श्रीमद्भगवद्गीता

शुद्ध श्रीमद्भगवद्गीता, अध्याय 2: क्षत्रिय धर्म और युद्ध की आवश्यकता।Bhagavad Gita: necessity of War

अक्सर ये आरोप लगाया जाता रहा है कि श्रीमद्भगवद्गीता युद्ध के लिए प्रेरित करती है। विधर्मियों और दूसरे धर्म के लोगों के द्वारा ये आरोप लगाया जाता रहा है कि श्रीमद्भगवद्गीता शांति का शास्त्र नहीं है, बल्कि ये युद्ध और हिंसा को बढ़ावा देती है। लेकिन कभी किसी ने इस बात का विश्वलेषण नहीं किया कि किन हालातों में युद्ध की आवश्यकता आ जाती है। क्षत्रिय धर्म सिर्फ युद्ध कर्म नहीं है बल्कि ये समाज और राष्ट्र में व्याप्त हो चुके अधर्म और कुव्यवस्था को दूर करने के लिए किया गया आपद् कर्म है।

श्रीमद्भगवद्गीता और क्षत्रिय धर्म

भगवान श्रीकृष्ण श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 2 (Chapter 2) के श्लोक 31 से पहले अर्जुन को अविनाशी सत्( essence of the universe or Basic element of the universe ) के विषय में ज्ञान देते हैं। भगवान उन श्लोकों में बार- बार बताते हैं कि “भीष्म और द्रोण आदि को मारने से जिस पाप भाव से ग्रस्त होने की तू बात कर रहा है वो निराधार हैं, क्योंकि भीष्म, द्रोण, और स्वयं तू या मैं भी सत् ( essence of the universe or Basic element of the universe ) रुप में अविनाशी हैं । सत् ( essence of the universe or Basic element of the universe ) रुप में हम सभी अजर और अमर हैं लेकिन शरीर रुप से नाशवान हैं। इसलिए तू युद्ध से पलायन मत कर ।”

भगवान श्लोक 31 से 38 में अर्जुन को कायरता छोड़ कर क्षत्रिय धर्म का पालन करने का ज्ञान देते हैं । इन श्लोकों में अर्जुन के उन सारे संशयों के निराकरण का प्रयास किया गया है जो अध्याय 1 के 28- 29 से शुरु होते हैं। अर्जुन अध्याय 1 के श्लोक 28- 29 से विषाद में चला जाता है।

अर्जुन अपने स्वजनों के मोह से इतना अधिक भ्रमित है कि वो उन्हें मार कर पाप का भागी नहीं होना चाहता । इसके लिए वो अपने गांडीव धनुष को रख देता है और युद्ध से पलायन कर जंगल में जाने की बात करता है। अर्जुन को यह भी लगता है कि भले ही इस युद्ध के पलायन से उसे कायर कहा जाएगा, लोग उसकी आलोचना करेंगे , उसकी वीरता पर सवाल उठाएंगे, फिर भी वह अपने स्वजनों की हत्या नहीं करना चाहता है। वह इसके लिए राज्य के सुख, संभावित स्वर्ग के सुख आदि का भी त्याग करना चाहता है।

परंतु भगवान श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 2 (Chapter 2) के दूसरे श्लोक में ही अर्जुन के इस व्यवहार पर आश्चर्य प्रगट करते है –

कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन॥2.2॥
kutastvā kaśmalamidaṅ viṣamē samupasthitam.
anāryajuṣṭamasvargyamakīrtikaramarjuna৷৷2.2৷৷

अर्थ: “इसलिए हे अर्जुन! नपुंसकता को मत प्राप्त हो, तुझमें यह उचित नहीं जान पड़ती। हे परंतप! हृदय की तुच्छ दुर्बलता को त्यागकर युद्ध के लिए खड़ा हो जा।”

क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते ।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप ॥2.3॥
klaibyaṅ mā sma gamaḥ pārtha naitattvayyupapadyatē.
kṣudraṅ hṛdayadaurbalyaṅ tyaktvōttiṣṭha parantapa৷৷2.3৷৷

अर्थ : श्री भगवान बोले – “हे अर्जुन ! तुझे इस असमय में यह मोह किस हेतु से प्राप्त हुआ? क्योंकि न तो यह श्रेष्ठ पुरुषों द्वारा आचरित है, न स्वर्ग को देने वाला है और न कीर्ति को करने वाला ही है।”

अर्जुन को भगवान अनार्यों जैसा आचरण करने वाला तक कह देते हैं । यहां तक कि अर्जुन को नपुंसक तक बोल देते हैं। लेकिन फिर भी अर्जुन श्री कृष्ण की बात मानने को तैयार नहीं है । उसे न तो राज्य चाहिए, न स्वर्ग का सुख और न ही महान क्षत्रिय होने की उपमा । हालांकि अर्जुन अध्याय 2 के 7वें श्लोक में भगवान से इस संशय और मोह से निकलने का रास्ता पूछता है। वो भगवान का शिष्यत्व भी स्वीकार कर लेता है, ताकि भगवान उसे कल्याणकारक साधन बताएं।

 भगवान सबसे पहले उसके उस संशय को दूर करने का प्रयास करते हैं, जिसमें उसे लगता है कि वो अपने स्वजनों की हत्या का पाप करने जा रहा है। भगवान अध्याय 2 के श्लोक 11 से 30 तक यह बतलाते हैं कि जिन्हें वो मारने जा रहा है, वो मूल रुप से उसी अविनाशी सत्( essence of the universe or Basic element of the universe ) के अंश हैं, जिसके अंश स्वयं अर्जुन और शरीर रुप में श्रीकृष्ण भी हैं। इन श्लोकों में भगवान सत् ( essence of the universe or Basic element of the universe ) के सिद्धांत के द्वारा यह समझाते हैं कि “कोई किसी को न तो मार सकता है और न किसी के द्वारा मारा जा सकता है, क्योंकि सभी उसी अविनाशी सत् के अंश हैं। इसलिए किसी के मरने या मारने पर शोक करना बेकार है।”

इसके बाद भगवान अर्जुन को उसके क्षत्रिय धर्म की याद दिलाते हैं। अर्जुन एक क्षत्रिय है, जिसका कार्य धर्म के लिए युद्ध करना है। सालों तक धृतराष्ट्र के पुत्रों के द्वारा अधर्म और अन्याय करने के बाद भाग्य से यह अवसर आया है, जब अर्जुन धर्मपूर्वक युद्ध कर अपने और अपने भाइयों के साथ हुए अन्याय का बदला ले सके । लेकिन अर्जुन इसकी जगह कायरता को अपना कर इस युद्ध के परिणाणों को भोगना नहीं चाहता और पलायन कर रहा है

धर्म की स्थापना के लिए जरुरी है क्षत्रिय धर्म का पालन :

भगवान अध्याय 2 के श्लोक 31 से 38 तक में अर्जुन के क्षत्रिय धर्म की स्मृति करा कर उसे युद्ध की आवश्यकता के बारे में समझाते हैं।

स्वधर्ममपि चावेक्ष्य न विकम्पितुमर्हसि ।
धर्म्याद्धि युद्धाच्छ्रेयोऽन्यत्क्षत्रियस्य न विद्यते ॥2.31॥
svadharmamapi cāvēkṣya na vikampitumarhasi.
dharmyāddhi yuddhāchrēyō.nyatkṣatriyasya na vidyatē৷৷2.31৷৷

अर्थः “तथा अपने धर्म ( क्षत्रिय धर्म) को देखकर भी तूझे विचलित या विकम्पित नहीं होना चाहिए, क्योंकि धर्मरुप युद्ध से बढ़ कर क्षत्रिय के लिए दूसरा कुछ भी कल्याणकारक नहीं है।”

व्याख्याः- अर्जुन जानता है कि वो एक क्षत्रिय है और युद्ध करना उसका कार्य है। लेकिन उसे अपने इस क्षत्रिय धर्म के पालन के फलस्वरुप जो परिणाम उत्पन्न होगा उससे वह विचलित है। उसे पता है कि अगर उसने अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करते हुए युद्ध शुरु कर दिया तो इससे महाविनाश होगा। अपने इस क्षत्रिय धर्म के पालन कार्य में उसे अपने ही स्वजनों का रक्त बहाना पड़ेगा। इसलिए ही अर्जुन विचलित हुआ था। विचलित होकर ही उसने युद्ध न करने का निर्णय कर लिया था।

भगवान अर्जुन को विचलित होते देख चुके हैं। इसलिए वो अर्जुन से इसका त्याग करने के लिए कह रहे हैं। भगवान अर्जुन से कह रहे हैं कि “तू धर्मरुप युद्ध कर क्योंकि इसके अतिरिक्त क्षत्रिय के लिए कुछ भी कल्याणकारक नहीं है।”

भगवान जानते हैं कि अगर अर्जुन ने अपने क्षत्रिय धर्म का परित्याग कर युद्ध से पलायन कर लिया तो वह जी नहीं पाएगा। क्योंकि वो अपने अवचेतन मन से ही क्षत्रिय है। वो कायर होकर ज्यादा दिन जी नहीं पाएगा। जब लोग उसका मजाक उड़ाएंगे, लोग उसकों कायर और नपुंसक कहेंगे तो वो इस अपमान को बर्दाश्त नहीं कर पाएगा। वो जीवित रह कर भी एक मृत व्यक्ति के समान रह जाएगा । उस व्यक्ति की तरह जिसने अपना सम्मान और अपनी सारी कीर्ति का नाश कर दिया है।

इसलिए भगवान अर्जुन के इस अस्थाई भाव को ज्यादा महत्व नहीं दे रहे हैं। भगवान जानते हैं कि अगर अर्जुन के सामने उसके स्वजन नहीं होते तो उसे अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करने में जरा सी भी कठिनाई नहीं होती । बस उसे समझाना यह है कि “तुम अपने स्वजनों को भी नहीं मार रहे हो, क्योंकि वो भी उसी अविनशी सत् ( essence of the universe or Basic element of the universe ) के अंश हैं। इसलिए बेहतर यही है कि तुम अपना पराया का मोह छोड़ कर युद्ध करो, क्योंकि तुम्हारे स्वभाव में ही युद्ध करना है। यही तुम्हारे लिए कल्याणकारक है ।”

यदृच्छया चोपपन्नां स्वर्गद्वारमपावृतम् ।
सुखिनः क्षत्रियाः पार्थ लभन्ते युद्धमीदृशम् ॥2.32॥
yadṛcchayā cōpapannaṅ svargadvāramapāvṛtam.
sukhinaḥ kṣatriyāḥ pārtha labhantē yuddhamīdṛśam৷৷2.32৷৷

अर्थः- “हे पार्थ! अपने आप यानि अनायास प्राप्त हुए और स्वर्ग के खुले हुए द्वार रुप इस युद्ध को सुखी और भाग्यशाली क्षत्रिय प्राप्त करते हैं।”

व्याख्याः- महाभारत के युद्ध को टालने के लिए अथक प्रयास किये गये। पांडव हमेशा युद्ध की जगह शांति चाहते थे। युद्ध टालने की वजह से उन्होंने सारे अपमान सहे। द्रौपदी का चीरहरण मूक हो कर बर्दाश्त किया। 13 वर्षो का वनवास स्वीकार किया। यहां तक कि स्वयं श्रीकृष्ण भी शांतिदूत बन कर कौरवों की सभा में गए और पांडवों के लिए सिर्फ पांच गांव मांगे। लेकिन दुर्योधन ने सूई की नोंक के बराबर भूमि भी देने से इंकार कर दिया।

भगवान कहते हैं कि “जिस युद्ध को टालने में संसार की सारी शक्तियां लग गईं वो युद्ध दैवयोग से आज तुम्हारे सामने आ खड़ा हुआ है। पांडव सेना सिर्फ अर्जुन के भरोसे इस युद्ध में खड़ी थी। अर्जुन ने इसके लिए पहले से ही तैयारी कर रखी थी। वो स्वर्ग में जाकर अनेक दिव्यास्त्र प्राप्त कर चुका था भगवान शिव को प्रसन्न कर उसने पशुपातास्त्र भी प्राप्त किया था।

अब जब सारे शांति प्रयासों के बावजूद यह युद्ध अपने आप उसके सामने आ खड़ा हुआ है तो वो युद्ध से पलायन की बात कर रहा है । अपने परिवार पर हुए जिस अन्याय को दूर करने के लिए वो दिन रात मेहनत करता रहा, आज जब वही मौका आया है तो वो युद्ध से कायर की तरह भाग रहा है।

भगवान अर्जुन को कह रहे हैं कि “यह एक दुर्लभ अवसर आ गया है । तुम्हारे लिए यह युद्ध स्वर्ग के खुले द्वार की तरह है । तुम युद्ध में विजयी होगे और राज्य सुख भी भोगोगे और अपने और अपने परिवार पर हुए अन्याय का बदला भी ले लोगे।” भगवान कहते हैं कि “भाग्यशाली क्षत्रियों को ही ऐसा मौका मिलता है । अपनी तपस्या और मेहनत को आजमाने का मौका भाग्यशाली लोगों को ही मिलता है।” भगवान अर्जुन से इस मौके का लाभ उठाने के लिए कह रहे हैं।

अथ चेत्त्वमिमं धर्म्यं सङ्ग्रामं न करिष्यसि ।
ततः स्वधर्मं कीर्तिं च हित्वा पापमवाप्स्यसि ॥2.33॥
atha caittvamimaṅ dharmyaṅ saṅgrāmaṅ na kariṣyasi.
tataḥ svadharmaṅ kīrtiṅ ca hitvā pāpamavāpsyasi৷৷2.33৷৷

अर्थः- “अब यदि तू इस धर्मरुप संग्राम को नहीं करेगा तो अपने धर्म और कीर्ति को खो कर पाप करोगे ।”

व्याख्याः- धर्म का त्याग संसार का सबसे बड़ा पाप है। अपने धर्म की रक्षा के लिए असत्य वाचन भी पुण्यकारक है। भगवान अर्जुन को कह रहे हैं कि यह युद्ध धर्मरुप है । भगवान ने धर्म की संस्थापना के लिए ही अवतार लिया है । इस युद्ध के बाद धर्म की संस्थापना होनी तय है, क्योंकि अधर्म रुपी कौरवों की सेना का नाश होने वाला है। अगर अब अर्जुन भगवान के इस धर्म संस्थापना के उद्देश्य में साथ नहीं खड़ा होता है तो निश्चित ही वो पाप का भागी होगा।

इसके अलावा अर्जुन एक क्षत्रिय है, जिसका कार्य अन्याय और अधर्म के नाश के लिए युद्ध करना है। जिन दुर्योधन आदि ने पूरे राष्ट्र और पांडवों के परिवार के साथ अधर्म किया, उसका नाश न करना क्षत्रिय धर्म के साथ द्रोह और पाप है। भगवान अर्जुन से कह रहे हैं कि “अगर तू इस धर्मरुपी संग्राम को नहीं करेगा तो पाप का भागी होगा ।”

भगवान अर्जुन को यह भी कह रहे हैं कि इस धर्मरुपी युद्ध में जो भी शामिल हैं ,वो भगवान के द्वारा धर्म संस्थापना के कार्य में सहयोगी हैं। इस महायुद्ध में भाग लेने वाले चाहे विजयी हों या पराजित इतिहास में अमर हो जाएंगे । लेकिन जो इस युद्ध से पलायन करेगा वो अपनी कीर्ति को नष्ट करेगा और पाप का भागी हो जाएगा।

अकीर्तिं चापि भूतानि, कथयिष्यन्ति तेऽव्ययाम् ।
सम्भावितस्य चाकीर्ति- र्मरणादतिरिच्यते ॥2.34॥
akīrtiṅ cāpi bhūtāni kathayiṣyanti tē.vyayām.
saṅbhāvitasya cākīrtirmaraṇādatiricyatē৷৷2.34৷৷

अर्थः- “और इतना ही नहीं सब लोग भी तेरी अव्यय( सदा रहने वाली )अकीर्ति की चर्चा करेंगे । अकीर्ति प्रतिष्ठित पुरुष के लिए मृत्यु से भी ज्यादा अधिक दुखदायी और बुरी होती है।”

व्याख्याः- भगवान अर्जुन को इस ऐतिहासिक धर्मरुप युद्ध में अपने क्षत्रिय धर्म का पालन करने के लिए बार- बार कह रहे हैं। क्योंकि भगवान जानते हैं कि महाभारत का यह युद्ध इतिहास में अनंतकाल के लिए अमर रहेगा । ऐसे में अगर अर्जुन जैसा वीर युद्ध से पलायन कर जाता है तो उसके पलायन करने की कथा भी इस युद्ध के साथ अमर हो जाएगी ।अर्जुन को युद्ध के पलायन करने से जो बदनामी या अकीर्ति मिलेगी वो सीमित समय के लिए नहीं होगी, बल्कि इस ऐतिहासिक युद्ध की तरह अमर हो जाएगी । अनंत काल तक लोग अर्जुन की इस कायरता का वर्णन करेंगे।

भगवान कहते हैं कि “अकीर्ति या बदनामी प्रतिष्ठित पुरुष के लिए मृत्यु से भी ज्यादा दुखदायी और बुरी होती है।” भगवान जानते हैं कि अर्जुन संसार में अब तक हुए महान वीरों की श्रेणी में सर्वोत्तम स्थान रखता है। उसने भगवान शिव को युद्ध में संतुष्ट कर उन्हें प्रसन्न कर ख्याति प्राप्त की है। उसने असंख्य राजाओं को पराजित किया है। विराट के युद्ध में भीष्म, द्रोण, कर्ण सबको अकेले ही पराजित कर संसार के सर्वोत्तम वीरों में अपना नाम दर्ज कराया है। यह युद्ध नहीं भी होता तो भी अर्जुन की वीरता की कथाएं अमर रहती ।

परंतु, भगवान जानते हैं कि अगर अर्जुन ने युद्ध से अभी पलायन कर लिया तो उसकी सारी वीरता के किस्से उसकी कायरता की इस कथा के सामने मलीन पड़ जाएंगे। महाभारत के अमर युद्ध के बाद अनंत काल तक उसकी कायरता को लोग याद रखेंगे। भगवान कहते है कि “प्रतिष्ठित पुरुष के लिए अकीर्ति मृत्यु से भी अधिक बुरी है।” इसका अर्थ यह है कि मृत्यु के बाद शरीर तो चला जाता है, लेकिन व्यक्ति के कर्म इतिहास में अमर हो जाते हैं। व्यक्ति अपने कर्मों से अमर हो जाता है । अब अगर अर्जुन पलायन कर रहा है तो उसकी यह कायरता का कर्म उसकी मृत्यु के बाद भी अमर रह जाएंगे जो किसी भी प्रतिष्ठित पुरुष के लिए बहुत बुरी होती है।

भयाद्रणादुपरतं मंस्यन्ते त्वां महारथाः ।
येषां च त्वं बहुमतो भूत्वा यास्यसि लाघवम्‌ ॥2.35॥
bhayādraṇāduparataṅ maṅsyantē tvāṅ mahārathāḥ.
yēṣāṅ ca tvaṅ bahumatō bhūtvā yāsyasi lāghavam৷৷2.35৷৷

अर्थः- “तथा वे महारथि तूझे भयवश रण से हटा हुआ मानेंगे, जिनका बहुमान्य होकर तू अब लघुता को प्राप्त होगा।”

 व्याख्याः- भगवान जानते हैं कि कौरवों में अर्जुन को लेकर कितना भय है? दुर्योधन जानता है कि अर्जुन अकेले ही भीष्म, द्रोण आदि से लोहा ले सकता है। विराट के युद्ध में अर्जुन ने दुर्योधन के सबसे विश्वासी कर्ण को भी पराजित कर दिया था।  भीष्म, द्रोण, कृपाचार्य लगातार दुर्योधन के सामने अर्जुन की वीरता की कथाएं कह कर उसकी प्रंशसा करते रहे हैं। सभी ने दुर्योधन से यही कहा है कि जब तक अर्जुन है तब तक पांडवों की विजय निश्चित है।

अब भगवान कहते हैं कि “जिन महारथियों के सामने तू सबसे महान वीर है, वो तूझे इस प्रकार पलायन करते देख तूझे भय से हटा हुआ मानेंगे । क्योंकि इन में से किसी को पता नहीं होगा कि तू भय से नहीं बल्कि अपने स्वजनों के मोह में आकर युद्ध से पलायन कर रहा है। ऐसे में जब वो तूझे कायर और भीरु मानेंगे तो सोच कि उनकी नज़र में तू कितना छोटा और कमजोर इंसान कहलाएगा?”

अवाच्यवादांश्च बहून्वदिष्यन्ति तवाहिताः ।
निन्दन्तस्तव सामर्थ्यं ततो दुःखतरं नु किम् ॥2.36॥
avācyavādāṅśca bahūn vadiṣyanti tavāhitāḥ.
nindantastava sāmarthyaṅ tatō duḥkhataraṅ nu kim৷৷2.36৷৷

अर्थः- “तेरे शत्रुगण तुम्हारे सामर्थ्य की निंदा करते हुए बहुत सा नहीं कहने लायक दुर्वचन भी बोलेंगे ।उससे बढ़कर फिर दुख क्या होगा?”

व्याख्याः- भगवान अर्जुन से कह रहे हैं कि “तू भले ही मोह वश युद्ध से पलायन कर रहा है, लेकिन तुम्हारे शत्रुगण तो यही जानेंगे कि तू डर कर युद्ध से भागा है । ऐसे में सोचों कि तुम्हारे लिए वो कैसे-कैसे दुर्वचनों का इस्तेमाल करेंगे? क्या तू इन वचनों को सह भी पाएगा ? क्योंकि तेरे अंदर तो क्षत्रिय का खून है? क्या तू इस अपमान को सह पाएगा ?” भगवान जानते हैं कि अर्जुन इन अपमानों को सह नहीं पाएगा और फिर से गांडीव धनुष उठा लेगा । तो फिर बेइज्जती के बाद फिर से गांडीव धनुष उठाने से बेहतर है कि इस अनायास आए इस युद्ध के अवसर पर युद्ध के लिए हथियार उठा ही ले।

बुद्ध और कृष्णः शोक से मुक्त होने के दो समाधान

भारतीय धर्मज्ञान परंपरा में बुद्ध और कृष्ण दो ऐसे व्यक्तित्व हैं जो इंसान को शोक से मुक्ति के समाधान बताते हैं। बुद्ध ने ज्ञानलब्ध होने के बाद चार सत्य कहे, जिन्हें ‘चार आर्य सत्य’ या ‘चत्वारि आर्यसत्यानि’ कहा जाता है। ये चार सत्य हैं-

  1. दुःखः यह संसार दुःखमय है।
  2. समुदयः इस दुःख का कारण हैं ।
  3. निरोधः इस दुख का निवारण है।
  4. मार्गः दुःख के निवारण के लिए ‘आष्टांगिक मार्ग’ है।

बुद्ध कहते हैं कि “संसार दुःखमय है। इस दुःख का कारण अविद्या से उत्पन्न तृष्णा है। व्यक्ति अज्ञान की वजह से द्वंद्वात्मक तृष्णाओं में फंस जाता है । मोह, लोभ, दंभ आदि तृष्णाओं के पीछे भागता रहता है । “यह मेरा है ! , ये मेरे अपने हैं!, ये मेरा मित्र है! , ये मेरा शत्रु है!, ये संपत्ति मेरी है!, ‘मैं’ और ‘मेरा’ का भाव ही वो अज्ञान है जिससे अप्राप्य को प्राप्त करने की तृष्णा की दौड़ शुरु होती है।”

बुद्ध का सिद्धांत कहता है कि किसी वस्तु या किसी भाव की प्राप्ति या उसका वियोग हमारे मन के अंदर विचलन पैदा करता है। हम किसी वस्तु या व्यक्ति या भाव को भोगना चाहते हैं। इस कामरुपी भाव को पूर्ण करने के लिए हम उस वस्तु, व्यक्ति या भाव को प्राप्त करना चाहते हैं। जब हमें कोई इच्छित वस्तु, व्यक्ति या भाव की प्राप्ति नहीं होती है तो हमारे अंदर क्रोध और लोभ का जन्म होता है। इसी चक्र में हम दुःखों से घिर जाते हैं । यह तृष्णा ही दुःख का मूल कारण है।

बुद्ध इस तृष्णा से उत्पन्न दुःख के निवारण को संभव बताते हैं । बुद्ध कहते हैं कि इस तृष्णा को उनके बताये गए आष्टांगिक मार्ग से खत्म किया जा सकता है। बुद्ध कहते हैं कि इस जीवन में आष्टांगिक मार्ग पर चल कर निर्वाण प्राप्त किया जा सकता है। बुद्ध कहते हैं कि तृष्णा के त्याग के द्वारा ही निर्वाण की स्थिति की प्राप्ति संभव है । बुद्ध तृष्णा के त्याग की बात कहते हैं। बुद्ध का मार्ग निवृत्ति का मार्ग है।

लेकिन श्रीकृष्ण तृष्णा के त्याग की बात नहीं कहते । कृष्ण व्यक्ति के अंदर उपस्थित तृष्णा के रुपांतरण की बात कहते हैं। वो सुख की आकांक्षा के त्याग की बात नहीं कहते । वो कहते हैं कि इस जीवन के सुखों को जीना भी एक कला है। भोग कोई पाप नहीं है अगर इसे साक्षी भाव से भोगा जाए तो भोग आनंद का कारण बन जाता है।

जहाँ बुद्ध तृष्णा से उत्पन्न सुखों और दुःखों के चक्र के त्याग की बात कहते हैं , कृष्ण तृष्णा के रुपांतरण के द्वारा सुख और दुःख को भोगने की बात कहते हैं। जहाँ बुद्ध निवृत्ति की बात कहते हैं वहीँ कृष्ण प्रवृत्ति मार्ग के द्वारा जीवन को संपूर्ण रुप में जीने की बात कहते हैं। जहाँ बुद्ध तृष्णा के त्याग की बात कहते हैं, वहीं श्रीकृष्ण तृष्णा के रुपांतरण के द्वारा इस जीवन को पूर्णरुप से जीने की बात कहते हैं। श्रीकृष्ण का जीवन दर्शन पलायनवादी नहीं है।

श्रीकृष्ण जानते हैं कि अर्जुन अपनी तृष्णा को रुपांतरित करने की बात नहीं कह रहा है। वो तृष्णा का त्याग नहीं कर रहा । वो बस अपनी तृष्णा से भाग रहा है। अगर सामने उसके स्वजन नहीं होते तो वो युद्ध अवश्य करता । अगर अर्जुन को सामने उसके अपने परिवार के लोग न होते तो वो राज्य की प्राप्ति के लिए , सुखों की प्राप्ति के लिए युद्ध जरुर करता । अर्जुन के पलायन करने से उसके अंदर तृष्णा रुपी मोह, लोभ और दंभ का अंत नहीं होता। इसलिए श्रीकृष्ण अर्जुन के इसी तृष्णा को कायम रखते हुए एक नई स्थिति को पेश करते हैंः-

हतो वा प्राप्स्यसि स्वर्गं जित्वा वा भोक्ष्यसे महीम् ।
तस्मादुत्तिष्ठ कौन्तेय युद्धाय कृतनिश्चयः ॥2.37॥
hatō vā prāpsyasi svargaṅ jitvā vā bhōkṣyasē mahīm.
tasmāduttiṣṭha kauntēya yuddhāya kṛtaniścayaḥ৷৷2.37৷৷

अर्थः “हे कुंती पुत्र अर्जुन ! यदि युद्ध में तू मारा गया तो स्वर्ग प्राप्त करोगे, विजयी हुए तो इस पृथ्वी का भोग करोगे। इसलिए युद्ध के लिए निश्चय करके खड़ा हो जा।”

व्याख्याः- भगवान अर्जुन से यह भी कह रहे हैं कि “इतने अपमान तू सह नहीं सकेगा और न ही इतनी अकीर्ति तुम्हारे जैसे प्रतिष्ठित पुरुष के लिए स्वीकार्य होगी। इससे अच्छा है कि तू युद्ध के लिए तैयार हो जा। क्योंकि इस युद्ध में तुम्हारे लिए दोनों तरफ शुभ स्थिति ही है। अगर तुम युद्ध में मारे भी गये तो धर्मरुपी युद्ध में शामिल होकर तुम स्वर्ग को प्राप्त करोगे। अगर तुम युद्ध में विजयी हुए तो निश्चय ही जोअधर्म पूर्वक राज्य तुमसे छीन लिया गया था ,उसे प्राप्त कर इस पृथ्वी का भोग करोगे।”

भगवान कहते है कि “इसलिए तुम जिस संशय और अनिश्चय की स्थिति में हो उसका त्याग कर दो और इस धर्म संस्थापना के लिए होने वाले युद्ध मे ढृढ़ निश्चय के साथ खड़े हो जाओ ।” भगवान अर्जुन को न तो किसी स्थिति से पलायन करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं और न ही सिर्फ हिंसा, लोभ और दंभ से प्रेरित होकर युद्ध में शामिल होने के लिए कह रहे हैं। भगवान अर्जुन को संशयों से मुक्त होकर अनिश्चय की स्थिति का त्याग कर अपने अंदर की तृष्णा के रुपांतरण की बात कह रहे हैं।

भगवान अर्जुन के सामने ऐसी स्थिति पेश कर रहे हैं, जिसमें दोनों ही स्थितियों में उसके लिए जीत का ही मार्ग है। सुख का ही रास्ता है। अगर वो युद्ध में मारा जाता है तो स्वर्ग का सुख उसके लिए उपलब्ध हो जाएगा और यदि वो युद्ध में विजयी होगा तो राज्य का सुख उसे हासिल होगा। इसे Win-Win situation कहा जाता है। श्रीकृष्ण किसी भी स्थिति में उसे शोक से मुक्त कर सुख की प्राप्ति का आश्वासन दे रहे हैं। जबकि बुद्ध इस संसार के सुखों के त्याग की बात कहते हैं । इस प्रयास में अगर किसी की मृत्यु भी हो जाती है तो बुद्ध उसे स्वर्ग का आश्वासन नहीं देते क्योंकि बुद्ध परलोक में यकीन नहीं करते।

इस प्रकार बुद्ध के जीवन दर्शन में तृष्णा के त्याग के द्वारा भी इसी जीवन में निर्वाण की प्राप्ति का ही आश्वासन है। इस लोक से परे किसी आनंददायी सुख की स्थिति का आश्वासन नहीं है। जबकि श्रीकृष्ण तृष्णा के रुपातंरण के द्वारा इस लोक में भी और परलोक में भी सुख का आश्वासन दे रहे हैं। श्रीकृष्ण के पास अर्जुन के लिए हर स्थिति में एक सुखपूर्ण जीवन का आश्वासन है।

सुखदुःखे समे कृत्वा लाभालाभौ जयाजयौ ।
ततो युद्धाय युज्यस्व नैवं पापमवाप्स्यसि ॥2.38॥
sukhaduḥkhē samē kṛtvā lābhālābhau jayājayau.
tatō yuddhāya yujyasva naivaṅ pāpamavāpsyasi৷৷2.38৷৷

अर्थः- “सुख- दुःख लाभ- हानि जय- पराजय को समान मान कर तब युद्ध में लग जाओ, इस प्रकार तुम पाप को प्राप्त नहीं होगे( या तुम्हें पाप नहीं लगेगा)।”

व्याख्याः- भगवान अर्जुन से कह रहे हैं कि “तुम मोह से निकल जाओ। विजय और पराजय के भाव से भी उपर उठ जाओ। अपने स्वजनों को मारने के दुःख और राज्य प्राप्त करने के सुख से भी खुद को मुक्त कर लो। यहां तक कि अपने स्वजनों के मरने से जिस कुलधर्म के नाश की हानि के बारे में तुम सोच रहे हो और युद्ध के पलायन से जिस कुलधर्म के टिके रहने के लाभ को सोच रहे हो , उसका भी त्याग कर दो। क्योंकि यह धर्मरुप युद्ध है। यह युद्ध धर्म की संस्थापना के लिए हो रहा है। यह महायुद्ध अनंत काल तक इतिहास में अमर रहने वाला है । ऐसे में इस धर्मरुप युद्ध को करने के तुम्हें पुण्य की ही प्राप्ति होगी , किसी तरह के पाप के भागी होने का प्रश्न ही नहीं उठता है।”

बुद्ध और श्रीकृष्ण के बीच यही बड़ा फर्क है। बौद्ध ग्रंथों से पता चलता है कि बुद्ध के सामने भी श्रीकृष्ण के जैसी ही परिस्थिति आई थी। जब शाक्य और कुल्य कबीले के लोग एक दूसरे के सामने युद्ध के लिए खड़े थे , उस वक्त बुद्ध ने युद्ध के बीच में खड़े होकर युद्ध के विरोध में प्रवचन दिया था और दोनों ही कबीलों को युद्ध न करने का उपदेश दिया था। श्रीकृष्ण इससे अलग युद्ध को धर्म की संस्थापना के लिए एक अवसर के रुप में लेते हैं। इस युद्ध के द्वारा वो अर्जुन के मन के अंदर चल रहे संशय के युद्ध को भी समाप्त करते हैं और साथ ही वो धर्म की संस्थापना भी करते हैं।

जहाँ बुद्ध पलायन का सिद्धांत देकर शांति स्थापित करते हैं वहीं श्रीकृष्ण इस युद्ध के द्वारा शांति के साथ धर्म की संस्थापना भी करते हैं। इसीलिए बुद्ध का जीवन दर्शन निवृत्तिमूलक है वहीं श्रीकृष्ण का जीवन दर्शन प्रवृत्तिमूलक है। श्रीकृष्ण का जीवन दर्शन इस संसार को ठीक से जीने का सिद्धांत देता है जबकि बुद्ध का दर्शन इस जीवन में ही संसार के सुखों के त्याग की बात कहता है।

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