‘राम राज्य’ अर्थात् राजा श्रीराम के द्वारा अयोध्या में चलाई गई सबसे आदर्श शासन व्यवस्था । भारत में आज भी किसी शासन प्रणाली को ‘राम राज्य’ से बेहतर नहीं माना जाता है। हरेक हिंदू राजा से यही अपेक्षा की जाती थी, कि वो राजा राम की तरह अपने राज्य में ‘राम राज्य’ की स्थापना करे। ‘राम राज्य’ में किसी भी प्रकार का कोई भेदभाव नहीं था। ‘राम राज्य’ में कोई भी दुखी या पीड़ित नहीं था। दुनिया में श्रीराम के आदर्श ‘राम राज्य’ का कोई भी विकल्प कहीं भी नहीं मिलता है।
हालांकि वाल्मीकि रामायण के युद्धकांड और उत्तरकांड में श्रीराम की शासन व्यवस्था का बड़ा सुंदर चित्रण मिलता है। लेकिन ‘राम राज्य’ की संकल्पना सबसे व्यापक रुप में गोस्वामी तुलसीदास जी रचित ‘रामचरितमानस’ में ही नज़र आती है। हिंदू धर्म के महान ग्रंथ ‘रामचरितमानस’ में किसी भी राजा के द्वारा अपने राज को चलाने के लिए जिन सिद्धांतों और उद्देश्यों को रखा गया है, वो अपने आप में अद्भुत है। अयोध्या वापस लौटने के बाद श्रीराम का राजतिलक किया जाता है और इसके बाद श्रीराम अयोध्या में जिस प्रकार राज कार्य चलाते हैं, वो आज भी संसार में उदाहरण के रुप में पेश किया जाता है।
‘राम राज्य’ का वर्णन तुलसीदास ने किया है :
‘राम राज्य’ में किसी भी प्रकार का कोई असंतोष नहीं था और प्रजा सुख पूर्वक जीवन व्यतीत करती थी। गोस्वामी तुलसीदास जी ने ‘रामचरितमानस’ में ‘राम राज्य’ का वर्णन कुछ इस प्रकार किया है-
राम राज बैठे त्रिलोका, हरसित भए गए सब सोका !
बयरु न कर काहू सन कोई, राम प्रताप बिषमता खोई !!
अर्थात : “श्रीराम के राजा बनते ही सभी हर्ष से भर गए और शोक का नाश हो गया। कोई किसी से वैर नही करता और श्रीराम के प्रताप से सभी प्रकार की विषमताओं का नाश हो गया।”
बरनाश्रम निज निज धरम निरत बेद पथ लोग !
चलहिं सदा पावहिं सुखहिं नहीं भय सोक न रोग !!
अर्थात : “सभी अपने-अपने वर्णों के अनुसार धर्म मे निरत होकर वेदों के बताये मार्ग पर चलने लगे और सभी प्रकार के भय, शोक और रोग का अंत हो गया।”
दैहिक दैविक भौतिक तापा, राम काज नहिं कहुहिं ब्यापा।
सब नर करहिं परस्पर प्रीति, चलहिं स्वधर्म निरत श्रुति नीति !!
अर्थात : “राम राज्य” में किसी भी प्रकार के दैहिक , दैविक और भौतिक कष्टों का नामों निशान नहीं रहा । सभी लोग एक दूसरे से प्रेम करने लगे और सभी अपने धर्म का पालन करने लगे।”
‘राम राज्य’ में कोई दुखी नहीं था :
अल्पमृत्यु नहिं कवनिउ पीरा, सब सुंदर सब बिरुज सरीरा !
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना, नहीं कोउ अबुध न लच्छन हीना !!
अर्थात : ” ‘राम राज्य’ में किसी की भी अल्पायु में मृत्यु नहीं होती थी, सभी सुंदर शरीरों वाले और निरोगी हो गए, न कोई दरिद्र रहा और न ही कोई दीन दुखी रहा I यहां तक कोई भी अनपढ़ और बुरे लक्षणों वाला नहीं रहा !”
अबधपुरी बासिन्ह कर सुख संपदा समाज !
सहस सेष नहिं कहिं सकहीं जहं नृप राम विराज !!
अर्थात : “जहां स्वयं प्रभु श्रीराम विराज रहे है, उस अयोध्या के निवासियों की सुख संपत्तियों का वर्णन हजारों शेषनाग भी नहीं कर सकते हैं I”
रमानाथ जहं राजा सो पुर बरनि कि जाई !
अनिमादिक सुख संपदा रहीं अबध सब छाई !!
अर्थात : “जहां साक्षात लक्ष्मीपति ही राजा हों उस अयोध्या नगर का क्या वर्णन किया जा सकता है ? आठो सिद्धियां और सारी सुख-संपत्ति अयोध्या में ही छा गई हैं I”
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‘राम राज्य’ में प्रजा को विरोध का अधिकार था :
श्रीराम ऐसे राजा हैं जो अपनी प्रजा को ये अधिकार भी देते हैं, कि अगर उनसे किसी भी प्रकार की कोई अनीति हो जाए तो प्रजा उनका विरोध भी कर सकती है-
सुनहुं सकल पुरजन मम बानि, कहहुं न कछु ममता उर आनि !
नहीं अनीति नहीं कछु प्रभुताई, सुनहुं करहु जो तुमहि सोहाई !!
सोई सेवक प्रियतम मम सोई, मम अनुसासन माने जोई !
जो अनीति कछु भाषौं भाई, तौ मोहि बरजहुं भय बिसराई !!
अर्थात : “हे मेरी प्रजा ! मेरी बात सुनो! मैं जो कुछ कह रहा हूं ह्रदय में ममता लेकर नहीं कह रहा हूँ।अगर तुम्हें मेरी बात अच्छी लगे तब ही तुम करो। मेरा प्रिय वही है जो मेरी बात मानें और अगर मैं भी कुछ अनीति वाली भाषा बोलूं तो मुझे भी टोक देना।”
श्रीराम जैसा राजा कोई नहीं हुआ :
भगवान श्रीराम ऐसे महान राजा थे जिनका उदाहरण आज भी समस्त सनातन धर्म के अलावा पूरे विश्व में दिया जाता है। ‘राम राज्य’ में राजा अपनी प्रजा को अपनी संतान की तरह मानते थे और अपनी प्रजा को सारे अधिकार दिए थे , जिसके द्वारा प्रजा राजा के कार्यों की विवेचना भी कर सकती थी।