गंगा के अवतरण की कथा

 गंगा दशहराः गंगा के अवतरण की कथा

सनातन धर्म में गंगा को सबसे पवित्र नदी माना गया है । गंगा को देवी कहा जाता है । गंगा एकमात्र ऐसी दिव्य नदी हैं जो आकाश, पृथ्वी और पाताल तीनों स्थानों पर प्रवाहित होती हैं। गंगा नदी का वर्णन सबसे पहले ऋग्वेद के दशम मंडल के नदी सूक्त में मिलता है।

गंगा के पृथ्वी पर अवतरित होने की कथा कई महाकाव्यों, पुराणों और अन्य हिंदू धर्म ग्रंथों में मिलती है। सबसे पहले गंगा के अवतरण की कथा वाल्मीकि रचित रामायण के बालकांड के सर्ग 34 से सर्ग 44 में मिलती है।

वाल्मीकि रामायण की कथा के अनुसार गंगा हिमालय और उनकी पत्नी मैना की सबसे बड़ी पुत्री थीं। हिमालय की दूसरी पुत्री का नाम उमा हैं । उमा भगवान शिव की पत्नी हैं। गंगा जब बड़ी हुईं तो संसार के कल्याण के लिए देवताओं ने उन्हें हिमालय से मांग लिया। इसके बाद गंगा अंतरिक्ष में वास करने लगीं और उन्हें आकाशगंगा के नाम से पुकारा गया ।

गंगा और कार्तिकेय का संबंध ( Relation of Ganga and Kartikeya )

वाल्मीकि रामायण की कथा से पता चलता है कि कार्तिकेय या स्कंद के जन्म में गंगा की बहुत बड़ी भूमिका थी। कथा के अनुसार तारकासुर नामक एक राक्षस ने ब्रह्मा जी से वरदान मांगा कि उसकी मृत्यु भगवान शिव के पुत्र के हाथों हो। उन दिनों भगवान शिव ने अपनी पत्नी सती के आत्मदाह की वजह से वैराग्य धारण कर लिया था।

भगवान शिव के वैराग्य धारण करने की वजह से उनका विवाह संभव नहीं लग रहा था। ऐसे में भगवान ब्रह्मा की प्रेरणा से हिमालय की दूसरी पुत्री पार्वती (उमा) ने भगवान शंकर को पति के रुप में प्राप्त करने के लिए कठोर तपस्या की। पार्वती की तपस्या से प्रसन्न होकर भगवान शिव ने उनसे विवाह कर लिया।

जब भगवान शिव और पार्वती  पुत्र प्राप्ति की आकांक्षा से प्रेम में तल्लीन थे तो उस वक्त देवताओं में यह भय समा गया कि शिव और पार्वती से उत्पन्न पुत्र कहीं उनके लिए ही खतरा न साबित हो जाए?

देवताओं  ने भगवान शिव से प्रार्थना की कि वो पुत्र प्राप्ति के लिए अपने प्रयासों को स्थगित कर दें। भगवान शिव ने देवताओं से कहा कि “वो अपना वीर्य कहां स्खलित करें?” ऐसे में ब्रह्मा जी के आदेश से अग्नि और वायु ने शिव के वीर्य को धारण कर लिया।

 बाद में देवताओं के अनुरोध पर गंगा ने शिव के वीर्य को धारण किया और गर्भवती हो गईं। गंगा भी शिव के इस तेज को ज्यादा दिनों तक धारण करने में असमर्थ हो गईँ तो उन्होंने अपने गर्भ को हिमालय के पास भूमि पर गिरा दिया। इससे कार्तिकेय का जन्म हुआ।

गंगा का पृथ्वी पर अवतरण ( Mother Ganga Descends on Earth )

वाल्मीकि रामायण, महाभारत, ब्रह्मवैवर्त पुराण, वायु पुराण, पद्म पुराण सहित कई महान धार्मिक ग्रंथों मे गंगा के पृथ्वी पर अवतरण की कथा आती है। वाल्मीकि रामायण की मूल कथा के अनुसार श्रीराम के पूर्वज और इक्ष्वाकु वंश के प्रतापी राजा भगीरथ की तपस्या के फलस्वरुप गंगा ने पृथ्वी पर अवतरण किया।

कथा के अनुसार इक्ष्वाकु वंश के अयोध्या के राजा सगर की दो पत्नियाँ थीं। पहली का नाम केशिनी था और दूसरी का नाम सुमति था। भृगु ऋषि के वरदान से केशिनी का एक पुत्र हुआ जिसका नाम असमंज था,जबकि सुमति के गर्भ से साठ हज़ार बलशाली पुत्रों का जन्म हुआ।

एक बार गोकर्ण तीर्थ में राजा सगर ने अश्वमेध यज्ञ का आयोजन किया। राजा के अश्व को इंद्र ने चुरा लिया। अश्व की खोज में राजा सगर ने अपने 60 हज़ार पुत्रों को भेजा । इन पुत्रों ने साठ योजन भूमि खोद डाली जिससे सागर या समुद्र की उत्पत्ति हुई।

पृथ्वी को खोदने के क्रम में सगर के 60 हज़ार पुत्रों ने अश्वमेध यज्ञ के घोड़े को पाताल में देखा। वह घोड़ा भगवान विष्णु के अवतार कपिल मुनि के आश्रम में घास चर रहा था। सगर के पुत्रों ने कपिल मुनि के साथ बद्तमीजी की तो मुनि ने सगर के पुत्रों के अपने हुंकार से भस्म कर दिया।

सगर ने अपने 60 हज़ार पुत्रों की खोज में अपने पौत्र अंशुमान को भेजा। अँशुमान ने जब अपने चाचाओं की राख देखी तो वो द्रवित हो गए। ब्रह्मा ने अंशुमान से कहा कि ” देवी गंगा को आकाश से पृथ्वी पर उतारने का यत्न करो, वही सगर के 60 हजार पुत्रों को मुक्ति प्रदान करेंगी।”

राजा अँशुमान गंगा को आकाश से पृथ्वी पर लाने के लिए तपस्या नहीं कर सके। उनके पुत्र राजा दिलीप ने भी प्रयास किया , लेकिन वो भी असफल रहे। राजा दिलीप के पुत्र राजा भगीरथ ने गंगा को पृथ्वी पर उतारने के लिए कठोर तपस्या की ।

राजा भगीरथ की तपस्या से प्रसन्न होकर ब्रह्मा ने गंगा को पृथ्वी पर उतरने की अनुमति दे दी। लेकिन गंगा ने कहा कि “आकाश से पृथ्वी पर उतरने के क्रम में उनके प्रवाह को संभाल पाना असंभव होगा, ये कार्य भगवान शिव के बिना संभव नहीं है।”

राजा भगीरथ ने भगवान शिव को भी अपनी कठोर तपस्या से प्रसन्न किया । भगवान शिव ने गंगा को अपनी जटाओं में उतारने का निर्णय कर लिया। जब गंगा आकाश से शिव की जटाओं में उतरने लगीं तो उनके दर्प को देखकर शिव ने उन्हें अपनी जटाओं में  ही कैद कर लिया।

राजा भगीरथ के द्वारा भगवान शिव की एक बार फिर पूजा करने के बाद भगवान शिव ने गंगा को बिंदुसरोवर के पास अपनी जटाओं से निकाल दिया। बिंदुसरोवर से गंगा की सात धाराएँ निकलीं।

गंगा की जो तीन धाराएँ पूर्व दिशा की ओर निकली उनका नाम ह्लादिनी, पावनी और नलिनी पड़ा  । नलिनी नदी को ही आज हम ब्रह्मपुत्र नदी के रुप में जानते हैं। पश्चिम दिशा की ओर गंगा की तीन अन्य धाराएं निकली जिनका नाम सुचक्षु, सीता और सिंधु पड़ा। दक्षिण दिशा की ओर स्वयं गंगा राजा भगीरथ के पीछे- पीछे चलीं।

मार्ग में गंगा के प्रवाह को देख कर तपस्वी महामुनि जाहनु क्रोधित हो गए और उन्होंने गंगा  को पी लिया। राजा भगीरथ के अनुरोध पर महामुनि जाह्नु का क्रोध शांत हुआ और उन्होंने गंगा को अपने कानों के छिद्र के रास्ते प्रवाहित कर दिया। इसी वजह से गंगा का एक नाम जाह्नवी भी पड़ा।

राजा भगीरथ के पीछे – पीछे गंगा समुद्र तक आईं और इसके बाद पाताल में प्रवेश कर गईं। पाताल में राजा सगर के साठ हजार पुत्रों के राख को गंगा ने स्पर्श किया और उन सभी पुत्रों को स्वर्गलोक  की प्राप्ति हो गई।

राजा भगीरथ के नाम पर गंगा का एक अन्य नाम भगीरथी भी पडा। गंगा के पृथ्वी पर अवतरण के बाद ब्रह्मा जी ने ये वरदान दिया कि जो भी गंगा के जल से स्नान करेगा उसे जन्म मरण के चक्र से मुक्ति मिल जाएगी।

पद्म पुराण में गंगा के अवतरण की कथा ( The story of the descent of Ganga in Padma Purana )

वाल्मीकि रामायण के बाद महाभारत में भी गंगा के अवतरण की कथा है, लेकिन पद्म पुराण की कथा को भी बहुत महत्व दिया गया है। इस कथा के अनुसार ब्रह्मा ने सृष्टि निर्माण के लिए जिस प्रकृति या माया को उत्पन्न किया उससे सात अन्य मातृशक्तियाँ उत्पन्न हुईँ। ये सात मातृशक्तियाँ हैं – गायत्री, सरस्वती, लक्ष्मी, उमा, शक्तिबीजा, तपस्विनी और धर्मद्रवा।

गायत्री से वेदों की उत्पत्ति हुई तो सरस्वती विद्या की अधिष्ठात्री देवी बनीं। उमा के द्वारा भगवान शंकर के रहस्य का ज्ञान किया  जा सकता है, इसलिए उमा को ज्ञान की जननी बताया गया। शक्तिबीजा प्रकृति या माया की संहारिणी शक्ति हैं।

 देवी तपस्विनी से सृष्टि के निर्माण का प्रारंभ होता है। धर्मद्रवा ही गंगा के नाम से जानी जाती हैं। धर्मद्रवा से उत्पन्न जल से दैत्य राज बलि के यज्ञ में प्रगट हुए भगवान विष्णु के अवतार भगवान वामन के चरण धोए गए। भगवान वामन के चरणों को धोने से जो जल विष्णु के चरण रज के साथ मिश्रित हुआ, उसे ब्रह्मा ने अपने कमंडल में रख लिया। यही जल आकाशगंगा के नाम से जाना गया।

जब राजा भगीरथ ने आकाशगंगा को पृथ्वी पर उतारने के लिए तपस्या की तो ब्रह्मा ने इसी आकाशगंगा को अपने कमंडल से मुक्त किया और ये आकाशगंगा भगवान शिव की जटाओं से होती हुईं पृथ्वी पर अवतरित हुईँ।

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