महाभारत में कृष्ण- विष्णु का विराट रुप : शुद्ध सनातन धर्म में महाभारत एकमात्र ऐसा ग्रंथ है जिसमें भगवान के विराट स्वरुप का सबसे अद्भुत स्वरुप का वर्णन है श्री मद् भगवद् गीता एक मात्र संहिता है जिसे व्याकरणिक दृष्टि से फर्स्ट पर्सन या उत्तम पुरुष में कहा गया है ।जहां कुरआन शरीफ और बाईबल में ईश्वर अपने पैगंबर या मसीहा के जरिए बात करते हैं
वहीं श्री मद् भगवद् गीता में ईश्वर स्वयं अपना संदेश सुनाते हैं । यहां ईश्वर स्वयं अपने स्वरुप और प्रकृति के बारे में बतलाते हैं ।
पुराणों में भी विष्णु के हजार नाम :
इसके अलावा महाभारत के ही अनुशासन पर्व में भगवान अपने 1000 नामों से संसार को परिचित कराते हैं । भगवान श्री हरि विष्णु के इन सारे 1000 नामों को भीष्म पितामह युधिष्ठिर को बतलाते हैं और स्वयं वहां श्री हरि विष्णु के पूर्णावतार श्री कृष्ण उन नामों का अनुमोदन करते हैं । इसी विष्णु सहस्त्रनाम का उल्लेख पद्मपुराण, मत्स्य पुराण और गरुड़ पुराण में भी आया है ।
श्री मद् भगवद् गीता में कृष्ण का विश्व रुप :
महाभारत के इन दोनों ही भागों श्री मद् भगवद् गीता और विष्णु सहस्त्रनाम के जरिए हमें श्री हरि विष्णु के पूर्ण ईश्वर और सर्वोच्च ईश्वरीय स्वरुप का पता चलता है जिनमें संसार की सभी विभूतियां सन्निहित हैं।
श्री कृष्ण में ही बसता है सारा ब्रम्हांड:
श्री मद् भगवद् गीता में भगवान श्री कृष्ण अर्जुन को अपना विश्व विराट स्वरुप दिखाते हैं । अर्जुन देखते हैं कि सारे देवता, राक्षस, असुर , मनुष्य , असंख्य ब्रम्हांड, सभी पंच तत्व श्री विष्णु या श्री कृष्ण से ही उद्भूत होते हैं और उन्ही में उन सबका लय हो जाता है । श्री कृष्ण अपना विराट स्वरुप दिखाते हुए अर्जुन को कहते हैं –
पश्य मे पार्थ रूपाणि शतशोऽथ सहस्रशः ।
नानाविधानि दिव्यानि नानावर्णाकृतीनि च ॥
भावार्थ : श्री भगवान ने कहा – हे पार्थ! अब तू मेरे सैकड़ों-हजारों अनेक प्रकार के अलौकिक रूपों को और अनेक प्रकार के रंगो वाली आकृतियों को भी देख।
पश्यादित्यान्वसून्रुद्रानश्विनौ मरुतस्तथा ।
बहून्यदृष्टपूर्वाणि पश्याश्चर्याणि भारत ॥
अर्थात : हे भरतश्रेष्ठ ! तू मुझमें अदिति के बारह पुत्रों को, आठों वसुओं को, ग्यारह रुद्रों को, दोनों अश्विनी कुमारों को, उनचासों मरुतगणों को और इसके पहले कभी किसी के द्वारा न देखे हुए उन अनेकों आश्चर्यजनक रूपों को भी देख ।
इहैकस्थं जगत्कृत्स्नं पश्याद्य सचराचरम् ।
मम देहे गुडाकेश यच्चान्यद्द्रष्टमिच्छसि ॥
अर्थात : हे अर्जुन ! तू मेरे इस शरीर में एक स्थान में चर-अचर सृष्टि सहित सम्पूर्ण ब्रह्माण्ड को देख, और अन्य कुछ भी तू देखना चाहता है उन्हे भी देख ।
इसके बाद अर्जुन भगवान के इस विराट स्वरुप को देख कर उसका वर्णन करते हुए कहते हैं कि –
पश्यामि देवांस्तव देव देहे सर्वांस्तथा भूतविशेषसङ्घान् ।
ब्रह्माणमीशं कमलासनस्थमृषींश्च सर्वानुरगांश्च दिव्यान् ॥
अर्थात : अर्जुन ने कहा – हे भगवान श्रीकृष्ण! मैं आपके शरीर में समस्त देवताओं को तथा अनेकों विशेष प्राणीयों को एक साथ देख रहा हूँ, और कमल के आसन पर स्थित ब्रह्मा जी को, शिव जी को, समस्त ऋषियों को और दिव्य सर्पों को भी देख रहा हूँ।
रुद्रादित्या वसवो ये च साध्याविश्वेऽश्विनौ मरुतश्चोष्मपाश्च ।
गंधर्वयक्षासुरसिद्धसङ्घावीक्षन्ते त्वां विस्मिताश्चैव सर्वे ॥
अर्थात : शिव के सभी रूप, सभी आदित्यगण, सभी वसु, सभी साध्यगण, सम्पूर्ण विश्व के देवता, दोनों अश्विनी कुमार तथा समस्त मरुतगण और पितरों का समूह, सभी गंधर्व, सभी यक्ष, समस्त राक्षस और सिद्धों के समूह वह सभी आश्चर्यचकित होकर आपको देख रहे हैं।
भगवान श्री हरि विष्णु के पूर्णावतार श्री कृष्ण अर्जुन को अपने वास्तविक ईश्वरीय स्वरुप से परिचित कराते हैं । श्री मद् भगवद् गीता के अनुसार श्री कृष्ण या विष्णु से ही सारा ब्रम्हांड और सभी ईश्वरीय सत्ताएं जन्म लेती हैं और उन्ही में फिर उनका लय हो जाता है ।
सुत बित नारी भवन परिवारा, होहिं जाहि जग बारहिं बारा !
अस बिचारी जियं जागहु ताता, मिलई न जगत सहोदर भ्राता !!
विष्णु ही हैं परमेश्वर :
इसी प्रकार श्री विष्णु सहस्त्रनाम में भी श्री कृष्ण अपने जिन नामों का अनुमोदन भीष्म के समक्ष करते हैं उसमें भी हम पाते हैं कि श्री कृष्ण या विष्णु ही ब्रम्हांड के रचयिता , पालनकर्ता और संहारकर्ता भी हैं । ब्रम्हा भी वहीं है शिव भी वही हैं। इन्द्र भी वहीं है , सूर्य भी वहीं ही और अग्नि और पवन भी वही हैं । वही विश्व हैं और उन्हीं के अंदर सारा ब्रम्हांड भी है –
विष्णु सहस्त्रनाम के इस श्लोक को देखिए –
ऊं विश्वं विष्णु वषट्कारों भूत भव्य भवत् प्रभु ।
भूत कृत भूत भृत भावो भूतात्मा भूतभावन ।।
अर्थात : जो स्वयं विश्व अर्थात ब्रम्हांड हैं, जो पूरे विश्व में व्याप्त हैं ,जो यज्ञों के साकार स्वरुप हैं, और जो भूतकाल, वर्तमान काल और भविष्य काल के स्वामी हैं । जिन्होंने इस विश्व को बनाया और जो इस विश्व का पालन करते हैं , जो इस विश्व की आत्मा हैं और जो इस विश्व का संचालन करते हैं उन्हें मेरा प्रणाम है ।
विष्णु सहस्त्रनाम में भगवान शिव के नामों को भी विष्णु के नामों के साथ संयुक्त दिखाया गया है जिसका अर्थ यही है कि जो शिव हैं वही हरि हैं और उनमें कोई भेद नहीं है –
सर्व: शर्व: शिव: स्थाणु: भूतादि निधि अव्यय ।
संभवो भावनों भर्ता प्रभव: प्रभु ईश्वर: ।।
स्वयंभू: शम्भु: आदित्य: पुष्कराक्षो महास्वन
अनादि निधनों धाता विधाता धातुरुत्तम: ।.
यहां श्री हरि विष्णु के नामों में ही भगवान शिव के नामों को भी दिखाया गया है । इसी प्रकार विष्णु को ही ब्रम्हा भी कहा गया है –
ब्रह्म्णयो ब्रम्हकृत ब्रम्हा ब्रम्ह ब्रह्मविवर्धन ।
अर्थात : भगवान श्री हरि विष्णु के सारे अवतारों के अलावा श्री विष्णु सहस्त्रनाम में उन्हें ही स्कंद , इंद्र (पुरंदर ), प्रजापति, यज्ञ स्वरुप, अग्नि, पवन , आदित्य ( सूर्य ) कहा गया है
स्कन्दः स्कन्द-धरो धुर्यो वरदो वायुवाहनः ।
वासुदेवो बृहद भानु: आदिदेवः पुरंदरः ।। 36 ।।
भगवान भगहानंदी वनमाली हलायुधः ।
आदित्यो ज्योतिरादित्यः सहिष्णु:-गतिसत्तमः ।। 60 ।।
भगवान विष्णु के इन हजार नामों के स्तवन से ही सारे देवताओं की एक साथ ही स्तुति हो जाती है । इस स्तुति को करने वाला सभी पापों से मुक्त होकर ईश्वर की कृपा प्राप्त करता है ।