श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की लाज बचाई थी ? Did Krishna Saved Draupadi?

श्रीकृष्ण को सनातन हिंदू धर्म में द्रौपदी की लाज बचाने वाला कहा जाता है । द्रौपदी का चीरहरण महाभारत का टर्निंग प्वाइंट भी माना जाता है । ऐसी मान्यता है कि इसके बाद ही ये तय हो गया था कि महाभारत का युद्ध अब बस वक्त की बात है। द्रौपदी के चीरहरण के वक्त एक चमत्कार भी होता है । महाभारत की कथा के अनुसार जब दुशासन द्रौपदी का चीर खींच रहा होता है, तो द्रौपदी के वस्त्र बढ़ते चले जाते हैं और कई वस्त्र निकलने लगते हैं। दुशासन खींचते -खींचते थक जाता है और अंत में हार जाता है ।

श्रीकृष्ण ने नहीं तो द्रौपदी की लाज किसने बचाई? :

कहा जाता है कि श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की लाज बचाई थी । लोकश्रुतियों में भी कृष्ण को द्रौपदी की लाज बचाने वाला कहा गया है । कई महान कवियों और संतो ने कृष्ण के द्वारा द्रौपदी की लाज बचाने को भगवान की करुणामय शक्ति का सबसे बड़ा चमत्कार माना है। लेकिन महाभारत को अगर ध्यान से पढ़ा जाए तो एक नई कहानी निकल कर सामने आती है जो संभवतः कुछ और ही कहती है ।

कृष्ण द्रौपदी के सबसे प्रिय सखा थे :

यह सत्य है कि भगवान श्रीकृष्ण और द्रौपदी एक दूसरे के सबसे करीब थे। कृष्ण उन्हें अपनी सबसे प्यारी सखी मानते थे। कृष्ण और द्रौपदी दोनों का रंग श्याम था, इसलिए द्रौपदी को कृष्णा भी कहा जाता था । कृष्ण ने द्रौपदी की हरेक संकटो से रक्षा की थी और द्रौपदी भी उन्हें ही अपने सारे राज़ बताती थी । कृष्ण और कृष्णा का ये साख्य प्रेम अद्भुत रहा है।

लेकिन अब हम महाभारत में सभा पर्व के अध्याय 68 पर नज़र डालते हैं। इस अध्याय में जब द्रौपदी का चीरहरण हो रहा है तो क्या  वो  अपनी लाज  बचाने के लिए अपने आराध्य और सखा कृष्ण को ही पुकार रही होती हैं ?-

वैशम्पायन उवाच :

आकृष्णमाने वसने द्रौपद्याश्चिंतितो हरि:।। 40

भावार्थ : वैशम्पायन जी कहते हैं कि – “जब द्रौपदी का वस्त्र खींचा जाने लगा तब द्रौपदी ने ‘हरि’ का स्मरण किया ।”

द्रौपद्युवाच :

 ज्ञातं मया वशिष्ठेन पुरा गीतं महात्मना । महत्यापदि सम्प्राप्ते स्मर्व्यो भगवान हरि :।।

भावार्थ : द्रौपदी कहती हैं कि” मैंने पूर्व काल में महात्मा वसिष्ठ जी की बताई गई इस बात को अच्छी तरह समझा है कि भारी विपत्ति पड़ने पर भगवान ‘हरि’ का स्मरण करना चाहिए ।”

क्या कृष्ण, नारायण और हरि एक ही हैं :

वैशम्पायन उवाच

गोविंदेति समाभाष्य कृष्णेति च पुन: पुन:।
मनसा चिन्तयामास देवं नारायणं प्रभु ।।
आपत्स्वभयदं कृष्णं लोकानां प्रपितामहम ।

भावार्थ : ऐसा विचार कर द्रौपदी ने बार बार गोविंद और कृष्ण के नामों को सभा में पुकारा । मन ही मन नारायण प्रभु का चिंतन किया और आपत्ति काल में भय से मुक्त कराने वाले लोक के ‘प्रपितामह’ कृष्ण का स्मरण किया ।

क्या महाभारत के श्लोकों में कुछ गड़बडी है ? :

गोविंद द्वारिकावासिन कृष्णगोपीजन् प्रिय ।। 41
कौरवे परिभूतां मां किं न जानासि केशव ।
हे नाथ हे रमानाथ वज्रनार्थार्तिनाशन ।
कौरवार्णवमग्नां मामुद्धरस्व जनार्दन ।। 42

भावार्थ : द्रौपदी कहती हैं “हे गोविंद ! हे द्वारिकावासी गोपियों के प्रिय कृष्ण ! कौरव मेरा अपमान कर रहे हैं, क्या ये आप नहीं जानते ? हे नाथ ! हे रमानाथ ! हे वज्र के नाथ ! हे जनार्दन ! मै कौरव रुपी समुद्र में डूबती जा रही हूं ,मेरा उद्धार कीजिए ।”

यहां गौर करने वाली बात ये है कि श्लोक नंबर 40 से लेकर 42 के बीच दो श्लोक और भी हैं जिन पर कोई भी अंक अंकित नहीं हैं। इसके पहले और बाद के सभी श्लोकों में श्लोक की संख्या अंकित है । क्या ये जानबूझ कर किया गया है ? क्या किसी ने बाद में आकर कुछ श्लोक बीच में क्षेपक के तौर पर जोड़ दिये हैं ? इसका विश्लेषण हम बाद में करेंगे

कृष्ण कृष्ण महायोगिन विश्वात्मन विश्वभावन ।
प्रपन्ना पाहि गोविंद कुरु मध्ये असीदतीम ।।43

भावार्थ : द्रौपदी कह रही हैं कि “विश्व की आत्मा और विश्वभावन महायोगी कृष्ण ! हे गोविंद ! कौरवों के बीच कष्ट पाती मुझे अबला की रक्षा कीजिए ।”

इत्यनुस्मृत्य कृष्णं सा हरिं त्रिभुवनेश्वरम ।
प्रारुरद् दुखिता राजन मुखमाच्छाद्य़ भामिनी ।। 44

भावार्थ : इस प्रकार तीनों लोकों के स्वामी श्री हरि कृष्ण का बार बार चिंतन कर द्रौपदी आंचल से मुंह ढंक कर रोने लगीं ।

याज्ञसेन्या वच श्रुत्वा कृष्णों गहरितो भव ।
त्यक्तवा शय्यासनं पद्मयां कृपालु कृपयाभ्यगात ।।

भावार्थ : याज्ञसेनी अर्थात द्रौपदी के इन वचनों को सुन कर कृष्ण गदगद हो गए और अपनी शय्या को छोड़कर पैदल ही चल पड़े ।

गौर करने वाली बात यहां भी है कि यहां भी श्लोक का नंबर गायब है, ठीक उसी तरह जैसे श्लोक नंबर 40 और 41 के बीच श्लोक तो है लेकिन नंबर गायब है

क्या धर्म ने बचाई द्रौपदी की लाज :

कृष्णं च विष्णुं च हरिं नरं च
त्राणाय वक्रोशति याज्ञसेनी ।
ततस्तु धर्मंतरितो महात्मा
समावृणोद वै विविधै सुवस्त्रै ।। 46

भावार्थ : अपनी रक्षा के लिए याज्ञसेनी अर्थात द्रौपदी कृष्ण, विष्णु, हरि और नर आदि भगवान के नामों को पुकार रही थी तभी ‘धर्म स्वरुप महात्मा’ ने अव्यक्त रुप से प्रवेश करके भांति भांति के सुंदर वस्त्रों के द्वारा द्रौपदी को आच्छादित कर दिया ।

आकृष्यमाने वसने द्रौपद्यास्तु विशाम्पते ।
तद्रुपमपरं वस्त्रं प्रदुरासीदनेकश ।। 47

भावार्थ : जनमेजय ! द्रौपदी के वस्त्र खींचे जाते समय उसी तरह के दूसरे -दूसरे वस्त्र प्रगट होने लगे ।

नानारागविरागाणि वसनान्यथ वै प्रभो ।
प्रादुर्भवंति शतशो धर्मस्य परिपालनत ।।

 इसके बाद की कथा ये है कि वहां सभा में कोलाहल मच जाता है और भीम क्रोध से भर कर दुशासन के वध की प्रतिज्ञा लेते हैं।

कृष्ण ने नहीं बचाई द्रौपदी की लाज :

अब हम फिर से उसी प्रश्न पर लौटते हैं कि अगर यदुवंशी कृष्ण ने द्रौपदी की लाज की रक्षा नहीं की तो फिर किसने की । तो इसका उत्तर इन श्लोकों में ही है। दरअसल द्रौपदी की रक्षा धर्म ने की थी । धर्म जो कि युधिष्ठिर के पिता हैं ।

कौन हैं धर्म :

अब ये धर्म कौन हैं ? द्रौपदी किन हरि, विष्णु, नर, नारायण और कृष्ण को पुकार रही थी । इस सवाल का उत्तर भी जरुरी है। इसका उत्तर भी महाभारत के ही ‘शांति पर्व’  में मिलता है ,जहां भीष्म पितामह युधिष्ठिर को युद्ध की पीड़ा से उत्पन्न दुख को खत्म करने के लिए ज्ञान देते हैं । इस ज्ञान को ‘नारायणी’ कहा जाता है इसमें भीष्म युधिष्ठिर को नारायण की भक्ति का उपदेश देते हैं और नारायण की कहानी बताते हैं, कथा के अनुसार ब्रह्मा के ह्दय से धर्म की उत्पत्ति होती है।

धर्म और उनकी पत्नी रुचि ने तपस्या कर भगवान विष्णु को प्रसन्न किया । प्रजापति दक्ष की पुत्री और धर्म की पत्नी रुचि ने भगवान विष्णु को पुत्र रुप में पाने का वरदान मांगा । जगत के प्रपितामह विष्णु ने रुचि के गर्भ से चार पुत्रों नर, नारायण, हरि और कृष्ण के रुप में जन्म लिया और संसार के परिपालन के लिए दो उद्देश्य तय किए। पहला उद्देश्य था तप के मार्ग के द्वारा संसार का कल्याण और दूसरे योग के मार्ग के द्वारा संसार का कल्याण। 

तप के मार्ग के द्वारा कल्याण के लिए विष्णु के दो स्वरुपों नर और नारायण ने बद्रिकाश्रम में तपस्या की और हरि और कृष्ण ने योग के द्वारा संसार के कल्याण का कार्य किया । नारायण सभी जीवों को मोक्ष देते हैं और क्षीर सागर में वास करते हैं।  विष्णु का नर स्वरुप सभी प्रकार के स्त्री गुणों से रहित हैं और ये परम पुरुष हैं। इनका कोई लोक स्पष्ट नहीं हैं, महाभारत में एक स्थान पर इन्हें पाताललोक में अमृत की रक्षा करने वाला कहा गया है। हरि भगवान विष्णु के वो स्वरुप हैं, जिनके शरण में जाकर कोई भी अपने संकटों से मुक्त हो सकता है । गज और ग्राह की कहानी में गज की रक्षा श्री हरि ने ही की थी ।

ये कृष्ण विष्णु के आदि अवतार हैं। ये गोलोक में रहते हैं और इन्हीं के अवतार द्वापर के मथुराधीश कृष्ण हैं।  इन कृष्ण को ही ब्रह्मवैवर्त पुराण में आदि पुरुष कहा गया है जो राधा जी के साथ गोलोक में आनंद करते हैं । यही द्वापर युग में पृथ्वी पर मथुरा के कृष्ण के रुप में जन्म लेते हैं और अपनी लीलाओं से मुग्ध कर देते हैं ।

महाभारत के भीष्म पर्व के अध्याय 11 में संजय धृतराष्ट्र से शाकद्वीप का वर्णन करते हैं। संजय बताते हैं कि शाकद्वीप में श्याम नामक पर्वत है और वहां उस पर्वत के आसपास रहने वाले लोग श्याम वर्ण के हैं। धृतराष्ट्र उनसे सवाल करते हैं कि आखिर उस पर्वत के पास रहने मात्र से कोई कैसे श्याम वर्ण का हो सकता है? संजय बताते हैं कि –

आस्तेSत्र भगवान कृष्णस्तत्कान्तया श्यामतां गतः।

अर्थात् यहां भगवान श्रीकृष्ण निवास करते हैं अतः उन्हीं की कांति से यह पर्वत स्वयं भी श्यामता को प्राप्त हुआ है और यहां रहने वालों को भी श्याम वर्ण का बना देता है। अब प्रश्न उठता है कि शाकद्वीप पर निवास करने वाले श्रीकृष्ण कौन हैं? क्या ये द्वारिकाधीश कृष्ण हैं या ये कोई पूर्वपुरुष हैं ? क्या द्रौपदी इन्हीं श्रीकृष्ण को पुकार रही थीं ?

अब द्रौपदी जिन कृष्ण , हरि, नारायण और नर को पुकार रही थी वो संभवतः धर्म से उत्पन्न विष्णु के चार स्वरुप थे । इसीलिए धर्म ने स्वयं आकर द्रौपदी की रक्षा की, क्योंकि वो इस युग में युधिष्ठिर के पिता भी थे और द्रौपदी उनकी बहू भी थी । यमराज को ही धर्मराज कहा गया है, क्योंकि वो किसी के साथ भी अन्याय नहीं करते । यही वजह थी कि जब द्रौपदी ने धर्म की रक्षा के लिए नारायण, हरि, कृष्ण को पुकारा तो उनके पिता धर्म ने स्वयं अदृश्य होकर द्रौपदी की रक्षा की ।

अब वापस उस स्थान पर आते हैं जहां श्लोकों के नंबर नहीं दिये गए हैं । उन्हें पढ़ने से ऐसा लगता है कि द्वारिकाधीश कृष्ण द्रौपदी की पुकार को सुन कर पैदल ही चल पड़े थे।  यानि वो प्रगट नहीं हुए थे। जिस श्लोक में कृष्ण को गोपियों के वल्लभ और वज्र के नाथ कह कर पुकारा गया है, वही सबसे बड़ा संदेह उत्पन्न करता है क्योंकि महाभारत में कृष्ण को कहीं भी गोपियों के साथ लीला करते और व्रज में उनके कार्यों का वर्णन करते नहीं दिखाया गया है । लेकिन इस श्लोक और लोक श्रुतियों के अनुसार ऐसा लगता है कि मथुराधीश कृष्ण ने ही प्रगट होकर या अदृश्य होकर द्रौपदी की रक्षा की थी।

श्रीकृष्ण का द्रौपदी चीरहरण पर स्पष्टीकरण

श्रीकृष्ण ने द्रौपदी की लाज बचाई थी या नहीं ये हम स्वयं श्रीकृष्ण और द्रौपदी से जानने का प्रयास करते हैं। महाभारत के ही वन पर्व के अध्याय 12 में श्रीकृष्ण वनवास भोग रहे पांडवों और द्रौपदी से मिलने के लिए आते हैं। द्रौपदी अपने चीरहरण की कथा बताती है । इस कथा में वो कहीं भी ये नहीं बताती कि श्रीकृष्ण ने वस्त्र प्रगट कर उसकी लाज बचाई। उल्टे वो श्रीकृष्ण पर उपेक्षा का आरोप लगाती है –

नैव में पतय: सन्ति न पुत्रा न च बान्धवाः ।

न भ्रातरो न च पिता नैव त्वं मधुसूदनः ।।

ये मां विप्रकृतां क्षुद्रैरुपेक्षघ्वं विशोकवत् ।

न च मे शाम्यते दुःखं कर्णो यत् प्राहसत् तदा ।।

अर्थः- “मधुसूदन ! मेरे लिए न तो पति है न पुत्र है और न बान्धव हैं और न ही भाई हैं और न ही आप ही हैं। क्योंकि, आप सब लोग, नीच मनुष्यों के द्वारा जो मेरा अपमान हुआ था उसकी उपेक्षा कर रहे हैं। मानों इसके लिए आपको ह्रदय में तनिक भी दुःख नहीं है। उस समय कर्ण ने जो मेरी हँसी उड़ाई थी, उससे उत्पन्न हुआ दुःख मेरे ह्रदय से दूर नहीं होता है। “

द्रौपदी श्रीकृष्ण ने अगले श्लोक में कहती है कि “आपको चार कराणों से मेरी रक्षा करनी चाहिए। एक तो आप मेरे संबंधी हैं। दूसरे अग्निकुंड से ुत्पन्न होने की वजह से मैं गौरवशालीनी हूँ। तीसरे, आपकी सच्ची सखी हूँ और चौथे आप मेरी रक्षा करने में समर्थ हैं।” इससे भी ये शंका होती है है कि द्रौपदी की रक्षा करने के लिए श्रीकृष्ण आए थे या नहीं।

श्रीकृष्ण अगले श्लोकों में द्रौपदी को आश्ववासन देते हैं कि कौरवों का विनाश होगा और उनकी औरतें इससे भी ज्यादा दुःख देखेंगी। लेकिन महाभारत के अध्याय 13 में श्रीकृष्ण स्पष्ट कर देते हैं कि जिस वक्त द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था उस वक्त वो कहाँ व्यस्त थे और उन्हें द्रौपदी के चीरहरण की खबर कब और कैसे मिली ? अध्याय 13 के पहले श्लोक में ही श्रीकृष्ण कहते है कि –

नैतत् कृच्छ्रमनुप्राप्तो भवान् स्याद् वसुधाधिप ।

यद्यहं द्वारकायां स्यं राजन् सन्निहितः पुरा ।।

अर्थः श्रीकृष्ण बोले की “राजन् यदि मैं द्वारका या उसके निकट होता तो आपलोग इस जुए के संकट में नहीं पड़ते । “

इसके बाद के श्लोकों में श्रीकृष्ण बताते हैं कि वो उस वक्त कहाँ फँसे हुए थे जिस वक्त पांडव जुए के खेल में पराजित हो गए थे-

आसांनिध्यं तु कौरव्य ममानर्तेष्वभूत तदा ।

येनेदं व्यसनं प्राप्तां भवन्तो द्यूतकारितम् ।।

सोहSमेत्य कुरुश्रेष्ठ द्वारकां पांडुनंदन

अश्रौषंत्वां व्यसनिनं युयुधानाद् यथातथम ।।

अर्थः- श्रीकृष्ण कहते हैं कि “कुरुश्रेष्ठ मैं उस वक्त आनर्तदेश (गुजरात) में नहीं था, इसलिए आपलोगों पर द्युतजनित यह संकट आ गया। कुरुप्रवर पाडुनंदन ! जब मैं द्वारका में आया तो आपके संकट में पड़ने का समाचार सात्यिति से मुझे ज्ञात हुआ।”

इसके बाद श्रीकृष्ण युधिष्ठिर से कहते हैं कि” यह समाचार जैसे ही मुझे पता चला मैं आज आपके पास आया हूँ।” इसके बाद वन पर्व के अध्याय 14 में युधिष्ठिर श्रीकृष्ण से यह प्रश्न करते हैं कि “जब हम सभी जुए के खेल में फंसे हुए ते तो उस वक्त आप द्वारका में अनुपस्थित क्यों थे और क्या कर रहे थे।” वन पर्व के अध्याय 14 में श्रीकृष्ण विस्तार से बताते हैं कि वो कहाँ थे?

श्रीकृष्ण कहते हैं कि जब युधिष्ठिर के राजसूय यज्ञ में उन्होंने शिशुपाल का वध कर दिया था तो इस समाचार को सुन कर शिशुपाल के भाई शाल्व ने सूनी द्वारका पर हमला कर दिया था। मार्तिकावतक देश के निवासी शाल्व के पास हवा में उड़ने वाला सौभ नामक एक विमान के आकार का नगर था। इसी पर बैठ कर शाल्व ने द्वारका में यादवों की हत्या शुरु कर दी । जब श्रीकृष्ण द्वारका लौटे तो उन्होंने इस नरसंहार को देख कर शाल्व का वध करने का निश्चय किया। शाल्व अपने विमान के साथ समुद्र के किनारे एक द्वीप के पास मौजूद था। श्रीकृष्ण ने शाल्व को युद्ध में मार डाला।

श्रीकृष्ण कहते हैं कि इसी कार्य की वजह से वो हस्तिनापुर में हो रहे जुए के खेल और पांडवो के साथ हुई इन घटनाओं के बारे में जान नहीं सके। जैसे ही उन्हें ये पता चला वो वन में युधिष्ठिर से मिलने चले आए। वन पर्व , अध्याय 14 से यह स्पष्ट हो जाता है कि जिस वक्त द्रौपदी का चीरहरण हो रहा था उस वक्त श्रीकृष्ण शाल्व के साथ युद्ध में रत थे। श्रीकृष्ण वन पर्व के अध्याय 12, 13 और 14 में बार बार अपनी अनुपस्थिति को लेकर और पांडवों की ऐसे संकट के वक्त सहायता न कर पाने को स्पष्टीकरण दे रहे हैं। अब ऐसे में श्रीकृष्ण नेअदृश्य रुप में उपस्थित होकर दिव्य रुप से ही द्रौपदी की लाज बचाई होती तो श्रीकृष्ण जरुर ये बताते और द्रौपदी भी उन्हें ताना नहीं मारती और उनका धन्यवाद जरुर करती ।

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