भगवान विश्वकर्मा

विश्वकर्मा हैं समस्त सृष्टि के रचयिता

शुद्ध सनातन धर्म में प्रत्येक वर्ष 17 सितंबर के दिन विश्वकर्मा भगवान की जयंती मनाई जाती है । हालांकि कई और भी तिथियां विश्वकर्मा जयंती के नाम से प्रसिद्ध हैं। लेकिन आमतौर पर 17 सिंतबर को ही पूरे देश में विश्वकर्मा भगवान की जयंती मनाई जाती है । इस दिन देश के कई भागों में विश्वकर्मा भगवान की पूजा की जाती है। 

क्यों हैं कई विश्वकर्मा जयंतियां :

हालांकि 17 सिंतबर को सरकारी तौर पर भी विश्वकर्मा जयंती मनाने का प्रावधान हैं और इस दिन देश के सभी उद्योगों, और निर्माण उद्योगों में मजदूरों, मिल मालिकों और सरकारी अधिकारियों तथा कर्माचारियों के द्वारा विश्वकर्मा जयंती मनाई जाती है ।  लेकिन धार्मिक रुप से इस मामले पर सारे मत एक नहीं हैं। देश के अलग अलग क्षेत्रों में अलग- अलग परंपराओं में कम से कम चार विश्वकर्मा जयंतियां मनाई जाती हैं। इससे यह भ्रम बना रहा है कि क्या विश्वकर्मा एक नहीं कई हैं और क्या अलग- अलग विश्वकर्माओं की जन्म तिथियों पर अलग अलग जयंतियां मनाई जाती हैं ?

बंगाली पांचांग के भाद्र शुक्ल पक्ष के अंतिम दिन या बनारस पचांग के अश्विन कृष्ण पक्ष तृतीया के दिन विश्वकर्मा पूजा नेपाल और भारत के पूर्वी राज्यों मे खास तौर पर मनाई जाती है।यह तिथि 17 सितंबर को  पड़ती है। लेकिन देश के कई भागों में कार्तिक शुक्ल पक्ष प्रतिपदा(गोवर्धन पूजा) के दिन भी विश्वकर्मा जयंती मनाने की प्रथा है। विशेषकर उत्तर प्रदेश और राजस्थान के वैष्णव संप्रदायों में कार्तिक शुक्ल पक्ष को ही विश्वकर्मा जयंती मनाए जाने की प्रथा है । 

कुछ स्थानों पर भाद्र शुक्ल पक्ष पंचमी( ऋषि पंचमी) के दिन भी विश्वकर्मा पूजा करने का विधान है।  एक और तिथि है माघ शुक्ल पक्ष त्रयोदशी का। यह तिथि आम तौर पर जनवरी के महीने में पड़ती है। इस दिन भी कई स्थानों पर विश्वकर्मा पूजा की जाती है। आखिर प्रश्न उठता है कि इसका रहस्य क्या है ?

विश्वकर्मा भगवान सबसे पहले उत्पन्न हुए

विश्वकर्मा
  • ऋग्वेद और यजुर्वेद के अलावा महाभारत , वायु पुराण, स्कंद पुराण आदि में विश्वकर्मा को सृष्टि का निर्माता बताया गया है। ऋग्वेद में 11 ऋचाएं हैं। इन ऋचाओं में विश्वकर्मा को एक ऋषि और मंत्रदृष्टा बताया गया है । 
  • एक ऋषि होने के साथ साथ ऋग्वेद में विश्वकर्मा को ब्रह्मा की जगह आदि देवता माना गया है और उनके द्वारा ही सृष्टि निर्माण की बात कही गई है ।
  •  ऋग्वेद के सूक्तों के मुताबिक विश्वकर्मा की नाभि से ही ‘हिरण्यगर्भ’ की उत्पत्ति होती है, जिससे सृष्टि का निर्माण होता है। सूक्तों के मुताबिक विश्वकर्मा की संकल्पना एक ऐसे देवता के रुप में की गई है, जिनके शरीर के हरेक अंग में कई भुजाएं और कई आंखे हैं। 
  • विश्वकर्मा से ही ऋग्वैदिक देवता त्वष्टा की उत्पत्ति होती है, जिनसे सृष्टि की सभी वस्तुओं का जन्म होता है। ऋग्वेद और अन्य वेदों में यही बातें बाद में ब्रह्मा के लिए कही गई हैं। यजुर्वेद में विश्वकर्मा को प्रजापति और अर्थववेद में उनको पशुपति कहा गया है । प्रजापति शब्द बाद में ब्रह्मा के लिए और पशुपति उपाधि बाद में शिव के लिए इस्तेमाल किया जाता रहा है।

ब्रम्हा से पहले विश्वकर्मा का जन्म हुआ

विश्चकर्मा को लेकर ऋग्वेद में जो ऋचाएं हैं वो ऋग्वेद के प्राचीन भागों में मिलती हैं,जबकि ब्रम्हा की स्तुति ऋग्वेद के अंतिम भाग  पुरुष सूक्त में मिलती है। श्वेताश्वरोपनिषद् में श्लोक विश्वकर्मा को ‘निरालंब स्वयंभू देवता’ कहा गया है, जिन्होंने खुद की ही बलि देकर इस सृष्टि की रचना की । 

वैदिक और कुछ पौराणिक ग्रंथो में विश्वकर्मा को नारायण भी कहा गया है। ‘मूलस्तंभ पुराण’ के मुताबिक विश्वकर्मा उस वक्त से विराजमान हैं जब न सृष्टि थी और न ही काल की उत्पत्ति हुई थी। विश्वकर्मा के ही द्वारा इस ब्रम्हांड की उत्पत्ति हुई है। इस हिसाब से विश्वकर्मा ब्रह्मा, विष्णु और शिव से भी पहले उत्पन्न हुए हैं।

विश्वकर्मा क्यों नहीं रहे सर्वोच्च ईश्वरीय सत्ता

जब ऋग्वेद में विश्वकर्मा को आदि देव बताया गया है और उन्हीं की नाभि से ‘हिरण्यगर्भ’ की उत्पत्ति बताई गई है तो फिर आज विश्वकर्मा को क्यों सर्वोच्च और प्रथम देवता का दर्जा हासिल नहीं है ?

दरअसल  वैदिक युग के विपरीत आरण्यक, उपनिषदों, रामायण और महाभारत के कालों में विश्वकर्मा,  इंद्र , वरुण , मित्र आदि देवताओं का स्थान पहले से कमजोर हो गया और विष्णु , शिव और ब्रह्मा को सर्वोच्च ईश्वरीय सत्ताओं के रुप में मान्यता मिली ।

देवताओं की शक्तियों में बदलाव

वैदिक काल के बाद कई देवताओं की शक्तियां दूसरे देवताओं को दे दी गईं। इस क्रम में कुछ वैदिक देवताओं की शक्तियों का त्रिदेवों( ब्रह्मा, विष्णु और महेश) के बीच हस्तांतरण कर दिया गया । विष्णु को इंद्र, वरुण और सूर्य की सारी शक्तियां मिल गईं, जबकि वैदिक काल में विष्णु जी सूर्य, इंद्र, वरुण की तरह 12 आदित्यों में एक थे। इसी प्रकार विश्वकर्मा और प्रजापति की शक्तियां ब्रह्मा जी के पास चली गईं, जबकि रुद्र और मरुद्गणों की शक्तियों को भगवान शिव में समाहित कर दिया गया ।

इंद्र, सूर्य और वरुण की शक्तियां विष्णु ने ले ली

पौराणिक काल तक आते आते भगवान विष्णु सर्वोच्च ईश्वर के रुप में प्रतिष्ठित होते हैं। जहां वैदिक युग में विष्णु का जिक्र ऋग्वेद के प्रथम मंडल की सिर्फ एक ऋचा में है, वहीं इंद्र, वरुण और सूर्य को सैकड़ों ऋचाएं समर्पित थीं। 

वैदिक युग में इंद्र युद्ध और विजय के देवता हैं। उनके पास वज्र है और अपने इंद्रजाल से वो असुरों और पणियों का संहार कर आर्यों की रक्षा करते हैं। वरुण विष्णु की तरह संसार के चक्र को नियमित रुप से चलाते हैं । सूर्य पालक देवता हैं, जो अन्न और जल उत्पन्न करते हैं जिससे सृष्टि का पालन होता है । लेकिन पौराणिक काल आते आते इन सभी देवताओं के अधिकार विष्णु भगवान में समाहित हो जाते हैं ।

 इंद्र के पास संहारक वज्र था तो विष्णु के पास चक्र आ गया । इंद्र के पास असुरों को भ्रमित करने के लिए  इंद्रजाल था तो विष्णु के पास दैत्यों को भ्रमित करने के लिए माया है । इंद्र का सिंहासन अस्थिर था तो विष्णु अच्युत यानि अपने पद से च्युत या अस्थिर नहीं होने वाले बने । विष्णु के पास वरुण की सृष्टि के नियमन  वाली शक्ति आ गई और वो सूर्य की तरह जगत के पालक बन गए ।

शिव बने संहार के देवता 

शिव के पास रुद्र और मरुद्गणों की संहारक शक्ति आ गई । पूषण जो पशुओं के देवता थे उनकी शक्ति भी शिव के पास आ गई और शिव पशुपति कहलाने लगे । हालांकि ऋग्वेद में रुद्र को पशुपति कहा गया है तो इस हिसाब से पशुपति रुद्र की उपाधि भी भगवान शिव के पास हस्तांतरित हो गई । 

 ब्रम्हा को मिली विश्वकर्मा की शक्तियां 

समस्त सृष्टि के रचयिता हैं भगवान विश्वकर्मा

 ऋग्वेद में विश्वकर्मा को आदि देवता कह कर उनकी वंदना की गई है । कई परवर्ती ग्रंथों में उन्हें नारायण, ब्रह्मा , प्रजापति आदि कह कर उनकी स्तुति की गई है । विश्वकर्मा भगवान को ही सृष्टि का रचयिता कहा गया है । लेकिन ऋग्वेद के दशम मंडल से ही इंद्र , वरुण, सूर्य के साथ-साथ विश्वकर्मा जी की स्थिति में भी परिवर्तन हो जाता है । 

सृष्टि की उत्पत्ति हिरण्यगर्भ से हुई है

ऋग्वेद के  ऋचाओं में तो सृष्टि की उत्पत्ति हिरण्यगर्भ से बताई गई है, जिसका वर्णन हिरण्यगर्भ सूक्त, नासदीय सूक्त और पुरुष सूक्त में मिलता है । भगवान विश्वकर्मा की नाभि से हिरण्यगर्भ प्रगट होता हैं और वो सारी सृष्टि का निर्माण हिरण्यगर्भ से ही करते हैं । विश्वकर्मा से ही ब्रह्मा, विष्णु, शिव, इंद्र की उत्पत्ति बताई गई है ।

ऋग्वेद के दशम मंडल से विश्वकर्मा की स्थिति बदल गई

ऋग्वेद के दशम मंडल की ऋचाओं की रचना, जो बहुत बाद के काल में की गई थी, उससे पूरी स्थिति बदल जाती है । ऋग्वेद में जिस परम पुरुष के शरीर से सभी देवताओं और वर्णों की उत्पत्ति बताई गई है, उन्हें प्रजापति , परम पुरुष और ब्रह्मा आदि उपाधियों से पुकारा गया ।

परम पुरुष का आविर्भाव

  • ऋग्दवेद के दशम मंडल से सृष्टि की उत्पत्ति विश्वकर्मा की नाभि से निकले किसी अस्पष्ट आकार वाले हिरण्य के पिंड से न होकर एक पुरुष से हो गई। इस पुरुष की ईश्वरीय सत्ता को अपना नाम देने के लिए कई संप्रदायों ने अपने दावे किए। 
  • वैष्णवों के अनुसार वो ‘परम पुरुष’ नारायण विष्णु हैं। तो शैवों के अनुसार वो सदाशिव हैं जिनसे ब्रह्मा, विष्णु और शिव आदि निकले हैं।
  • ब्राहम्ण ग्रंथो ने उस परम पुरुष को ब्रह्मा से जोड़ दिया और ब्रह्मा जी को सृष्टि का रचयिता बना दिया । ब्रह्मा से ही विष्णु, शिव सहित सारी सृष्टि का निर्माण हुआ सभी वर्णों की उत्पत्ति हुई। सृष्टि का निर्माण और उसे रचने की शक्ति भी ब्रह्मा जी में ही समाहित कर दी गई। 
  • ब्रह्मा जी को विश्वकर्मा जी की सारी शक्तियां मिलते ही देवमंडल में विश्वकर्मा जी का स्थान सृष्टि के रचयिता से हट कर महज नगरों, आयुधों, शिल्पों आदि के निर्माता के रुप में हो गया । हालांकि अभी भी उनका कार्य निर्माण ही था लेकिन सृष्टि का निर्माण नहीं बल्कि नगरों, और वस्तुओं का निर्माण । 
  • इसके बाद पुराणों में विश्वकर्मा की स्थिति को लेकर और भी भ्रम की स्थिति हो गई। अब चूंकि वो आदि और स्वयंभू ( स्वयं से उत्पन्न ) ईश्वर नहीं रह गए, इसलिए उन्हें भी जन्म लेने वाला देवता बनाना था । इसी वजह से बाद के ग्रंथों में विश्वकर्मा के जन्म और उनके वंश को लेकर सारी अस्पष्टता आ गई। इसके बाद एक नहीं कई विश्वकर्मा भगवान हो गए जो अलग अलग कुलों से संबधित बताए जाने लगे। 
  • हालांकि ऋग्वेद में विश्वकर्मा ही सृष्टि के रचयिता हैं और उनके हमनाम एक ऋषि भी हैं, जिन्होंने कई सूक्तों की रचना की है । लेकिन ईश्वर के रुप में एक ही विश्वकर्मा हैं जो हिरण्यगर्भ से प्रगट हुए हैं। 
  • लेकिन बाद के ग्रंथों में जब विश्वकर्मा जी की सारी शक्तियां ब्रह्मा जी को हस्तांतरित कर दी गईं तब इन ग्रंथों में भुवन, ऋषि, और शिल्पी विश्वकर्मा का जिक्र बार बार आता है। एक ऋषि विश्वकर्मा भी हैं जिन्हें ऋग्वेद की ऋचाओं का ज्ञाता बताया गया है।
  • एक अन्य विश्वकर्मा हैं जिन्हें प्रभास या शिल्पी विश्वकर्मा भी कहा गया है। ऋषि प्रभास (अंगिरा पुत्र) और बृहस्पति की पुत्री योगसिद्धा के पुत्र ही ऋषि विश्वकर्मा हैं जिन्होंने स्थापत्य वेद या वास्तुवेद की भी रचना की है। इसलिए विश्वकर्मा को वास्तुकला का देवता माना जाता है। 
  • एक अन्य कथा भी है कि ब्रह्मा से भी पहले एक देवता हुए जिनके पाँच चेहरे थे। इस देवता के पाँच चेहरों से पाँच महान पुरुष पैदा हुए जिनके नाम मनु, माया, त्वस्ट्रा, शिल्पी और विवस्वान हैं। इस कथा को ही बाद में ब्रह्मा के पाँच चेहरों से उत्पन्न इन पाँचो पुरुषों के साथ जोड़ दिया गया है और दिखाया गया है कि शिल्पी विश्वकर्मा उनसे उत्पन्न पाँचपुत्रो में से एक है, जिन्होंने वास्तुकला का निर्माण किया।
  •  ये भी कहा जाता है कि जिस प्रकार ब्रह्मा के शरीर से ब्राह्मण, क्षत्रिय, वैश्य एवं शूद्रों का जन्म हुआ उसी प्रकार विश्वकर्मा भगवान ने शूद्र कन्यों से विवाह कर कई शिल्पी जातियों को जन्म दिया।
  • अब चाहे तो शिल्पी को ब्रम्हा का पुत्र मानें या फिर ऋषि प्रभास का पुत्र मानें लेकिन ये तय है इन्हें ही समस्त नगरों का निर्माता, खेती की शुरुआत कराने, सभी यंत्रों का निर्माता, सभी अस्त्रों का निर्माता और शिल्पवेद का रचयिता माना जाता है।

कृषि क्रांति के पिता हैं विश्वकर्मा भगवान

विश्वकर्मा भगवान के ही पाँचों पुत्रों जिन्हें पंच ऋषि कहा जाता है, उनकी प्रार्थना के फलस्वरुप शिल्पी विश्वकर्मा ने हल का निर्माण किया था। हल लकड़ी और लोहे से मिल कर बनी होती है, जिससे खेती की शुरुआत हुई और कई सभ्यताओं का निर्माण हुआ। 

सभ्यताओं के निर्माता विश्वकर्मा भगवान

सभ्यताओं का निर्माण होने से ही नगरों, तकनीकों,यंत्रो और अस्त्रों का निर्माण हुआ। मतलब यह है कि शिल्पी विश्वकर्मा ही सभ्यता के असली निर्माता हैं। इंद्र के वज्र, शिव के धनुष, विष्णु के चक्र के निर्माण के साथ यही समस्त तकनीकों को जन्म देने वाले भी हैं। 

किस भगवान विश्वकर्मा ने क्या क्या रचा ?

ऋग्वैदिक सूक्तों में जिन आदि पुरुष विश्वकर्मा का जिक्र आया है, उन्होंने ब्रम्हांड की रचना की। अंगिरा पुत्र ने ऋग्वेद की ऋचाओं की रचना की और संभवत उन्होंने ही इंद्र के व्रज जैसे अस्त्रों की रचना की। प्रभास पुत्र विश्वकर्मा ने स्वर्ग, सोने की लंका, द्वारिका और इंद्रप्रस्थ जैसे शहर बसाए। यही विश्वकर्मा वास्तुशास्त्र के पिता भी हैं ।

जयंति को लेकर खत्म हुआ भ्रम 

ऐसी माना जाता  है कि भ्राद्र शुक्ल पक्ष पंचमी (लगभग 3 सितंबर ) के दिन ही पाँचो ऋषि पुत्र आपस में एक होकर विश्कर्मा की कृपा के लिए पूजा करने लगे और इस दिन विश्वकर्मा पूजा मनाने की परंपरा शुरु हुई।

अश्विन कृष्ण पक्ष तृतीया या बंगाली पचांग के अनुसार भाद्र शुक्ल पक्ष के अंतिम दिन( 16-17 सितंबर) ऋग्वैदिक और ब्रम्हा से भी पुराने विश्वकर्मा भगवान ने ऋषियों को दर्शन देकर उन्हें हल प्रदान किया जिसके उपलक्ष्य में 16- 16 सितंबर को विश्वकर्मा भगवान का प्रागट्य दिवस मनाया जाता है।

संयोग से इसी दिन शिल्पी विश्वकर्मा भगवान का जन्म दिन भी माना जाता है। लेकिन ऋग्वेद के आदि देवता विश्वकर्मा जिन्हें बाद में ब्रह्मा से जोड़ कर प्रजापति और शिव से जोड़ कर सदाशिव और विष्णु से जोड़ कर नारायण भी कहा गया उनके आविर्भाव का दिन माघ शुक्ल पक्ष तृतीय को माना जाता है। इस लिए ब्रम्हांड के रचयिता विश्वकर्मा भगवान की जयंती जनवरी महीने में माघ शुक्ल पक्ष तृतीया को मनाई जानी चाहिए और शिल्पी विश्वकर्मा भगवान की जयंती 17 सितंबर को मनाई जानी चाहिए, जिन्होंने सभ्यताओं और तकनीकों की रचना की थी। 

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