भगवान श्री राम के अनन्य भक्तों में महावीर हनुमान, विभीषण, केवट, शबरी, निषादराज, अंगद, सुग्रीव जैसे असंख्य नाम हैं। लेकिन जो भक्ति महावीर हनुमान जी ने भगवान श्री राम के लिए दिखाई उसका उदाहरण संसार में कहीं भी नहीं मिलता है । महावीर हनुमान जी ने अपने आराध्य श्री राम के लिए जो महान कार्य किए हैं वैसा संसार में शायद ही कोई कर सका । इसके पीछे महावीर हनुमान जी की वीरता और उनकी भक्ति थी ही साथ में भगवान श्री राम का उनके प्रति अखंड विश्वास और प्रेम भी था जिसकी वजह से महावीर हनुमान ने इतने असंभव कार्यों को कर दिखाया ।
शुद्ध सनातन धर्म में भक्त और भगवान के आपसी प्रेम को सबसे ज्यादा महत्व दिया गया है । ईश्वर की भक्ति से ही मोक्ष की प्राप्ति संभव है । श्रीमद् भगवद्गीता सहित सभी महान ग्रंथो में ज्ञान, तपस्या और कर्म से बढ़कर ईश्वर के प्रति समर्पण और भक्ति को उंचा स्थान दिया गया है।
भगवान विष्णु के महान भक्तों में ध्रुव, प्रह्लाद,अजामिल की कथाओं ने हमेशा सामान्य भक्तों को प्रेरणा दी है । भगवान शिव के महान भक्तों मे नंदी, दधिचि, दुर्वासा, अश्वत्थामा, गांधारी, रावण प्रमुख रहे हैं । इसी प्रकार भगवान श्री कृष्ण ने महान भक्तों में सुदामा, अर्जुन, द्रौपदी, युधिष्ठिर, भीष्म जैसे असंख्य नाम हैं ।
श्री राम का हनुमान जी पर अखंड विश्वास :
महावीर हनुमान जी बचपन से ही महावीर थे । वो पवनसुत थे और उन्हें सभी देवताओं ने अवध्य होने का वरदान भी दिया था । महावीर हनुमान जी ज्ञानी थे और सभी शास्त्रों के ज्ञाता भी थे । लेकिन फिर भी उनमें गजब की विनम्रता थी । महावीर हनुमान जी की यही विनम्रता श्री राम के मन को भा गई । श्री राम को अपने भक्त महावीर हनुमान जी पर अखंड विश्वास था । वो जानते थे कि महावीर हनुमान ही उनके इकलौते ऐसे भक्त हैं जो उनके हरेक असंभव कार्यों को करने में सक्षम हैं।
हनुमान और राम की मुलाकात :
वाल्मीकि रामायण के अनुसार श्री राम ने जैसे ही महावीर हनुमान जी को पहली बार देखा थे वो जान गए थे कि वही उनके लिए सारे कार्यों को करने में सक्षम हैं। श्री राम के पास जब पहली बार मगावीर हनुमान जी सुग्रीव का संदेश लेकर जाते हैं तभी उनकी विद्वता और वाक चातुर्य से प्रसन्न होकर श्री राम उन्हें अपना लेते हैं श्री राम महावीर हनुमान जी के ज्ञान और विनम्रता को देख कर लक्ष्मण जी से कहते हैं –
एवम् विधो यस्य दूतों न भवेत् पार्थिवस्य तु ।
सिद्ध्यन्ति हि कथम तस्य कार्याणाम् गतयोSनघ ।।
वाल्मीकि रामायण, किष्किंधाकांड
अर्थात – हे लक्ष्मण अगर किसी राजा के पास हनुमान जैसा दूत न हो तो वो कैसे आपने कार्यों और साधनों को पूरा कर पाएगा ?
एवम् गुण गणैर् युक्ता यस्य स्युः कार्य साधकाः ।
स्य सिद्ध्यन्ति सर्वेSर्था दूत वाक्य प्रचोदिताः ।।
वाल्मीकि रामायण, किष्किंधाकांड
अर्थात – हे लक्ष्मण एक राजा के पास हनुमान जैसा दूत होना चाहिए जो अपने गुणों से सारे कार्य कर सके। ऐसे दूत के शब्दों से किसी भी राजा के सारे कार्य सफलता पूर्वक पूरे हो सकते हैं ।
इस घटना के बाद महावीर हनुमान जी को श्री राम ने अपने सारे महान कार्यों में सहयोगी बना लिया । महावीर हनुमान जी की विनम्रता और ज्ञान की वजह से श्री राम उन्हें सबसे ज्यादा प्रेम करने लगे ।
राम काज करने में सिद्ध :
जब तक माता सीता की खोज में समुद्र के किनारे तक पहुंचे उन्होंने कोई विशेष पराक्रम नहीं दिखाया । इससे पहले वो सुग्रीव और श्री राम की मित्रता कराते हैं और श्री राम किष्किंधाकांड में वालि का वध करते हैं ।
लेकिन इसी दौरान श्रीराम और हनुमान जी का आपसी प्रेम और भी बढ़ता जाता है । श्री राम जानते थे कि सभी वानरों में महावीर हनुमान जी ही माता सीता की खोज करेंगे । इसलिए मर्यादापुरुषोत्तम श्री राम ने सिर्फ उन्हे ही अपनी अंगूठी दी ताकि वो माता सीता को पहचान के रुप में दे सकें ।
जब सभी वानर समुद्र लांघने में असमर्थता व्यक्त कर देते हैं तब जाम्बवंत जी महावीर हनुमान जी को उनकी शक्ति का पहले अहसास कराते हैं –
वीर वानर लोकस्य सर्व शास्त्र विदाम् वर ।
तूष्णीम् एकांतम् आश्रित्य हनुमन् किम् न जल्पसि ।।
अर्थात – जाम्बवंत जी हनुमान जी से कहते हैं कि आप सभी लोकों में सभी वीर और सभी शास्त्रों के ज्ञाता के रुप में प्रसिद्ध हैं । फिर आप यूं इस तरह से एकांत में क्यों बैठे हैं ।
इसके बाद जाम्बवंत जी को उनकी वीरता का अहसास कराते हैं –
हनुमन् हरि राजस्य सुग्रीवस्य समो हि असि |
राम लक्ष्मणयोः च अपि तेजसा च बलेन च || ४-६६-३
अर्थात – हे हनुमान आप वीरता में वानरों के राजा सुग्रीव के समान हैं । आपकी वीरता स्वयं श्री राम और लक्ष्मण के बराबर है ।
रामचरितमानस में तुलसीदास जी ने अवतरण का उद्देश्य भी स्पष्ट किया है –
राम काज लगि तब अवतारा।
सुनतहिं भयउ परबतकारा ।।
अर्थात – महावीर हनुमान जी का जन्म ही राम काज करने के लिए हुआ था ।
इसके बाद महावीर हनुमान जी के पराक्रम और श्री राम भक्ति से उनकी शक्ति के बढ़ने की शुरुआत होती है ।
हनुमान जी की विनम्रता :
भक्ति में विनम्रता का होना अत्यंत आवश्यक है । अक्सर हम कोई कार्य किसी के लिए कर देते हैं तो हमारे मन में यह अहंकार आ जाता है कि ये कार्य मैने किया है लेकिन महावीर हनुमान जी ने इतने असंभव कार्यों को किया लेकिन इसके बाद भी उनमें अहंकार का नामों निशान नहीं था । जब महावीर हनुमान जी माता सीता का पता लगा कर और लंका दहन कर श्री राम के पास लौटते हैं तो सभी उनके पराक्रम की प्रशंसा कर रहे थे । जाम्बवंत जी श्री राम के सामने महावीर हनुमान जी की वीरता की प्रशंसा करते हुए कहते हैं –
नाथ पवसुत कीन्हीं जो करनी ।
सहसहुं मुख न जाई सो बरनी ।।
पवनतनय के चरित सुहाए ।
सुनत कृपानिधि मन अति भाए ।।
श्री राम महावीर हनुमान जी के महान कार्यों को सुन कर प्रसन्न हो जाते हैं। और उनसे पूछते हैं कि कैसे उन्होंने लंका दहन जैसा दुष्कर कार्य कर दिखाया –
कहु कपि रावन पालित लंका ।
केहि बिधि दहेउ दुर्ग अति बंका ।।
लेकिन देखिए महावीर हनुमान जी की विनम्रता वो अपने प्रभु श्रीराम के सामने अपनी प्रशंसा नहीं करते । वो अहंकार रहित हैं और अपने सारे महान कार्यों का श्रेय अपने प्रभु श्री राम की कृपा को दे देते हैं –
प्रभु प्रसन्न जाना हनुमाना । बोला बचन बिगत हनुमाना ।।
साखा मृग के बड़ी मनुसाई । साखा ते साखा पर जाई ।।
नाघि सिंधु हाटकपुर जारा । निसिचर गन बधि बिपिन उजारा ।।
अर्थात- महावीर हनुमान जी अपने श्री राम को प्रसन्न देख कर अपने अभिमान और अहंकार का त्याग कर अपने कार्यों का वर्णन करते हुए कहते हैं कि एक बंदर की क्या विशेषता हो सकती है । वो तो एक पेड़ की शाखा से दूसरी शाखा पर कूदता रहता है । इसी तरह से मैंने समुद्र पार किया और सोने की लंका जलाई। राक्षसों का वध किया और अशोक वाटिका उजाड दी ।
महावीर हनुमान जी अपने कार्यों को बहुत कम कर बताते हैं और इसका भी श्रेय अपने आराध्य श्री राम को देते हैं –
सो सब तव प्रताप रघुराई। नाथ न मोरी कछु प्रभुताई ।
ता कहूं प्रभु कछु अगम नहीं जा पर तुम्ह अनुकूल ।
तव प्रभावं बड़वानलहि जारि सकल खलु तूल ।।
अर्थात – हे प्रभु श्री राम ये सब आपकी प्रभुता का कमाल है मेरी इसमें कोई शक्ति नहीं है । आप जिस पर भी अनुकूल हो जाते हैं उसके लिए कोई भी कार्य असंभव नहीं होता आपके प्रभाव से तुरंत जल जाने वाली रुई भी एक बड़े जंगल को जला सकती है ।
श्री राम अपने भक्त हनुमान जी को कितना प्रेम करते हैं इसकी कोई तुलना नही हो सकती है । वो अपने भक्त के प्रेम में वशीभूत हो जाते हैं और उन्हें अपना भाई, पुत्र सभी कह कर पुकारते हैं ।-
तुम मम प्रिय भरतहि सम भाई ।
जब महावीर हनुमान जी माता सीता का पता लगा कर लौटते हैं तब श्री राम उन्हें अपने गले से लगा लेते हैं और उनके प्रति अपना प्रेम कुछ इस प्रकार प्रगट करते हैं –
सुनु कपि तोहि समान उपकारी । नही कोई सुर नर मुनि तनु धारा ।।
प्रति उपकार करु का तोरा । सनमुख होई न सकत मन मोरा ।।
अर्थात – श्री राम कहते हैं कि हे मेरे हनुमान तुम्हारे समान मेरा कोई उपकार करने वाला न तो संसार में कोई देवता है, न मनुष्य हैं और न कोई तन धारी मुनि हैं। मैं तुम्हारे इस उपकार के बदले क्या दूं । मेरा मन भी तुम्हारे सामने नहीं हो सकता ।
श्री राम अपने भक्त हनुमान जी से कहते हैं कि तुम्हारे इस उपकार का ऋण मैं कभी नहीं चुका सकता –
सुनु सुत तोहि उरिन मैं नाहिं ।
देखएउं करि बिचार मन माहिं ।
लेकिन हनुमान जी अपने आराध्य श्री राम के इन वचनों को सुन कर भी अहंकार में नहीं आते और उल्टे वो अपने प्रभु श्री राम के चरणों में गिर जाते हैं –
सुनि प्रभु बचन बिलोकि मुख गात हरषि हनुमंत ।
चरन परेउ प्रेमुकल त्राहि त्राहि भगवंत ।।
अर्थात – अपने आराध्य श्री राम के इन वचनों को सुन कर हनुमान जी हर्षित होकर अपने प्रभु श्री राम के चरणों को पकड़ लेते हैं ।
महावीर हनुमान जी की यही भक्ति उन्हें प्रभु श्री राम का सबसे प्रिय बना देती है । महावीर हनुमान जी का श्री राम के प्रति प्रेम एकतरफा नहीं था बल्कि श्री राम भी अपने भक्त से असीम प्रेम करते थे ।