वाल्मिकि रामायण और तुलसी रचित रामचरितमानस दोनों में ही हनुमान जी की लंका यात्रा का विशद वर्णन सुंदरकांड में मिलता है। समुद्र को लांघ जाने का असंभव प्रयास सिर्फ महावीर हनुमान जी ही कर सकते थे । जब सभी वानर इस सोच में पड़े थे कि इस महान समुद्र को कैसे पार किया जाए और कौन है जो लंका जा सकता है तब जाम्बवंत ही हनुमान जी को उनकी शक्ति का अहसास कराते हैं और कहते हैं –
वाल्मीकि रामायण में अयोध्या नगरी का वर्णन :
वाल्मीकि अपने रामायण के प्रारंभ में भी अयोध्या की महान नगरी का विस्तार से वर्णन करते हुए कहते हैं –
पवन तनय बल पवन समाना !
बुद्धि विवेक विज्ञान निधाना !!
कवन सो काज कठिन जग माही !
जो नहीं होई तात तुम्ह पाही !!
भावार्थ: जैसे ही हनुमान जी को अपनी शक्ति का अहसास होता है और साथ ही अपने जन्म
का हेतु ज्ञात होता है वो तुरंत पर्वत के समान बड़े हो जाते हैं-
राम काज लगि तव अवतारा
सुनतहिं भयउं पर्बतकारा।।
फिर हनुमान जी पूरे जोश में आ जाते हैं और कहते हैं-
सहित सहाय रावन ही मारी।
आनहूं इहां त्रिकूट उपारी।।
भावार्थ: इसके बाद हनुमान जी वहां पास के एक पर्वत पर चढ जाते हैं और इतनी जोर
से पर्वत को अपने पैरों से दबातें है कि वो पर्वत जमीन के अंदर धंस जाता है-
महान राजाओं ने किया अयोध्या पर शासन :
इसके बाद वाल्मिकी रामायण और रामचरितमानस दोनों ही में हनुमान जी की समुद्र यात्रा का वर्णन लगभग एक सा ही हुआ है। हनुमान जी को रास्ते में मैनाक पर्वत मिलता है। मैनाक हनुमान जी से कुछ देर आराम करने के लिए कहता है जिसे हनुमान जी विनम्रता से ठुकरा देते हैं। इसके बाद देवतागण हनुमान जी की परीक्षा लेने के लिए नागों की माता सुरसा को भेजते हैं। हनुमान जी अपनी चतुराई से सुरसा को भी मात देते हैं। इसके बाद सिंहिका राक्षसी उन्हें उनकी परछाई को पकड़ कर मारने की कोशिश करती है जिसके छल को हनुमान जी पहचान जाते हैं और सिंहिका को मार डालते हैं। इसके बाद हनुमान जी लंका में जब प्रवेश करने की कोशिश करते हैं तो उनका सामना लंकिनि से होता है। लंकिनी उनका रास्ता रोकने की कोशिश करती हैं और हनुमान जी पर हमला कर देती है
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प्रबिसि नगर किजै सब काजा। ह्दय राखि कोसलपुर राजा। गरल सुधा रिपु करहिं मिताई। गोपद सिंधु अनल सुखदाई।।
इसी आशीर्वाद के साथ महावीर हनुमान जी लंका में विधिवत प्रवेश कर जाते हैं।