शुद्ध सनातन धर्म में भगवान गणपति को सभी ईश्वरीय सत्ताओं में सबसे प्रथम और सबसे पूज्य माना गया है। आमतौर पर यही मान्यता रही है कि भगवान गणेश माता पार्वती के पुत्र हैं और भगवान शिव और पार्वती की परिक्रमा कर उन्हें सबसे पहले पूज्य होने का गौरव हासिल हुआ था।
लेकिन गणपति का वर्णन तो ऋग्वेद में भी है जिसमें माता पार्वती का भी उल्लेख नहीं है । (गणेश चतुर्थी ) गणपति ऋग्वेद में भी सबसे प्रथम पूजनीय माने गए हैं। रामचरितमानस में भगवान शिव और माता पार्वती भी अपने विवाह के दौरान सबसे पहले गणपति की वंदना करते हैं ।
तो क्या माता पार्वती के पुत्र गणेश और गणपति कोई दो अलग अलग सत्ताएं हैं या फिर एक ही सत्ता के दो अवतरण हैं गणपति । शुद्ध सनातन आपको बता रहा है गणपति के वास्तविक स्वरुप की पूरी कथा ।
कौन हैं गणपति और कौन हैं गणेश :
गणेश चतुर्थी के गणपति कौन हैं गणपति और क्या है इनका कार्य और स्वरुप इसको लेकर आज भी स्पष्ट रुप से कह पाना कठिन है । लेकिन शुद्ध सनातन धर्म के सबसे प्राचीन ग्रंथ ऋग्वेद के दूसरे और दसवें मंडल में गणपति की वंदना की गई है । आज भी मांगलिक कार्यों में गणपति की वंदना के लिए इन्हीं ऋचाओं को पढ़ा जाता है –
ऊं गणानां त्व गणपतिं हवामहे कविं कवीनामुपमश्रवस्तमम् ।
ज्येष्ठराजं ब्रम्हणाम् ब्रह्मणस्पत आ नः शृणवन्नूतिभिःसीदसादनम् । ऊं महागणाधिपतये नमः ।।
इस ऋचा में गणपति की वंदना की गई है और कहा गया है कि वही सभी देवताओं में ज्येष्ठ हैं, ब्रम्ह स्वरुप हैं ।
सभी ग्रंथों में हैं गणपति का उल्लेख :
स्कंद पुराण, लिंग पुराण, ब्रम्हवैवर्त पुराण के अलावा महाभारत और रामचरितमानस में भी गणपति की वंदना की गई है । लेकिन आश्चर्य की बात यह है कि वाल्मीकि के रामायण में गणपति की कहीं कोई वंदना नहीं की गई है।
क्या गणपति कोई ऋग्वैदिक देवता हैं जो बाद में जाकर भगवान गणेश के साथ संयुक्त हो गए । ब्रम्हवैवर्त पुराण की एक कथा के अनुसार माता पार्वती ने भगवान विष्णु की तपस्या कर उनके समान एक पुत्र को प्राप्त किया और उन्हें ही गणेश कहा गया । तुलसीदास रचित रामचरितमानस के बालकांड में भगवान शिव और माता पार्वती के विवाह का उल्लेख है । इस विवाह में भगवान शिव और पार्वती सबसे पहले भगवान गणपति की वंदना करते हैं –
मुनि अनुसासन गणपतिहि पूजेउ संभू भवानी ।
कोई सुनै संसय करै जनि सुर अनादि जियं जानि ।।
अर्थात: मुनियों की आज्ञा से भगवान शिव और पार्वती ने गणपति का सबसे पहले पूजन किया । मन में देवताओं को अनादि समझ कर कोई संशय न करें ( कि गणेश जी तो भगवान शिव और माता पार्वती की संतान हैं फिर वो इनके पहले कैसे आ गए )
इस दोहे से स्पष्ट है कि गणपति और गणेश दोनों अलग सत्ताएं हैं जो बाद में एक ही ईश्वरीय सत्ता के रुप मे परिणत हो गईँ ।
भगवान गणेश ही क्या विनायक हैं :
पौराणिक और बाद के कई ग्रंथों में गणेश और गणपति को एक ही माना जाने लगा । गणेश जी को विनायक भी कहा गया जबकि महाभारत के वन पर्व, शांति पर्व और अनुशासन पर्व की कथाओं के अनुसार विनायक अलग अलग देवता हैं । विनायक देवताओं के वो समूह हैं जो पांजजन्य ऋषियों की तपस्या से उत्पन्न हुए हैं । पांचजन्य ऋषियों की तपस्या से जो पंद्रह देवता गण उत्पन्न हुए उन्हें संयुक्त रुप से विनायक कहा गया । ये विघ्न करने वाले गण थे जो यज्ञों के हविष्य का अपहरण कर लेते थे । बाद की कथाओं में रुद्र के द्वारा विनायकों को गणों का प्रमुख बना दिया जाता है । विनायकों को बाद में गणपति या गणेश से संयुक्त कर दिया गया औऱ गणेश ही विनायक भी कहलाए ।
भगवान गणेश की सामान्य कथा :
बाद के पौराणिक ग्रंथों में भगवान गणेश को माता पार्वती के शरीर से उत्पन्न बताया गया है । कथा है कि एक बार माता पार्वती स्नान कर रही थीं तो उन्होंने अपने द्वार पर रक्षा करने के लिए अपने शरीर से एक बालक को उत्पन्न किया । माता गौरी के तन से उत्पन्न होने की वजह से गणेश जी को गौरी तनया भी कहा जाता है । कथा आगे बढ़ती है जब भगवान शिव माता पार्वती से मिलने के लिए आते हैं और गौरीतनय उनका मार्ग रोक कर खड़े हो जाते हैं ।
इसके बाद देवतागण भी सामने आ जाते हैं ।लेकिन गणेश सभी को पराजित कर देते हैं । आखिर में भगवान शिव अपने त्रिशूल से उस बालक का सिर काट देते हैं । माता पार्वती को जब यह पता चलता है तो वो क्रोध से भर जाती हैं और उनका क्रोध शांत करने के लिए उस बालक के सिर की जगह हाथी के बच्चे का सिर लगा दिया जाता है । गणेश जी को भगवान शिव और सभी देवता आशीर्वाद देते हैं और शिव उन्हें अपना पुत्र मानते हैं।
क्यों होती है गणेश की सबसे पहले पूजा :
कथाओं के अनुसार एक बार भगवान शिव ने अपने दोनों बच्चों कार्तिकेय और गणेश को पृथ्वी की परिक्रमा करने को कहा और कहा कि जो पहले परिक्रमा करके लौटेगा वही श्रेष्ठ कहलाएगा । कार्तिकेय अपने मयूर पर सवार हो कर तीनों लोकों की परिक्रमा करने लगे । लेकिन गणेश जी के पास ऐसा वाहन नहीं था । ऐसी स्थिति में उन्होंने अपने माता पिता की ही परिक्रमा कर ली । जब भगवान शिव ने उनसे ऐसा करने का कारण पूछा तो गणेश जी ने कहा कि माता पिता में ही तीनों लोको का वास होता है । उनके इस जवाब से भगवान शिव प्रसन्न हो गए और उन्हें यह वरदान दिया कि सबसे पहले उनकी ही पूजा की जाएगी ।
क्यों मनाते हैं गणेश चतुर्थी :
महाराष्ट्र में लोक मान्यता है कि भाद्रपद चतुर्थी के दिन माता पार्वती अपने पुत्र गणेश के साथ पृथ्वी पर आती हैं और दस दिनों तक संसार के कल्याण हेतु रहती हैं । जिस तिथि को गणपति अपनी माता के साथ पृथ्वी पर पधारते हैं उस तिथि को गणेश चतुर्थी मनाई जाती है । महाराष्ट्र में अलग अलग घरों और पांडालों में सार्वजनिक और निजी रुप से गणेश चतुर्थी धूमधाम से मनाई जाती है । गणेश चतुर्थी के मौके पर पूरे महाराष्ट्र , मध्य प्रदेश और दक्षिण भारत के कई इलाकों में गणेश जी की प्रतिमा स्थापित की जाती है और कुछ दिनों तक उनका पूजन करने के बाद उनका विसर्जन किया जाता है ।गणेश चतुर्थी के समापन के बाद जब गणेश जी की मूर्तियों का विसर्जन किया जाता है तो गणपति बप्पा मोरया के नारे लगाए जाते हैं और उनसे अगले साल फिर से पधारने की प्रार्थना की जाती है ।
आजादी के आंदोलन में गणेश चतुर्थी :
भारत की आजादी का आंदोलन गहरे रुप से गणेश चतुर्थी के पर्व से जुड़ा रहा है । राष्ट्रवाद के उत्थान में गणेश चतुर्थी का पर्व अपना महत्वपूर्ण स्थान रखता है । आजादी के आंदोलन से पहले गणेश चतुर्थी का पर्व एक निजी समारोह था जिसमें भक्ति भाव की ही प्रधानता थी । हालांकि मराठा साम्राज्य के काल में गणेश चतुर्थी को धूम धाम से मनाया जाता था ।
लेकिन 1890 के दशक में आजादी के एक बड़े क्रांतिकारी बाल गंगाधर तिलक जी ने गणेश चतुर्थी के पर्व को राष्ट्रवाद से जोड़ा और पूरे महाराष्ट्र की जनता को एकता के सूत्र में बांधने वाला पर्व बना दिया । तिलक जी के प्रयासों से महाराष्ट्र के कोने -कोने में गणेश चतुर्थी का पर्व सार्वजनिक रुप से मनाया जाने लगा और गणेश चतुर्थी के मौके पर राष्ट्र को आजाद करने की योजनाएं बनानी शुरु हुईं। स्वराज्य की संकल्पना का भी गणेश चतुर्थी का योगदान रहा है ।
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