नवरात्रि उत्सव में जिन आद्या शक्ति स्वरुपा की सबसे रहस्यमय शक्ति की उपासना की जाती हैं वो हैं माँ काली जिन्हें महाकाली भी कहा जाता है । इनके कई नाम हैं श्यामा काली, दक्षिण काली, भद्रकाली , सहस्त्र काली, बंग काली और सिर्फ महाकाली। ये कौन हैं और कहां से आती हैं और कहां चली जाती हैं? ये आद्या शक्ति की इस नारी शक्ति का सबसे बड़ा रहस्य है । क्या ये एक ही देवी हैं या अलग अलग देवियों का समूह हैं या फिर एक ही देवी के वो शक्ति हैं जो अलग- अलग माध्यमों या शरीरों से निकलती हैं?
महाकाल की जटाओं से निकलने वाली महाकाली :
पौराणिक कथाओं विशेष कर शाक्त और शैव संप्रदायों में माँ काली या महाकाली के एक स्वरुप का वर्णन आता है, जिन्हें ‘भद्रकाली’ कहा जाता है । शिव पुराण, शाक्त ग्रंथों यहां तक कि वाल्मीकि रामायण और महाभारत में भी शिव की पत्नी सती के द्वारा अपने पिता के यज्ञ कुंड मे योगाग्नि में खुद को भस्म करने की कथा आती है ।
इस कथा के अनुसार जब भगवान शिव को यह पता चलता है कि सती ने अपने ही पिता प्रजापति दक्ष के यज्ञ में अपने पति महादेव शिव का अपमान न झेल पाने की वजह से यज्ञ की अग्नि में खुद को भस्म कर लिया है, तब महादेव शिव अत्यंत क्रोधित हो जाते हैं । भगवान शिव अपने प्रलयंकारी क्रोध में आकर अपने सिर से दो जटाओं को तोड़ कर पृथ्वी पर पटकते हैं, जिससे वीरभद्र और ‘भद्रकाली’ प्रगट होती हैं। वीरभद्र और ‘भद्रकाली’ दोनों मिलकर प्रजापति दक्ष के यज्ञ का विध्वंस कर देते हैं । यहाँ भद्रकाली स्वरुप शिव शंकर की जटाओं को अपना माध्यम बनाता है और वो वहीं से प्रगट होती हैं।
दसभुजा- दसपदी काली :
महाकाली का एक रुप दसभुजा-दसपदी काली भी हैं, जो आद्या शक्ति की सबसे प्रारंभिक स्वरुप हैं और इन्हें ही योगमाया भी कहा जाता है । इनकी दस भुजाएं और दस पैर हैं और ये विष्णु की माया कही जाती हैं । ये विष्णु के वक्ष से निकल कर मधु- कैटभ के संहार का माध्यम बनती हैं। इन्हें आप माँ काली का सबसे प्रथम प्रगट स्वरुप मान सकते हैं। श्रीदुर्गा सप्तशती और मार्कण्डेय पुराण की कथा के अनुसार जब संसार का लय हो जाता है तब ये दसभुजा- दसपदी काली विष्णु की माया के रुप में विष्णु को योगनिद्रा मे डाल देती हैं और संसार के पालन का कार्य अपने हाथों में ले लेती हैं। योगनिद्रा में शयन कर रहे विष्णु के कानों के मैल से जब मधु-कैटभ का आविर्भाव होता है और वो ब्रह्मा को मारने के लिए आगे बढ़ते हैं, तो ब्रह्मा, विष्णु को जगाने और योगमाया को विष्णु को योगनिद्रा से मुक्त कराने के लिए इनका आह्वान करते हैं। श्रीदुर्गा सप्तशती के प्रथम अध्याय में इन्हीं दसभुजा और दसपदी काली का ध्यान मंत्र है –
ऊं खड़गं चक्रं गदेषु चापं परिघाञछुलं भुशुण्डी शिरः।
शखं संधतीं करैस्त्रीनयनां सर्वांगभूषावृताम् ।।
नीलाश्मद्युतिमास्य पाददशकां सेवे महाकालिकां ।
यामस्तौ स्वपिते हरौ कमलजो हन्तुं मधु कैटभम् ।।
अर्थः- “भगवान विष्णु के सो जाने के बाद मधु और कैटभ को मारने के लिए कमल से जन्म लेने वाले ब्रह्मा जी ने जिनका स्तवन किया था ,उन महाकाली देवी का मैं सेवन करता हूं। वे अपने दस हाथों में खड़्ग,चक्र, परिघा,शूल,गदा ,बाण, धनुष, भुशुण्डी, मस्तक और शंख धारण करती हैं ।उनके तीन नेत्र हैं । वे समस्त अंगो में दिव्य आभूषणों से विभूषित हैं । उनके शरीर की कांति नीलमणि के समान है , वे दस मुख और दस पैरों से युक्त हैं। “
इन्हीं दसभुजा, दस मुखों और दस पैरों वाली महाकाली की वंदना ब्रह्मा करते हैं और उनको –
‘त्वम् स्वाहा, त्वम स्वधा त्वम हि वषट्कार स्वरात्मिका’ कह कर ‘रात्रि सूक्त’ के द्वारा जगाते हैं और वो महाकाली भगवान विष्णु के नेत्रों, से बाहुओं से और ह्रदय से निकलती हैं। इसके बाद भगवान विष्णु योगमाया की प्रेरणा से मधु और कैटभ का वध करते हैं।
दस महाविद्या की प्रथम देवी हैं माँ काली
भद्रकाली और दसभुजा- दसपदी काली के अलावा दस महाविद्या में भी सर्वप्रथम पूजित होने वाली देवी माँ काली ही हैं। ये शिव की पत्नी देवी सती के शरीर से प्रगट होती हैं। पौराणिक कथाओं के अनुसार देवी सती ने एक बार भगवान शिव को रोकने के लिए दसों दिशाओं से अपने दस स्वरुप प्रगट किये थे । इन दसों रुपों में सर्वप्रथम पूज्य और सबसे शक्तिशाली स्वरुप माँ काली का ही है । ये विद्या की अधिष्ठात्रि देवी हैं। दस महाविद्याओं के दस स्वरुपों से भक्त आद्या शक्ति को प्रसन्न कर उनका साक्षात्कार कर सकता है । लेकिन इसके लिए दस महाविद्याओं में प्रथम शक्ति माँ काली ही अज्ञानता के अंधकार को दूर कर बाकी के नौ विद्याओं के ज्ञान का भी मार्ग प्रशस्त करती हैं।
चंडिका और कालिका
माँ पार्वती को आद्या शक्ति का प्रकृति स्वरुप माना जाता है । वो भी माँ काली के आह्वान का एक महान माध्यम बनती हैं। श्रीदुर्गा सप्तशती में माँ कालिका या माँ काली देवी पार्वती के शरीर से कौशिकी के रुप में निकलने के बाद उनके शरीर को अपना माध्यम बनाती हैं और देवी पार्वती काले वर्ण में परिणत होकर कालिका देवी या माँ काली के रुप में हिमालय पर वास करने चली जाती है।
पंचम अध्याय में जब देवतागण शुम्भ -निशुम्भ के अत्याचारों से पीड़ित होकर आद्या शक्ति की प्रार्थना करते हैं. तो माँ पार्वती से शरीर से शिवा देवी देवताओं को आश्वासन देती हैं। माँ पार्वती के शरीर से कौशिकी या चंडिका देवी प्रगट होती हैं और शेष शरीर का रंग काला पड़ जाता है और माँ पार्वती माँ काली में परिणत हो जाती हैं-
तस्या विनिर्गतायां तु कृष्णाभूत्सापि पार्वती !
कालिकेति समाख्याता हिमाचलकृताश्रया !!
अर्थः- “कौशिकी के प्रगट होने के बाद पार्वती का रंग काला हो गया और वो हिमालय पर रहने वाली कालिका देवी के नाम से प्रसिद्ध हुईं”
देवी का यह स्वरुप माता पार्वती के ही दूसरे अंश माँ चंडिका की सहयोगी शक्ति हैं और माँ चंडिका के आह्वान और उनके क्रोध में आने पर उनके तीसरे नेत्र से प्रगट होती हैं और चण्ड- मुण्ड का संहार कर चामुण्डा के नाम से जगत में विख्यात होती हैं।
माँ काली ने किया रक्तबीज का वध :
श्रीदुर्गा सप्तशती में महाकाली या माँ काली, चण्ड – मुण्ड के अलावा रक्तबीज़ के वध का भी माध्यम बनती हैं। रक्तबीज़ को ये वरदान था कि उसके रक्त की हरेक बूंद से नया रक्तबीज़ पैदा हो जाता था। माँ चंडिका रक्तबीज़ का संहार करने के लिए माँ कालिका का सहयोग लेती हैं।
इसके बाद माँ काली एक बार फिर श्रीदुर्गा सप्तशती के सातवें अध्याय में प्रगट होती हैं-
तत कोपं चकारोच्चैरम्बिका तानरीन् प्रति !
कोपेन चास्यां वदनं मषीवर्णमभूत्तदा !
भ्रूकुटिकुटिलात्तस्या ललाटफलकाद्द्रुतम !
काली करालवदना विनिष्क्रांतासिपाशिनि !!
अर्थः- “तब अम्बिका ने शत्रुओं के प्रति बड़ा क्रोध किया। उस समय क्रोध के कारण उनका मुख काला पड़ गया।ललाट में भौंहे टेढ़ी हो गईं और वहां से तुरंत विकराल मुखी काली प्रगट हुईं।”
श्रीदुर्गासप्तशती में तीन बार प्रगट होती हैं माँ काली
इस प्रकार माँ कालिका या काली का प्राग्ट्य श्रीदुर्गा सप्तशती में तीन बार होता है। पहली बार वो मधु-कैटभ के वध के लिए विष्णु की प्रेरणा बनती हैं। दूसरी बार वो चंडिका का सहयोग करते हुए चण्ड और मुंड को मारती हैं और चामुण्डा के नाम से विख्यात होती हैं। तीसरी बार वो सबसे ज्यादा विकराल शक्ति के स्वरुप में प्रगट होती हैं और रक्तबीज का संहार करती हैं। पहली बार वो विष्णु के वक्ष, बाहुओं और मुख से निकलती हैं, दूसरी बार वो माँ पार्वती के शरीर से निकलती हैं और तीसरी बार वो चंडिका देवी के क्रोधित मुख से निकलती हैं।
श्मशान काली की पूजा तंत्र शास्त्र में होती हैं
माँ काली का एक स्वरुप श्मशान में वास करने वाली काली का भी है । शैव और शाक्त दोनों ही मतों के अनुसार वो श्मशान में प्रलय के वक्त शिव की साक्षिणी और सहयोगी हैं। भगवान शिव जब प्रलयंकारी तांडव नृत्य करते हैं और संसार का नाश करने का प्रारंभ करते हैं, तब उनके इस प्रलय के कार्य को श्मशान काली ही पूरा करती हैं। उनके बारे में यह भी कहा जाता है कि भगवान शिव ने माता पार्वती को जब तंत्र शास्त्र का ज्ञान देना शुरु किया था तब उन्हें निद्रा आ गई । तब माता पार्वती से शरीर से ही ‘श्मशान काली’ का आविर्भाव हुआ और उन्होंने ही शिव से अघोर विद्या सीखी । इन देवी के साथ शिव स्वरुप भैरव चलते हैं और उनके साथ चौंसठ योगनियां भी प्रलयंकारी नृत्य करती हैं।इसके अलावा दक्षिण भारत में इनके साथ उनके पुत्र कार्तिकेय भी साथ चलते हैं
दक्षिण काली आद्या शक्ति की मूल स्वरुप हैं :
माँ काली का दक्षिण काली स्वरुप आद्या शक्ति का मूल स्वरुप माना जाता है । आद्या शक्ति इस स्वरुप में चार भुजाओं के साथ प्रगट होती हैं। इनमें दो भुजाएं सृष्टि के निर्माण और पालन को बताती हैं। वरदान और अभय मुद्रा में उनके दोनों दाहिनें हाथ उठे हुए हैं। ‘दक्षिण काली’ के दो बायें हाथ संहार के प्रतीक हैं और एक में खड़्ग और दूसरे हाथ में खप्पर है। बहुत सारी तस्वीरों और मूर्तियों में देवी के एक हाथ में खप्पर की जगह एक राक्षस का सिर भी दिखाया जाता है। देवी का ‘दक्षिण काली’ स्वरुप सबसे सौम्य स्वरुप है। इन्हीं की पूजा गृहस्थ अपने घरो में मंगलकामना के साथ करते हैं ।