मकर संक्रांति

मकर संक्रांति: एक राष्ट्रीय पर्व | Makar Sankranti: A National festival !

सनातन धर्म में वैसे तो बहुत सारे त्योहारों और तिथियों का अपना महत्व है, लेकिन मकर संक्रांति एक ऐसा पर्व है, जो संभवतः सनातन धर्म और भारत की राष्ट्रीयता को सबसे बेहतर तरीके से प्रदर्शित करता है।

यह पर्व न केवल भारत की प्राचीन सांस्कृतिक एकता को दिखाता है बल्कि  ये भारत की धार्मिक विविधता में एकता का भी अद्भुत उदाहरण है। संभवतः यह एकमात्र ऐसा पर्व है जो भारत के अलग- अलग इलाकों में अलग अलग वजहों से और अलग अलग नामों से एक ही दिन मनाया जाता है।

मकर संक्रांति को जहाँ बंगाल और बंग्लादेश में ‘पौष संक्रांति’ के पर्व के रुप में मनाया जाता है तो वहीं ये नेपाल ‘माघे संक्रांति’ और असम में ‘माघ बिहू’ के नाम से मनाया जाता है। पंजाब में इसे ‘माघी’ के नाम से मनाया जाता है तो हिमाचल प्रदेश में इसे ‘माघी साजी’ के नाम से मनाया जाता है।

गुजरात में इसे ‘उत्तरायणी’ के नाम से मनाने की प्रथा है तो जम्मू में इसे ‘उतरैण’ या ‘माघी संग्रांद’ के नाम से पुकारा जाता है। हरियाणा में इसे ‘सकरात’ कहते है तो उत्तराखँड में इसे ‘घुघुटी पर्व’ के रुप में मनाए जाने का रिवाज़ है । आंध्र प्रदेश में इसे ‘पेड्डा पंडुगा’ के नाम से पुकारा जाता है तो कर्नाटक में इस पर्व को ‘सुग्गी हब्बा’ कहते हैं। ओड़ीसा में इसे ‘मकर चउला’ कहते हैं तो बिहार में इसे ‘संकरात’ या ‘दही चूड़ा- त्यौहार’ कहते हैं। केरल में यह ‘मकरविलाक्की’ और ‘मकर ज्योति’ पर्व कहते हैं तो तमिलनाडु में ‘थाई पोंगल’ या ‘उझावर तिरुनल’ कहते हैं। त्रिपुरा में भी इसे मनाया जाता है और इसे वहां ‘हंगारी’ कहा जाता है जिसको लेकर अद्भत कथा है । कश्मीर में इसे ‘शिशुर संक्रांत’ कहा जाता है तो मिथिला में इसे ‘तिल संक्रांति’ के पर्व के रुप में मनाया जाता है ।

मकर संक्रांति क्यों इतना महत्वपूर्ण है?

मकर संक्रांति की तिथि- मकर संक्रांति ‘पौष मास’ की ‘द्वादशी तिथि’ को मनाई जाती है, जब सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करते हैं और इसी तिथि से सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण होते हैं ।

हिंदू धर्म में सूर्य दो अयनों में पृथ्वी की परिक्रमा करते हैं  जिसे उत्तरायण और दक्षिणायन कहते हैं। साल के छह महीनें सूर्य उत्तर दिशा की तरफ से पूर्व से पश्चिम की यात्रा करते हैं और साल के छह महीने सूर्य दक्षिण दिशा का मार्ग लेकर पश्चिम की यात्रा करते हैं।

मकर संक्रांति देवताओं के आशीर्वाद का पर्व

हिंदू मान्यताओं के अनुसार हमारे 12 महीनें देवताओं का एक पूरा दिन होता है। हमारे छह महीना देवताओं के लिए एक दिन और छह महीने एक रात्रि होती है। ऐसा माना जाता है कि  पौष मास से लेकर आषाढ़ तक के छह महीने देवताओं का एक दिन होता है जब सूर्य उत्तरायण होते हैं और आषाढ से लेकर पौष के शुरु होने तक का समय देवताओं की रात्रि होती है।

इस प्रकार मकर संकांति का दिन देवताओं के लोक में सूर्योदय होने से ठीक पहले की घड़ी होती है। यानि वहाँ देवतागण नींद से जागने की स्थिति में आ जाते हैं। जैसे ही मकर संक्रांति में सूर्य धनु राशि से मकर राशि में प्रवेश करते हैं देवतागण जाग जाते हैं। इस वजह से भी मकर संक्राति देवताओं के आशीर्वाद पाने की सबसे शुभ घड़ी होती है।

मकर संक्रांति को लेकर सनातन धर्म में अनेक कथाएं और घटनाएं जुड़ी हुई हैं । सनातन ग्रंथों और लोक कथाओं में अलग अलग भारतीय संस्कृतियों में भी कई कथाए मकर संक्रांति के महत्व को बताती हैं।

पिता- पुत्र का त्यौहार है मकर संक्रांति

पहली कथा पिता पुत्र के संबंधों को लेकर है। पौराणिक मान्यताओं के अनुसार शनिदेव सूर्यदेव के पुत्र हैं लेकिन अपनी माता छाया के साथ सूर्य देव के सौतेले व्यवहार से नाराज़ होकर शनिदेव ने अपने पिता को अपना शत्रु मान लिया था। लेकिन पिता तो पिता ही होते हैं । बेटा भले ही अपने पिता से नाराज हो जाए लेकिन पिता का दिल बड़ा होता है।

ज्योतिषिय गणनाओं के अनुसार मकर राशि के स्वामी शनिदेव हैं। मकर संक्रांति के दिन पिता सूर्य अपने पुत्र शनिदेव के घर मकर राशि में प्रवेश करते हैं और पूरे एक महीने तक अपने बेटे के साथ रहते हैं। इसलिए भी मकर संक्रांति का महत्व बढ़ जाता है।

गंगा के अवतरण का पर्व मकर संक्रांति

दूसरी कथा कुछ शापित और पीड़ित आत्माओं से संबंधित है। रामायण और महाभारत के अलावा कई पौराणिक ग्रंथों में राजा सगर के 60 हजार पुत्रों की कथा आती है। यह कथा इस प्रकार है कि राजा सगर ने अश्वमेध का घोड़ा छोड़ा जिसे इंद्र ने चुरा कर पाताल स्थित कपिल मुनि के आश्रम में छिपा दिया। राजा सगर के 60 पुत्रो ने उस घोड़े को खोज़ना शुरु किया और धरती पर खोजने के बाद जब वो घोड़ा नहीं मिला तो उन्होंने धरती को खोदना शुरु कर दिया और पताल तक पहुँच गए। वहाँ उन्होंने कपिल मुनि के आश्रम में घोड़े  को बँधा देखा तो उन्होंने कपिल मुनि पर घोड़े की चोरी का आरोप लगाया ।

 निरपराध कपिल मुनि को ये अपमान सहन नहीं हुआ तो उन्होंने राजा सगर को 60 हजार पुत्रों को भस्म कर दिया।  अपने पुत्रों के भस्म होने का समाचार सुन कर राजा सगर ने अपने पौत्र अंशुमान को कपिल मुनि के पास अश्व को लाने के लिए भेजा । अँशुमान ने कपिल मुनि को प्रसन्न कर लिया और उनसे अश्व वापस ले लिया। अँशुमान की प्रार्थना पर कपिल मुनि ने कहा कि भस्म हुए 60 हज़ार सगर के पुत्रों का उद्धार गंगा जल के तर्पण से ही हो सकता है।

इसके बाद कई पीढ़ियाँ बीत गईं। इक्ष्वाकु कुल में राजा भगीरथ हुए और उन्होंने अपनी तपस्या के द्वारा स्वर्ग में वास करने वाली गंगा को पृथ्वी पर उतारा। गंगा राजा भगीरथ के पीछे पीछे चलीं और उस स्थान तक पहुंची जहाँ राजा सगर के पुत्रों के भस्म बिखरे हुए थे। गंगा के जल से पवित्र होकर राजा सगर के 60 हज़ार पुत्रों को मुक्ति मिली ।

जिस स्थान पर ये घटना हुई थी वो बंगाल का पवित्र तीर्थस्थल गंगासागर है। इसी स्थान पर गंगा समुद्र में भी मिलती है। गंगा ने सगर के भस्म हुए पुत्रों को मकर संक्रांति के दिन ही मुक्ति प्रदान की थी । इसी अवसर की याद में पूरे देश में मकर संक्रांति का पर्व मनाया जाता है।

आत्माओं की मुक्ति का पर्व मकर संक्रांति

मकर संक्रांति और गंगा से जुड़ी एक और कथा पौराणिक ग्रंथों में  मिलती है। एक समय एक राक्षस ने पितरों के देवता अर्यमा को कैद कर लिया था। अयर्मा का कार्य मृत आत्माओं को यमलोक ले जाने का था जहाँ उन मृत आत्माओं के पाप और पुण्य के आधार पर स्वर्ग या नरक मिलता था।

अयर्मा के कैद में होने की वजह से बहुत सारी मृत आत्माएं  भटकने लगीं। माता गंगा से ये दुःख देखा नहीं गया तो उन्होंने भगवान विष्णु से इन आत्माओं को मुक्ति देने की प्रार्थना की । भगवान विष्णु गंगा की प्रार्थना पर उसी पथ पर चलने लगे जिस पथ से राजा भगीरथ गंगा को पृथ्वी पर लाए थे। भगवान विष्णु जैसे-जैसे पृथ्वी पर उतरने लगे उनके मार्ग में सोने की सीढ़ियाँ बनती गईं। भगवान विष्णु इस प्रकार हरिद्वार तक गंगा के साथ पीछे – पीछे आए। भगवान विष्णु ने गंगा जी को वरदान दिया कि जिस मार्ग से मैं तुम्हारे पीछे-पीछे हरिद्वार तक आया हूँ इसी मार्ग से मृत आत्माओं को मुक्ति मिलेगी। मकर संक्रांति के दिन जो भी हरिद्वार में आकर स्नान करेगा उसे मैं वैकुंठ में स्थान दे दूँगा। इसके बाद से मकर संक्रांति के दिन हरिद्वार में भी गंगा स्नान करने की पंरपरा का सूत्रपात हुआ।

नकारात्मक शक्तियों के अंत का पर्व मकर संक्रांति

मकर संक्रांति के दिन से ही संसार में नकारात्मक शक्तियों के अंत की शुरुआत होती है और संसार में सकारात्मक शक्तियों का उत्थान शुरु होता है। इसको लेकर भी पौराणिक आख्यानों में एक कथा है ।

ऐसी मान्यता है कि संसार में दुष्ट असुरों और राक्षसों के अत्याचारों से मुक्त कराने के लिए भगवान विष्णु ने कई राक्षसों और असुरों का संहार किया और उनके कटे मस्तकों को मंदार पर्वत के नीचे दबा दिया। ये घटना मकर संक्रांति के दिन ही हुई थी । अतः मकर संक्रांति को सकारात्मक शक्तियों के उत्थान के दिवस के रुप मे भी मनाया जाता है और इस दिन भगवान विष्णु की विशेष अराधना की जाती है।

यमराज की पूजा का पर्व है मकर संक्रांति

मकर संक्रांति के दिन से ही वर्ष भर किया जाने वाला धर्मराज व्रत भी शुरु होता है। यमराज को ही धर्मराज भी कहा जाता है । कहा जाता है कि जो भी मकर संक्राति की तिथि से धर्मराज कथा को वर्ष भर सुनता है उसे यमलोक में किसी भी प्रकार का कष्ट नहीं होता है।

मकर संक्रांति के अलावा यम द्वितीया ही वो पर्व है जब यमराज की अराधना की जाती है और उनसे लंबी उम्र के लिए प्रार्थना की जाती है। यमराज ही धर्मराज भी कहे जाते हैं और वही हमारे पाप- और पुण्य का हिसाब करते हैं।

भगवान शिव से जुड़ा है पोंगल या मकर संक्रांति पर्व

भगवान शिव का भी मकर संक्रांति पर्व से गहरा संबंध रहा है । पौराणिक आख्यानों में और कुछ क्षेत्रिय संस्कृतियों में भगवान शिव और मकर संक्रांति से उनके संबंध को लेकर कई कथाएं हैं। तमिलनाडू में मकर संक्रांत का यह पर्व पोंगल के नाम से मनाया जाता है। इसको लेकर भी एक विशिष्ट कथा है।

तमिल संगम ग्रंथों के अनुसार के अनुसार एक बार भगवान शिव ने अपने वाहन नंदी को पृथ्वी पर एक संदेश के साथ भेजा। नंदी को तमिल में बसव के नाम से भी जाना जाता है।

भगवान शिव ने नंदी को कहा कि पृथ्वी पर रहने वाले मनुष्यों को जाकर कहो कि वो रोज तेल से स्नान करें और महीने में एक दिन भोजन करें। नंदी जी इस संदेश को भूल गए और उन्होंने पृथ्वी पर जाकर भगवान शिव का संदेश सुनाते हुए कहा कि रोज भोजन करो और महीने में एक दिन तेल से स्नान करो।

भगवान शिव को जब पता चला कि नंदी ने गलत संदेश पृथ्वीवासियों को दे दिया तो उन्हें क्रोध आ गया । भगवान शिव ने नंदी को कहा कि अब तुम पृथ्वी पर ही वास करो और तुम्हारी संताने खेतों में हल चलाने के लिए इस्तेमाल में लाई जाएंगी ताकि मनुष्यों को रोज़ भोजन के लिए अनाज उपलब्ध हो सके।

तमिल मान्यताओं के अनुसार पोंगल पर्व का संबंध इसी कथा से जुड़ा है और ये तीन दिन मनाया जाता है । पहला दिन भोगी पोंगल कहा जाता है और दूसरे दिन सूर्य पोंगल मनाया जाता है और तीसरे दिन मट्टू पोंगल मनाया जाता है।

पहले दिन यानी भोगी पोंगल के दिन तमिल लोग अपने पुराने कपड़ों और वस्तुओं को जलाते हैं और नई शुरुआत करते हैं।अपने घर की छतों पर नीम के पत्ते रखते हैं ताकि बुरी शक्तियों को भगा सकें।

दूसरा दिन सूर्य पोंगल या थाई- पोंगल या फिर सामान्य रुप से पोंगल के नाम से उत्सव मनाया जाता है । इस दिन चावल, दूध और गुड़ को मिलाकर खीर बनाई जाती है और इसे सबसे पहले भगवान सूर्य को अर्पित किया जाता है और उनसे सुख समृद्धि का वर देने की प्रार्थना की जाती है।

तीसरा दिन मट्टू पोंगल के नाम से मनाया जाता है। इस दिन बैलों को सजाया जाता है  और उन्हें किसानों की सहायता करने के लिए धन्यवाद किया जाता है। इस दिन बैलों को खुला घूमने के लिए छोड़ा जाता है।

भगवान शिव और त्रिपुरा की मकर संक्रांति या हंगराई उत्सव

भगवान शिव और मकर संक्रांति से जुड़ी एक अद्भुत कथा भारत के सूदूर उत्तर पूर्व में स्थित राज्य त्रिपुरा में पाई जाती है। त्रिपुरा में कही जाने वाली इस कथा के अनुसार इस संसार की सृष्टि सिमराई या भगवान शिव ने की थी। भगवान शिव ने जब इस संसार को बनाया तो चारों तरफ सिर्फ घास और पानी ही मौजूद था ।

भगवान शिव( सिमराई) ने एक अंडे को उत्पन्न किया जिससे एक पुरुष बाहर निकला। उस पुरुष का नाम हंगराई था । उसने बाहर निकल कर जब देखा कि उसके आसपास कोई और मौजूद नहीं है और चारो तरफ सिर्फ पानी और घास ही है तो वो वापस अंडे में लौट गया ।

भगवान सिमराई( शिव) यह देख कर परेशान हो गये और सृष्टि के विस्तार के लिए उन्होंने एक और अंडे को उत्पन्न किया। इस अंडे से कुछ वक्त बात एक शक्तिशाली पुरुष बाहर निकला । उस पुरुष का नाम सिबराई था। उसने बाहर निकलते ही घोषणा कर दी कि मैं इस संसार का पहला पुरुष हूँ और मुझसे पहले इस संसार में किसी का भी जन्म नहीं हुआ।

पहले अंडे के अंदर छिपे हंगराई को ये जब पता चला तो वो बाहर निकला और उसने सिबराई को अपना परिचय दिया। लेकिन हंगराई ने उसे ये नहीं बताया कि वो सिबराई से पहले उत्पन्न हुआ है। इस प्रकार सालों बीत गए। सिबराई को हमेशा यही लगता था कि वो बड़ा भाई है और हंगराई उसका छोटा भाई है।

जब दोनों बूढ़े हो गए और उम्र में बड़े होने की वजह से हंगराई बीमार पड़ गया तो एक बार फिर भगवान शिव( सिमराई) दोनों के पास आए और उन्होंने सिबराई को बताया कि दरअसल हंगराई ही सबसे पहले उत्पन्न हुआ है। यह सुनकर सिबराई फूट-फूट कर रोने लगा और उसने अपने बड़े भाई हंगराई से माफी मांगी।

हंगराई ने सिबराई को माफ कर दिया और इसके बाद हंगराई की मृत्यु हो गई। भगवान शिव ( सिमराई ) के आदेश पर सिबराई ने अपने बड़े भाई की अस्थियों और उसकी वस्तुओं को नदी में प्रवाहित कर दिया। यह घटना मकर संक्रांति के दिन ही हुई थी इसलिए त्रिपुरा में इस उत्सव को हंगराई उत्सव के रुप में आज भी मनाया जाता है । इस दिन त्रिपुरा के लोग अपने पूर्वजों और मृत व्यक्तियों की वस्तुओं को नदी में बहाते हैं।

अयप्पा और सबरीमाला मंदिर से जुड़ा है मकर संक्रांति पर्व

सूदूर दक्षिण केरल  में मकर संक्रांति को  मकरविलक्कू या मकर ज्योति के नाम से मनाया जाता है और भगवान अयप्पा की विशेष अऱाधना की जाती है। इसको लेकर दक्षिण भारत में एक विशेष कथा है । भगवान अयप्पा को भगवान विष्णु के मोहनी रुप और भगवान शिव के उत्पन्न माना जाता है ।

कहा जाता है कि भस्मासुर राक्षस के भाई महिषासुर ने ब्रह्मा जी से यह वरदान मांगा था कि उसका वध शिव और विष्णु से उत्पन्न पुत्र के द्वारा ही हो सके। जब भस्मासुर को मारने के लिए भगवान विष्णु ने मोहिनी  के रुप में स्त्री शरीर धारण किया तो भगवान शिव उन पर मोहित हो गए और मोहिनी और शिव ने विवाह कर लिया।

 मोहिनी और भगवान शिव के द्वारा जो संतान उत्पन्न हुई उन्हें संसार में भगवान अयप्पा के रुप में जाना जाता है। भगवान अयप्पा को भगवान शिव और विष्णु के भी ज्यादा शक्तिशाली माना जाता है क्योंकि वो शिव और विष्णु दोनों की ही शक्तियों के मेल से बने है। इसीलिए उन्हें हरि और हर( शिव) के मेल से उत्पन्न होने की वजह से हरिहरन भी कहा जाता है।

अययप्पा को जन्म देने के बाद मोहिनी ने उन्हें पंपा नदी के किनारे रख दिया जहाँ पांड्य राजा राजशेखर ने उन्हें देखा तो उन्हें अपना दत्तक पुत्र बना लिया। राजा राजशेखर उस समय तक निःसंतान थे। राजा राजशेखर की पत्नी ने भी अयप्पा का अपने पुत्र की तरह लालन पालन शुरु कर दिया।

कुछ समय के बाद राजा राजशेखर की पत्नी के गर्भ से एक पुत्र का जन्म हुआ। रानी ने अपने पुत्र के मोह में अयप्पा के साथ भेदभाव शुरु कर दिया। रानी को ये डर भी सताने लगा कि कहीं राजा राजशेखर अयप्पा को ही राजा न बना दें ।

 इस डर से रानी ने एक साजिश रची और अपनी बीमारी का ढोंग शुरु कर दिया। रानी से जब अयप्पा ने पूछा कि आपकी तबियत कैसे ठीक हो सकती है? रानी ने कहा कि “जंगल में एक बाघीन रहती है, उसी के दूध से ही मेरी बीमारी ठीक हो सकती है।“ दरअसल जंगल में रहने वाली वो बाघीन एक राक्षसी थी।

लेकिन भगवान अयप्पा ने उस राक्षसी बाघीन को अपने वश में कर लिया और उसी की सवारी करते हुए वो रानी के पास आ गए । यह देखकर रानी समझ गई कि अयप्पा कोई दैवी शक्ति हैं। उन्होंने अयप्पा से माफी मांगी। लेकिन अयप्पा ने तुरंत राजमहल छोड़ने का निर्णय ले लिया और अपने पिता से उनके लिए एक मंदिर बनाने के लिए कहा।

राजा ने सबरीमाला में भगवान अयप्पा के लिए एक भव्य मंदिर का निर्माण किया।  इस मंदिर में भगवान अयप्पा की मूर्ति का निर्माण स्वयं परशुराम जी ने किया था। इस मंदिर का निर्माण और मूर्ति स्थापना का कार्य मकर संक्रांति के दिन ही हुआ था ।

इसी दिन भगवान अयप्पा ने पृथ्वी का त्याग कर दिया और एक ज्योति का रुप धारण कर अपने लोक में चले गए। तभी से सबरीमाला मंदिर में मकर संक्राति के दिन बहुत बड़ा त्यौहार मनाया जाता है और भगवान अयप्पा की विशेष पूजा की जाती है। सबरीमाला के मंदिर में इस दिन दिये जलाए जाते हैं और मकरविलक्कू का पर्व मनाया जाता है।

सिक्ख वीरों के बलिदान का पर्व और मकर संक्रांति

पंजाब में इस पर्व को वैसे ही मनाया जाता है जैसे देश के अन्य हिस्सों में। लेकिन मकर संक्रांति के दिन सिखों के बलिदान को लेकर एक मार्मिक कथा भी है। सन 1705 ईं में मुगलों के खिलाफ लड़ते हुए 40 सिक्खों ने अपना सर्वोच्च बलिदान मुक्तसर के युद्ध में दिया था। मुक्तसर साहिब में उन बलिदानियों की याद में मकर संक्रांति या मेला माघी में आज भी लोग वहाँ के पवित्र सरोवर में स्नान करने के लिए आते हैं।

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