महाभारत के युद्ध का प्रारंभ

महाभारत के युद्ध का प्रारंभ। शुद्ध श्रीमद्भगवद्गीता।अध्याय 1, Bhagavad Gita। War cry of Mahabharat

श्रीमद्भगवद्गीता में महाभारत के युद्ध का प्रारंभ होने से ठीक पहले की स्थितियों का वर्णन किया गया है। दुर्योधन युद्ध के पहले कौरवों और पांडवों की सेना की शक्तियों का तुलनात्मक अध्ययन करता है। श्रीमद्भगवद्गीता में दुर्योधन भी भयभीत दिखता है। दुर्योधन सबसे पहले कौरवों और पांडवों की सेनाओं की शक्ति का वर्णन करता है। दुर्योधन को यह विश्वास नहीं था कि उसके पास 11 अक्षोहिणी ( Army of 11 billion soldiers) सेना होने के बावजूद वह विजयी हो सकता है । उसके इस संशय और भय का कारण उसका प्रधान शत्रु भीम था, जिसकी शक्ति से कौरवों में भी भय उत्पन्न हो गया था ।

दुर्योधन के इसी भय और जय-पराजय के संशय को दूर करने और उसके विषाद को खत्म कर उसके अंदर हर्ष उत्पन्न करने के लिए भीष्म उच्च स्वर में शँख फूंकते हैं। 

तस्य सञ्जनयन्हर्षं कुरुवृद्धः पितामहः ।
सिंहनादं विनद्योच्चैः शंख दध्मो प्रतापवान् ॥1.12।।

अर्थः- “उस(दुर्योधन) के हर्ष को उत्पन्न करते हुए कौरवों में वृद्ध प्रतापशाली पितामह ( भीष्म) ने सिंह के समान उच्च स्वर में गरज कर शँख फूंका ।”

महाभारत के युद्ध का प्रारंभ में ध्वजा और शँख का इस्तेमाल

किसी भी युद्ध में विजय के लिए ईश्वरीय प्रतीकों का इस्तेमाल किया जाता है। युद्ध में ईश्वर के प्रतीक के रुप में उनके चिन्हों से अंकित ध्वजा और उनके ध्वनि के प्रतीक शँख(Conch) का इस्तेमाल करने की पुरानी परंपरा रही है। किसी भी युद्ध में ध्वजाधारी सबसे आगे रहते है। इन ध्वजाओं में ईश्वर के चिन्ह अंकित रहते हैं। इसका तात्पर्य यह होता है कि सेना के आगे -आगे स्वयं ईश्वर की शक्ति के रुप में ध्वजा चल रही है। प्रकारांतर से दोनों पक्ष ध्वजा का इस्तेमाल यह बताने के लिए करते हैं कि उनके पक्ष में ईश्वर और धर्म दोनों हैं और उनके पक्ष से ही धर्म युद्ध किया जा रहा है। 

अर्जुन की ध्वजा पर वानरों के राजा हनुमान का चिन्ह अंकित था तो कर्ण की ध्वजा पर कमल का फूल अंकित था। द्रोण की ध्वजा पर वेदी और कमण्डल का चिन्ह अंकित था और भीष्म की ध्वजा पर ताड़ का पत्ता अंकित था। भीम की ध्वजा का चिन्ह सिंह था तो युधिष्ठिर की ध्वजा पर चंद्रमा और अन्य ग्रह अंकित थे। नकुल की ध्वजा पर शरभ का चिन्ह था तो सहदेव की ध्वजा पर हंस और पताका अंकित था। अभिमन्यु की ध्वजा पर शारंग पक्षी का चिन्ह अंकित था तो घटोत्कच की ध्वजा पर गीध का चिन्ह अंकित था। दुर्योधन की ध्वजा पर नाग का चिन्ह अंकित था तो जयद्रथ की ध्वजा पर वराह का चिन्ह सुशोभित होता था।

शँख(Conch) बजाने का तात्पर्य भी यही होता है । शंख)Conch) दिव्य होता है। शँख(Conch) की उत्पत्ति समुद्र मंथन से हुई थी। शँख को लक्ष्मी का भाई माना जाता है और स्वयं विष्णु इसे धारण करते हैं। जहां ध्वज ईश्वर के द्वारा सेना का नेतृत्व करने का प्रतीक होता है , वहीं शँख बजा कर सेना यह बताती है कि उनके पक्ष में समृद्धि की प्रतीक लक्ष्मी और धर्म के प्रतीक विष्णु दोनों हैं। इसलिए युद्ध में दोनों पक्ष मेंं ईश्वरीय आशीर्वाद प्राप्त करने के लिए ध्वजा के साथ साथ शँख का इस्तेमाल करते हैं। श्रीकृष्ण के शँख का नाम पाञचजन्य था तो अर्जुन के पास देवदत्त नामक शँख था।

महाभारत के युद्ध के प्रारंभ के समय पितामह भीष्म की आयु क्या थी ? 

भयभीत दुर्योधन के द्वारा कौरवों और पांडवों की सेना की शक्ति बताने के बाद पितामह भीष्म शँख बजाकर युद्ध की घोषणा कर देते हैं।क्या पितामह भीष्म महाभारत के समय सबसे ज्यादा आयु वाले एकमात्र योद्धा थे ? महाभारत के युद्ध में भीष्म से भी ज्यादा आयु वाला कौन था ? सत्य ये है कि महाभारत के युद्ध में भीष्म से ज्यादा आयु वाले योद्धा का नाम बाह्लिक था। रिश्तें में बाह्लिक भीष्म के पिता राजा शांतनु के बड़े भाई थे और भीष्म के चाचा थे।

बाह्लिक के पिता प्रतीप ने उन्हें हस्तिनापुर से अलग एक भूमि दी थी और वहाँ बाह्लिक ने अपने राज्य की स्थापना की। राजा बाह्लिक के पुत्र का नाम सोमदत्त था और सोमदत्त के पुत्र का नाम भूरिश्रवा था। ये सभी कुरुवंशी थे लेकिन कुरु राज्य से अलग हो चुके थे इसलिए वो कुरुकुल( Clan of Kuru’s) के नहीं माने जाते थे। इसीलिए दुर्योधन ने बाह्लिक के कुरुवंशी ( from clan of Kuru’s) होने के बावजूद उन्हें कुरुकुल का (From clan of Kuru’s) नहीं माना और भीष्म को ही ‘कुरुकुल वयोवृद्ध’ ( Grand Oldman of Kuru’s)कह कर संबोधित किया।

बाह्लिक और उनके पुत्र सोमदत्त और पौत्र भूरिश्रवा ने कौरवों के पक्ष में महाभारत का युद्ध लड़ा था। बाह्लिक का वध भीम ने किया था।चूँकि यह युद्ध मूल रुप से कुरु कुल के दो वंशों धृतराष्ट्र के वँशजों और पांडु के वंशजो के बीच था और हस्तिनापुर के कुरुकुल( Clan of Kuru’s) में भीष्म सबसे ज्यादा वृद्ध थे इसलिए दुर्योधन उन्हें कुरुकुल वयोवृद्ध( Grand Oldman of Kuru’s) कह कर संबोधित करता है।

भीष्म कौरवों और पांडवों के पितामह थे । इसलिए भी दुर्योधन उन्हें कुरुवृद्ध (Grand Oldman of Kuru’s) कह कर संबोधित करता है । हालांकि धृतराष्ट्र अपने भतीजों को कुरवंशी न कह कर पांडवाश्चैव ( अर्थात पांडु के पुत्र ) कह कर संबोधित करते हैं और दुर्योधन भी पांडवों को कुरुवंशी न कह कर पांडुपुत्र कह कह संबोधित करता है, लेकिन भीष्म तो कौरवों और पांडवों दोनों के ही पितामह हैं और कुरुओं के कुल ( from the clan of Kuru’s) के हैं, इसलिए भी दुर्योधन उन्हें कुरुवृद्ध कहता है ।

महाभारत के युद्ध के समय भीष्म की आयु क्या थी इसका अंदाजा दूसरे योद्धाओं की उम्र से लगाया जा सकता है। महाभारत के द्रोण पर्व के अध्याय 192 का श्लोक 64 मृत्यु के वक्त द्रोणाचार्य की आयु बताता है –

आकर्णपलितः श्यामो वयसाशीतिपंचकः । त्वतकृते वयचरत् संख्ये स तु षोड़षवर्षवत् ।।

अर्थः- “आचार्य द्रोण के शरीर का रंग सांवला था। उनकी अवस्था 400 वर्ष की हो चुकी थी और उनके सिर से लेकर कान तक के बाल सफेद हो चुके थे तो भी आपके हित के लिए वो संग्रम में 16 वर्ष के तरुण की तरह विचरण करते थे।”

महाभारत के अनुसार युद्ध के वक्त अर्जुन की आयु का भी अंदाजा लगाया जा सकता है । महाभारत आदि पर्व के अध्याय 124( Chapter 124) के श्लोक 2 में बताया गया है कि जब अर्जुन के पिता पांडु की मृत्यु हुई थी तो उस वक्त अर्जुन की आयु 14 वर्ष थी। महाभारत के आदि पर्व और सभा पर्व से पता चलता है कि जब अर्जुव को गांडीव धनुष प्राप्त हुआ था तब उनकी आयु करीब 28 वर्ष की थी।

महाभारत के विराट पर्व के अध्याय 43( Chapter 43) के श्लोक 6 में अर्जुन बताते हैं कि वो पिछले 66 वर्ष से गांडीव को धारण करते आ रहे हैं। विराट के युद्ध के वक्त अर्जुन करीब 94 वर्ष के थे और महाभारत के युद्ध के वक्त अर्जुन की आयु 95 वर्ष थी। भीष्म पितामह अर्जुन के परदादा थे इस हिसाब से भी भीष्म पितामह की आयु कई सो वर्षों की थी।

महाभारत के युद्ध का प्रारंभ
भीष्म महाभारत के सबसे वीर योद्धा

भीष्म महाभारत के सबसे वीर योद्धा हैं  

भीष्म न केवल कुरुवृद्ध हैं( Grand Oldman of Kuru’s) बल्कि वो पांडु पुत्रों और धृतराष्ट्र पुत्रो के अलावा सभी योद्धाओं में सबसे ज्यादा प्रतापी और वीर हैं। दुर्योधन को भी पता है कि भीष्म ही अकेले उसे युद्ध में विजय दिला सकते हैं, इसलिए भी वो भीष्म की रक्षा करने के लिए द्रोण और दुशासन को समझाता है ।

भीष्म शरीर से कौरवों के पक्ष में हैं लेकिन दिल से पांडवों के साथ हैं। हालांकि वो कौरवों के प्रति भी अपना उत्तरदायित्व समझते हैं ,इसलिए वो दुर्योधन के भय को खत्म करने के लिए पहले जोर से सिंहनाद करते हुए गरजते है। उनकी यह गर्जना बताती है कि वो युद्ध में पांडवों को हरा कर ही मानेंगे । इसके बाद वो दोनों पक्षों में सबसे वृद्ध होने का दायित्व निभाते हुए शँख बजाकर युद्ध की शुरुआत कर देते हैं ।

ततः शंखाश्च भेर्यश्च पणवानकगोमुखाः। सहसैवाभ्यहन्यन्त स शब्दस्तुमुलोऽभवत्‌ ॥1.13।।

अर्थः- “इसके बाद शंख नगाड़े और ढोल, मृदंग, रणसिंघे आदि एक साथ ही बज उठे । उनका यह शब्द बहुत ही जोरदार हुआ ।”

व्याख्याः- ध्वनि विज्ञान को जानने वाले वैज्ञानिकों ने सिद्ध किया है कि हमारे शरीर की इंद्रियों पर अलग अलग प्रकार की ध्वनियों के अलग – अलग प्रभाव होते हैं । जब हम मधुर संगीत सुनते हैं तो हमारा मन प्रफुल्लित हो उठता है और हमारे शरीर के अंदर पाई जाने वाली ग्रंथियां शरीर को स्वास्थ्य प्रदान करने वाले हार्मोन्स का उत्सर्जन करती हैं ।

जब हम किसी भयानक ध्वनि को सुनते हैं, तो हमारे शरीर के अंदर उपस्थित ग्रंथियां ऐसे हार्मोन्स का उत्सर्जन करती हैं, जो हमारे भीतर भय और घबराहट उत्पन्न करती हैं। हमारे ह्रदय की धड़कनें तेज हो जाती हैं, हमारे शरीर से पसीना निकलने लगता है । भीष्म की शंख ध्वनि के बाद अन्य योद्धाओं के द्वारा शंख बजाए जाने, ढोल, मृदंग आदि की संयुक्त ध्वनियों से ऐसा शोर हुआ जिसका अलग – अलग लोगों पर अलग- अलग प्रभाव पड़ा । कौरवों का भय समाप्त हो गया और उनमें विजय की आशा का संचार हुआ, वहीं कई भीरु योद्धाओं के अंदर भय का संचार भी हो गया । 

ततः श्वेतैर्हयैर्युक्ते महति स्यन्दने स्थितौ ।
माधवः पाण्डवश्चैव दिव्यौ शंखौ प्रदध्मतुः ॥1.14।।

अर्थः- “तत्पश्चात श्वेत अश्वों से युक्त विशाल रथ पर बैठे माधव ( कृष्ण) और अर्जुन ने भी अपने दिव्य शंखों को बजाया ।” 

व्याख्याः- कौरव हमेशा से ही युद्ध चाहते थे लेकिन पांडवों ने आखिर तक यही कोशिश की कि किसी तरह से यह युद्ध टल जाए। इसीलिए शँख बजाकर युद्ध की घोषणा पहले कौरवों के पक्ष से भीष्म ने की । इसके बाद इसका जवाब देने के लिए श्रीकृष्ण और अर्जुन ने शँख ध्वनि की । 

श्रीमद्भगवद्गीता में श्रीकृष्ण के नाम का पहला उल्लेख 

श्रीमद्भगवद्गीता में पहली बार श्रीकृष्ण का नाम ‘माधव’ के रुप में अध्याय 1 के श्लोक 14 आता है । इससे पहले किसी भी श्लोक में श्रीकृष्ण नाम का कोई भी संबोधन नहीं है । श्रीकृष्ण को यहां ‘माधव’ के नाम से संबोधित किया गया है । ‘माधव’ अर्थात जिन्होंने मधु नामक दैत्य का वध किया है । मधु और कैटभ का वध भगवान विष्णु के द्वारा किया गया था।

इस नज़रिए से इस श्लोक में पहली बार में ही श्रीकृष्ण को विष्णु का अवतार स्थापित कर दिया जाता है । संजय श्रीकृष्ण को ‘माधव’ कह कर संबोधित करते हुए धृतराष्ट्र को यह भी संदेश दे रहा है कि पांडवों के पक्ष में ‘माधव ‘अर्थात विष्णु श्रीकृष्ण के रुप में खड़े हैं। जहां विष्णु हैं, वहीं धर्म है। इसलिए यह धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र विष्णु का आदि कर्मक्षेत्र तो है ही साथ में वो श्रीकृष्ण के रुप में पांडवों के पक्ष में वो खड़े भी हैं। अर्जुन भी महाभारत के भीष्म पर्व के अध्याय 22(Chapter 22) में युद्ध के परिणाम से भयभीत युधिष्ठिर को कह चुका है कि –

गुणभूतो जयः कृष्णे पृष्ठतोSभ्येति माधवम्।

अर्थः-“विजय तो श्रीकृष्ण का एक गुण है। अतः वह श्रीकृष्ण के पीछे-पीछे चलता है। जैसा कि नारद जी ने कहा है कि ‘जहाँ श्रीकृष्ण हैं वहीं विजय है’। भगवान गोविंद का तेज अनंत है। वे शत्रुओं के समुदाय में कभी भी व्यथित नहीं होते हैं क्योंकि वे ही सनातन पुरुष हैं। अतः’जहां श्रीकृष्ण हैं वहीं विजय है’।”

चाहे अर्जुन हो या संजय या फिर भीष्म और द्रोण ये सभी जानते हैं कि श्रीकृष्ण ही भगवान हैं और विष्णु ने ही श्रीकृष्ण के रुप में अवतार लिया है । इसलिए ये सभी मानते हैं कि जहाँ श्रीकृष्ण हैं वहीं विजय है। जिस पक्ष में श्रीकृष्ण खड़े हैं उसी पक्ष की विजय निश्चित है। इसीलिए महाभारत के युद्ध के पूर्व ही पांडवों की विजय निश्चित हो चुकी थी क्योंकि उनके पक्ष में विष्णु अवतार श्रीकृष्ण खड़े थे।  

महाभारत में श्रीकृष्ण ने पांडवों की तरफ से पहला शंख क्यों बजाया 

श्रीकृष्ण न तो पांडवों की सेना के सेनापति हैं और न ही प्रत्यक्ष रुप से वो युद्ध में भाग ले रहे हैं । कृष्ण ने युद्ध में शस्त्र न उठाने की प्रतिज्ञा भी ले रखी है । फिर भी कृष्ण ही शंख बजाकर पांडवों के पक्ष से युद्ध के प्रारंभ का उत्तर देते हैं। इसके पीछे कारण यह भी है कि द्रौपदी से कृष्ण ने प्रतिज्ञा की थी कि वो कौरवों का संहार जरुर करेंगे ।

दूसरे, कृष्ण ही माधव( Killer of demon Madhu) हैं। विष्णु रुप में श्रीकृष्ण ने ही मधु और कैटभ का वध किया था। मधु- कैटभ और विष्णु का युद्ध संसार का प्रथम युद्ध माना जाता है । विष्णु ही सृष्टि के प्रथम योद्धा हैं। अब विष्णु श्रीकृष्ण के रुप में अवतार लेकर पांडवों के पक्ष में खड़ें हैं। विष्णु ही धर्म हैं और धर्म पांडवों के साथ है। इसी बात का उद्घोष करने के लिए कृष्ण पांडवों के पक्ष से सबसे पहले शँख बजा कर युद्धघोष करते हैं। अर्जुन और कृष्ण दोनों ही नर और नारायण के अवतार हैं, इसलिए उनके शँख भी दिव्य हैं और दिव्य परिणामों को उत्पन्न करने वाले हैं। 

पाञ्चजन्यं हृषीकेशो देवदत्तं धनञ्जयः ।
पौण्ड्रं दध्मौ महाशंख भीमकर्मा वृकोदरः ॥1.15।।

अर्थः- “ह्रषीकेश (कृष्ण) ने पाञचजन्य नामक शंख, अर्जुन ने देवदत्त नामक शंख एवं भयानक कर्म करने वाले वृकोदर( भीम) ने पौण्ड्र नामक शंख बजाया ।” 

व्याख्याः- यहां श्रीकृष्ण के लिए ‘ह्र्षीकेश’ नाम का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ होता है हर्ष और ऐश्वर्य से युक्त ।श्रीकृष्ण हर्षित हैं, क्योंकि वही धर्म रुपी विष्णु हैं और उन्हें ज्ञात है कि धर्मक्षेत्र कुरुक्षेत्र में विजय उनके ही पक्ष वालों की होनी है । श्रीकृष्ण ऐश्वर्य शाली हैं, क्योंकि वही ईश्वरीय सत्ता भी हैं। श्रीकृष्ण के पास जो पाञचजन्य नामक शंख है ,वो कोई साधारण शंख नहीं है,बल्कि ये एक दिव्य शँख है।

कथा है कि श्रीकृष्ण ने अपने गुरु सांदीपनी के मृत पुत्र को लाने के लिए समुद्र पर आक्रमण किया था , वहीं शंखासुर नामक राक्षस छिपा था । उस राक्षस का वध कर उस मृत बालक को कृष्ण ने जीवित कर दिया था और उसे अपनी गुरु पत्नी के पास ले आए थे । इसी क्रम में उन्होंने शंखासुर के शरीर से पाञचजन्य नामक यह शंख ले लिया था । इस शंख को बजाने का तात्पर्य यही है कि ‘जहाँ कृष्ण हैं वहीं विजय है’ । 

अर्जुन के लिए ‘धनंजय’ नाम का प्रयोग किया गया है । जब राजसूय यज्ञ के दौरान अर्जुन ने विश्व के सारे राजाओं को पराजित कर दिया था तो वहां से वो बहुत सारा धन लेकर आये थे । इस धन विजय अभियान की वजह से उनका नाम ‘धनंजय’ पड़ा । अर्जुन को देवदत्त शँख मयासुर राक्षस से मिला था । यहां भी यही साबित होता है कि ‘जहां धनंजय हैं वहीं जय है’। 

इसी प्रकार ज्यादा भोजन करने वाले वृकोदर( Man of big stomach) भीम, महाभारत के युद्ध में भयानक कर्म करने वाले थे । भीम ने कौरवों के नाश की प्रतिज्ञा ली थी। उन्होंने भी अपना शँख बजाकर यह घोषणा कर दी कि वो अपनी प्रतिज्ञा पूरी करने के लिए तैयार हैं। 

अनन्तविजयं राजा कुन्तीपुत्रो युधिष्ठिरः I
नकुलः सहदेवश्च सुघोषमणिपुष्पकौ ॥1.16।।

अर्थः- “कुंतीपुत्र राजा युधिष्ठिर ने अनंतविजय नामक, नकुल ने सुघोष और सहदेव ने मणिपुष्पक नामक शँख को बजाया ।” 

काश्यश्च परमेष्वासः शिखण्डी च महारथः ।
धृष्टद्युम्नो विराटश्च सात्यकिश्चापराजितः ॥1.17।।
द्रुपदो द्रौपदेयाश्च सर्वशः पृथिवीपते ।
सौभद्रश्च महाबाहुः शंखान्दध्मुः पृथक्पृथक्‌ ॥1.18।।

अर्थः- “महाधनुर्धर काशिराज सेनाविंदु एवं महारथी शिखंडी तथा धृष्टध्युम्न और विराट अजेय सात्यिकि ने अपने अपने शँख बजाए ।” 

हे पृथ्वीपते, द्रुपद और द्रौपदी के पुत्रों एवं सुभद्रा पुत्र महाबाहो अभिमन्यु इन सबों ने भी सभी ओर से अलग अलग शँख बजाया”

स घोषो धार्तराष्ट्राणां हृदयानि व्यदारयत् ।
नभश्च पृथिवीं चैव तुमुलो व्यनुनादयन्॥1.19।।

अर्थः- “पांडव के दल के महारथियों के शँखो का वह भयानक शब्द आकाश और पृथ्वी को तथा (च- कार से ) चारो दिशाओं और चार विदिशाओं को पूर्ण रुप से प्रतिध्वनित करते हुए धृतराष्ट्र के सौ पुत्रों के ह्दयों को विदीर्ण करने लगा । 

व्याख्याः- न केवल दुर्योधन भय और संशय से डूबा हुआ था बल्कि धृतराष्ट्र के सभी सौ पुत्रों में पांडवों की शक्ति को लेकर भय का माहौल था। इसीलिए संजय धृतराष्ट्र को बताता है कि भले ही भीष्म और दूसरे कौरव पक्षों के लोगों ने अपने शँखों और मृंदगों से भयानक शोर उत्पन्न किया, लेकिन कौरवों के शँखों से पांडव पक्ष के किसी भी योद्धा में भय का संचार नहीं हुआ, इसके विपरीत कौरवों के पक्ष में पांडवों के शँख बजाने से भय का माहौल जरुर उत्पन्न हो गया। 

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