ओणम – दो सभ्यताओं और संस्कृतियों का पर्व

शुद्ध सनातन धर्म की सबसे बड़ी विशेषता यही रही है कि इसमें विपरीत विचारों को हमेशा बराबर का स्थान मिला है । ओणम का पर्व भी दो विपरीत संस्कृतियों के मिलन का पर्व है । ओणम केरल राज्य सहित आज विश्व के कई जगहों पर मनाया जाता है । ओणम पर्व दैत्यराज महाबलि के केरल आगमन पर मनाया जाता है ओणम पर्व दैत्यों और देवताओं की संस्कृतियों की संधि का पर्व भी है । 

दैत्यराज बलि को समर्पित है ओणम पर्व

पिछले कई हजार वर्षों से केरल सहित दक्षिण भारत के कई राज्यों में ओणम का यह महान पर्व दैत्यराज बलि के स्वागत में मनाया जाता है । पाताल के चिरंजीवी राजा दैत्य महाबलि प्रत्येक वर्ष दस दिन के लिए अपने राज्य केरल आते हैं। उनके स्वागत के लिए पूरा केरल ओणम का पर्व मनाता है । 

पौराणिक ग्रंथों में ओणम 

ओणम पर्व जिन दैत्यराज महाबलि के आगमन पर मनाया जाता है उनका वर्णन लगभग सभी पौराणिक ग्रंथों और महाभारत में भी आता है । पौराणिक कथा के अनुसार महाबलि दैत्यराज प्रह्लाद के पुत्र हैं। महाबलि दैत्यवंश से आते हैं। उनके पूर्वज हिरण्यकश्यप , हिरण्याक्ष और भक्त शिरोमणि प्रह्लाद थे। 

ऋषि कश्यप और दिति के वंशज हैं महाबलि

पौराणिक कथाओं के अनुसार दैत्य, दानव, देवता , असुर एक ही पिता की संतान हैं। ऋषि कश्यप की चौदह पत्नियों में दो पत्नियां प्रमुख हैं जिनके नाम अदिति और दिति हैं। अदिति के बारह पुत्र हैं जिन्हें आदित्य कहा जाता है । इन आदित्यों में इंद्र, वरुण, विव्सवान( सूर्य ), धाता और विष्णु प्रमुख हैं। 

दिति के पुत्रों में हिरण्यकश्यप ने दैत्य वंश की स्थापना की और दक्षिण भारत में एक विशाल साम्राज्य की स्थापना की । हिरण्यकश्यप का भाई हिरण्याक्ष था । हिरण्यकश्यप का पुत्र प्रह्लाद हुआ जिसके पुत्र महाबलि थे ।

आदित्य विष्णु और दैत्यों की शत्रुता 

अदिति के बारह पुत्रों में इंद्र और विष्णु ने ऋषि कश्यप की अन्य पत्नियों में विशेषकर दिति, खसा और दनु के पुत्रों से संघर्ष किया । इंद्र ने दनु के पुत्र दानवों और असुरों का संहार किया जिसमें वृत्रासुर सबसे प्रमुख था । 

विष्णु ने दिति के दैत्य पुत्रों और खसा के राक्षस वंश के साथ संघर्ष किया। दिति के दैत्य पुत्रों हिरण्याक्ष को मारने के लिए विष्णु ने वाराह अवतार लिया जबकि हिरण्यकश्य को मारने के लिए विष्णु ने नृसिंह अवतार लिया । 

दैत्य भक्त प्रह्लाद 

दैत्यों और विष्णु के बीच प्रह्लाद के वक्त संधि हो गई । प्रह्लाद भगवान विष्णु का भक्त था और उसकी रक्षा के लिए भगवान विष्णु ने नृसिंह अवतार लिया था ताकि वो प्रह्लाद के अत्याचारी पिता हिरण्यकश्यप का वध कर सकें । भगवान विष्णु ने अपने भक्त प्रह्लाद से संधि कर ली और उसे वरदान दिया कि उसके वंशजों का अब वो संहार नहीं करेंगे । 

दैत्यराज महाबलि और भगवान विष्णु 

ओणम पर्व दैत्यराज महाबलि और भगवान विष्णु के वामन अवतार से जुड़ा है । पौराणिक कथा के अनुसार जब दैत्यराज महाबलि ने धर्म के अनुसार आचरण से तीनों लोकों को जीत लिया तब देवताओं ने भगवान विष्णु को उस वचन की याद दिलाई जिसमें उन्होंने दैत्यों के नाश का प्रण लिया था । लेकिन भगवान विष्णु ने दैत्यराज महाबलि को धर्म के अनुसार आचरण करने वाला बता कर उसे मारने से मना कर दिया । 

लेकिन देवताओं ने स्वर्ग की वापसी कराने के लिए विष्णु से आग्रह किया तब भगवान विष्णु ने महाबलि के लिए वामन अवतार धारण किया । महाबलि उन दिनों एक महान यज्ञ कर रहे थे। दैत्यराज महाबलि के उस यज्ञ में विष्णु वामन अवतार लेकर पहुंचें और उन्होंने महाबलि से दान मांगा । 

भगवान वामन से भी जुड़ा है ओणम पर्व 

महाबलि ने दान के फलस्वरुप उन्हें सोना , चांदी, आभूषण, राज्य देने की पेशकश की जिसे भगवान वामन ने ठुकरा दिया और सिर्फ तीन पग भूमि मांगी । महाबलि ने उन्हें तीन पग की भूमि दान में दी । पहले दो पगों में भी भगवान वामन ने तीनों लोकों को जीत लिया । अपना तीसरा पैर उन्होंने महाबलि के आग्रह से उनके सिर पर रख दिया । 

महाबलि का पाताल का राजा बनना 

भगवान विष्णु ने वामन रुप में महाबलि का वध नहीं किया और उन पर प्रसन्न हो गए। भगवान विष्णु ने महाबलि को पाताल का राजा बना दिया और साथ ही चिरंजीवी होने का वरदान भी दे दिया । इसके अलावा महाबलि को वर्ष मे दस दिनों के लिए अपने राज्य केरल मे वापस लौटने की अनुमति दे दी । 

महबलि के दस दिन ओणम के हैं 

भगवान वामन के वरदान के बाद से प्रत्येक वर्ष दस दिनों के लिए दैत्यराज महाबलि अपने राज्य केरल आते हैं और आज भी वहां की जनता भगवान वामन और अपने दैत्य राजा महाबलि की स्वागत के लिए पूरे राज्य और अपने घरों को सजाती है । 

विष्णु ने दैत्यराज महाबलि का वध क्यों नहीं किया ?

पौराणिक ग्रंथों के अनुसार इंद्र ने असुरों के वध का और विष्णु ने दानवों , दैत्य और राक्षसों के वध का प्रण लिया था । इसके पीछे की वजह यह थी कि दानव, असुर , राक्षस और दैत्य वैदिक धर्म का समर्थन नहीं करते थे और उसके विरोधी थे जबकि देवताओं का धर्म वैदिक धर्म रहा है । 

जिस प्रकार देवताओं ने अपनी वैदिक संस्कृति बनाई थी वैसे ही दानवों, दैत्यों, राक्षसों और असुरों की भी अपनी संस्कृति थी ।इन्ही देवताओं, दानवों, दैत्यों, असुरों और राक्षसों की संस्कृतियों का संघर्ष हमेशा होता रहा ।

देवासुर संग्राम- दो संस्कृतियों का संघर्ष

असुरों और सुरों अर्थात देवताओं और असुरों में पहले संघर्ष हुआ। पौराणिक ग्रंथो में इसे देवासुर संग्राम कहा गया है । इस संग्राम में शुरु मे असुरों का पक्ष मजबूत रहता था और देवतागण भारी संख्या में मारे जाते थे। असुरों की तरफ से गुरु शुक्राचार्य थे जिनके पास संजीवनी विद्या थी । इस संजीवनी विद्या से असुर मरने के बाद भी जीवित हो जाते थे। 

समुद्र मंथन और ओणम पर्व 

देवताओं और असुरो के संघर्ष में निर्णायक मोड़ तब आया जब अमृत प्राप्ति के लिए दोनों ने मिल कर समुद्र मंथन किया । लेकिन छल से देवताओं ने असुरों को अमृत से वंचित कर दिया और खुद अमृत पीकर अमर हो गए । अब देवताओं और असुरों के बीच पलड़ा बराबर का हो गया । देवता अमृत पीकर अमर हो गए थे जबकि असुरों के पास संजीवनी विद्या थी । धीरे- धीरे देवताओं ने असुरों की संस्कृति को खत्म कर दिया और यह संघर्ष समाप्त हो गया । इन सभी संघर्षो में देवताओं का नेतृत्व बारह आदित्यों मे प्रमुख इंद्र कर रहे थे । 

राक्षसों की संस्कृति और देवताओं की संस्कृति का संघर्ष

दैत्यों और असुरों की तरह राक्षसों की संस्कृति से भी देवताओं का संघर्ष हुआ। राक्षसों की उत्पत्ति की दो कथाएं प्रचलित हैं । प्रथम कथा के अनुसार राक्षस और यक्ष संस्कृतियां भी देवताओं की तरह ही ऋषि कश्यप से जुड़ी हैं। राक्षस और यक्ष दोनों ऋषि कश्यप की एक अन्य पत्नी खसा की संतान थे । पहले राक्षसों और यक्षो के बीच संघर्ष शुरु हुआ जिसमे देवताओं ने यक्षों का साथ दिया और राक्षसों का संहार विभिन्न देवताओ ने मिल कर या अलग अलग किया । राक्षसों का संहार इंद्र, वरुण, सूर्य , धाता, विष्णु के अलावा देवियों जैसे दुर्गा, काली, लक्ष्मी आदि ने भी किया । 

राक्षसों की संस्कृति, देव संस्कृति और यक्ष संस्कृति के बीच संघर्ष बराबर चलता रहा । एक कथा के अनुसार राक्षस और यक्ष दोनों ही ब्रम्हा के द्वारा उत्पन्न किये गये थे। ब्रम्हा ने राक्षसों को भूमिगत जीवों, जल और पाताल की रक्षा के लिए नियुक्त किया था। जबकि ब्रम्हा जी ने यक्षों को पाताल और भूमि के अंदर रहने वाले लोगों को सुसंस्कृत करने के लिए धार्मिक सामाजिक परंपरा का प्रारंभ करने के लिए सृजित किया था। 

राक्षसों का सृजन

ब्रम्हा ने जिन सबसे पहले दो राक्षसों का सृजन किया था उनका नाम हेति और प्रहेति था प्रहेति ने राक्षस राज्य की नींव डाली । यक्षों ने पौरोहित्य कार्य और पूजन का कार्य ले लिया था । राक्षसों का मुख्य का कार्य रक्षा करना था जबकि यक्षों का कार्य सामाजिक ,धार्मिक विधानों को लागू करवाना था । यह ठीक उसी प्रकार था जैसे वैदिक संस्कृति में ब्राह्म्ण का कार्य सामाजिक और धार्मिक नीतियों को लागू करवाना था और क्षत्रिय का कार्य समाज और धर्म की रक्षा करना था । 

लेकिन जिस प्रकार ब्राह्म्णों और क्षत्रियों के बीच प्रभुत्व का संघर्ष हुआ उसी प्रकार राक्षसों और यक्षों के बीच भी संघर्ष शुरु हुआ । इस संघर्ष की परिणति तब हुई जब राक्षसों में सुमाली को भगवान शिव ने अपने पुत्र का दर्जा दिया और राक्षस जाति को न मारने और उनकी रक्षा का अभयदान दे दिया । सुमाली ने यक्षों को अपने इलाकों से भगा दिया । तब यक्षो ने देवताओं के साथ संधि कर ली और उन्हें देवताओं की कृपा से लंका का राज्य मिल गया । 

विष्णु का राक्षसों की संस्कृति का नाश 

  • जब राक्षसों के राजा सुमाली ने यक्षों के बाद देवताओं पर भी हमला करना शुरु कर दिया तो पहले विष्णु ने स्वयं युद्ध में भाग लेकर सुमाली की सेना को भागने पर मजबूर कर दिया और उसका राज्य छीन लिया । 
  • सुमाली ने मानव संस्कृति के ऋषि विश्रवा को मनाया अपनी पुत्री कैकशी से उनका विवाह कर दिया । कैकशी से रावण, कुंभकर्ण और विभीषण का जन्म हुआ। 
  • रावण का उदय राक्षस संस्कृति की सबसे बड़ी घटना थी । रावण ने पहले यक्षों को पराजित किया और उसके राजा कुबेर को हिमालय में शरण लेने को बाध्य कर लंका छीन ली । इसके बाद रावण ने देवताओं पर भी हमला किया । रावण को मारने के लिए भगवान विष्णु ने श्री राम का अवतार लिया और रावण का वध कर विभीषण को लंका का राज्य दे दिया । विभीषण ने श्री राम की अधीनता स्वीकार कर ली और इस प्रकार राक्षस संस्कृति का भी विलय देव संस्कृति में हो गया । 

देव -दैत्य संघर्ष और ओणम पर्व 

ऋषि कश्यप की दो पत्नियों अदिति और दिति के पुत्रों का संघर्ष ही दो संस्कृतियों का संघर्ष है । दिति के पुत्रों में हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप का वध अदिति के पुत्र विष्णु ने अपने वाराह अवतार और नृसिंह अवतार में कर लिया । प्रह्लाद को विष्णु ने वचन दिया कि अगर दैत्य वैदिक धर्म के पथ पर चलते रहेंगे तो विष्णु दैत्यों का वध नही करेंगे । 

महाबलि और विष्णु की संधि का पर्व ओणम

हालांकि प्रह्लाद और उनके पुत्र महाबलि वैदिक धर्म के अनुसार चलते रहे और उन्होंने दक्षिण भारत विशेषकर केरल मे महान दैत्य संस्कृति बनाई। लेकिन धर्म के अनुसार चलते हए महाबलि ने देवताओं से तीनो लोक छीन लिए। महाबलि ने चूंकि धर्म का पालन किया था सो इस सिद्धांत से भगवान विष्ण महाबलि का वध नहीं कर सकते थे। 

लेकिन देवताओं के हाथ से तीनों लोक निकल चुके थे। ऐसे में विष्णु ने वामन रुप धारण किया और महाबलि के यज्ञ में जाकर तीन पग भूमि का दान मांगा। केरल के महान राजा बलि ने वामन अवतार भगवान विष्णु को तीन पग भूमि दान में दे दी । दो पगों से भगवान विष्णु ने तीनो लोक जीत कर देवताओं को वापस कर दिया और तीसरा पग उन्होंने महाबलि के सिर पर रख कर उन्हें पाताल का राजा बना लिया । 

दैत्यों और देवताओं की संधि 

भगवान विष्णु ने महाबलि से एक संधि की जिसे आप देवताओं और दैत्यों के बीच युद्ध और संघर्ष की समाप्ति की संधि भी मान सकते हैं । इसके तहत भगवान विष्णु ने महाबलि को एक रक्षासूत्र के जरिए बांधा जिसका मंत्र आज भी सभी पुरोहित अपने यजमान को वचनबद्ध करने के लिए करते हैं – 

येन बद्धो बली राजा दानवेन्द्रो महाबल:। तेन त्वामनुबध्नामि रक्षे मा चल मा चल।।

अर्थात – जिस प्रकार विष्णु के द्वारा दानवों के इंद्र राजा महाबलि को बांधा गया था उसी प्रकार मैं भी तुम्हें वचन से बांधता हूं । हे रक्षा सूत्र तुम अचल रहना यानि इस वचन के गवाह के रुप में स्थिर रहना । 

इस संधि के द्वारा दैत्यों के लिए पाताल का राज्य तय कर दिया गया और देवताओं को स्वर्ग मिला और पृथ्वी मानव और अन्य जीवों के लिए आरक्षित कर दी गई । 

राजा महाबलि को भगवान विष्णु ने यह छूट दी कि वो साल में दस दिन के लिए अपने छूटे राज्य को देखने के लिए आ सकते हैं । महाबलि अपनी प्रजा से मिलने के लिए आ सकते हैं। चूंकि भगवान विष्णु के वरदान से दैत्यराज महाबलि अमर हैं और आज भी पाताल में राज करते हैं सो वो अपने राज्य केरल प्रत्येक वर्ष आते हैं और उनके स्वागत में केरल की उनकी प्रजा ओणम का पर्व मनाती है। इस प्रकार ओणम पर्व न केवल फसल की त्योहार और नव वर्ष के शुरु होने का पर्व है बल्कि यह पर्व दैत्यों और देवताओं के बीच हुई संधि का भी पर्व है ।

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