Did Draupadi have religion at stake

क्या द्रौपदी को दांव पर लगाना धर्म था

जब धर्म और अधर्म के बीच सत्य को स्थिर करना बहुत मुश्किल हो जाता  है । महाभारत के सभा पर्व में जब द्रौपदी को धर्मराज युधिष्ठिर जुए में हार जाते हैं और दुशासन द्रौपदी को बल पूर्वक सभा में घसीट कर लाता है । तब द्रौपदी वहां सभा मे मौजूद धर्म के महान ज्ञाताओं भीष्म, विदुर , द्रोण और स्वयं धर्मराज युधिष्ठिर से एक महान प्रश्न करती है जिसका उत्तर आज भी अनुत्तरित है । सबसे पहले हम जानते हैं कि द्रौपदी का वो प्रश्न –

इमं प्रश्नमिमे ब्रूत सर्व एव सभासद: !
जितां व्याप्यजितां वा मां मन्यध्वे सर्वभूमिपा: !!
भावार्थ: मेरे इस प्रश्न का सभी सभासद उत्तर दें,राजाओं आप लोग क्या समझते हैं कि
 क्या मैं धर्म के अनुसार जीती गई हूं या नहीं ?

द्रौपदी के इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए सबसे पहले भीष्म पितामह खड़े होते हैं और अपनी असमर्थता जाहिर करते हुए कहते हैं –

न धर्मसौक्ष्म्यात सुभगे विवेक्तुं, शक्नोमि ते प्रश्नमिमं यथावत् !
अस्वाम्यशक्त पणितुं परस्वं, स्त्रियाश्च भर्तुर्वशतां समीक्ष्य !!

भीष्म कहते हैं कि हे सौभाग्यशालीनी वधू ! धर्म का अत्यंत सूक्ष्म स्वरुप होने के कारण मैं तुम्हारे इस प्रश्न का ठीक – ठीक उत्तर नहीं दे सकता । जो स्वामी नहीं है वो किसी पराए धन पर दांव नहीं लगा सकता । किंतु स्त्री को हमेशा स्वामी के अधीन देखा जाता है । इस लिए इन सब बातों पर विचार करते हुए मुझसे नहीं बन पा रहा ।

द्रौपदी का ये प्रश्न बहुत ही गहरा था । युधिष्ठिर ने खुद को पहले दांव पर लगा कर वो हार गए थे । इस हिसाब से खुद के स्वामी भी नहीं रह गए थे युधिष्ठिर । इस हिसाब उनके पास अपना कुछ भी धन ( यहां तक कि स्त्री भी ) नहीं रह गया था । इसलिए द्रौपदी को दांव पर लगाने का अधिकार वो खो बैठे थे । क्योंकि पराधीन व्यक्ति के पास अपना निजी धन नहीं होता ( यहां तक कि स्त्री भी उसके अधिकार से चली जाती है ) इसलिए वो खुद के हारने के बाद द्रौपदी को दांव पर लगाने के अधिकारी नहीं थे । लेकिन साथ ही भीष्म यह भी कह देते हैं कि स्त्री तो पुरुष के अधीन ही होती है । इसलिए जैसे ही युधिष्ठिर खुद को हार गए वो उसी वक्त अपने अधीन सभी कुछ यहां तक कि द्रौपदी को भी हार गए थे ।

This question of Draupadi was very deep. Yudhishthira had lost himself by placing himself at first. According to this, even Yudhisthira himself was no longer his master. Accordingly, they had no money

फिर भी प्रश्न यही रह जाता है कि युधिष्ठिर के हारने के साथ द्रौपदी भी हारी जा चुकी थी फिर युधिष्ठिर कैसे अगला दांव खेल सके, क्योंकि उनके अधीन सारी चीजें तो हारी जा चुकी थीं । सो युधिष्ठिर के हारते ही जुए का खेल बंद हो जाना चाहिए था

इन सूक्ष्म बातों पर भीष्म भी निर्णय नहीं कर पाए । इसके बाद भीष्म आगे कहते हैं कि चूंकि खुद धर्मराज युधिष्ठिर ने कहा कि वो अपने को हार गए हैं । परंतु शकुनि ही उन्हें प्रेरित करता है कि वो द्रौपदी को दांव पर लगाएं। ये शकुनि की प्रेरणा के फलस्वरुप हुआ है न कि युधिष्ठिर के अधिकार के फलस्वरुप । यहां शकुनि का मानना है कि चूंकि युधिष्ठिर हार चुके हैं और उनके हारने के साथ ही द्रौपदी भी शकुनि के द्वारा जीती जा चुकी है । इसलिए शकुनि द्रौपदी को चाहे तो दांव पर लगाने का खेल कर सकते हैं । युधिष्ठिर को यह छल नहीं लगता क्योंकि द्रौपदी अब शकुनि के अधिकार में है और वो जो चाहें द्रौपदी के साथ कर सकते हैं ।

इसके बाद द्रौपदी के इस प्रश्न का समाधान करने के लिए भीम खड़े होते हैं और युधिष्ठिर को कहते हैं कि सिर्फ आप पर ही द्रौपदी का अधिकार नहीं है हमारा भी है इसलिए ये अनुचित है आप द्रौपदी पर दांव नहीं लगा सकते थे । लेकिन अर्जुन भीम को समझाते हुए इस प्रश्न का निराकरण करते हुए कहते हैं कि चूंकि हम सभी भाइयों के सर्वस्व पर ही युधिष्ठिर का अधिकार है सो द्रौपदी पर भी उनका अधिकार संपूर्ण हुआ । दूसरे अर्जुन यह भी कहते हैं कि युधिष्ठिर को जुए के लिए चुनौति दी गई थी । ऐसे में क्षत्रिय धर्म के अनुसार युधिष्ठिर जुए के लिए मना नहीं करने के लिए बाध्य थे ।

इसके बाद विकर्ण द्रौपदी के इस प्रश्न का उत्तर देने के लिए खड़े होते हैं । कौरव नंदन विकर्ण कहते हैं कि द्रौपदी को दांव पर लगाना युधिष्ठिर की अपनी इच्छा नहीं थी बल्कि उन्हें धूर्त जुआरियों की तरफ से प्रेरित किया गया था । विशेषकर शकुनि ने द्रौपदी को दांव पर लगाने की बात उठाई थी । इस हिसाब से द्रौपदी का दांव पर लगाना अधर्म है, इसके बाद विकर्ण को कर्ण फटकारते हुए इस प्रश्न का जवाब देता है कि चूंकि युधिष्ठिर ने अपना सर्वस्व दांव पर लगा दिया था सो इस सर्वस्व में द्रौपदी भी निहित है ।  युधिष्ठिर के इस कार्य का अनुमोदन उसके चारो भाइयों ने मौन रह कर किया ।  ऐसे में द्रौपदी का दांव पर लगाया जाना धर्म सम्मत है, इसके बाद बलपूर्वक दुशासन द्रौपदी का चीरहरण का प्रयास करता है जो ईश्वर की कृपा से असफल हो जाता है । इसके बाद फिर द्रौपदी इसी प्रश्न को सभा के सामने रखती है ।

इसके बाद एक बार फिर भीष्म पितामह खड़े होते हैं और अपनी असमर्थतता जाहिर करते हुए कहते हैं –

बलवांश्च यथा धर्मे लोके पश्यति पुरुष:!
स धर्मो धर्मवेलायां भवत्यभिहत:पर:!!
भावार्थ: संसार में बलवान मनुष्य जिसको धर्म समझता है,धर्म विचार के समय 
लोग उसी को धर्म मान लेते हैं और बलहीन पुरुष जो धर्म बताता है,वह बलवान पुरुष 
के बताए धर्म  से दब जाता है,अर्थात इस वक्त बलवान दुर्योधन का बताया हुआ 
धर्म ही धर्म माना जा रहा है ।

इसके बाद भीष्म कहते हैं कि इस प्रश्न का ठीक ठीक उत्तर सिर्फ युधिष्ठिर ही दे सकते हैं क्योंकि वही धर्म के सबसे सूक्ष्म रुप से समझते हैं ।

इस पर दुर्योधन खड़ा होता है कि कहता है कि इस प्रश्न का उत्तर भीम, अर्जुन , नकुल और सहदेव के उपर छोड़ा जाता है कि क्या द्रौपदी को दांव पर लगाया जाना धर्म सम्मत है या नहीं । इस उत्तर ये चारो ही दें । अगर सभा में ये चारो युधिष्ठिर को गलत साबित कर देते हैं तो तुम्हें दासी होने से मुक्त कर दिया जाएगा । या स्वयं युधिष्ठिर भी इसका जवाब दे दें कि तुम्हे दांव पर लगाना अधर्म है तो फिर तुम्हें मुक्त कर दिया जाएगा ।

इसका उत्तर देने के लिए भीम फिर से खडे होते हैं और कहते हैं कि युधिष्ठिर हमारे प्राणो और पुण्य के प्रभु हैं ।यदि ये द्रौपदी को दांव पर लगाने के पूर्व अपने को हारा हुआ नहीं मानते हैं  तो हम सब लोग ( द्रौपदी भी ) इनके द्वारा दांव पर लगाए जाने के कारण हारे जा चुके हैं । यदि मैं हारा नहीं गया होता तो कोई भी द्रौपदी को छू भी नहीं सकता था ।मैं धर्म के कारण बंध गया हूं और अर्जुन भी मुझे मना कर रहा है इसलिए मैं कुछ नहीं कर सकता । इसके बाद कर्ण फिर से खड़ा होता है और कहता है कि दास, पुत्र और सदा पराधीन रहने वाली स्त्री – ये तीनों धन के स्वामी नहीं होते । ऐसी निर्धन दास की पत्नी और सारा धन उस पर दास के स्वामी ( दुर्योधन ) का ही अधिकार माना जाता है । अब हारे हुए तुम्हारे पांडव तुम्हारे पति नहीं है । इसलिए तुम किसी और को पति बना लो –

इसके बाद दुर्योधन द्रौपदी को अपनी जांघ पर बैठने का इशारा करता है । भीम क्रोध में उसकी जांघ तोड़ने की प्रतिज्ञा लेते हैं ।

अब धर्म और नीति के महान ज्ञाता विदुर खड़े होते हैं और कहते हैं कि अगर युधिष्ठिर ने खुद को दांव पर लगाने से पहले द्रौपदी को दांव पर लगाया होता तो वो सही हो सकता था । लेकिन युधिष्ठिर ने पहले खुद को दांव पर लगाया था इसलिए द्रौपदी वो वो दांव पर नहीं लगा सकते थे । अर्जुन विदुर जी की बात का समर्थन करते हैं ।

इसके बाद सभा में गीदड़ों की आवाजें आने लगती हैं ।इस अपशकुन से डर कर गांधारी और विदुर धृतराष्ट्र को हस्तक्षेप करने के लिए कहते हैं।

भयभीत धृतराष्ट्र द्रौपदी को संत्वना देते हुए वरदान मांगने के लिए कहते हैं । द्रौपदी सबसे पहले युधिष्ठिर को दास भाव से मुक्त करने का वरदान मांगती हैं । ताकि कोई युधिष्ठिर – द्रौपदी के पुत्र प्रतिविन्ध्य को दासपुत्र न कह सके ।

इसके बाद धृतराष्ट्र एक और वर मांगने के लिए द्रौपदी को कहते हैं। द्रौपदी भीम, अर्जुन, नकुल और सहदेव को उनके धन और अस्त्र- शस्त्रों सहित दास भाव से मुक्त करने का वरदान मांगती हैं ।

इसके बाद धृतराष्ट्र तीसरा वरदान भी मांगने के लिए द्रौपदी को कहते हैं । लेकिन द्रौपदी धर्मानुसार मना कर देती है क्योंकि क्षत्रिय को दो ही वर मांगने का अधिकार है ।

आश्चर्य है कि द्रौपदी खुद को मुक्त करने का वरदान नहीं मांगती है । उनके इस कार्य में ही इस प्रश्न का उत्तर निहित है । द्रौपदी युधिष्ठिर और चारो भाइयों को उनके धन और अस्त्र शस्त्रों के साथ मुक्ति मांगती है । चूंकि युधिष्ठिर के सर्वस्व में ही द्रौपदी और उनके चारो अन्य पति भी शामिल है । इस तरीके से धर्मानुसार द्रौपदी युधिष्ठिर और उनके सर्वस्व की मुक्ति के साथ अपने आप मुक्त हो जाती है ।

द्रौपदी के इस महान कृत्य से कर्ण भी अचंभित रह जाता है और कहता है कि मैंने मनुष्यों में जिन महान स्त्रियों के अद्भुत कार्य सुने हैं उनमें से कोई भी ऐसा अद्भुत कार्य नहीं है जो द्रौपदी के इस कृत्य की बराबरी कर सके ।

इसके बाद धृतराष्ट्र की आज्ञा से युधिष्ठिर वापस अपने भाइयों और पत्नी द्रौपदी के साथ इंद्रप्रस्थ लौट जाते हैं । इसके बाद फिर से दूसरी द्युतक्रीड़ा के लिए दुर्योधन बुलाता है जिसमें एक बार फिर युधिष्ठिर जुए में हार जाते हैं औऱ 13 वर्षों के अज्ञातवास पर पांडव चले जाते हैं।

लेकिन द्रौपदी का ये प्रश्न शुद्ध सनातन धर्म में आज भी अधूरा रह जाता है । द्रौपदी का चीर हरण, शकुंतला को भरी सभा में दुष्यंत द्वारा न अपनाया जाना और सीता की अग्नि परीक्षा ये तीनों नारी और शुद्ध सनातन धर्म को लेकर ऐसे धर्म संकट को उत्पन्न करते हैं जिनका आज भी कोई न्यायसंगत उत्तर नहीं मिल पाया है ।

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