भगवान विष्णु सनातन धर्म की सर्वोच्च ईश्वरीय सत्ता के रुप में पूजे जाते हैं। लेकिन हम अक्सर पुराणों में पढ़ते हैं कि भगवान विष्णु शेषशय्या पर शयन करते रहते हैं। भगवान विष्णु योगनिद्रा के वश में आकर शयन करते दिखाए जाते रहे हैं। आखिर भगवान विष्णु शयन क्यों करते हैं? क्या है भगवान विष्णु के योगनिद्रा में शयन करने का रहस्य?
क्षीरसागर में शेषनाग की शैय्या पर विष्णु शयन करते हैं
पुराणों के अनुसार भगवान विष्णु का निवास क्षीर सागर है। महाभारत के अनुसार क्षीर सागर शकद्वीप के चारो तरफ है। भगवान विष्णु इसी क्षीरसागर के बीचो बीच सहस्त्र फणों वाले शेषनाग के शरीर रुपी शय्या पर शयन करते है। महाभारत, विष्णु पुराण, श्रीमद्भागवत पुराण और अन्य पुराणों के अनुसार शेषनाग, ऋषि कश्यप की पत्नी कद्रू की संतान हैं। उन्होंने अपने जन्म के बाद ही भगवान विष्णु की घोर तपस्या की थी । विष्णु शयन भगवान विष्णु से शेषनाग को यह वर मिला कि वो अनंत काल तक चिरंजीवी रहेंगे और हमेशा भगवान विष्णु की सेवा करेंगे।
भगवान विष्णु के सेवा कार्य के रुप में उन्हें उनकी शय्या बनने का सौभाग्य प्राप्त हुआ। शेषनाग के हजारों फन भगवान विष्णु के क्षत्र के रुप में कार्य करते हैं। पौराणिक मान्यता के अनुसार महाप्रलय के बाद जब सभी देवी- देवताओं का भी अंत हो जाता है तब भी प्रलय और अगली सृष्टि के अंतराल में शेषनाग और ऋषि मार्कण्डेय जीवित रहते हैं।
भगवान विष्णु शयन क्यों करते हैं: पौराणिक व्याख्या
- श्री दुर्गासप्तशती के अध्याय प्रथम, विष्णु पुराण , श्री मद्भागवत पुराण और अन्य पुराणों की कथा के अनुसार जब सृष्टि अपने क्रम में या लय में चलने लगती है तो भगवान विष्णु को महामाया या योगमाया अपनी योगनिद्रा के वशीभूत कर लेती है और सारी सृष्टि का संचालन अपने हाथों में ले लेती हैं।
- श्री दुर्गा सप्तशती के प्रथम अध्याय के अनुसार जब भगवान योगनिद्रा में शयन कर रहे थे तब उनके कानों के मैल से मधु और कैटभ नामक दो राक्षसों का जन्म हुआ और दोनों भगवान विष्णु की नाभि कमल पर स्थित ब्रह्मा जी को मारने के लिए दौड़ पड़े।
- मधु और कैटभ को अपनी ओर आते देख कर भगवान ब्रह्मा जी ने रक्षा के लिए योगमाया देवी की स्तुति की । योगमाया ने अपनी योगनिद्रा से भगवान विष्णु को मुक्त किया तब भगवान विष्णु ने मधु कैटभ का संहार किया ।
भगवान विष्णु शयन क्यों करते हैः एक तार्किक और ऐतिहासिक व्याख्या
ऋग्वैदिक काल में जब आर्यों का भारत में आगमन हुआ उस वक्त आर्य लगातार एक स्थान से दूसरे स्थान पर भ्रमण कर रहे थे। वो एक बंजारे की तरह एक स्थान से दूसरे स्थान तक अपने पशुओं के चारे और अपने भोजन के लिए भटक रहे थे। वो भारतीय उपमहाद्वीप में धीरे- धीरे प्रवेश करते हुए गंगा – यमुना दो-आब तक पहुंचे। इस दौरान उन्हें स्थानीय कबीलों से युद्ध करना पड़ा और अपनी गायों और अन्य पशुओं के चारे और अपने भोजन के लिए संघर्ष करना पड़ा। उनके जीवन में बहुत ही अनिश्चितता थी।
विष्णु से पहले इंद्र क्यों सबसे महत्वपूर्ण देवता थे?
इस पूरे ऋगवैदिक युग में उनके लिए सबसे महत्वपूर्ण देवता इंद्र थे। इंद्र एक योद्धा देवता थे जो आर्यों के शत्रुओं के किलों को नष्ट करते थे । आर्य लोग इंद्र से अपने शत्रुओं से रक्षा के लिए लगातार प्रार्थनाएं करते थे। इंद्र बदले में उन्हें सुरक्षा का आश्वासन देते थे और आर्यों के शत्रुओं से युद्ध करते थे। चूंकि आर्यों का जीवन अनिश्चित था और वो एक स्थान पर स्थिर नही हो सकते थे, इसलिए उनके देवता इंद्र भी अस्थिर देवता के रुप में दिखाए गए हैं। इंद्र का सिंहासन भी हमेशा अस्थिर रहता था । उन्हें भी अपने भक्त आर्यों की तरह ही शत्रुओं से पराजय का भय रहता था ।
इंद्र की तरह उनका स्वर्ग भी अस्थिर है
इसके अलावा आर्यों को अपने जीवन निर्वाह के लिए तात्कालिक, भौतिक और लौकिक वस्तुओं की जरुरत पड़ती थी। इसलिए इंद्र उन्हें भौतिक सुख की वस्तुएं उपलब्ध कराने मे मदद करते थे। इंद्र आर्यों को मृत्यु के बाद भी भौतिक सुख से संपन्न और अस्थिर स्वर्ग का सुख दे सकते थे । स्वर्ग एक अस्थिर लोक हैं जहां मृत्यु के बाद भी तभी तक रहा जा सकता है जब तक हमारे पुण्यों का बल हो। जैसे ही हमारे पुण्यों का क्षय होता है हमें फिर से पृथ्वी लोक पर जन्म लेना पड़ता है।
- पौराणिक युग में अच्युत और स्थिर भगवान विष्णु का आविर्भाव हुआआर्य जैसे ही गंगा- यमुना के दो- आब में पहुंचे उन्हे कृषि योग्य उपजाऊ जमीन मिल गई। इसके बाद आर्यों का जीवन संपन्नता से भर गया और वो स्थिर जीवन जीने लगे । इस युग में बड़े- बड़े नगरों का उदय हुआ ।
- आर्यों के जीवन में अब किसी भी प्रकार की अनिश्चितता नहीं रह गई । इसलिए अब उन्हें भी इंद्र की तरह एक अस्थिर देवता की जगह किसी स्थिर ईश्वरीय सत्ता की जरुरत पड़ने लगी ।
- ऐसे में भगवान विष्णु की पूजा का प्रचलन शुरु हुआ। भगवान विष्णु एक स्थिर ईश्वरीय सत्ता हैं। उन्हें पुराणों में ‘अच्युत’ अर्थात ‘कभी भी अपने स्थान से च्युत न होने वाला कहा गया है।‘ इंद्र जहां कभी भी स्वर्ग से सिंहासन से च्युत हो सकते थे , वहीं विष्णु अपराजेय और अच्युत अर्थात कभी भी अपने स्थान से न गिरने वाले थे।
आर्यों का जीवन और भगवान विष्णु के शयन के बीच संबंधआर्यों का जीवन जैसे ही स्थिर हो गया और उन्हें किसी भी प्रकार की अनिश्चितता का भय समाप्त हो गया , उसी समय से रोजमर्रा की आवश्यकताओं को पूरा करने वाले देवता इंद्र की आवश्यकता भी कम हो गई। ऐसे में आर्यों को अपने ईश्वर विष्णु से भी रोजमर्रा के कार्यों में जरुरत नहीं पड़ने लगी। पौराणिक आर्यों का संसार स्थिर और लय मे चलने लगा । इस संसार को लय में देख भगवान विष्णु भी विश्राम की मुद्रा में आ गए और शयन करने लगे ।
भगवान विष्णु की निद्रा और अवतारवाद का संबंध
भगवान विष्णु अब तभी अपनी निद्रा से जागते जब आर्यों के जीवन में कोई बहुत ही बड़ा धार्मिक और सामाजिक संकट आता । ऐसी अवस्था में विष्णु अवतार लेकर पृथ्वी पर आते और इस संकट को हल करने के पश्चात फिर से योगनिद्रा में शयन करने चले जाते हैं। अवतारवाद का मूल भी यही है। भगवान विष्णु अब तब ही अवतार लेकर पृथ्वी पर आते हैं जब धर्म की हानि होती है और साधुओं के उपर कोई विपत्ति आती है।
ऋग्वैदिक देवता इंद्र एक अस्थिर ईश्वरीय सत्ता थे इसलिए वो अस्थिर और घूमंतू आर्यों को भी मृत्यु के बाद एक तात्कालिक और कुछ समय के लिए ही उपलब्ध स्वर्ग का सुख दे सकते थे। इसके विपरीत विष्णु ‘अच्युत’ हैं। वो पूर्ण रुप से स्थिर हैं। आर्य भी स्थिर हो चुके थे और नगरो में रहने लगे इसलिए उन्हें मृत्यु के बाद भी जन्म-मरण के चक्र से मुक्त एक स्थिर स्थिति की आवश्यकता थी । विष्णु उन्हें मोक्ष देने का आश्वासन देते हैं। जहां स्वर्ग में पुण्यों के खत्म होने के बाद वापस पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ता था। मोक्ष की स्थिति में मृत्यु के बाद फिर से जीवन नहीं होता है । यह एक पूर्ण स्थिर स्थिति है।
इंद्र की हज़ार आंखे हैं और भगवान विष्णु की सिर्फ दो
ऋग्वैदिक आर्य हमेशा अपने शत्रुओं के आक्रमण से भयभीत रहते थे। इसलिए वो हमेशा सजग रहते थे। उनके देवता इंद्र हमेशा चौकन्ने रहते थे। इसलिए उनके हज़ार नेत्र थे जिससे वो हमेशा किसी भी अप्रत्याशित घटना को रोक सकें। वेदों में इंद्र को ‘सहस्त्राक्ष’ भी कहा गया है। पौराणिक काल मे आर्य स्थिर जीवन जीने लगे । नगरों में रहने लगे और अपनी सेना बना ली , तब उन्हें शत्रुओं का भय कम हो गया । इसलिए उनके भगवान विष्णु की दो आंखे ही हैं वो भी आधी खुली और आधी बंद ।
भगवान विष्णु के नेत्र क्यों आधे खुले और आधे बंद रहते हैं। ऐसा इसलिए है क्योंकि भगवान के लिए यह सृष्टि एक लीला है। भगवान इस संसार को वैराग्य भाव से देखते हैं क्योंकि भगवान इस संसार में लीला या खेल करते हुए भी इससे लिप्त नहीं होते । ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ में भगवान विष्णु के नेत्रों को ‘लोहिताक्ष’ अर्थात ‘रक्त के रंग’ का कहा गया है। भगवान विष्णु के नेत्रों का रंग रक्त की तरह लाल है, उनके नेत्र आधे खुले हैं जिससे वो इस संसार को वैराग्य भाव से देख रहे हैं और आधे बंद इसलिए हैं क्योंकि वो ध्यान की मुद्रा में हैं।
भगवान विष्णु के नेत्रों की महिमा :
पौराणिक श्लोकों मे भगवान विष्णु के अर्धनिद्रित ( आधे सोए नेत्र) नेत्रों की महिमा गाई गई है। उनकी आंखों की तुलना कमल के फूलों से करते हुए उन्हें ‘पुण्डरीकाक्ष’ ( कमल के जैसे नेत्र) कहा गया है। भगवान विष्णु के अवतार श्री राम को भी ‘राजीवनयन’ कहा गया है क्योंकि श्री राम के नेत्र भी भगवान विष्णु की तरह की कमल के फूलों के समान हैं।
किसी भी पूजा या अनुष्ठान से पहले सनातन धर्म में शुद्धिकरण की परंपरा है। शरीर की वाह्य शुद्धि के साथ आंतरिक शुद्धि भी जरुरी है। इसलिए सनातन धर्म में भगवान विष्णु के नेत्रों का ध्यान कर शरीर को वाह्य और आतंरिक रुप से शुद्ध किया जाता है। इसके लिए एक मंत्र का उच्चारण किया जाता है जिसमें भगवान विष्णु के ‘पुण्डरिक’ या कमल जैसे नेत्रों की महिमा गाई गई है-
ऊं अपवित्रः पवित्रोवा सर्वावस्था गतोपिवा।
यः स्मरेत पुण्डरीकाक्ष सः वाह्यांतरःशुचि।।
ऊं पुण्डरीकाक्षं, ऊं पुण्डरीकाक्षं ऊं पुण्डरीक ।।