भगवान शिव_महादेव

भगवान शिव को महादेव क्यों कहते हैं ?

शुद्ध सनातन धर्म में कई देवी और देवताओं की महिमा गाई गई है । लेकिन सिर्फ एक ही ईश्वरीय सत्ता हैं जिन्हें देवों का देव ‘महादेव’ कहा जाता है । भगवान शिव को शास्त्रों में ‘महादेव’ भी कह कर उनकी वंदना की गई है । आखिर क्यों त्रिदेवों में सृष्टि के रचयिता ब्रम्हा और पालनकर्ता विष्णु को छोड़कर सिर्फ भगवान शिव के लिए महादेव की उपाधि का प्रयोग किया गया है । 

महाभारत में हैं महादेव की कथा :

महाभारत के कर्ण पर्व के अध्याय 33 से भगवान शिव की एक अद्भुत कथा और उनके पराक्रम का वर्णन किया गया है । इस कथा में दुर्योधन मद्र नरेश शल्य को शिव के द्वारा त्रिपुर के तीन राक्षसों तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली के वध की कथा सुनाते हैं और कहते हैं कि जिस प्रकार ब्रम्हा जी ने शिव जी के रथ का सारथि बनना स्वीकार किया था ताकि त्रिपुर असुरों का वध किया जा सके उसी प्रकार शल्य भी कर्ण के सारथि बनना स्वीकार करें ।

त्रिपुरांतक शिव :

शिव पुराण में भी यह कथा थोड़े विस्तार और अलग तरीके से दी गई हैं । कथा के अनुसार जब भगवान शिव के पुत्र कार्तीकेय ने तारकासुर का वध कर दिया तब उसके तीन पुत्रों तारकाक्ष, कमलाक्ष और विद्युन्माली ने गहन तपस्या की और ब्रम्हा जी से अमरता का वरदान मांगा । ब्रम्हा जी ने अमरता का वरदान देने से इंकार कर कोई दूसरा वर मांगने के लिए कहा । 

तब तीनों राक्षसों ने ब्रम्हा जी से एक अद्भुत वर मांगा, इस वर के मुताबिक विश्वकर्मा के पुत्र मय तीन ऐसे विमानरुपी नगरों का निर्माण करता जो स्वर्गलोक, अंतरिक्ष लोक और पृथ्वी पर इच्छानुसार गमन करता और इसमें रहने वाले किसी भी प्राणी को कोई भी राक्षस, देवता, किन्नर, यक्ष आदि तब तक नहीं मार सकते थे जब तक इन तीनों नगरों को एक ही बाण से नहीं नष्ट किया जा सके । ये नगर भी तब ही नष्ट हो सकते थे जब वो तीनों नगर अभिजीत नक्षत्र में एक साथ कुछ पलों के लिए एक दूसरे के साथ एक ही पंक्ति में स्थित हों । 

ब्रम्हा ने विश्वकर्मा के पुत्र मय को ऐसे तीन नगर बनाने का आदेश दिया । पहला नगर जो स्वर्ण का बना उसे स्वर्गलोक में प्रतिष्ठित किया गया । इस नगर का राजा तारकाक्ष बना । दूसरा नगर जो चांदी का बना उसे अंतरिक्ष लोक में प्रतिष्ठित किया गया । इसका राजा कमलाक्ष बना। तीसरा नगर लोहे का था जिसे पृथ्वी पर प्रतिष्ठित किया गया और इसका राजा विद्युन्माली बना । 

त्रिपुर के असुरों का पराक्रम :

तारकासुर के तीनों पुत्र तारकाक्ष , कमलाक्ष और वुद्युन्माली अपने तीनों नगरों पर वेद नीति के अनुसार शासन करने लगे और तीनों राक्षसों की महिमा चारो तरफ फैल गई । तीनों नगर अद्भुत थे । ये इच्छामात्र से कहीं भी गमन कर सकते थे । इन तीनों नगरों में इच्छा करने मात्र से ही वस्तुएं प्रगट हो जाती थीं । कई वर्षों तक ये तीनों भाई अपने अपने नगरों मे न्यायपूर्वक शासन करने लगे । संसार के सारे असुर, दैत्य और दानव इन तीनों नगरो में आकर ऐश्वर्य से रहने लगे । तीनों के ऐश्वर्य को देख कर देवताओं को ईर्ष्या होने लगी । 

देवताओं का त्रिदेवों के पास जाना :

त्रिपुर के तीनों असुर भाइयों के शासन को नष्ट करने की इच्छा लेकर सभी देवता पहले ब्रम्हा के पास पहुंचे और उनसे इन तीनों भाइयों और उनके तीनों नगरों को नष्ट करने का आग्रह किया । ब्रम्हा जी ने देवताओं को मना कर दिया । ब्रम्हा जी ने कहा कि जब तक ये वेदों के अनुसार शासन कर रहे हैं और कोई पापकर्म नहीं कर रहे तब तक इनको मारा नहीं जा सकता है । शिव जी ने भी देवताओं से ऐसा ही कहा । शुरु में विष्णु ने भी इन नगरों और असुरों को मारने से इंकार कर दिया । 

भगवान श्री हरि विष्णु ने निकाला उपाय :

जब विष्णु ने भी त्रिपुर राक्षसों को मारने से इंकार कर दिया तब देवता निराश हो गए । तब विष्णु जी ने देवताओं से कहा कि इसका हल यही है कि अगर ये तीनों असुर भाई वेदों को भूल जाएं तो पाप कर्म अपने आप करने लगेंगे । ऐसे में इनको मारने का न्यायोचित कारण मिल जाएगा । तब विष्णु जी ने एक संन्यासी की रचना की और उसे वेदों के विपरीत ज्ञान से दक्ष कर दिया । उस संन्यासी को कहा कि जाओ और तीनो असुर भाइयों को वेदो का विरोधी बना दो । इस संन्यासी को भगवान विष्णु ने ऐसा शिक्षित किया कि उसने सबसे पहले नारद जी को ही वेदों का विरोधी बना कर मोहित कर दिया ।

फिर नारद जी स्वयं इन तीनों भाइयों के पास गए और इस संन्यासी को अपना गुरु बनाने के लिए कहा । नारद जी की बात को मान कर तीनों असुर भाइयों ने इस संन्यासी से शिक्षा लेनी शुरु कर दी । इस संन्यासी के प्रभाव में आकर इन तीनों असुर भाइयों ने शिव की पूजा का बहिष्कार कर दिया , वेदों के विरोधी बन गए और देवताओं पर आक्रमण कर तीनों लोकों को जीत लिया ।  अब ये तीनों असुर पापी हो चुके थे । इन तीनों असुर भाइयों में सबसे बड़े भाई तारकाक्ष के पुत्र हरि ने भी कठिन तपस्या की और ब्रम्हा जी से वरदान प्राप्त किया । इस वरदान के मुताबिक उसने एक ऐसी बावड़ी बनवाई जिसके अंदर किसी भी मृत असुर के शरीर को डाल देने पर वो फिर से जीवित हो उठता था । इस प्रकार एक तरीके से असुरों को उसने अमर कर दिया। अब धीरे – धीरे असुरों का अत्याचार सीमाओं को पार करने लगा ।

महादेव
देवताओं द्वारा शिव की प्रार्थना :

इसके बाद देवतागण भगवान शिव के पास गए और उनसे इन अत्याचारी असुर भाइयों का वध करने और इनके तीनों नगरों ( पुरों) को नष्ट करने का आग्रह किया । इस बार असुरों का अत्याचारी रुप देख कर शिव जी द्रवित हो गए और देवताओं की सहायता का वचन दे दिया ।

कैसे मिली शिव को ‘महादेव’ की उपाधि :

भगवान शिव ने पहले देवताओं से कहा कि वो उनकी शक्ति का आधा भाग ले लें और असुरों का नाश कर दें। ऐसे में देवताओं ने उनसे निवेदन किया कि वो भगवान शिव की शक्ति को धारण करने में असमर्थ हैं। 

तब शिव जी ने कहा कि समस्त देवतागण अपनी आधी शक्तियां भगवान शिव में समाहित कर दें, देवतागण इसके लिए राजी हो गए, समस्त देवताओं के देव भाग को धारण करने की वजह से शिव जी देवताओं से भी ज्यादा शक्तिशाली हो गए इसलिए ही भगवान शिव देवों के देव अर्थात महादेव कहे गए –

स तु देवो बलेनासीत् सर्वेभ्यो बलवत्तरः ।
महादेव इति ख्यातस्ततः प्रभृति शंकरः ।।

महाभारत, कर्ण पर्व अध्याय 34, श्लोक 13

त्रिपुर असुरों के वध की योजना :

जब देवताओं ने महादेव शिव को अपने तेज का आधा बल दे दिया तब शिव और भी शक्तिशाली हो गए । तब उन्होंने देवताओं से एक असंभव रथ और अद्भुत धनुष बाण बनाने के लिए कहा ताकि वो तीनों पुरों को नष्ट कर सकें। 

शिव के लिए असंभव रथ का निर्माण :

महाभारत के कर्ण पर्व के अध्याय 34 के अनुसार तब देवताओं के प्रयत्नों से पृथ्वी रथ बनीं। मंदराचल उस रथ की धुरी बना ।गंगा, सिंधु और सरस्वती नदियां उस धुरी का आश्रय बनीं। दिशाएं उस रथ का आवरण बनीं, दिन, रात, कला , काष्ठा और छहों ऋतुएं उस रथ के पहिए का काष्ठ बनीं । सूर्य और चंद्र उस रथ के पहिए बनें ।इंद्र, वरुण, यम और कुबेर उस रथ के घोड़े बनें । 

धर्म, सत्य, तप और अर्थ इन घोड़ों की लगाम बनें ।नागराज वासुकि उस रथ का ईषदंड बनें । वषट्कार उस रथ के घोड़ों का चाबुक हुआ और गायत्री उस रथ के उपरी भाग की बंधन रज्जु बनीं ।मेरुपर्वत रथ के ध्वज का दण्ड बना और बिजलियों से विभूषित मेघ उस ध्वज की पताकाएं बनीं । ध्वज पर साक्षात वृषभ नंदी विराजित थे । रथ के तैयार हो जाने के बाद भगवान शिव के चारों तरफ ब्रम्हदंड, रुद्रदण्ड ,कालदंड और ज्वर पार्श्वरक्षक बन कर खड़े हो गए । ऋषि अर्थवा और अंगिरा इस रथ के पहियों की रक्षा करने लगे और ऋग्वेद , सामवेद और यजुर्वेद उस रथ के आगे चलने वाले योद्धा हुए ।

शिव के लिए महान धनुष का निर्माण :

महाभारत के अनुसार त्रिपुर असुरों के वध के लिए भगवान शिव ने एक अदभुत और अविश्वसनीय धनुष और बाण की कामना की । तब पूर्व में शिव जी के यज्ञ में निर्मित ‘संवत्सर’ वह महान धनुष बना ।  सावित्री उस धनुष की प्रत्यंचा बनीं ( कुछ ग्रंथो के अनुसार नागराज वासुकि उस धनुष की प्रत्यंचा बनें और महाभारत के इसी कर्ण पर्व के एक श्लोक के अनुसार स्वंय कालरात्रि को उन्होंने अपनी प्रत्यंचा बनाई ) । 

साक्षात विष्णु, अग्नि और चंद्रमा भगवान शिव के बाण बनें । ऐसा इसलिए क्योंकि सारा संसार ही अग्नि और सोम का स्वरुप है और साथ ही सारा संसार विष्णुमय है । 

विष्णुश्चात्मा भगवतो भवस्यामिततेजसः।
तस्माद् धनुर्ज्यासंस्पर्शे न विषेहुर्हस्य ते ।।

महाभारत,कर्ण पर्व , अध्याय 34, श्लोक 50

अर्थात : चूंकि अमिततेजस्वी भगवान शंकर की आत्मा विष्णु हैं इसलिए वे दैत्य भगवान शंकर के धनुष की प्रत्यंचा और बाण का वेग न सह सकें । 

भगवान शंकर ने अग्नि, चंद्रमा और विष्णु रुपी बाण में अपनी क्रोधाग्नि को भी स्थापित कर दिया और साथ ही अंगिरा और भृगु के क्रोध को भी स्थापित कर दिया ।

ब्रम्हा जी बने शिव के सारथि :

इस दिव्य रथ पर जब भगवान शिव आरुढ़ हुए तब उन्होंने प्रश्न किया कि मेरे इस दिव्य रथ का सारथि कौन बनेगा। शिव ने कहा मेरे रथ का सारथि वो होगा जो मुझसे भी श्रेष्ठ हो –

तानब्रवीत पुनर्देवो मत्तः श्रेष्ठतरो हि यः ।
तं सारथि कुरुध्वं में स्वयं संचिन्तय मा चिरम ।।

महाभारत, कर्ण पर्व , अध्याय 34, श्लोक 63

इसके बाद देवताओं के अनुरोध पर पितामह ब्रम्हा इस रथ के सारथि बनते हैं 

विष्णु ने लिया ‘वृषभ’ अवतार : 

जब शिव का रथ चलने लगा और महादेव ने धनुष का संधान करने की कोशिश की तो ब्रम्हा और शिव का बोझ यह दिव्य रथ संभाल न सका । तब नारायण ने बाण के एक भाग से बाहर निकल कर वृषभ का रुप धारण किया और रथ को उपर उठाने का कार्य शुरु किया । 

त्रिपुरों का एक साथ मिलना :

त्रिपुर के तीनों असुरों को यह वरदान मिला था कि जब उनके तीनों नगर एक नक्षत्र में एक हजार साल बाद एक पंक्ति में खड़े हो जाएं और एक ही बाण से तीनों नगरों को नष्ट किया जा सके तभी इन असुरों और तीनों नगरों का अंत हो सकेगा ।  जब शिव ने धनुष पर बाण चढ़ाया और चिंतन किया तो तीनों पुर एक साथ एक ही पंक्ति में आ गए ।

त्रिपुर संहार :

तीनों पुरों के एक पंक्ति में आते ही रुद्र ने वो अद्भुत बाण चलाया और तीनों नगर एक साथ धू -धू कर जलने लगे और उसमे रहने वाले सारे असुर भाइयों का अंत हो गया । त्रिपुर असुरों का संहार करने के कारण भगवान शिव संसार में ‘त्रिपुरारि’ और ‘त्रिपुरांतक’ के नाम से प्रसिद्ध हुए ।

शिव के आंसू और ” रुद्राक्ष “:

शिव पुराण के अनुसार इस महान पराक्रम के बाद जब कई असुरों का अंत हो गया और बाकि बचे असुरों ने भगवान शिव से क्षमा मांगी तब शिव जी का भावुक ह्दय द्रवित हो गया और उनकी आंखो से आंसू निकलने लगे । भगवान रुद्र की आंखो से जो आंसू निकले वहीं रुद्राक्ष बन गए । भगवान शिव ने असुरों को क्षमा प्रदान किया और अपने शिवगणों में शामिल कर लिया । 

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