निर्जला एकादशी व्रत – त्याग की पराकाष्ठा का महापर्व

सनातन धर्म में एकादशी व्रत की महिमा सभी वैष्णव ग्रंथों में गायी गई है। विशेषकर निर्जला एकादशी या भीमसेनी एकादशी का महत्व सभी एकादशी व्रतों में सबसे ज्यादा है । निर्जला एकादशी व्रत का सबसे प्रथम उल्लेख महाभारत में मिलता है।

एकादशी व्रत का क्या महत्व है?

मनुष्य हमेशा से द्वंद्वों  में फंसा रहा है । अनादि काल से व्यक्ति सुख-दुख, प्रकाश- अंधकार ,दिन-रात , लोक-परलोक के द्वंदो से जूझता रहा है। सनानत काल से ही मनुष्य की अकांक्षा इन द्वंद्वों से पार जाकर पूर्णता प्राप्त करने की रही है।

 सारे अब्रहामिक धर्म जैसे इस्लाम, ईसाइयत और यहूदी मानव मात्र को अंधकार से प्रकाश की तरफ ले जाने का संदेश देते रहे हैं और अंधकार को बुराई के रुप में देखते रहे हैं वहीं सनातन धर्म अंधकार और  प्रकाश , ज्ञान और अज्ञान, लोक- परलोक दोनों को बराबर का महत्व देता रहा है । एकादशी  का व्रत इसी अपूर्णता और पूर्णता के द्वंद्व से मुक्त कराने का व्रत है।

चंद्रमा की कलाओं से जुड़ा है एकादशी व्रत का संबंध

जहां एक तरफ कई धर्म चंद्रमा को महत्वपूर्ण मान कर अपने व्रतों की गणना करते हैं तो कुछ धर्मों में सूर्य को ज्यादा महत्व दिया गया है । लेकिन हिंदू सनातन धर्म के सर्वोपरि ईश्वरीय स्वरुप विष्णु की वैष्णव परंपरा दोनों को ही बराबर महत्व देती रही है । तभी तो एक तरफ जहां विष्णु प्रकाश के स्वरुप 12 आदित्यों में सर्वोपरि माने गए हैं, वहीं वो रात्रि के अधिपति चंद्रमा की कलाओं में भी अधिष्ठित है।

24 एकादशी का क्या रहस्य है?

 जहां राम सूर्य वंशी हैं वहीं कृष्ण चंद्रवंशी हैं। एकादशी व्रत के द्वारा भगवान विष्णु चंद्र पंरपरा के द्वारा पूर्णता की तरफ ले जाते हैं । एकादशी व्रत प्रत्येक पक्ष अर्थात कृष्ण पक्ष और शुक्ल पक्ष की ग्यारहवीं तिथि पर पड़ता है । इस प्रकाश वर्ष के बारह महीनें में कुल 24 एकादशी पड़ती हैं। श्रीमद्भागवत के अनुसार  भगवान विष्णु के मुख्य अवतारों की संख्या भी 24 ही है । भगवान विष्णु के ये 24 अवतार उनकी खुद की यात्रा की भी कहानी है। कैसे भगवान विष्णु ने 24 अवतार लिये जिसमें कृष्ण 16 कलाओं के साथ पहली बार पूर्ण अवतार के रुप में प्रकट हुए ।

  • कैसे इसके बाद के सारे 8 अवतारों के महावतार माना गया ? एक प्रकार के विष्णु ने भी अपूर्णता से पूर्णता की तरफ की यात्रा की । एकादशी के ये 24 व्रत आपको भी एक सामान्य इंसान से पूर्ण पुरुष बनाने की यात्रा है।
  • एकादशी की रात चाहे वो कृष्ण पक्ष की एकादशी हो या फिर शुक्ल पक्ष की, चंद्रमा का तीन चौथाई भाग ही प्रभाव में आता है। शुक्ल पक्ष में तीन चौथाई भाग प्रकाशित होता है और कृष्ण पक्ष में चंद्रमा का तीन चौथाई भाग अंधकार में रहता है ।
  •  मानव जीवन में भी इसी प्रकार के उतार चढ़ाव होते रहते हैं । कभी जीवन में दुख का अंधकार ज्यादा होता है तो कभी सुख का प्रकाश ज्यादा होता है। इन दोनों अतियों से परे जाने का नाम है एकादशी ।
  •  24 एकादशी व्रतों की पूर्णता मनुष्य को इन दोनों अतियो से परे ले जाती है। जिस प्रकार भगवान विष्णु के 24 अवतार उनके प्रारंभिक स्वरुप से लेकर उनके पूर्ण स्वरुप की यात्रा है उसी प्रकार एकादशी के ये 24 व्रत एक सामान्य मानव के पूर्ण सजग महामानव बनने की यात्रा है।
  •  एकादशी का व्रत मनुष्य को ईश्वर के साथ एकाकार करने का व्रत भी है । जैसे एक और एक ग्यारह होते हैं उसी प्रकार एक ईश्वर और एक भक्त मिलकर 11 की रचना करते हैं। और शायद इसीलिए 11वें दिन भगवान और भक्त के बीच सेतु बनाने के लिए यह व्रत किया जाता है।

निर्जला एकादशी को भीमसेनी एकादशी क्यों कहते हैं?

महाभारत की एक कथा के अनुसार वेदव्यास ने पांडवों को फिर से सत्ता प्राप्त करने के लिए एकादशी का व्रत करने की सलाह दी। वेदव्यास की इस सलाह पर भीमसेन ने उनसे कहा कि वो एक दिन भी उपवास नहीं कर सकते हैं फिर पूरे साल हरेक महीनें में दो बार यानी साल में 24 एकादशी का व्रत वो कैसे कर सकते हैं?

भीमसेन के बारे में ये प्रसिद्ध था कि वो भोजन प्रिय थे और उनका पेट इतना बड़ा था कि उन्हें महाभारत मे कई स्थानों पर वृकोदर यानी बड़ा पेट वाला कहा गया है। भीमसेन एक बार में कई व्यक्तियों का भोजन करते थे ।

भीमसेन की इस समस्या पर वेदव्यास ने उन्हें साल में सिर्फ एक एकादशी करने की सलाह दी । ये एकादशी ज्येष्ठ मास के शुक्ल पक्ष की ग्यारहवीं तिथि को पड़ती  थी। वेदव्यास ने भीमसेन को इस एक दिन बिना जल ग्रहण किये ही उपवास करने की सलाह दी।

वेदव्यास ने कहा कि इस एक निर्जला एकादशी को करने से उन्हे  सारे एकादशी व्रतों का पुण्य लाभ एक बार में ही हो जाएगा।  भीमसेन ने वेदव्यास के कहने पर वर्ष में एक बार ज्येष्ठ शुक्ल पक्ष की एकादशी का व्रत निर्जला यानी बिना पानी पिए करने की परंपरा शुरु की । इसके बाद से ही इस व्रत का नाम भीमसेनी एकादशी भी पड़ा।

एकादशी व्रत की वैज्ञानिकता

विज्ञान ये मानता है कि चंद्रमा  की कलाओं के घटने और बढ़ने का असर पृथ्वी पर रहने वाले सभी प्राणियों और निर्जीव वस्तुओं पर पड़ता है । जब चंद्रमा पृथ्वी के नजदीक आता है तो समुद्र में ज्वार भाटा आता है और समुद्र का जल स्तर बढ़ जाता है । ये घटना पूर्णिमा की रात होती है जब चंद्रमा पृथ्वी के सबसे नजदीक होता है और चंद्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति समुद्र के जल की अपनी ओर खींचती है।

चूँकि मानव शरीर के अंदर भी 90 प्रतिशत अंश जल से ही बना होता है इसलिए चंद्रमा जब पृथ्वी के नज़दीक आता है तो मानव शरीर के अंदर भी एक प्रकार का ज्वार भाटा आता है। विज्ञान कहता है कि पूर्णिमा की रात जब चंद्रमा अपनी पूर्ण कलाओं के साथ उदित होता है तो उस वक्त चंद्रमा  पृथ्वी के सबसे नजदीक होता है और चंद्रमा के गुरुत्वाकर्षण शक्ति की वजह से समुद्र में ज्वार भाटा आता है।

पूर्णिमा की रात ऐसा ही मानव शरीरों के अंदर भी होता है । चंद्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति की वजह से हमारे शरीर के अंदर उपस्थित जल तत्व का प्रवाह तेज हो जाता है और हमारा ब्लड प्रेशर भी आम दिनों से ज्यादा बढ़ जाता है और  इसके अलावा हमारे शरीर का तापमान भी आम दिनों की अपेक्षा ज्यादा बढ़ जाता है।

पूर्णिमा की रात शरीर में बल्ड प्रेशर बढ़ जाने की वजह से ही पूरी दुनिया में पूर्णिमा की रात ही लोगों में मानसिक रुप से विक्षिप्त होने की घटनाएं बढ़ जाती हैं। ये वैज्ञानिक तथ्य है कि पूर्णिमा की रात पागलों का पागलपन भी बढ़ जाता है। इसीलिए अंग्रेजी भाषा में पागल के लिए ल्यूनेटिक शब्द का प्रयोग किया जाता है । ल्यूनेटिक शब्द की उत्पत्ति लूना से हुई है जिसका अर्थ चंद्रमा होता है ।

एकादशी व्रत आमतौर पर पूर्णिमा और अमावस्या से चार दिन पहले होता है । इसलिए सनातन धर्म में इन दोनों दिनों यानि पूर्णिमा और अमावस्या के दौरान मानव शरीर पर कोई बुरा प्रभाव न पड़े इसलिए एकादशी व्रत की संकल्पना रखी गई है।

एकादशी के दिन चावल क्यों नहीं खाना चाहिए?

पूर्णिमा के चार दिन पहले जब एकादशी का व्रत होता है तो आमतौर पर ये मान्यता है कि उस दिन कोई भी ऐसा पदार्थ न खाया जाए जिससे शरीर में रक्तचाप बढ या घट जाए। जैसे चावल खाना एकादशी में वर्जित है।

चावल पानी के संयोग से पकाया जाता है। चावल में फरमंटेशन की प्रतिक्रिया होती है जिससे चावल बहुत ही कम वक्त में नशा उत्पन्न करने वाले तत्वों का सृजन करता है । अगर हम एकादशी के दिन चावल के बने पदार्थों का त्याग करते हैं तो हमारे शरीर के अंदर नशे की मात्रा में कमी आती है और हमारा रक्तचाप सामान्य हो जाता है ।

 जब पूर्णिमा की रात चंद्रमा पृथ्वी के नजदीक आता है तो हमारा शरीर उस गुरुत्वाकर्षण की शक्ति को सहने में कामयाब रहता है और हमारी मानसिक स्थिति भी सामान्य रहती है। अमावस्या के दिन जब चंद्रमा पृथ्वी से बहुत दूर होता है तो उस स्थिति में भी हमारा रक्तचाप कम नहीं होता और चावल से बने पदार्थों के त्याग से हमारा रक्तचाप सामान्य रहता है।

निर्जला एकादशी के दिन पानी क्यों नहीं पीते हैं ?

निर्जला एकादशी ज्येष्ठ मास के शुक्लपक्ष को पड़ती है। ज्येष्ठ मास में सारे वर्ष से ज्यादा गर्मी पड़ती है और शरीर में जल की मात्रा सामान्य से कम होती है। शरीर में जल की मात्रा कम होने की वजह से हमारे शरीर में रक्त का घनत्व बढ़ जाता है जिससे रक्तचाप बढ़ने की संभावना होती है।

चूँकि पूर्णिमा की रात चंद्रमा पृथ्वी से सबसे नजदीक होता है और उस दिन शरीर में रक्तचाप की मात्रा के बढ़ने और लोगों के पागल होने का खतरा ज्यादा होता है, इसलिए पूर्णिमा से चार दिन पहले एकादशी के दिन निर्जला व्रत रख कर एक प्रकार से रक्तचाप के बढ़ने की संभावना के लिए शरीर को पहले से ही तैयार किया जाता है।

चूँकि शरीर चार दिन पहले ही बिना जल के अपने आप को ढाल चूका होता है इसलिए पूर्णिमा की रात जब चंद्रमा की गुरुत्वाकर्षण शक्ति की वजह से हमारे शरीर का रक्तचाप बढ़ता है तो भी हमारा शरीर उस रक्तचाप को नियोजित करने में सफल होता है।

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