भगवान शिव जिन्हें आदिदेव, महादेव, ईश्वर, महेश्वर, रुद्र, शंकर ,भोलेनाथ , पशुपतिनाथ आदि अनंत नामों से भक्त पुकारते हैं वो कौन हैं? क्या वो सिर्फ सृष्टि के संहार के देवता हैं? क्या वो त्रिदेव ब्रह्मा, विष्णु और शिव में तीसरी ईश्वरीय शक्ति हैं? क्या वो वही शिव हैं जो भष्म लपेटे, गंगा को अपने सिर पर धारण करने वाले और चंद्रमा को अपने मस्तक पर स्थान देने वाले कैलाश वास करने वाले भूतों और पिशाचों के साथ रहने वाले देवता हैं। क्या वो साकार ईश्वरीय शक्ति हैं या निराकार ईश्वरीय सत्ता हैं? आखिर कौन हैं शिव और क्यों उन्हें सबका स्वामी कहा जाता है ?
शिव हैं सबके स्वामी तथा सृष्टि के मूल
वैदिक ग्रंथों से लेकर पौराणिक ग्रंथों और महाकाव्यों आदि में सृष्टि के निर्माण करने और उसके निर्माता के बारे में कई मत दिये गए हैं। सांख्य दर्शन प्रकृति से सृष्टि की रचना की बात कहता है तो वेदांत सत् से सृष्टि के उत्पन्न होने का सिद्धांत देता है। लेकिन कोई भी इस बात पर सहमत नहीं हो पाया है कि आखिर सत् या प्रकृति किससे उत्पन्न होती है। कुछ पुराण भगवान विष्णु को जगत का मूल मानते है तो कुछ ब्रह्मा जी को ही सृष्टि का पितामह कहते हैं।
शिव पुराण और लिंग पुराण में निराकार अलिंगी सदाशिव को सृष्टि का मूल माना गया है। सदाशिव निराकार, निर्वचनीय और अनंत हैं। जब निराकार अव्यक्त सदाशिव एक से दो होने की इच्छा प्रगट करते हैं। इसके परिणाण स्वरुप निराकार अलिंगी सदाशिव साकार और ज्योतिर्गलिंग रुप में प्रगट होते हैं और उनके इस साकार रुप से ही माया या आद्या प्रकृति का उद्भव होता है।
इस आद्या प्रकृति से ही सारे जड़ और चेतन पदार्थों और वस्तुओं का निर्माण होता है। सदाशिव के लिंगी या साकार रुप से विष्णु और ब्रह्मा का जन्म होता है। आद्या प्रकृति के वामअंग से वाग्देवी सरस्वती का उदभव होता है और वो बह्मा के साथ सृष्टि की रचना में संलग्न होती हैं।
सृष्टि के पालन के लिए आद्या प्रकृति के दाहिने अंग से महालक्ष्मी का प्रादुर्भाव होता है और वो विष्णु के साथ जगत के पालन कार्य में संलग्न होती हैं। सदाशिव का साकार रुप ही एक अन्य स्वरुप धारण करके रुद्र के रुप में प्रगट होता है और आद्या प्रकृति से ही काली का उद्भव होता है। रुद्र और काली सृष्टि के संहार कार्य में संलग्न हो जाते हैं। इस प्रकार सृष्टि के मूल के रुप मे सदाशिव ही हैं जो सत् और असत् से परे हैं। वही सबके स्वामी हैं और उनके इस सत् स्वरुप का अँश हम सभी के अंदर स्थित है। इसलिए ज्ञानी जन शिवोSहं अर्थात हम शिव हैं का जाप कर उस परम सत् स्वरुप सदाशिव के साथ अपना तादात्मय स्थापित कर मुक्ति या मोक्ष प्राप्त करते हैं।
शिव उन्हें भी अपनाते हैं जिन्हें सभी त्याग देते हैं
चूंकि शिव परम सत् हैं औऱ उनसे ही सारी सृष्टि का उद्भव हुआ है इसलिए अच्छे – बुरे, पापियों और पुण्यात्माओं सबके लिए वो समान रुप से पूजनीय हैं। जहां विष्णु जी असुरों, दैत्यों, दानवों और राक्षसों के शत्रु के रुप मे विख्यात हैं, वहीं भगवान शिव के साकार रुप महादेव या रुद्र या महेश या शँकर जी के यहां सभी को समान अधिकार और संरक्षण प्राप्त है। सुकेशी नामक राक्षसों के पूर्वज को जब उसकी माता ने जन्म देने के साथ ही त्याग दिया था तब भगवान शिव ने उसे अपना लिया और अपने पुत्र के रुप में उसका लालन पालन किया। भगवान शिव ने सुकेशी और अन्य राक्षसों को देवताओं के क्रोध से बचाने का वरदान भी दिया।
शिव हैं समाज के बाहर खड़े लोगों के देवता
सनातन धर्म में जो भी कभी भी और किसी भी वजह से पीड़ित या शोषित रहा है भगवान शिव ने ही उसका दामन थामा है। शिव के गणों में भूत, पिशाच, दिव्यांग सभी शामिल हैं। वो कैलाश पर अपने इन्हीं गणों के साथ वास करते हैं। जब रावण ने कुबेर को लंका से भगा दिया था तब शिव ने ही कुबेर को शरण दी थी और उसे कैलाश में बसा कर अपना प्रिय सखा बना लिया था।
दलितों के ईश्वर हैं भगवान शिव
जहां विष्णु जी को ब्राह्म्णप्रिय कहा जाता है और ब्राह्मणों के द्वारा उनकी विशेष पूजा की जाती है वहीं भगवान शिव दलितों में भी समान रुप से पूजनीय हैं। भगवान शिव अपने डोम भक्तों के साथ काशी के श्मशान में वास करते हैं। दक्षिण में एक भील के द्वारा शिव लिंग पर मांस चढ़ाए जाने पर भी शिव के प्रसन्न होने की कथा आती है। भगवान शिव नास्तिक- आस्तिक सबको समान भाव से अपनाते हैं।
सामाजिक वर्णव्यवस्था के खिलाफ खड़े हैं शिव
ब्रह्मा जी ने जब संसार की सृष्टि की तो इस संसार में रीति रिवाजों और सामाजिक नियमों का परिपालन करवाने के लिए प्रजापतियों की सृष्टि की। इन प्रजापतियों का कार्य था कि समाज को नियमों के अनुसार चलाएं। इन प्रजापतियों ने कठोरता से वर्ण व्यवस्था को लागू किया। भगवान शिव ने इस वर्णव्यस्था के बाहर हो चुके दलितों और वंचितो को अपने गणों के रुप में स्थान दिया। भगवान शिव के इस कार्य से दक्ष प्रजापति से उनका वैर हो गया। हालांकि भगवान शिव का दक्ष के प्रति कोई वैर नहीं था लेकिन दक्ष उनसे शत्रुता रखता था।
- जब दक्ष की पुत्री सती ने अपने पिता की इच्छा के विरुद्ध जा कर भगवान शिव से विवाह कर लिया तो दक्ष ने अपनी पुत्री सती का त्याग कर दिया। जब एक बार दक्ष ने अपने यहां एक यज्ञ में सभी देवताओं को बुलाया लेकिन शिव को आमंत्रित नहीं किया तो सती अपने पिता के मोह में आकर वहां चली गईं। दक्ष ने वहां अपनी पुत्री के सामने भगवान शिव का अपमान किया। सती अपने पति शिव का अपमान बर्दाश्त नहीं कर सकीं और उन्होंने आत्मदाह कर लिया।
- भगवान शिव ने क्रोध में आकर दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर दिया। बाद में विष्णु और ब्रह्मा जी की मध्यस्थता से दक्ष को शिव ने जीवन दान दे दिया और दक्ष ने भी अपने कर्मकांडीय व्यवस्था में भगवान शिव और उनके गणों को स्थान दिया। इसके बाद से ही सभी कर्मकांडों में दलितों को भी शामिल किया जाने लगा और कुछ रीति रिवाजो मे उनके द्वारा किये गए कार्यों को अहम स्थान मिला।
प्रकृति में त्याज्य पदार्थों से की जाती है शिव की पूजा
भगवान शिव की पूजा के लिए किसी भी विशेष प्रकार के रीति रिवाजों और कर्मकांडों की आवश्यकता नहीं है। भगवान शिव को ऐसे पुष्प और फल भी चढ़ाए जाते हैं जो अन्य देवी – देवताओं को नहीं चढ़ाए जाते हैं। धतूरे के फूल और फल के साथ भगवान शिव को भांग भी चढ़ाया जाता है। भगवान शिव को बेलपत्र भी चढ़ाया जाता है जो किसी अन्य देवता को नहीं चढ़ाया जाता है।
हलाहल विष का पान करने वाले महान ईश्वर शिव
जब अमृत के लिए समुद्र मंथन किया जा रहा था तो उस मंथन से कई चमत्कारिक वस्तुएं निकली जिन्हें अलग- अलग देवताओं ने अपना लिया। लेकिन भगवान शिव को कुछ भी समर्पित नहीं किया गया। लेकिन जब अमृत के पहले हलाहल विष निकला तो सारा संसार जलने लगा और इस कालकूट विष को ग्रहण करने के लिए कोई भी देवता तैयार नहीं हुआ। ऐसे में संसार के रक्षक भगवान शिव ने ही हलाहल विष का पान किया और संसार की रक्षा की।