सनातन धर्म ही नहीं संसार के कई प्राचीन धर्मों में लिंग और योनि की पूजा की जाती है। कई कबीलाई धर्मों में भी लिंग और योनि की पूजा का प्रचलन है। सनातन हिंदू धर्म में हजारों वर्षों से भगवान शिव के लिंग की पूजा करने का प्रचलन है। लिंग पूजा के अलावा शाक्त मत में योनि पूजा का भी जिक्र आता है।
वर्तमान में कई विद्वानों का ये मानना है कि लिंग का अर्थ चिन्ह या प्रतीक होता है और इसका पुरुष प्रजनन अंग से कोई लेना देना नहीं है। ये विद्वान शिवलिंग का अर्थ शिव के बिना किसी आकार के साकार पिंड से लगाते हैं। इन विद्वानों के अनुसार शिव मंदिरों में पूजित शिवलिंग से सिर्फ शिव की प्रतीक स्वरुप पूजा है।
विद्वानों का आरोप है कि पाश्चात्य विद्वानों और ईसाई धर्म प्रचारको ने हिंदू धर्म को पिछड़ा अँधविश्ववासी दिखाने के लिए ये आरोप लगाया है कि हिंदू लिंगपूजक हैं। वास्तव में सत्य क्या है इसकी जांच हम महाभारत से कर सकते हैं।
हड़प्पा सभ्यता में होती थी लिंग और योनि की पूजा
सिंधु घाटी सभ्यता में कई स्थानों की खुदाई में हजारों लिंगों और योनियों की आकृतियाँ मिली हैं। इनसे ये अंदाजा लगाया जाता रहा है कि हड़प्पा सभ्यता में लिंग और योनि पूजा का प्रचलन था। सिंधु घाटी सभ्यता में मिली पशुपति की मुहर से भी इस बात का अंदाजा लगाया जाता रहा है कि वहाँ शिव के आदिम स्वरुप की पूजा की जाती थी।
बैलों और सांड़ो की मूर्तियों के पाए जाने से भी ये पुष्टि होती है कि वहाँ भगवान शिव के किसी आदिम स्वरुप की पूजा की जाती थी। हिंदू मान्यताओं में भगवान शिव नंदी बैल की सवारी करते हैं और उनका एक नाम वृषभध्वज भी है। आज भी हिंदू सांड़ को देखकर प्रणाम करते हैं और उसे रास्ता दे देते हैं।
महाभारत में है शिवलिंग की पूजा के प्रमाण
महाभारत के अनुशासन पर्व के अध्याय 14 में लिंग और योनि पूजा का अर्थ विस्तार से समझाया गया है और उन्हें शिव और पार्वती से जोड़ा गया है। इस अध्याय के श्लोकों से स्पष्ट होता है कि लिंग से तात्पर्य चिन्ह या प्रतीक नहीं बल्कि प्रजनन अंग ही है ।
प्रत्यक्षं ननु ते सुरेश विदितं संयोगलिंगोद्भवं
त्रैलोक्यं सविकारनिर्गुण गणं ब्रह्मादिरेतोद्भवम ।
यदब्रम्हेंन्द्रहुताशविष्णुसहिता देवाश्च दैत्येश्वरा।
नान्य् कामसहस्त्रकल्पितधियः शंसन्ति ईशात् परम्।।
तं देवं सचराचरस्या जगतो व्याख्यातवेद्योत्तमं
कामार्थी वरयामि संयतमना मोक्षाय सद्यः शिवम् ।।
महाभारत, अनुशासन पर्व, अध्याय 14, श्लोक 229
अर्थात – तुम्हे प्रत्यक्ष विदित है कि ब्रह्मा आदि प्रजापतियों के संकल्प से उत्पन्न हुआ यह बद्ध और मुक्त जीवों से युक्त त्रिभुवन योनि और लिंग से प्रकट हुआ है तथा समस्त कामनाओं से युक्त बुद्धि वाले तथा ब्रह्मा, इंद्र, अग्नि और विष्णु सहित संपूर्ण देवता और दैत्यराज महादेव जी से बढ़कर किसी दूसरे देवता को नहीं बताते हैं, जो संपूर्ण चराचर जगत के लिए वेद विख्यात सर्वोत्तम जानने योग्य तत्व है , उन्ही कल्याण स्वरुप देव भगवान शंकर का कामनापूर्ति के लिए वरण करता हूँ तथा संयतचित्त होकर सद्यःमुक्ति के लिए भी उन्ही की प्रार्थना करता हुँ।
सिर्फ शिव के लिंग की ही पूजा हो सकती है
सनातन हिंदू धर्म में सिर्फ शिव के लिंग और पार्वती की योनि की ही पूजा की जाती है किसी भी दूसरे देवी देवता के योनि और लिंग की पूजा का कोई विधान नहीं है। यही महाभारत के अनुशासन पर्व के अध्याय 14 के श्लोक 231 से भी स्पष्ट होता है-
कस्यान्यस्य सुरैः सर्वैर्लिंगं मुक्तवा महेश्वरम I
अर्च्यतेSर्चितपूर्वं वा ब्रूहि यद्यस्ति ते श्रुतिः II
अर्थात् : भगवान महेश्वर शिव को छोड़कर दूसरे किस देवता के लिंग की पूजा संपूर्ण देवगण करते हैं अथवा क्या पहले कभी उन्होंने किसी दूसरे देवता के लिंग की पूजा की है? यदि सुनने में आया हो तो बताओ।
क्यों सिर्फ शिव के लिंग की पूजा की जाती है?
प्रश्न यही है कि आखिर सिर्फ भगवान शिव के लिंग की ही पूजा क्यों की जाती है भगवान विष्णु या ब्रह्मा के लिंग की पूजा क्यों नहीं की जाती है । इस प्रश्न का जवाब महाभारत के अनुशासन पर्व के अध्याय 14 के श्लोक 233 में छिपा है –
न पद्माङ्का न चक्राङ्का न वज्राङ्का यतः प्रजाः I
लिंगाङंका च भगाङ्का च तस्मानमाहेश्वरी प्रजा II
अर्थात : प्रजाओं के शरीरों में न तो विष्णु के पद्म का चिन्ह है, न विष्णु के चक्र का चिन्ह पाया जाता है और न ही इंद्र के वज्र का चिन्ह मिलता है। सभी प्रजा लिंग और योनि के चिन्ह से युक्त हैं, इसलिए यह सिद्ध है कि संपूर्ण प्रजा माहेश्वरी अर्थात महादेव शिव से ही उत्पन्न हुई है।
शिव ही आदिपुरुष हैं और पार्वती ही जगत की माता हैं
चूंकि सभी नर प्राणियों के शरीर में प्रजनन अंग के रुप में लिंग पाया जाता है और सभी नारियों के शरीर में में प्रजनन अंग के रुप में योनि पाई जाती है इसलिए सभी नर शिव से उत्पन्न हुए हैं और सभी मादाएं पार्वती से उत्पन्न हुई हैं। महाभारत के अनुशासन पर्व के अध्याय 14 के श्लोक 234 से ये बात स्पष्ट हो जाती है-
देव्याः कारणरुपभावजनिताः, सर्वाँ भगाङ्काः स्त्रियौ
लिंगेनापि हरस्य सर्वपुरुषाः प्रत्यक्षचिन्ह्नीकृताः
योSन्यकारणमीश्वरात् प्रवददते, देव्या च यन्नाङ्कितं
त्रैलोक्ये सचराचरे स तु पुमान्, बाह्यो भवेद् दुर्मतिः ।।
अर्थात् : देवी पार्वती के कारणस्वरुप भाव से संसार की समस्त स्त्रियाँ उत्पन्न हुई हैं। इसलिए योनि चिन्ह( स्त्री प्रजनन अंग) से अंकित हैं और भगवान शिव से उत्पन्न होने के कारण सभी पुरुष लिंग( पुरुष प्रजनन अंग) के चिन्ह से अंकित हैं। यह सबको प्रत्यक्ष रुप से दिखता है क्योंकि सभी नर और मादा के प्रजनन अंग लिंग और योनि ही होते हैं। ऐसी दशा में जो शिव और पार्वती के अतिरिक्त किसी और को सृष्टि के निर्माण का कारण समझता है , ऐसा कारण बताने वाला दुर्बुद्धि तीनों लोकों से बाहर किये जाने योग्य है।
इसके बाद के श्लोक में ये कहा गया है कि संसार में जितने भी पुँल्लिंग हैं वह सब शिव स्वरुप हैं और जो भी स्त्रीलिंग हैं वो सभी पार्वती स्वरुप है। शिव और उमा- इन दो शरीरों से ही संपूर्ण चराचर जगत व्याप्त है।
देवी के योनि स्वरुप की पूजा का प्रचलन असम के कामख्या मंदिर में होती है। यह तंत्र साधको के लिए तीर्थ स्थल है । ऐसी मान्यता है कि संसार की सृष्टि कामख्या मंदिर से ही प्रारंभ हुई थी। शिव लिंग की पूजा तो भारत के हरेक नगरों में की जाती हैं।