MahamrityunjayaMantra

महामृत्युंजय मंत्र (Mahamrityunjaya Mantra) स्वास्थ्य, अमरता और वैवाहिक सुख का मंत्र

महामृत्युंजय मंत्र का सनातन धर्म के महामंत्रों में विशेष स्थान रखता है। यह मंत्र ऋग्वेद के सातवें मंडल में पहली बार आता है । शुक्ल यजुर्वेद के रुद्राष्टध्यायी में भी महामृत्युंजय मंत्र से ईश्वर की प्रार्थना की गई है। महामृत्युंजय मंत्र सनातन हिंदू धर्म के सबसे चमत्कारिक मंत्रों में एक माना जाता है ।

किस देवता के लिए है महामृत्युंजय मंत्र ?

आमतौर पर यह माना जाता है कि महामृत्युंजय मंत्र भगवान शिव को समर्पित है । लेकिन सत्य ये है कि ऋग्वेद में भगवान शिव का कोई उल्लेख नहीं आता है। भगवान शिव भी तीन नेत्रों वालें हैं इस लिए अक्सर ये भ्रम हो जाता है कि ये मंत्र भगवान शिव को समर्पित है। लेकिन वास्तविकता ये है कि यह मंत्र भगवान रुद्र को समर्पित है।

भगवान शिव और रुद्र में क्या अंतर है?

ऋग्वेद में भगवान शिव का कोई उल्लेख नहीं है। ऋग्वेद और सामवेद में रुद्र देवता का उल्लेख है। रुद्र को मूंजवंत पर्वत पर रहने वाला कहा गया है। उनके भी तीन नेत्र हैं। वो पिनाक धनुष और खड़ग धारण करते हैं। भगवान शिव कैलाश पर्वत पर वास करते हैं। भगवान शिव के भी तीन नेत्र हैं , लेकिन वो त्रिशूल धारण करते हैं।

भगवान शिव के शरीर का रंग गोरा है और वो कर्पूरगौरं अर्थात कर्पूर की तरह गोरे बताये गये हैं, जबकि रुद्र के शरीर का रंग पिंगल अर्थात पीले रंग का है । भगवान शिव अपने शरीर पर सांप और बिच्छुओं का आभूषण धारण करते हैं, जबकि रुद्र अपने शरीर पर सोने के आभूषण धारण करते हैं। भगवान शिव वृषभ अर्थात नंदी बैल की सवारी करते हैं , जबकि रुद्र रथ पर सवार दिखाए गये हैं।

भगवान शिव की पत्नी का नाम पार्वती है जबकि रुद्र की ग्यारह पत्नियां हैं जिन्हें रुद्राणी कहा जाता है । रुद के ग्यारह स्वरुप हैं जिन्हें एकादश रुद्र कहा जाता है। महाभारत में पहली बार ग्यारह रुद्रों का वर्णन आता है। इसके अलावा पद्मपुराण, हरिवँश पुराण, श्रीमद् भागवत , अग्निपुराण और गरुड़ पुराण में भी एकादश रुद्रों का नाम आता है ।

एकादश रुद्रों में अजैकपाद, अहिर्बुधन्य,विरुपाक्ष, रैवत,हर, बहुरुप, त्रैयम्बकं, सावित्र ,जयंत, पिनाकी और अपराजित हैं। इनमें कुछ नामों में विभिन्नता भी है जैसे कपालि, ईश्वर, स्थाणु, भव, दहन, सर्प, मृगव्याध, नृऋति नाम हैं।

हालांकि रुद्र का कंठ भी नीला है और वो भी नीलकंठ कहे गये हैं वहीं शिव भी नीलकंठ माने गए हैं। दोनों ही कपर्दी अर्थात जटा जूट धारण करते हैं। भगवान शिव अजन्मा और अनादि हैं जबकि रुद्र का जन्म श्रीमद्भागवत आदि पुराणों के अनुसार ब्रह्मा के क्रोध और रुदन से हुआ है। ब्रह्मा जी ने उन्हें सृष्टि का विस्तार करने के लिए उत्पन्न किया था। हरिवंश पुराण और अग्निपुराण के अनुसार महादेव की कृपा से कश्यप की पत्नी सुरभि से ग्यारह रुद्रों का जन्म हुआ। यह विवरण यह बताता है कि महादेव शिव और रुद्र का एकीकरण हो रहा था।

भगवान शिव यज्ञ के विरोधी हैं, जबकि रुद्र यज्ञ के देवता हैं

भगवान शिव को यज्ञों का विरोधी माना जाता है । भगवान शिव की पहली पत्नी सती का अपने पिता के यज्ञ में भष्म हो जाने की कथा ही भगवान शिव के यज्ञों के विरोधी होने से संबंधित है। माता सती के पिता दक्ष प्रजापति से भगवान शिव का विरोध उनके विवाह से पूर्वकाल से चला आ रहा था। दक्ष प्रजापति ब्रह्मा जी के मानस पुत्र थे और भगवान विष्णु के उपासक थे। वो यज्ञों में भगवान शिव को हिस्सा देने के विरोधी थे। एक बार एक यज्ञ में जब भगवान शिव पधारे तो दक्ष प्रजापति ने भगवान शिव का अपमान किया था और यज्ञ में उनका भाग देने से मना कर दिया था।

यज्ञ के हिस्से के लिए दक्ष और शिव का विवाद

दक्ष प्रजापति का मानना था कि कि शिव भूत, पिशाचों, प्रेतों और वैसे प्राणियों के ईश्वर हैं जिनका यज्ञ व्यवस्था और वर्ण व्यवस्था में कोई स्थान नहीं है। भगवान शिव किसी भी यज्ञ की विधि व्यवस्था से जुड़े हुए नहीं थे और वो सभ्यता के प्रतीक चिन्हों नगरों और ग्रामों से दूर एकांत में पर्वत पर वास करते थे। इसलिए दक्ष ने उन्हें यज्ञ व्यवस्था का हिस्सा बनाने से इंकार कर दिया था।

लेकिन जब दक्ष की पुत्री सती ने भगवान शिव से विवाह कर लिया तो दक्ष और शिव के बीच का विरोध और भी ज्यादा बढ़ गया । जब माता सती ने अपने पिता दक्ष के यज्ञ में खुद को योगाग्नि में भष्म कर लिया तब शिव जी ने अपने गणों और वीरभद्र को भेज कर यज्ञ का विध्वंस करा दिया। बाद में दक्ष के द्वारा क्षमा मांगने के बाद भगवान शिव को भी यज्ञ का हिस्सा देना स्वीकर कर लिया  गया और इस प्रकार शिव भी यज्ञ के देवता मान लिये गए।

यज्ञ में रुद्र की पूजा की जाती है

रुद्र प्रारंभ से ही यज्ञ के देवता रहे हैं। रुद्र को बादलों के बीच स्थित विद्युत का देवता माना जाता रहा है। वैदिक आर्य रुद्र के क्रोध से डरते थे। वो हमेशा रुद्र से रक्षा की प्रार्थना करते थे।  रुद्र अपने बाणों से रोगों को फैला सकते हैं। वो पशुओं और इंसानों को भी नष्ट कर सकते हैं। शुक्ल यजुर्वेद के रुद्राष्टध्यायी में रुद्र की महिमा के सूक्त बहुत बड़ी संख्या में मिलते हैं।

हालांकि बाद में शिव और रुद्र दोनों को एक ही ईश्वर मान लिया गया और रुद्र को भी एक स्थान पर शिव की तरह ही यज्ञ में हिस्सा मांगने वाले देवता के रुप में दिखाया गया ताकि दोनों में एक समानता स्थापित की जा सके। महाभारत के वन पर्व में यह दिखाया गया है कि पहले रुद्र को भी यज्ञ में हिस्सा नहीं मिलता था। वन पर्व में जब युधिष्ठिर कलिंग देश के वैतरणी नदी के पास तीर्थ यात्रा के क्रम में जाते हैं तो वहां उन्हें कथा सुनाई जाती है।

कथा यह है कि एक बार सभी देवता वैतरणी के पास यज्ञ कर रहे थे तो रुद्र ने उनके यज्ञ के पशु को अपने कब्जे में कर लिया। इंद्र और दूसरे देवताओं ने रुद्र से कहा कि वो यज्ञ के पशु को अपना हिस्सा नहीं बना सकते हैं। रुद्र वापस चले जाते हैं। लेकिन बाद में देवतागण रुद्र के कोप से डर जाते हैं औऱ यज्ञ में उनके लिए भी एक हिस्सा रखने की परंपरा शुरु करते हैं। हालांकि रुद्र ऋग्वेद के काल से ही यज्ञ के देवता रहे हैं। लेकिन ये दिखाने के लिए कि शिव की तरह  उन्हे भी यज्ञ में हिस्सा नहीं मिलता था, महाभारत में यह कथा कही गई है।

रुद्र को समर्पित है महामृत्युंजय मंत्र

महामृत्युंजय मंत्र यज्ञ के महान देवता रुद्र को समर्पित है। यह मंत्र इस प्रकार है –

ऊँ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिम्पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुकमिव बन्धान मृत्योर्मुक्षीयमामृतात्

अर्थ- हम उस तीन नेत्रों वाले ( रुद्र) का यजन ( पूजन) करते हैं जो हमें सुगन्धि ( हमारी इंद्रियों) को पुष्ट कर उसका वर्धन करते हैं। वो हमे उसी प्रकार मृत्यु के पार ले जाएं जैसे कोई ककड़ी का फल पुष्ट होकर ( पक कर) अपने वृक्ष की शाखा से सहजता से मुक्त हो जाता है। वो हमें मृत्यु के भय से मुक्त करें लेकिन अमरता से नहीं (अर्थात वो हमें अमरता से युक्त करें)

यहां तीन नेत्रों वाले रुद्र की उपासना की गई है। यहां सुगंधी से तात्पर्य है हमारी घ्राणेन्द्रिय। यहां घ्राणेन्द्रिय हमारी सारी पंचइंद्रियों का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। यहां ऋषि कह रहा है कि रुद्र हमारी इंद्रियों को पुष्ट करें अर्थात वो हमारे शरीर को इस प्रकार स्वस्थ रखें कि हम इस सांसारिक सुख सुविधा का पूर्ण रुप से आनंद ले सकें।

ऋषि कहते है कि जिस प्रकार ककड़ी का फल पहले अपनी लता से पुष्ट होकर बढ़ता है , उस ककड़ी के फल के अंदर लता का सारा रस समाहित हो जाता है । वो लता के रस से पुष्ट होकर बढ़ता है , उसी प्रकार हे रुद्र संसार रुपी वृक्ष का ये रस हमारे शरीर को पुष्ट करता रहे।  ऋषि की यह प्रार्थना इसी जीवन को सुख से जीने के लिए है। वो रुद्र से प्रार्थना कर रहा है कि पहले तो वो इस जीवन को जीने के लिए जिस स्वस्थ शरीर की आवश्यकता है , जिन इंद्रियों के द्वारा इस संसार के सुख को भोगा जा सकता है , उसे रुद्र पुष्ट करें।

मंत्र के दूसरे भाग में मृत्यु के भय से मुक्त कराने की प्रार्थना की गई है। ऋषि रुद्र से प्रार्थना करते हैं कि वो हमें पूर्ण स्वस्थ जीवन जीने के बाद आने वाली मृत्यु के भय से भी मुक्त कराएं। मृत्यु के वक्त किसी भी प्रकार के दुख या कष्ट का अनुभव न हो। बल्कि सुखी जीवन से मृत्यु की तरफ की यात्रा भी बिना किसी कष्य या भय के हो।

ऋषि यहां भय की बात कहते हैं। भय किस बात का?  हम हमेशा जीवन की नश्वरता या उसके नष्ट हो जाने से भयभीत हो जाते हैं। हमें पता नहीं कि इस जीवन के बाद क्या है? क्या ये जीवन यहीं खत्म हो जाएगा। इस भय के निवारण के लिए ही गीता, से लेकर तमाम महान शास्त्र रचे गए हैं और कहा गया है कि जीवन के बाद भी जीवन है और इसके परे जो जीवन है वो वर्तमान जिंदगी से ज्यादा अच्छा है ।

हिंदू ग्रंथ स्वर्ग की प्राप्ति या मोक्ष की प्राप्ति की बात कहते हैं। इस्लाम जन्नत का आश्वासन देता है तो ईसाइयत भी पैराडाइज की बात करती है। इस मंत्र में ऋषि यही प्रार्थना करता है कि अगर मेरी मृत्यु हो भी जाए तो मुझे अमरता जरुर प्रदान करें। यही इस मंत्र की आखिरी पंक्ति कहती है।

वैवाहिक सुख से जुड़ा है महामृत्युंजय मंत्र

महामृत्युंजय मंत्र का उल्लेख शुक्लयजुर्वेद के रुद्राष्टध्यायी के पंचम अध्याय में मिलता है । इस मंत्र के साथ ही एक और मंत्र दिया गया है जो वैवाहिक संबंधो को मजबूत करने के लिए है। यह मंत्र इस प्रकार है-

ऊँ त्र्यंम्बकं यजामहे सुगंधिपतिवेदनम्।
उर्वारुकमिव बन्धान् दितो मुक्षीय मामुतः।।

अर्थः- हे तीन नेत्रों वाले रुद्र हम आपका यजन ( पूजन) करती हैं। जैसे ककड़ी का फल अपनी लता से सहजता से छूट जाता है उसी प्रकार मैं अपने माता पिता के कुल से छूट कर अपने पति के कुल से जुड़ जाउँ। लेकिन अपने पति से मेरा कभी भी विलगाव न हो। मैं अपने पति के घर पर ही सदा वास करती रहूं।

यहां एक स्त्री का अपने पिता के घर पति के घर को जाने की स्थिति का वर्णन है जो एकदम सहज प्रकार से है। इसीलिए इस मंत्र का जप अविवाहित स्त्रियां अपने मनोवांछित पति की प्राप्ति के लिए करती हैं।

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