भगवान नारायण के अवतार माने जाते हैं और सनातन धर्म में भगवान विष्णु के 24 अवतारों में वो पूर्ण अवतार थे । उन्हें सनातन धर्म के ग्रंथों में परम पुरुष और परमात्मा कहा गया है। भगवान श्रीकृष्ण ने द्वापर युग में पृथ्वी पर जन्म लिया था और 125 वर्ष की आयु होने पर उनकी मृत्यु हुई थी।
सनातन धर्म के कई ग्रंथों में भगवान श्रीकृष्ण की मृत्यु को लेकर बहुत कुछ लिखा गया है। महाभारत, भागवत पुराण और ब्रह्मवैवर्त पुराण में श्रीकृष्ण की मृत्यु के बारे में विशेष रुप से लिखा गया है। महाभारत के ‘मौसलपर्व’ में यदुवंशीयों के समूल नाश और श्रीकृष्ण के द्वारा देहत्याग का वर्णन आता है।
श्रीकृष्ण को गांधारी ने शाप दिया था
महाभारत के स्त्रीपर्व में गांधारी के द्वारा श्रीकृष्ण को शाप दिये जाने की कथा आती है। इस कथा के अनुसार जब महाभारत का युद्ध समाप्त हो गया और इस युद्ध में गांधारी के सौ पुत्रों की मृत्यु हो गई ,तब गांधारी कुरु कुल की स्त्रियों के साथ कुरुक्षेत्र के उस युद्ध मैदान में जाती हैं जहाँ ये महायुद्ध हुआ था।
गांधारी युद्धक्षेत्र में करोड़ों लाशों को देखती हैं जो इस युद्ध में मारे गए थे। इन लाशों में उनके सौ पुत्र के अलावा कुरु कुल के कई अन्य सदस्य भी थे। इसके अलावा गुरु द्रोण, अभिमन्यु, कर्ण और कई और वीरों की लाशें भी वहीं पड़ी हुई थीं।
गांधारी और वहां मौजूद स्त्रियाँ उन लाशों को देखकर दुख से विलाप करने लगती हैं। इन स्त्रियों के विलाप को देखकर गांधारी विचलित हो जाती हैं। गांधारी इस युद्ध का सारा दोष श्रीकृष्ण के उपर मढ़ देती हैं।
गांधारी श्रीकृष्ण से कहती हैं “कि इस युद्ध के जिम्मेवार आप हैं , अगर आप चाहते तो अपनी बुद्धि और कौशल से इस युद्ध को टाल सकते थे। लेकिन आपने जानबूझ कर इस युद्ध को होने दिया और आपकी वजह से ही कुरु- कुल का विनाश हो गया। “
गांधारी श्रीकृष्ण को देखकर क्रोधित हो जाती हैं और उन्हें शाप देती हैं कि “जिस प्रकार इस युद्ध में कुरु –कुल के लोग आपस में लड़ कर मर गए उसी प्रकार आज से 36वें वर्ष में आपके यदु कुल के लोग भी आपस में लड़ मरेंगे । आपके कुल की स्त्रियाँ भी इसी प्रकार युद्ध क्षेत्र में विलाप करेंगी ठीक वैसे ही जैसे आज कुरु- कुल की स्त्रियाँ अपने स्वजनों की मृत्यु पर विलाप कर रही हैं।“
गाँधारी श्रीकृष्ण को एक और शाप देती हैं और कहती हैं कि” आपके कुल के विनाश के बाद आप भी किसी निंदित प्रकार से मृत्यु को प्राप्त होंगे । आपकी मृत्यु किसी अनजान स्थान पर होगी और आप उस वक्त दुख की स्थिति से गुजर रहें होंगे।“
श्रीकृष्ण गांधारी के इस शाप को स्वीकार करते हैं और कहते हैं कि “ मैं जानता हूँ कि मेरी यदुवंशी नारायणी सेना को कोई भी पराजित नहीं कर सकता है और ये आपस में ही लड़ने से मारे जा सकते हैं। इसलिए आपका ये श्राप मैं स्वीकार करता हूँ।“
श्रीकृष्ण को दुर्वासा का वरदान
श्रीकृष्ण की मृत्यु उनके पैरों में बाण लगने से हुई थी । श्रीकृष्ण के शरीर पर किसी भी अस्त्र शस्त्र का असर नहीं होता था। श्रीकृष्ण का शरीर अस्त्र शस्त्रों से क्यों अवध्य था इसको लेकर महाभारत के अनुशासन पर्व में एक अद्भुत कथा मिलती है।
कथा के अनुसार एक बार दुर्वासा मुनि द्वारका पधारे। उनके क्रोधी स्वभाव की वजह से कोई भी उन्हें अपने घर में अतिथि के रुप में आमंत्रित करने के लिए तैयार नहीं हुआ। आखिरकार भगवान श्रीकृष्ण ने उन्हें अपने घर पर आमंत्रित किया।
अपने स्वभाव के अनुसार दुर्वासा ने श्रीकृष्ण को परेशान करना शुरु कर दिया। कभी वो हजारों आदमियों का खाना अकेले खा जाते । तो कभी वो बहुत सारे भोजन को बर्बाद कर देते थे। कभी वो घर के लोगों को प्रताड़ित करते तो कभी वो घर का सारा सामान उठा कर फेंक देते ।
एक दिन अचानक दुर्वासा ने गरम खीर खाने की माँग की । श्रीकृष्ण के आदेश पर तुरंत दुर्वासा मुनि के लिए खीर लाई गई । दुर्वासा ने खीर को जूठा किया और श्रीकृष्ण को आदेश दिया कि वो इस खीर को अपने सारे शरीर में लगा लें। श्रीकृष्ण ने तुरंत उनके आदेश का पालन किया और अपने शरीर पर गर्म खीर लगा ली ।
इसके बाद दुर्वासा मुनि ने रुक्मणी देवी को भी ये खीर शरीर पर लगाने के लिए कहा । रुक्मणी देवी ने भी वो खीर अपने शरीर पर लगा ली। इसके बाद दुर्वासा ने श्रीकृष्ण को रथ तैयार करने के लिए कहा । उस रथ में घोड़ों की जगह रुक्मणी देवी को जोत दिया गया।
रुक्मणी देवी उस रथ को खींचने लगीं। थोड़ी देर बाद जब रुक्मणी देवी थक कर गिर गईं तो दुर्वासा जी ने रुक्मणी देवी पर चाबुक चलाना शुरु कर दिया। श्रीकृष्ण ये सब देखते रहे और चुप रहे ।
श्रीकृष्ण और रुक्मणी देवी के इस धैर्य को देख कर दुर्वासा मुनि का मन प्रसन्न हो गया और उन्होंने श्रीकृष्ण से कहा कि शरीर के जिन – जिन अंगों पर ये खीर लगाई गई है शरीर के उन सारे अंगो पर अब किसी भी अस्त्र- शस्त्र का प्रभाव नहीं होगा। लेकिन दुर्वासा ने देखा कि श्रीकृष्ण ने अपने पैरों के तलवे पर खीर नहीं लगाया था। इस पर दुर्वासा ने चिंतित होकर कहा कि शरीर के इस भाग पर अगर किसी ने अस्त्र चला दिया तो श्रीकृष्ण घायल हो सकते हैं।
दुर्वासा जी ने रुक्मणी जी को भी वरदान दिया और कहा कि “आज से आप हमेशा चिरयुवा रहेंगी और आपके शरीर पर कभी झुर्रियाँ नहीं आएंगी।“
दुर्वासा के इसी वरदान की वजह से महाभारत के युद्ध में श्रीकृष्ण पर किसी भी अस्त्र शस्त्र का कोई भी प्रभाव नहीं हुआ। श्रीकृष्ण के शरीर पर कर्ण , द्रोणाचार्य और कई वीरों ने कई बाणों से प्रहार किया लेकिन दुर्वासा के वरदान की वजह से श्रीकृष्ण के शरीर पर कोई चोट नहीं आई।
श्रीकृष्ण की मृत्यु का दिन
गांधारी के शाप की वजह से महाभारत के युद्ध के छत्तीसवें वर्ष यदुकुल के लोगों के बीच संग्राम छिड़ गया और सभी युद्ध में मारे गए। बलराम जी ने योगशक्ति के बल पर अपने प्राणों का त्याग कर दिया।
इस युद्ध में अपने वंश के संहार से दुखित होकर श्रीकृष्ण वन में विचरने लगे और थक कर एक वृक्ष के नीचे सो गए। तभी वहाँ जरा नामक एक बहेलिया आता है और दूर से उसे श्रीकृष्ण के पैर किसी हिरण के बच्चे के जैसे दिखाई पड़े।
जरा ने बाण चलाया जो श्रीकृष्ण के पैर के तलवे में लग गया। श्रीकृष्ण घायल हो गए।इसके बाद श्रीकृष्ण ने योगशक्ति के द्वारा अपने प्राणों का त्याग कर दिया और वैकुंठ धाम चले गए।