप वेलोसिटी’ अर्थात ‘परमगति’ की अवस्था में चली जाती है तो प्राण ऊर्जा हमारे स्थूल शरीर को छोड़ कर एक माइक्रोस्कोपिक शरीर अर्थात सूक्ष्म शरीर को धारण कर लेता है । इस सूक्ष्म शरीर के द्वारा प्राण शरीर से निकल कर पृथ्वी के पार अंतरिक्ष के दूसरे लोकों में चली जाती है और वहीं अपने कर्मों के फलों का भोग करती है।

 स्वर्ग या नरक में हम इसी सूक्ष्म शरीर( Microscopic Body) के जरिए जाते हैं और वहां इसी शरीर के साथ अपने कर्मों का फल भोगते हैं। इसीलिए हमारे पवित्र ग्रंथो में अर्जुन , ययाति , नहुष, आदि के स्वर्ग में जाने और फिर से पृथ्वी पर लौट कर स्थूल शरीर धारण कर लौटने की कथाएं हैं।

तीसरी अवस्था ‘कारण शरीर’( Cause body) की होती है । इस अवस्था में प्राण ऊर्जा उस परमगति को प्राप्त कर लेती है, जिसे हम प्रकाश की गति कह सकते हैं। इस अवस्था में हमारी प्राण ऊर्जा स्थूल और सूक्ष्म शरीर को छोड़ कर सिर्फ उर्जा के रुप में परिवर्तित हो जाती है ।इस अवस्था में प्राण ऊर्जा ब्रह्मांड में सत्( Essence) के रुप में विद्यमान होती है । कालांतर में जब इसके पुण्य रुपी ऊर्जा का क्षय होता है तो वापस यह फिर से सूक्ष्म शरीर धारण करती है। इसके बाद जब फिर से पुण्य रुपी ऊर्जा का क्षय होता है तो वह पृथ्वी पर ऊर्जा रुप से पदार्थ रुप में परिवर्तित होकर स्थूल शरीर धारण कर लेती है।

यह स्पष्ट है कि प्राण ऊर्जा के परमगति को प्राप्त करने की दो अवस्थाएं हैं । अगर प्राण उर्जा इस्केप वेलोसिटी की गति प्राप्त करती है तो स्थूल शरीर से निकल कर सूक्ष्म शरीर धारण करती है और अन्य लोकों में वास करती है। लेकिन जब प्राण ऊर्जा प्रकाश की परमगति को प्राप्त करती है तो वह ऊर्जा रुप में कारण शरीर को प्राप्त करती है।

भगवान संभवतः अर्जुन को यही समझाने का प्रयास कर रहे हैं कि यह शरीर केवल अस्थाई प्रगट स्थिति है । प्राण ऊर्जा पहले भी किसी अन्य शरीर को धारण कर चुकी है और बाद में भी यह किसी अन्य शरीर को धारण कर लेगी । इस लिए इस अस्थाई प्रगट शरीर रुपी ऊर्जा के रुपांतरित हो जाने के लिए शोक करना उचित नहीं है।

मात्रास्पर्शास्तु कौन्तेय शीतोष्णसुखदुःखदाः ।
आगमापायिनोऽनित्यास्तांस्तितिक्षस्व भारत ॥2.14॥
mātrāsparśāstu kauntēya śītōṣṇasukhaduḥkhadāḥ.
āgamāpāyinō.nityāstāṅstitikṣasva bhārata৷৷2.14৷৷

अर्थः- हे कुंतीपुत्र ! ये विषय और इंद्रियों के संयोग, सर्दी- गर्मी रुप सुख दुख देने वाले की उत्पत्ति विनाशशील या अनित्य हैं। हे भारत ! तू इनको सहन कर

व्याख्याः- भौतिक विज्ञान के दो सिद्धांतों के जरिए इस श्लोक और इसके पहले के श्लोक को समझा जा सकता है । भौतिक विज्ञान के ‘सेकेंड लॉ ऑफ थर्मोडायनेमिक्स’ (The Second Law of Thermodynamics) के अनुसार उष्मा या ऊर्जा का प्रवाह किसी वस्तु या पदार्थ में एक ही तरफ होता है । किसी पदार्थ या वस्तु में ऊर्जा (उष्मा) गर्म से ठंडे की तरफ प्रवाहित होती है । यह तब तक होती रहती है जब उस पदार्थ या वस्तु का तापमान पूरी तरह एक समान न हो जाए। इसे इंट्रोपी (Entropy) भी कहते हैं। एक काल विशेष में उष्मा या ऊर्जा के सतत कार्यशीलता की वजह से उस वस्तु या पदार्थ के स्वरुप में परिवर्तन आ जाता है ।

हमारे शरीर में विषयों के प्रति हमारी तृष्णा हमारी इंद्रियों को कार्यों में लगाती है । इससे फलस्वरुप उष्मा का जो प्रवाह होता है, उसकी वजह से हमारे शरीर की अवस्थाओं में धीरे धीरे परिवर्तन होता है । इस परिवर्तन को ही ही हम कुमारावस्था, बुढ़ापा आदि के रुप में देखते हैं।भगवान कहते है कि ये सभी परिवर्तन सतत होते रहते हैं और विनाशशील हैं। हमारे शरीर की कोशिकाओं की जो स्थिति एक सेकेंड पहले की है वो एक सेकेंड बाद एक दम नई हो जाएगी। हम लगातार परिवर्तित होते रहते हैं। इसलिए इस बदलाव को ‘अनित्य’ कहा जाता है ।

 जो अभी हम हैं वो दूसरे ही क्षण बदल जाते हैं क्योंकि हमारे शरीर के अंदर ऊर्जा का प्रवाह नित नए स्वरुपों का निर्माण और विनाश करता रहता है । भगवान, अर्जुन को इस अनित्य दुख और सुख देने वाले उष्मीय या ऊर्जा के प्रवाह को सहन करने के लिए कहते हैं।

रसायन विज्ञान के ऑक्सीडेशन के प्रोसेस से भी इसे समझा जा सकता है । पृथ्वी पर 21 प्रतिशत के करीब ऑक्सीजन है। ऑक्सीजन एक ज्वलनशील तत्व है । ऑक्सीजन हमारी पृथ्वी के सभी पदार्थों को निरंतर जलाता रहता है । इससे उस पदार्थ या वस्तु में लगातार क्षरण होता रहता है ।उदाहरण के लिए जब हम किसी 50 साल पुरानी पुस्तक के पन्नों को देखते हैं तो उसका रंग पीला हो चुका होता है और पुस्तक का पन्ना हमारे हाथ लगाते ही फट जाता है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि वायुमंडल में मौजूद ऑक्सीज़न उसे जलाता रहता है और वो पन्ना कमजोर हो जाता है ।

भगवान अर्जुन को वायुमंडल में हो रही इसी अनित्य प्रक्रिया को समझा रहे हैं। अर्जुन को भगवान कहते हैं कि सर्दी -गर्मी के रुप में सुख  दुख देने वाली ये स्थितियां अनित्य और विनाशशील हैं। हमारे शरीर पर भी ऑक्सीजन इसी प्रकार प्रभाव डालता है । धीरे- धीरे ऑक्सीडेशन की प्रक्रिया से हमारा शरीर कुमारावस्था से वृद्धावस्था के जर्जर स्थिति में पहुंच जाता है। इसलिए भगवान अर्जुन को समझा रहे हैं कि ” इन प्राकृतिक और वैज्ञानिक घटनाओं को तू सहन कर।”

यं हि न व्यथयन्त्येते पुरुषं पुरुषर्षभ ।
समदुःखसुखं धीरं सोऽमृतत्वाय कल्पते ॥2.15॥
yaṅ hi na vyathayantyētē puruṣaṅ puruṣarṣabha.
samaduḥkhasukhaṅ dhīraṅ sō.mṛtatvāya kalpatē৷৷2.15৷৷

अर्थः- “हे पुरुषश्रेष्ठ अर्जुन ! क्योंकि सुख और दुख को समान समझने वाले जिस धीर पुरुष को ये ( विषय और इंद्रियों के संयोग) व्यथित नहीं करते वही अमृतत्व का पात्र होता है।”

व्याख्याः- भगवान इस श्लोक में अर्जुन को यह ज्ञान देते हैं कि जो भी इस प्राकृतिक और वैज्ञानिक घटनाओं को समझता है । यह जानता है कि हमारी इंद्रियों ( कान, नाक , आंख, जिह्वा , त्वचा) और इससे होने वाले संयोगों की अनित्यता को समझ कर धीर या स्थिर हो जाता है, वो अमृत तत्व को जान लेता है ।

यहां अमृत का अर्थ वह पेय नहीं है जिससे कोई अमर हो जाता है । यहां अमृत तत्व का अर्थ वह तत्व या ज्ञान है, जो सनातन है और नित्य है। उसी अमृत रुपी तत्व का ज्ञान प्राप्त करना है। अमृत तत्व यह है कि ऊर्जा और पदार्थ ही एक दूसरे में रुपांतरित होते हैं।  यही सनातन वैज्ञानिक और प्राकृतिक प्रक्रिया है। इसी प्रक्रिया का तत्व ज्ञान अमर और सनातन है बाकि सभी नित्य और विनाशशील प्रक्रियाएं और अवस्थाएं हैं।

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