मथुरा में कृष्ण जन्मस्थान और शाही ईदगाह मस्जिद का सच। Truth of Krishna Janmasthan temple and Shahi-Eidgah Mosque of Mathura

सनातन धर्म में विष्णु के दो अवतारों श्रीराम और श्रीकृष्ण के जन्मस्थान सबसे पवित्र स्थानों में एक माने गए हैं। मथुरा और अयोध्या को आठ पवित्र नगरों में विशेष स्थान हासिल है। अयोध्या में जहाँ भगवान श्रीराम का जन्म हुआ था वहीं मथुरा में भगवान श्रीकृष्ण ने जन्म लिया था। भगवान राम और कृष्ण दोनों ही विष्णु के अवतार माने जाते हैं।

अयोध्या में ‘रामजन्मभूमि’ और मथुरा में ‘कृष्ण जन्मस्थान’ का विवाद सैकड़ों सालों से चला आ रहा है। अयोध्या के ‘रामजन्मभूमि’ के उपर बने बाबरी मस्जिद के विवाद का निपटारा हो चुका है और अब वहाँ भव्य राम मंदिर बनाया जा रहा है ।

लेकिन मथुरा में ‘कृष्ण जन्मभूमि’ और वहाँ बने ‘शाही ईदगाह मस्जिद’ का विवाद आज भी चला आ रहा है । सारा संसार जानता है कि मथुरा में भगवान श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था। उसी स्थान पर मुगल बादशाह औरंगजेब ने ‘शाही ईदगाह मस्जिद’ का निर्माण कराया था। आज भी हिंदू अपने आराध्य श्रीकृष्ण की जन्मभूमि को मुक्त कराने के लिए संघर्ष कर रहे हैं।

शुद्ध सनातन आपको बताने जा रहा है मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मभूमि का पूरा इतिहास और उस पर बने शाही ईदगाह मस्जिद का पूरा सच । जिस स्थान पर आज शाही ईदगाह मस्जिद है ,उस स्थान पर पहले श्रीकृष्ण का भव्य मंदिर हुआ करता था।

मथुरा का धार्मिक-पौराणिक इतिहास

वाल्मीकि रामायण  के उत्तरकांड, हरिवंश पुराण,  श्रीमद् भागवत और अन्य पौराणिक ग्रंथों से मथुरा की स्थापना की प्राचीन कथा का पता चलता है। पौराणिक ग्रंथों के अनुसार सम्राट ययाति के पुत्र यदु ने यदुवंश की स्थापना की थी।

यदु के वंशज मधु ने ‘मधुवन’ को बसाया था। मधु के पुत्र लवण का वध श्रीराम के भाई शत्रुघ्न ने किया था। शत्रुघ्न ने ही मधुवन के जंगलों को काट कर ‘मथुरा’ नगर की स्थापना की थी। मधु का पुत्र लवण अपने आसुरी स्वभाव की वजह से लवणासुर के नाम से कुख्यात था।

जब श्रीराम और उनके भाई भरत, लक्ष्मण और शत्रुघ्न ने अपना शरीर त्याग दिया तब लवणासुर के वंशज सत्वत ने फिर से मथुरा नगर पर कब्जा कर दिया और यदुवंशी सात्वत ने सात्वत वंश की नींव डाली। सत्वत के वंशज यदुकुल के सात्वतवंशी के नाम से प्रसिद्ध हुए।

 सात्वत वंश से ही अंधक, कुक्कुर, वृष्णी, भोज और सैनी वंशों का विस्तार हुआ। श्रीकृष्ण वृष्णी कुल के थे, कुंती भोजवंश के राजा की पुत्री थी। ‘वायुपुराण’ के अनुसार मथुरा के राजा उग्रसेन कुक्कुर कुल से आते थे।  उग्रसेन के नौ पुत्रों में कंस सबसे बड़ा था। उग्रसेन के भाई देवक की पुत्री श्रीकृष्ण की माँ देवकी थीं।

मथुरा में किस स्थान पर श्रीकृष्ण का जन्म हुआ था

श्रीमद् भागवत और अन्य पौराणिक ग्रंथों में स्पष्ट रुप से वर्णित है कि भगवान श्रीकृष्ण का जन्म मथुरा में कंस के कारागार में हुआ था। श्रीकृष्ण की माँ देवकी ने कंस के कारागार में ही श्रीकृष्ण को जन्म दिया था । यह कारागार आज के केशव कटरा इलाके में उसी स्थान पर है. जहाँ औरंगजेब ने शाही ईदगाह मस्जिद तामिर की थी।

महाभारत से पता चलता है कि जब श्रीकृष्ण द्वारका से वैकुंठ प्रस्थान कर गए और सारे यादवों का अंत हो गया, तब युधिष्ठिर ने भी अपना राजपाट त्याग दिया और वो अपने सभी भाइयों के साथ स्वर्ग की यात्रा पर चले गए। युधिष्ठिर ने इंद्रप्रस्थ का राज्य अपने प्रपौत्र परिक्षित को सौंप दिया और मथुरा का राज्य श्रीकृष्ण के प्रप्रौत्र वज्रनाभ को सौंप दिया गया।

श्रीकृष्ण के प्रपौत्र, प्रद्युम्न के पौत्र और अनिरुद्ध के पुत्र वज्रनाभ ने ही मथुरा में कंस के कारागार को तोड़ कर वहाँ श्रीकृष्ण के जन्मस्थान पर ‘केशवदेव मंदिर’ का निर्माण किया। वज्रनाभ ने ही द्वारका में द्वारकाधीश मंदिर की भी स्थापना की थी।

300 ईसा पूर्व में ग्रीक यात्री मेगास्थनीज ने भगवान श्रीकृष्ण की पूजा का वर्णन किया है। मेगास्थनीज ने अपनी पुस्तक ‘इंडिका’ में ‘हरिकृष्ण’ के लिए ‘हेरिक्लीज़’ संबोधन का इस्तेमाल किया है। बैक्ट्रिया के इंडो-ग्रीक राजाओं ने भी श्रीकृष्ण और बलराम के चित्रों से अंकित मुहरें जारी करवाई थीं। 

कई ग्रीक लेखकों जैसे एरियन, डियोडोरस आदि ने भी मेगास्थनीज के हवाले से लिखा है कि “भारत में शूरसेन नामक वंश का शासन था, जो किसी ‘हेराक्लीज’(हरिकृष्ण) की पूजा करता था। इस वंश का शासन दो नगरों ‘मेथोरा’( मथुरा) और ‘क्लेसोबोरा’( कृष्णपुरा) तक फैला था।ये दोनों शहर ‘जोबारस नदी’( यमुना नदी) के तट पर बसे हुए थे।  गौरतलब है कि शूरसेन श्रीकृष्ण के पूर्वज थे।

श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर श्रीकृष्ण के मंदिर का इतिहास

गुप्तकाल में महाक्षत्रप षोड़श ने गुप्त सम्राट चंद्रगुप्त ‘विक्रमादित्य’ के शासनकाल में (80-87 ईस्वी) श्रीकृष्ण के जन्मभूमि पर वज्रनाभ द्वारा बनाये गए मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया । इससे संबंधित ब्राह्मी लिपि के शिलालेख से ये भी पता चलता है कि महाक्षत्रप षोड़श ने श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर बने इस महान मंदिर में एक यज्ञकुंड के अलावा एक जालीदार घेरे का निर्माण भी कराया था।

मथुरा के श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर मुस्लिम आक्रमण का इतिहास

हज़ारों सालों तक भगवान श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर भव्य श्रीकृष्ण मंदिर शान से खड़ा रहा, लेकिन मुस्लिम आक्रमणकारियों ने हिंदुओं के पवित्र मंदिर पर अपनी कुदृष्टि डाल दी। सबसे पहली बार महमूद गज़नी ने मथुरा में श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर स्थित श्रीकृष्ण मंदिर पर आक्रमण किया ।

 महमूद गज़नी ने यह हमला साल 1017 में किया । इस हमले का वर्णन खुद महमूद गज़नी के इतिहासकार मीर मुँशी अल- उतबी अपनी पुस्तक ‘तारीख- ए- यामिनी’ में करता है । उत्बी लिखता है कि पवित्र मथुरा शहर के बीचों बीच भगवान श्रीकृष्ण का एक भव्य मंदिर था ।

उत्बी के अनुसार यह मंदिर गगनचुम्बी था और ऐसा लगता था कि इसका निर्माण इंसानों ने नहीं बल्कि फरिश्तों ने किया था। महमूद गज़नी के हवाले से उत्बी लिखता है कि सुल्तान ने कहा कि “इस मंदिर को बनाने में कम से कम 10 करोड़ दिनार लगेंगें और इसका निर्माण करने में कम से कम दो सौ वर्ष लगेंगे।“

उत्बी के अनुसार महमूद गज़नी ने श्रीकृष्ण के मंदिर को तोड़ा और यहाँ से धन संपदा लूट कर ले गया। उत्बी के अनुसार महमूद गज़नी ने इस मंदिर को इसलिए तोड़ा, क्योंकि इसका निर्माण काफिरों ने किया था और इस्लाम में मूर्तिपूजा को हराम बताया गया है।

साल 1150 में गहड़वाल राजा विजयपाल देव के शासनकाल में मथुरा के सूबेदार जाज ने श्रीकृष्ण जन्मभूमि पर एक नये भव्य विष्णु मंदिर का निर्माण किया।  ये विष्णु मंदिर पूरी तरह से सफेद पत्थरों से बना था और इसकी उँचाई आसमान छूती थी।

 लेकिन 1516 ईस्वी में सिकंदर लोदी ने मथुरा के  जाट राजा भूरसिंह पर हमला किया और जाज के द्वारा बनवाए गए श्रीकृष्ण जन्मभूमि मंदिर को नष्ट कर दिया। इसके अलावा सिकंदर लोदी ने मनसा देवी पर भी हमला किया।

 सिकंदर लोदी ने मथुरा में यमुना तट पर तीर्थयात्रियों के मुंडन कराने और स्नान करने पर भी रोक लगा दी थी। जहाँगीर के शासनकाल के इतिहासकार अब्दुल्ला ने अपनी पुस्तक ‘तारीख- ए-दाउदी’ में हिंदुओ पर हुए इन अत्याचारों का वर्णन किया है।

लोककथाओं के अनुसार सिकंदर लोदी को मथुरा के मंदिरों पर हमला करने का शाप मिला और उसे गले की बीमारी हो गई। सिकंदर लोदी गले की बीमारी से अगले ही साल 1517 को चल बसा।

मुगलों के काल में मथुरा पर मुस्लिम आक्रमण

जहाँगीर के शासनकाल में ओरछा के बुंदेला शासक वीर सिंह देव जी ने 33 लाख रुपये में श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर 250 फीट ऊँचा एक भव्य मंदिर बनवाया जो ‘केशवदेव मंदिर’ के नाम से प्रसिद्ध था । इस मंदिर का वर्णन इसी काल(1650) में आये फ्रेंच यात्री ट्रेवेनियर ने भी किया है।

 मुगल दरबार में कार्यरत इटालियन यात्री मनूची ने भी इस मंदिर की भव्यता का वर्णन किया है।  हालांकि शाहजहाँ ने अपने सूबेदार मुर्शिद अली खान को मथुरा से मूर्तिपूजा समाप्त करने और हिंदुओं पर अत्याचार करने के आदेश दिया था, लेकिन शाहजहाँ के उदार बेटे मुगल राजकुमार दारा शिकोह ने केशवदेव मंदिर की चाहरदिवारी बनाने के लिए दान भी दिया था।

1669 में औरंगजेब ने अपने गर्वनर अब्दुल नबी खान को मथुरा के मंदिरों को  तोड़ने का आदेश दिया। अब्दुल नबी खान ने वहाँ कई मंदिरों को तोड़ा और मंदिरों के मलबे से जामा मस्जिद का निर्माण करवाया। 1669 में ही जाटो ने विद्रोह कर दिया और अब्दुल नबी खान की हत्या कर दी।

क्रोधित औरंगजेब ने खुद 1670 में मथुरा पर हमला कर दिया और श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर स्थित ‘केशवदेव मंदिर’ को तोड़ दिया । कहा जाता है कि ‘केशवदेव मंदिर’ का शिखर इतना उँचा था कि इसे वहाँ से 36 मील की दूरी पर स्थित आगरा शहर से भी देखा जा सकता था।

 औरंगजेब इस महान मंदिर की प्रसिद्धि और भव्यता से भी चिढ़ गया था और इसी वजह से उसने इस मंदिर पर हमला किया।ईद के त्यौहार के दिन औरंगजेब ने ‘केशवदेव मंदिर’ के टूटे अवशेषों से ‘नवरंग पादशाह मस्जिद’ का निर्माण शुरु किया । इसी ‘नवरंग पादशाह मस्जिद’ को आज ‘शाही ईदगाह मस्जिद’ कहा जाता है।

‘केशवदेव मंदिर’ की मूर्तियों को भी औरंगजेब ने तुड़वा दिया और उन मूर्तियों के अवशेषों को आगरा के ‘जहाँआरा बेगम मस्जिद’ की सीढ़ियों के नीचे दबवा दिया, ताकि मुस्लिम लोग उन मूर्तियों के उपर अपने पांव रख कर जाएं। उस काल की पुस्तक ‘मासीर- ए- आलमगीरी’ में इस घटना का वर्णन किया गया है। औरंगजेब यहीं नहीं रुका उसने मथुरा शहर का नाम भी बदल कर ‘इस्लामाबाद’ कर दिया।

‘मासीर- आलमगीरी’ में इस घटना के दौरान मंदिर बचाने के क्रम में शहीद होने वाले लोगों के विद्रोह का विस्तार से वर्णन किया गया है। इस मंदिर के मूर्ति को ले जाने के क्रम में मंदिर के पुजारी को भी मार डाला गया। विद्रोह को दबाने में औरंगजेब की सेना को बहुत समय लगा।

मुगल शासन के पतन और मराठाओं के उत्थान के दौर में मथुरा पर मराठों का कब्जा हो गया । मराठों ने ‘केशव कटरा’ के इलाके को बेनामी संपत्ति घोषित कर दिया । इस भूमि के अंतर्गत ही शाही ईदगाह मस्जिद भी आती थी। मराठे भी यहाँ एक शानदार मंदिर का निर्माण कराना चाहते थे, लेकिन किसी कारणवश वो यहाँ मंदिर का निर्माण शुरु नहीं करा पाये।

श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर मंदिर का पुनर्निर्माण

1802 ईस्वी में मथुरा पर ईस्ट इंडिया कंपनी का कब्जा हो गया। 1815 ईस्वी में ईस्ट इंडिया कंपनी ने ‘कटरा केशव’ के क्षेत्र की जमीन की नीलामी की जिसे बनारस के धनी व्यक्ति राजा पत्नीमल ने खरीद लिया। राजा पत्नीमल यहाँ श्रीकृष्ण जन्मस्थान पर एक भव्य मंदिर का पुनर्निर्माण कराना चाहते थे।

 लेकिन केशव कटरा भूमिक्षेत्र में शाही ईदगाह मस्जिद के होने से उन्हें मुसलमानों के विरोध का सामना करना पड़ा और राजा मंदिर का पुनर्निर्माण नहीं करा सके। कुछ सालों बाद ही राजा पत्नीमल के वंशजों पर मथुरा के मुसलमानों ने केस दर्ज करा दिया और वहाँ मंदिर निर्माण का विरोध शुरु कर दिया । हालाँकि अंग्रेजों ने हिंदुओं के पक्ष में ही फैसला दिया, लेकिन विरोध की वजह से मंदिर निर्माण रुका रहा।

1878 में एक दूसरा केस मुसलमानों की तरफ से दर्ज किया गया। मुसलमानों का आरोप था कि शाही ईदगाह मस्जिद की जमीन पर हिंदुओं ने कब्जा कर लिया है और वहाँ सड़क निर्माण शुरु कर दिया है। हालांकि ये दावा भी निराधार ही था।

मंदिर निर्माण में तीसरी बार फिर मुसलमानों के पक्ष से बाधा डाली गई और साल 1920 में आगरा के सिविल कोर्ट में केस दर्ज किया गया। यह केस मथुरा के जज होपर के उस फैसले के खिलाफ था, जिसमें कहा गया था कि शाही ईदगाह मस्जिद सहित ‘केशव कटरा’ की पूरी जमीन राजा पत्नीमल के वंशजों की है और वो चाहें तो शाही ईदगाह मस्जिद को तोड़ कर वहाँ कोई भी निर्माण कर सकते हैं। 

लेकिन 1935 में इलाहाबाद हाई कोर्ट ने एक बार फिर राजा पत्नीमल के वंशज राजा कृष्णदास के पक्ष में फैसला दिया। साल 1944 में भारत रत्न पंडित मदन मोहन मालवीय जी ने उद्योगपति जुगल किशोर बिड़ला की सहायता  राजा कृष्णदास से केशव कटरा की पूरी जमीन खरीद कर उसे ‘श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट’ के नाम से पंजीकृत करा लिया।

21 फरवरी 1951 को ‘कृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान’ के नाम से ‘श्रीकृष्ण जन्मभूमि ट्रस्ट’ को बदल दिया गया और ‘केशव कटरा’ की जमीन को ‘कृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान’ के नाम से पंजीकृत करा लिया गया। जुगल किशोर बिड़ला और जयदयाल डालमिया जी के प्रयासों से 1953 में श्रीकृष्ण मंदिर का निर्माण शुरु किया गया।

साल 1968 में ‘श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान’ और ‘शाही ईदगाह कमिटी’ के बीच एक समझौता हुआ। इस समझौते के तहत ‘श्रीकृष्ण जन्मस्थान सेवा संस्थान’ ने शाही ईदगाह मस्जिद की जमीन पर अपना दावा छोड़ दिया।

 इस समझौते को लेकर हिंदुओं में आज भी असंतोष है क्योंकि हिंदुओं की मान्यता है कि जिस स्थान पर शाही ईदगाह मस्जिद स्थापित है ,वहीं मूल रुप से श्रीकृष्ण का जन्मस्थान है । उसी स्थान पर कंस ने कारागार का निर्माण कराया था, जहाँ भगवान श्रीकृष्ण ने जन्म लिया था।

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