शुद्ध सनातन धर्म में ईश्वरीय सत्ताएं और मानवीय सत्ताओं के लिए एक से ही नियम हैं। अगर ईश्वरीय सत्ताओं के साथ शुभता जुड़ी है तो उन्हें भी नियति के विधान और शापों का सामना करना पड़ता है । इस अर्थ में सबके लिए बराबर है शुद्ध सनातन धर्म । यहां ईश्वर को भी अपने कर्मों का फल भोगना पड़ता है । फिर चाहे वों साक्षात भगवान श्री हरि विष्णु और साक्षात जगदंबा माता लक्ष्मी ही क्यों न हों । भगवान ने श्री मद् भगवद्गीता से स्पष्ट रुप से कहा है कि –
न मे पार्थास्ति कर्तव्यं त्रिषु लोकेषु किंचन ।
नानवाप्तमवाप्तव्यं वर्त एव च कर्मणि ॥
श्री मद्भगवद्गीता, अध्याय 3, श्लोक 22
अर्थः- हे पृथापुत्र! तीनों लोकों में मेरे लिये कोई भी कर्तव्य शेष नही है न ही किसी वस्तु का अभाव है न ही किसी वस्तु को प्राप्त करने की इच्छा है, फ़िर भी मैं कर्तव्य समझ कर कर्म करने में लगा रहता हूँ।
भगवान के सारे कार्य हमारे लिए अनुरकरणीय हों इसीलिए भगवान भी स्वयं उन्ही सिद्धांतों से खुद को बांध कर रखते हैं जो हमारे लिए भी सत्य हों।
माता लक्ष्मी और विष्णु का वियोग :
दिवाली से जुड़ी एक पूर्व कथा यह कहती है कि एक बार ऋषि दुर्वासा वैकुंठ पधारें। वहां ऋषि दुर्वासा को माता लक्ष्मी ने एक पुष्पमाला दी। दुर्वासा उस पुष्पमाला को लेकर विचरण कर रहे थे तभी उन्हें रास्ते में इंद्र दिखाई दिये। ऋषि दुर्वासा ने वह पुष्पमाला इंद्र को दे दी , लेकिन इंद्र ने उस माला का महत्व न समझते हुए उसे अपने हाथी ऐरावत के सिर पर डाल दिया । एरावत को इस पुष्पमाला की तीव्र गंध बर्दाश्त नहीं हुई और उसके इस पुष्पमाला को पृथ्वी पर फेंक दिया और अपने पैरो से उसे कुचल दिया ।
ऋषि दुर्वासा माता लक्ष्मी के द्वारा दिए गए इस पुष्पमाला का अपमान बर्दाश्त न कर सकें और उन्होंने इंद्र को शाप दे दिया कि तीनों लोकों से लक्ष्मी समाप्त हो जाएगी ।
जब माता लक्ष्मी समुद्र के अंदर वास करने लगीं :
इस शाप के फलस्वरुप माता लक्ष्मी को समुद्र के अंदर चले जाना पड़ा और तीनों लोकों से लक्ष्मी गायब हो गईं और देवता और मानव सभी दरिद्र हो गए । माता लक्ष्मी पाताल में रहने वाले दैत्यराज बलि के राज्य में निवास कर उस राज्य को संपन्नता से भरने लगीं।
देवताओं की दरिद्रता को देखकर धर्म के अनुसार चलने वाले राजा बलि ने तीनों लोकों पर अधिकार कर लिया । इस पराजय से परेशान होकर इंद्र ने भगवान विष्णु की शरण ली । तब भगवान विष्णु ने इंद्र को अमृत की प्राप्ति और माता लक्ष्मी के फिर से अवतरण के लिए समुद्र मंथन की सलाह दी ।
समुद्र मंथन से जुड़ी है दिवाली की कथा :
इंद्र ने राजा बलि को अमृत प्राप्ति के बारे में बताकर उन्हें समुद्र मंथन के लिए तैयार कर लिया । भगवान विष्णु ने इस कार्य में स्वयं इन सबकी सहायता की । समुद्र मंथन से 14 रत्न निकले जिन्हें देवताओं और दैत्यों के बीच विभाजित कर दिया गया । इसी समुद्र मंथन से एक बार फिर से माता लक्ष्मी का अवतरण हुआ और उन्हें भगवान विष्णु ने एक बार फिर से वरण किया । दिवाली माता लक्ष्मी और भगवान विष्णु के इसी मिलन के उत्सव के रुप में मनाया जाता है ।
भगवान श्री राम और माता जानकी से जुड़ी है दिवाली की कथा
वाल्मीकि रचित रामायण और अन्य रामायणों की कथाओं के मुताबिक श्रीराम ने माता जानकी को रावण के कैद से छुड़ाया था और उसके बाद चौदह वर्षों के वनवास खत्म कर वो कार्तिक अमावस्या के दिन अयोध्या लौटे थे । सूर्य वंशी श्री राम के अयोध्या लौटने पर अयोध्यावासियों के जीवन का अंधकार दूर हो गया और इसी खुशी में पूरे अयोध्या में दीपों की उत्सव मनाया गया । कहा जाता है कि इसी दिन से कार्तिक अमावस्या के अंधकार को दूर करने के लिए और श्रीराम रुपी दिव्य ज्योति के आगमन पर दिवाली मनाने की प्रथा की शुरुआत हुई ।
श्रीकृष्ण के नारीमुक्ति आंदोलन से जुड़ी है दिवाली की कथा :
श्री मद्भागवत पुराण और कई अन्य पौराणिक ग्रंथों के मुताबिक नरक चतुर्दशी के दिन भगवान श्रीकृष्ण ने नरकासुर का वध किया था और उसके कैद से 16000 नारियों को मुक्त कराया था । इन अबला नारियों को समाज फिर से अपना पाता यह असंभव था । ऐसे में श्री कृष्ण ने कार्तिक अमावस्या के दिन इन 16000 नारियों को अपना कर उनसे विवाह किया और उन्हें समाज में फिर से उंचा स्थान दिलाया । नारियों की इस मुक्ति के पर्व के रुप में दिवाली मनाई गई ।
अन्य धर्मों में भी मनाई जाती है दिवाली :
जैन धर्म में भी दिवाली के पर्व को एक महान दिवस के रुप में मनाया जाता है । जैन परंपराओं के अनुसार कार्तिक अमावस्या के दिन भी जैनों के 24वें तीर्थंकर महावीर स्वामी ने अपने शरीर का त्याग कर परम निर्वाण की प्राप्ति की थी । जैनो के दिवाली मनाये जाने की एक दूसरी वजह भी है कि इसी दिन 18 राजाओं ने महावीर स्वामी से जैन धर्म की शिक्षा प्राप्त की थी और इसी याद में दीप प्रज्वलित किये गये थे ।
सिक्ख धर्म में भी है दिवाली का महत्व :
- सिक्ख संप्रदाय में भी दिवाली आम तौर पर वैसे ही मनाई जाती है जैसे अन्य सनातनी संप्रदायों में । लेकिन इस दिन का एक विशेष महत्व भी है । इसी दिन मुगल बादशाह जहांगीर की कैद से गुरु हरगोबिंद सिंह जी रिहा हुए थे। मुगल बादशाह जहांगीर ने गुरु हरगोबिंद सिंह जी को ग्वालियर के किले में कैद कर रखा था ।
- इसके अलावा तीसरे और पूज्य गुरु अमरदास जी ने गोविंदवाल में एक पवित्र कुएं का निर्माण कराया था जिसमें 84 सीढ़ियां थीं । गुरु जी ने अपने शिष्यों को दिवाली और वैशाखी के दिन इस कुएं के पवित्र जल में स्नान करने का आदेश दिया था ताकि सभी शिष्यों के बीच एकता स्थापित हो सके।
- सिक्ख धर्म के सबसे पवित्र शहर अमृतसर की नींव भी दिवाली के दिन ही 1577 ईं में डाली गई थी ।
- इसके अलावा दिवाली का पर्व सिख संप्रदाय में एक महान बलिदान की याद भी दिलाता है । इसी दिन 1738 ई में भाई मनी दास ने अपनी शहीदी दी थी । उन्होंने मुगल राज के दौरान बिना दंड दिये दिवाली मनाई थी और इस्लाम स्वीकार करने से इंकार कर दिया था ।
बौद्ध संप्रदाय में भी मनाई जाती है दिवाली :
सनातन धर्म के अवैदिक संप्रदाय बौद्ध धर्म में भी दिवाली मनाए जाने की प्रथा है । तंत्र से जुड़े वज्रयानी संप्रदाय के लोग धूमधाम से दिवाली मनाते है और माता लक्ष्मी की पूजा करते हैं।