गोस्वामी तुलसीदास

राम भक्ति के शिखर संत गोस्वामी तुलसीदास|Goswami Tulsidas

हरि अनंत और हरि कथा अनंता’ की अवधारणा वैष्णव भक्ति परंपरा की अद्भुत विशेषता रही है। गोस्वामी तुलसीदास जी के अलावा श्रीराम के अन्य महान भक्त संतों ने भक्ति की जो धारा भारतभूमि में प्रवाहित की है, वो किसी अन्य देश में नहीं पाई जाती है।चाहे वो तमिल संत कम्ब हों, बंगाल के महान श्रीराम भक्त संत कृतिवास हों या अवध के महान संत गोस्वामी तुलसीदास जी हों, इन सबने श्रीराम भक्ति की गंगा की धारा को श्रीराम के चरणों तक पहुंचाने का कार्य किया है । 

शुद्ध सनातन धर्म आदिकाल से ऋषियों, मुनियों, साधु और संतों के लिए जाना जाता रहा है। ईश्वरीय सत्ताओं के साक्षात्कार और उनकी महिमा का वर्णन जिस प्रकार इन संतों ने किया है वो अपने आप में दुर्लभ है। भगवान श्री हरि विष्णु, भगवान शिव, महावीर हनुमान, शक्ति स्वरुपा मां दुर्गा और काली के भक्त संतों ने शुद्ध सनातन धर्म के दर्शन को पूरे विश्व में सम्मान दिलाया है । 

गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म :

गोस्वामी तुलसीदास जी के जन्म को लेकर कई मतभेद रहे हैं। उनके जन्म का काल भी निश्चित रुप से तय कर पाना कठिन रहा है। आम तौर पर उनका काल 1511 से 1623 के बीच रहा है जब उनके इस संसार में होने की जानकारी मिलती है। पंडित आत्माराम शुक्ल और माता हुलसीदेवी के यहां गोस्वामी तुलसीदास जी का जन्म हुआ। उनका जन्मस्थान चित्रकूट के पास का बताया जाता है।

कहा जाता है कि जन्म लेते ही तुलसीदास जी के मुख से श्राराम का नाम निकला, इस कारण बचपन में उनका नाम ‘रामबोला’ पड़ गया ।जन्म लेते ही अगले दिन उनकी माता हुलसीदेवी का निधन हो गया। किसी अनिष्ट की आशँका ने उनके पिता ने उन्हें चुनिया नामक की नौकरानी को सौंप दिया। बाद में चुनिया का भी निधन हो गया। इसके बाद तुलसीदास जी का बचपन बहुत ही कठिनाई में बीता। 

बाद में रामबोला को एक महान संत नरहरिदास जी ने अपना लिया और उनका नाम तुलसीदास रख दिया । बाबा नरहरिदास जी ने उन्हें रामनाम मंत्र की दीक्षा दी । तुलसीदास जी इसके बाद अयोध्या में रहने लगे । 

गोस्वामी तुलसीदास जी को राम भक्ति की प्रेरणा पत्नी से मिली :

कहा जाता है कि श्रीराम की भक्ति उसे ही मिलती है, जो पत्नी, पुत्र और संपत्ति से विलग हो जाता है। इन सबकी विरक्ति के बिना श्रीराम की भक्ति संपूर्ण रुप से नहीं मिल सकती है। गोस्वामी तुलसीदास रचित ‘श्रीरामचरितमानस’ के ‘सुंदरकांड’ में स्वयं तुलसीदास जी ने श्रीराम के मुख से यह बात कहलवाई है। जब विभीषण श्रीराम की शरण में जाते हैं तो श्रीराम उनसे कहते हैं –

तजि मद मोह कपट छल नाना ! करउं सद्य तेहि साधु समाना !!
जननी जनक बंधु सुत दारा ! तनु , धनु भवन ,सुह्द परिवारा !!
सबके ममता ताग बटोरी ! मम पद मनहिं बांध बरि डोरी !!
समदरसी इच्छा कछु नाहिं ! हरष शोक भय नहीं मन माहिं !!
अस सज्जन मम उर बस कैसे ! लोभी हद्यं बसईं धनु जैसे !!

तुलसीदास जी का तो सारा जीवन ही श्रीराम के अनुरुप रहा। उनके जन्म लेते ही माता का निधन हो गया। पिता से विलगाव हो गया। अब पत्नी से अलग होने की बारी थी । एक लोकश्रुति है कि तुलसीदास जी का विवाह रत्नावली नामक एक विदुषी और सुंदर स्त्री से हुआ था। एक बार तुलसीदास जी अपनी पत्नी के प्रेम विरह में रात को उनसे मिलने चले गए । उनकी पत्नी ने उन्हें रात को इस प्रकार भयंकर बारिश में आते देखा तो वो नाराज हो गई । उनकी पत्नी ने कहा कि इतना प्रेम अगर श्रीराम से करते तो प्रभु श्रीराम उन्हें अपना लेते । इसके बाद तुलसीदास जी ने अपना जीवन श्रीराम को समर्पित कर दिया ।  कहा जाता है कि रत्नावली ने उन्हें इसी दोहे के द्वारा श्रीराम की भक्ति को अपनाने और माया मोह को त्यागने की बात कही थी – 

अस्थि चर्म मय देह यह, ता सों ऐसी प्रीत
नेकु जो होती राम से, तो काहे भव-भीत

गौरतलब है कि श्रीराम भी माता जानकी के साथ हमेशा साथ नहीं रह सके । उनके दो महान भक्तों के साथ भी ऐसा ही हुआ। वाल्मीकि जी को भी अपनी पत्नी और पुत्रों का त्याग करना पड़ा था और तुलसीदास जी को भी श्रीराम भक्ति प्राप्त करने के लिए अपनी पत्नी से अलग होना पड़ा । 

वाल्मीकि और तुलसीदास :

आदिकवि वाल्मीकि जी ने श्रीराम के काल में ही रामकथा रुप में रामायण की रचना की थी । उनके द्वारा रचित ‘रामायण’ संस्कृत भाषा में थी । लेकिन तुलसीदास जी ने ‘रामचरितमानस’ को अवधी भाषा में लिख कर इसे जनमानस में लोकप्रिय बना दिया । ऐसा कहा जाता है कि वाल्मीकि जी ने ही गोस्वामी तुलसीदास जी के रुप मे अवतार लेकर लुप्त होती जा रही राम कथा को फिर से जग में प्रसिद्ध और लोकप्रिय बना दिया ।

वाल्मीकि जी ने जहां श्रीराम को एक ईश्वर से ज्यादा एक अवतारी मर्यादापुरुषोत्तम पुरुष के रुप में स्थापित किया था, वहीं तुलसीदास जी ने श्रीराम को परमेश्वर और ईश्वरीय सत्ता के रुप में प्रमुखता से पेश किया । वाल्मीकि के श्रीराम जहां विष्णु के अवतार हैं, वहीं तुलसी के राम संसार की इकलौती सर्वोच्च सत्ता हैं, जिनके आदेश से ब्रह्मा संसार की सृष्टि करते हैं, विष्णु जगत का पालन करते हैं और शिव सृष्टि का संहार करते हैं। तुलसीदास जी के श्रीराम आदि, अनंत, निराकार और साकार सभी स्वरुपों में हैं और जगत के आधार हैं । ‘सुंदरकाड’ में रावण के दरबार में महावीर हनुमान जी रावण के सामने भगवान श्रीराम की अद्भुत और इकलौती सर्वोच्च ईश्वरीय सत्ता के बारे में बताते हैं –

जाकें बल बिरंचि हरि ईसा । पालत,सृजत, हरत दससीसा ।।
जा बस सीस धरत सहसानन ।अंडकोस समेत गिरि कानन ।।
धरई जो विविध देह सुर त्राता ।तुम्ह से सठन सिखावनु दाता ।।
हर कोदंड कठिन जेहि भंजा । तेहि समेत नृप दल मत गंजा ।।

अर्थात – “जिनके बल से हे दशानन रावण ब्रह्मा,  विष्णु और महेश क्रम से सृष्टि की रचना, पालन और संहार का कार्य करते हैं। जिनके बल से इस ब्रह्मांड को पर्वतों और जंगलो के साथ शेषनाग जी अपने सिर पर धारण करते हैं । जो देवताओं की रक्षा के लिए तरह तरह के देह धारण करते हैं और तुम जैसे मूर्खों को  सीख देने वाले हैं । जिन्होंने शिव के धनुष को तोड़ कर राजाओं के समूह का गर्व नष्ट कर दिया ।”

गोस्वामी तुलसीदास ने रामचरितमानस की रचना क्यों की :

जब आदि कवि वाल्मीकि जी ने रामायण लिखी ही थी तो फिर तुलसीदास जी ने रामचरितमानस की रचना क्यों की? क्या रामचरितमानस वाल्मीकि रचित रामायण का अवधी भाषा में अनुवाद मात्र है या फिर यह एक दूसरे प्रकार की रामकथा है ?

 दरअसल ब्रह्मा जी ने भगवान विष्णु के राम अवतार की यात्रा को जिस रुप में देखा था उसका ही वर्णन रामायण में है । रामायण के ‘बालकांड’ के शुरुआती श्लोकों में यह कथा है कि ब्रह्मा जी ने नारद जी को वाल्मीकि जी के पास भेजा था और नारद जी ने ब्रह्मा जी के स्मृति पटल पर राम की जो यात्रा रही थी, उसका वर्णन करने के लिए ग्रंथ लिखने की प्रेरणा दी । वाल्मीकि जी ने श्रीराम की कथा  जैसी ब्रम्हा जी के अनुसार थी वही रामायण के रुप में लिखी । 

लेकिन रामचरितमानस की कथा में भगवान शिव के मानस में राम का जो चरित्र रहा है, उसी का वर्णन तुलसीदास जी ने किया है । शिव के मानस या मन से उतरी कथा ही रामचरितमानस है और ब्रह्मा की स्मृति पर आधारित श्रीराम कथा ही वाल्मीकि रामायण है । शिव जी श्रीराम के महान भक्त भी थे, इसलिए रामचरितमानस में श्रीराम के पराक्रमों से ज्यादा राम के प्रति भक्ति का वर्णन है ।  

रचि महेस निज मानस राखा । पाई सुसमय सिवा मनभाषा ।।
ताते राम चरितमानस वर ।धरेउं नाम हियं हेरि हरसि हर ।।

अर्थात – “तुलसी कहते हैं कि कि रामचरितमानस की रचना भगवान शिव ने अपने मानस में करके रख छोड़ी थी । उसे सुसमय देख कर शिव जी ने उतारी है ।” 

दूसरे, रामचरितमानस की रचना के वक्त तक संस्कृत विशिष्ट जनों की भाषा रह गई थी, जबकि राम जन-जन के ईश्वर रहे हैं। अवधी उस वक्त उत्तर भारत में जनसामान्य की भाषा थी । तुलसी ने जन जन के नायक का वर्णन करने के लिए अवधी में रामचरितमानस की रचना की । 

गोस्वामी तुलसीदास का राम राज्य :

वैसे तो तुलसी के जन्म के काल को लेकर कई विवाद रहे हैं, लेकिन आम मत यही है कि गोस्वामी तुलसीदास जी का काल 1511 से 1623 के बीच माना जाता है । यह वही काल था जब देश में मुस्लिमों के आक्रमण हो रहे थे । एक तरफ विदेशी सुल्तानों के हमले और उनके शासन से देश लड़ रहा था, वहीं दूसरी तरफ सूफी संतों के द्वारा इस्लाम का प्रसार भी प्रेम और भक्ति के द्वारा किया जा रहा था। इन दोनों ही कारणों से हिंदू अस्मिता खतरे में नजर आ रही थी । हिंदू राजा अपने कर्तव्यों को भूल चुके थे और उनकी शासन व्यवस्थाओं में कई दोष नज़र आ रहे थे । 

ऐसे समय में समाज और देश के सामने कुछ सबसे बड़े प्रश्न खड़े थे। राजनैतिक तौर पर इन हमलों का जवाब देने के लिए वीरता के प्रतीक के रुप में किस ईश्वरीय सत्ता को आदर्श के रुप में पेश किया जाए। राज -काज का मॉडल क्या हो। हमलों से पीड़ित लोगों को कौन शरण देकर अभयदान दे । सूफी भक्ति धारा का माकूल जवाब क्या हो, जिनके प्रभाव से निचली जातियां तेजी से हिंदू धर्म को छोड़कर इस्लाम को स्वीकार कर रही थीं । एक आदर्श परिवार और एक आदर्श समाज कैसा हो ? इन सब प्रश्नों का उत्तर उस वक्त भारतीय हिंदू संतों और समाजशास्त्रियों को विचलित कर रहा था । 

गोस्वामी तुलसीदास के राम आदर्श पुरुष हैं :

गोस्वामी तुलसीदास ने श्रीराम को एक आदर्श पुरुष, आदर्श राजा, आदर्श पुत्र , आदर्श भाई और एक मर्यादापुरुषोत्तम वीर पुरुष के रुप में दिखाया । तुलसी के राम शूद्र जाति के निषाद को गले लगाते हैं, दलित शबरी के फल खाते हैं, शूद्र केवट को अपनाते हैं, रीक्ष और वानर जाति को अपना प्रेम देते हैं। तुलसी के राम समाज को जोड़ते हैं, वो भी उस वक्त जब समाज मुस्लिम हमलों और नई शासन व्यवस्था में एक आदर्श परिवार और समाज का मॉडल तलाश रहा था । 

तुलसी के राम का’ ‘राम राज्य’  :

गोस्वामी तुलसीदास के राजा राम एक आदर्श ‘राम राज्य’ की स्थापना करते हैं, जिसमें सभी वर्णों और जातियों का सम्मान था । जहां नारियों और दलितों को भी बराबर का हक हासिल था । श्राराम के राज्य में कोई भी दुखी और दरिद्र नहीं था –

अल्पमृत्यु नहीं कवनिउ पीरा । सब सुंधर सब बिरुज सरीरा ।
नहिं दरिद्र कोउ दुखी न दीना । नहीं कोउ अबुध न लच्छन हीना ।।

अर्थात : “श्री राम के राम राज्य में किसी की भी कम आयु में मृत्यु नहीं होती थी। सभी वहां सुंदर और स्वस्थ शरीर के लोग रहा करते थे। न कोई दरिद्र था और न ही कोई गरीब और दीन था । न कोई वहां मूर्ख था और न ही अच्छे लक्षणों से हीन था”  

शरणागत वत्सल श्रीराम :

गोस्वामी तुलसीदास के श्रीराम शरणागत वत्सल हैं । जब मुस्लिम हमलों से भयभीत जनता को कहीं शरण नहीं मिल रही थी, जब राजा लोग हमलावरों के डर से पीड़ित लोगों को शरण देने से डरते थे । उस वक्त तुलसी ने श्रीराम को शरणागत वत्सल के रुप में दिखाया । तुलसी के राम पापी से पापी व्यक्ति को अपना लेते हैं। उनकी शरण में कोई भी आ सकता है  –

प्रनतपाल रघुनायक करुना सिंधु खरारि ।
गएं सरन प्रभु राखिहें तव अपराध बिसारि ।।

गोस्वामी तुलसीदास के राम के पास जब विभीषण शरण के लिए आते हैं, तब सुग्रीव उन्हें विभीषण से बचने की सलाह देते हैं और विभीषण को शरण में लेने के लिए मना करते हैं। ऐसे मौके पर तुलसी के राम क्या कहते हैं देखिए – 

सरनागत कहुं जे तजहिं निज अनहित अनुमानि ।
ते नर पांवर पापमय तिन्हीं बिलोकत हानि ।।

अर्थात : “जो मनुष्य अपने अहित का अनुमान कर शरण में आए हुए का त्याग कर देते हैं ,वे क्षुद्र हैं, पापमय हैं और उन्हें देखने में भी पाप लगता है ।”

गोस्वामी तुलसीदास के राम का यह उद्घोष और शरणागत की रक्षा का प्रण तुलसीदास के दौर के हिंदू राजाओं के लिए एक प्रेरणा से कम नहीं था । 

तुलसी के राम सुग्रीव से कहते हैं कि –

कोटि विप्र वध लागहिं जाहुं । आए सरन तजहिं नहिं ताहुं ।।
सनमुख होई जीव मोहिं जबहिं ।जन्म कोटि अघ नासहिं तबहिं ।।

राम कहते हैं कि “भले ही किसी ने करोड़ों ब्राह्मणों का भी वध किया हो, लेकिन अगर वो मेरी शरण में आ जाता है तो मैं उसका भी त्याग नहीं करता हूं। जैसे ही कोई जीव मेरे सामने आता है उसके जन्मों के करोड़ों पापों का नाश कर देता हूं । “

हनुमान भक्त गोस्वामी तुलसीदास :

वाल्मीकि रामायण में राम की यात्रा महान वर्णन तो हैं ही साथ में महावीर हनुमान जी के पराक्रमों का भी वर्णन है । लेकिन महावीर हनुमान जी की ईश्वरीय सत्ता के बारे में रामायण में बहुत ही कम वर्णन किया गया है । वाल्मीकि के हनुमान बुद्धिमान हैं, बलवान हैं, चतुर सुजान हैं, लेकिन वो भगवान नहीं हैं ।

तुलसीदास जी ने वाल्मीकि जी के इस अधूरे कार्य को भी पूरा कर दिया हैं । तुलसी के हनुमान एकादश रुद्र हैं। वो जन -जन के लोकप्रिय भगवान हैं। तुलसी के हनुमान जी एक महान ईश्वरीय सत्ता हैं जिनका जन्म राम काज के लिए हुआ है ।

“राम काज लगि तव अवतारा , सुनतहिं भयउ परबतकारा”

गोस्वामी तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में तो हनुमान जी की ईश्वरीय सत्ता का वर्णन किया ही है, साथ में उन्होंने हनुमान चालीसा , बजरंग बाण, हनुमान बाहुक आदि की रचना कर हनुमान जी की अलौकिक सत्ता को स्थापित किया है । तुलसीदास जी की हनुमान चालीसा आज घर-घर में पढ़ी जाती हैं ।हनुमान जी के लाखों मंदिरों और उनकी भक्ति की स्थापना भी तुलसीदास जी के प्रयासों से हुई हैं । 

हिंदुओं की एकता के प्रतीक गोस्वामी तुलसीदास :

गोस्वामी तुलसीदास जी के वक्त तक सनातन धर्म कई संप्रदायों में विभक्त था । विशेषकर शैव और वैष्णव मतों में टकराव चल रहा था । शैव मत भगवान शिव को सर्वोच्च सत्ता मानता था तो वैष्णवों के अनुसार विष्णु जी और उनके अवतार ही सर्वोच्च थे ।

लेकिन तुलसीदास जी ने शैव और वैष्णव मतों को एक सूत्र में बांध कर विराट हिंदुत्व की विचारधारा को एक कर दिया । ऐसे वक्त जब मुस्लिम हमलें हो रहे थे, उस वक्त हिंदुओं के विभिन्न विपरीत मतों को एक करना बहुत जरुरी था । तुलसीदास जी ने श्रीराम को शिव भक्त और भगवान शिव को राम भक्त दिखला कर इस झगड़े को ही हमेशा के लिए समाप्त कर दिया । तुलसी के राम कहते हैं – 

शिव द्रोही मम दास कहावा सो नर मोहि सपनेहुं नहीं पावा ।।

अर्थात : “जो भगवान शिव के द्रोही हैं वो मुझे सपने में भी प्राप्त नहीं कर सकते हैं।” 

श्रीराम कहते है – 

शंकर प्रिय मम द्रोही, शिव द्रोही मम दास ।
तेहि नर करें कलप भरि ,घोर नरक में वास ।।

 अर्थात : “जो शंकर के प्रिय हैं और मेरे द्रोही हैं या फिर जो शिव जी के द्रोही है और मेरे दास हैं वो नर हमेशा नरक में वास करते हैं ।” 

तुलसीदास जी ने रामचरितमानस में भगवान शिव को श्रीराम के अनन्य भक्त के रुप में दिखाया है । तुलसीदास जी ने रामचरितमानस के वास्तविक रचनाकार के रुप में शिव जी को ही दिखाया है । पूरी रामचरितमानस कथा भगवान शिव ने माता पार्वती को सुनाई है ताकि माता पार्वती का श्रीराम की ईश्वरीय सत्ता पर से संदेह मिट सके । 

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