कौन हैं भगवान जगन्नाथ : उड़ीसा के पुरी में स्थित भगवान जगन्नाथ को सनातन धर्म ही नहीं बौद्ध और जैन धर्मों में भी पूजा जाता है । भगवान जगन्नाथ को एक नहीं कई देवताओं का स्वरुप माना जाता है । भगवान जगन्नाथ की सबसे पहली चर्चा यूं तो ऋग्वेद में होती है लेकिन स्पष्ट रुप में उनका नाम पहली बार महाभारत के वन पर्व में आता है जिसमें उन्हें नीलमाधव कहा गया है और उनकी स्थापना राजा इंद्रध्युम्न ने की थी । स्कंद पुराण में भी भगवान जगन्नाथ की कथा है ।
लकड़ी के बनें हैं भगवान जगन्नाथ :
शुद्ध सनातन धर्म के मुताबिक जीव और निर्जीव सभी में ईश्वर का वास होता है । ईश्वर कहीं से भी प्रगट हो सकते हैं। भगवान विष्णु ने अपने भक्त प्रहलाद की रक्षा के लिए खुद को पत्थर के खंबे से प्रगट कर लिया था । भगवान जगन्नाथ का स्वरुप भी लकड़ी से प्रगट होता है । भगवान जगन्नाथ , भाई बलभद्र और माता सुभद्र की मूर्ति को एक खास प्रकार के नीम की लकड़ी से बनाया जाता है । यह परंपरा आदि काल से चली आ रही है । ऐसा माना जाता है कि पहली प्रतिमा स्वयं विश्वकर्मा ने बनाई थी । भगवान जगन्नाथ , बलदेव जी और सुभद्रा जी की मूर्तियों के लिए जिस पेड़ की लकड़ी का चयन किया जाता है वो भी एक खास प्रकार का होता है । जिस पेड़ में सिर्फ चार शाखाएं हों, जिसमें एक सांप का बिल भी हो , चीटिंयों की बांबी और पास में श्मशान भी हो उसी पेड़ को चुना जाता है । इस पेड़ का किसी तिराहे के पास होना भी अति आवश्यक है ।
धरती पर वैकुंठ है जगन्नाथ धाम :
जगन्नाथ पुरी को धरती पर वैकुंठ नगरी की संज्ञा दी जाती है । पुरी को आठ प्रमुख और सबसे पवित्र नगरों में माना जाता है । यहां शकंराचार्य ने भी अपने चार पीठो में एक पीठ का गठन किया था । ऐसा माना जाता है कि भगवान विष्णु यहां प्रतिदिन विराजते हैं ।
कब बना जगन्नाथ मंदिर :
वैसे तो मंदिर का निर्माण कार्य कराने का श्रेय महाभारत काल के राजा इंद्रद्युम्न को जाता है लेकिन व्यवस्थित और ऐतिहासिक रुप से 1112 ई में अनंतवर्मन चोड़गंग को मंदिर निर्माण का श्रेय दिया जाता है लेकिन समय समय पर इसका विस्तार अन्य कुल के राजाओं ने भी किया जिसमें गजपति वंश और सूर्यवंशी राजाओं का खास योगदान था ।
क्यों होती है भाइयों और बहन की पूजा :
भगवान जगन्नाथ के साथ उनके बड़े भाई बलभद्र जी और उनकी बहन सुभद्रा जी की पूजा की जाती है । इन्हीं तीनों की प्रतिमाएं यहां विराजित है । भगवान श्री कृष्ण के साथ न तो राधा जी है और न ही उनकी आठ प्रमुख पत्नियां । लेकिन उनके साथ उनकी बहन सुभद्रा है, इसकी भी कथा है । कहा जाता है कि एक बार जब श्री कृष्ण सपने में राधा जी का नाम बोलने लगें तो उनकी सारी पत्नियों को ये लगा कि श्री कृष्ण आज भी राधा जी को ही प्रेम करते हैं । तब उनकी पत्नियों ने माता रोहिणी से श्री कृष्ण और राधा जी की प्रेम कथा सुनाने का आग्रह किया । माता रोहिणी ने शर्त रखी कि इस कथा को दूसरा कोई भी न सुने । यहां तक कि श्री कृष्ण और बलराम भी न सुन पाएं । इसके लिए रानियों ने सुभद्रा जी को पहरेदार बना कर द्वार पर ही रोक दिया । जब माता रोहिणी श्री कृष्ण और राधा की रासलीला की कथा कह ही रही थीं कि तभी श्री कृष्ण और बलराम आ गए । ऐसे में सुभद्रा जी ने उन्हें द्वार पर ही रोक लिया । अब द्वार पर भी इस कथा की आवाज पहुंच रही थी । इस प्रेम कथा को सुन कर माता सुभद्रा और उनके दोनों भाई कृष्ण और बलराम अपनी सुध बुध खो बैठे । उनकी अवस्था ऐसी हो गई कि उनके हाथ पैर कुछ भी ठीक से नज़र नही आ रहे थे । तभी नारद जी वहां आ गये । उन्होंने श्री कृष्ण, बलराम और बहिन सुभद्रा से आग्रह किया कि वो उसी स्वरुप में स्थापित हो जाएं जिस स्वरुप में वो सुध- बुध खोते वक्त थे । यही स्वरुप भगवान जगन्नाथ , बलराम जी और सुभद्रा जी का है जो पुरी में स्थित है ।
क्यों निकाली जाती है रथयात्रा :
प्रत्येक वर्ष ज्येष्ठ पूर्णिमा के दिन भगवान जगन्नाथ , बलराम जी और सुभद्रा जी को स्नान के लिए मंदिर से बाहर निकाला जाता है । शाही स्नान के बाद उन्हें बुखार हो जाता है । तब उन्हें एक गुप्त कक्ष में पंद्रह दिन के लिए रखा जाता है । जब भगवान की तबियत ठीक हो जाती है तो वो नगर में अपने भक्तों को दर्शन देने के लिए रथ पर निकलते हैं ।इसी उपलक्ष्य में रथयात्रा का उत्सव मनाया जाता है ।
भगवान शिव के भी स्वरुप हैं भगवान जगन्नाथ :
शैव और तांत्रिक मतो में भगवान शिव को ही जगन्नाथ कहा जाता है । शैव मतों के मुताबिक भगवान जगन्नाथ भगवान शिव के भैरव रुप हैं और वो माता विमला के पति हैं । माता विमला को पुरी की अधिष्ठाता देवी कहा जाता है । बलराम जी को भी भगवान शिव का अवतार कहा जाता है और सुभद्रा को देवी दुर्गा का अवतार माना जाता है ।
जगन्नाथ पुरी मंदिर से जुड़े आश्चर्य :
इस मंदिर को धरती पर वैकुँठ कहा जाता है । भगवान जगन्नाथ के मंदिर के शीर्ष पर सुदर्शन चक्र है जिसे मंदिर को चारो तरफ से देखने के बावजूद वो हमेशा सामने की तरफ ही नज़र आता है । इस मंदिर के शीर्ष पर कोई भी पक्षी कभी भी बैठा नहीं देखा जाता है । इस मंदिर का ध्वज हमेशा हवा के विपरीत दिशा में फहराता है । यह मंदिर समुद्र के एक दम पास है लेकिन मंदिर के अंदर समुद्र के लहरों की आवाज़ कभी नहीं आती है जबकि मंदिर से बाहर एक कदम रखने पर भी लहरों की आवाज़ तेज सुनी जाती है । मंदिर की रसोई में प्रसाद बनाने के लिए एक के उपर एक सात मटके रखे जाते हैं और नीचे लकड़ियों से आग जलाई जाती है । आश्चर्य है कि सबसे पहले खाना सबसे उपरी बर्तन में पकता है और सबसे आखिर में निचले बर्तन में पकता है ।
इस मंदिर के शिखर की परछाई कभी नहीं बनती है जो एक वैज्ञानिक तथ्य है ।