श्रीमद्भगवद्गीता के द्वितीय अध्याय का प्रारंभ अर्जुन का युद्ध से पलायन से होता है। इसी अध्याय से वास्तविक रुप से श्रीमद्भगवद्गीता के दर्शन का प्रारंभ भी होता है। पहली बार श्रीकृष्ण भी यहीं से गीता का ज्ञान देना प्रारंभ करते हैं। इसके पहले के अध्याय 1 में श्रीकृष्ण कहीं भी संवाद करते नहीं दिखते हैं। अध्याय 1 में सिर्फ धृतराष्ट्र, संजय और दुर्योधन के ही संवाद हैं। अध्याय 1 में श्रीकृष्ण का सिर्फ जिक्र भर आता है। अध्याय 1 में अर्जुन श्रीकृष्ण को संबोधित करते हैं और अपना विषाद प्रगट करते हैं । अध्याय 1 के अंतिम श्लोकों में अर्जुन विषाद और मोह से ग्रस्त होकर अपना गांडीव रख देता है और युद्ध न करने की घोषणा करते हुए अपने रथ पर बैठ जाता है।
शुद्ध श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन का युद्ध से पलायन और सांख्य योग की अवधारणा
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 2 में सर्वप्रथम संजय अर्जुन की स्थिति के बारे में धृतराष्ट्र को बताते हैं। इसके बाद संजय धृतराष्ट्र को श्रीकृष्ण के संवाद के शुरु होने की सूचना देते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 2 में श्रीकृष्ण अर्जुन को सांख्य योग (ज्ञान योग) से परिचित कराते हैं।
संजय उवाच
तं तथा कृपयाविष्टमश्रुपूर्णाकुलेक्षणम् ।
विषीदन्तमिदं वाक्यमुवाच मधुसूदनः॥2.1॥
अर्थ: संजय ने कहा – “उस प्रकार करुणा से ओत प्रोत, आंसू भरे व्याकुल नेत्रों वाले विषाद करते हुए अर्जुन से मधूसूदन (श्रीकृष्ण) ने यह बात कही।”
व्याख्याः अर्जुन एक महान योद्धा था। अर्जुन के अंदर से कभी भी उसका क्षत्रियत्व (युद्ध करने का धर्म) खत्म नहीं हो सकता था। वो कायरता की वजह से युद्ध से पलायन नहीं कर रहा था, बल्कि करुणा की वजह से युद्ध को छोड़ रहा था।इसी लिए इस श्लोक में करुणा के लिए ‘कृपा’ शब्द का प्रयोग किया गया है।
इसी प्रकार सारा संसार दिन- रात, सुख – दुख, प्रिय – अप्रिय, सत्य और असत्य रुपी मधु और कैटभ यानी मधुर और कड़वे भावों के द्वंद्वात्मक भावों में विभक्त है।
अर्जुन जानता है कि अगर वो ठान ले तो युद्ध में कभी भी अपने स्वजनों को मार सकता है,लेकिन वो उन सभी पर अपनी करुणा की कृपा कर रहा है। वह अपने स्वजनों के प्रति इतना करुणाशील हो गया है कि उसकी आंखो से आंसू निकल रहे हैं।अर्जुन व्याकुल है कि आखिर उसके स्वजनों को ये क्या हो गया है कि वो युदध् में अपने प्राण देने के लिए व्याकुल हैं?
इन परिस्थितियों में ही विषाद से ग्रस्त अर्जुन के जीवन में ‘मधूसूदन’ (श्रीकृष्ण) आते हैं। यहां श्रीकृष्ण के लिए ‘मधूसूदन’ उपाधि का इस्तेमाल किया गया है। मधूसूदन मूल रुप से भगवान विष्णु की उपाधि है। विष्णु ने ‘मधु’ नामक दैत्य का वध किया था, इसलिए उनका एक नाम ‘मधुसूदन’ भी है। यहाँ अर्जुन श्रीकृष्ण को मधूसूदन कह कर उन्हें भगवान विष्णु का अवतार भी बता रहा है। महाभारत में कई स्थानों पर श्रीकृष्ण को विष्णु अवतार के रुप में दिखाया गया है और उन्हें भगवान का दर्जा दिया गया है।
विष्णु को मधुसूदन क्यों कहते हैं? मधु कैटभ की कथा का अर्थ क्या है ?
श्रीमद्बगवद्गीता में श्रीकृष्ण के लिए ‘मधुसूदन’ नाम का प्रयोग एक विशेष अर्थ में भी किया गया है। ऐसी पौराणिक कथा है कि जब भगवान श्री हरि विष्णु सृष्टि को एक विशेष लय (Rhythm) में चलते देख रहे थे तो उसी वक्त देवी योगमाया ने उन्हें योगनिद्रा में डाल दिया और संसार के पालन का कार्य स्वयं ‘योगमाया’ ने अपने हाथों में ले लिया। जब संसार का संचालन विष्णु के स्थान पर योगमाया देवी करती हैं तो वो एक प्रकार की माया की सृष्टि करती हैं। माया से ही द्वंद्व का जन्म होता है। ये द्वंद्व या तो ‘मधु’ यानी मधुर होते हैं या ये कड़वे अर्थात ‘कैटभ’ होते हैं। संसार में ‘सुख’ मधुर है और ‘दुख’ कैटभ (कड़वा) है, ‘प्रेम’ मधुर है तो ‘घृणा’ कड़वा ( कैटभ) है।
हमारी इंद्रियां या तो ‘मधु’ या ‘मधुर’ भावों को पसंद करती हैं या फिर ‘कैटभ’ या ‘कड़वे’ भावों को नापसंद करती हैं। विष्णु के कानों के मैल से मधु और कैटभ दैत्यों की उत्पत्ति बताई जाती है। कान श्रवणेन्द्रिय हैं। यहां श्रवणेन्द्रिय हमारी शेष सारी इंद्रियों का प्रतिनिधित्व कर रही हैं। ‘मैल’ माया से उपजी वो विकृतियां हैं, जिनसे मधुर और कड़वे भावों की उत्पत्ति होती हैं।
पौराणिक मान्यताओं के अनुसार मधु और कैटभ अर्थात मधुर और कड़वे भाव (इच्छाएं, वासनाएं) हमारी ब्रह्म चेतना को खत्म करना चाहती हैं। ठीक वैसे ही जैसे मधु और कैटभ नामक दैत्य सबसे पहले ब्रह्माजी को मारने के लिए दौड़ पड़े थे। ऐसे में हमारी ब्रह्म चेतना ( कथा के अनुसार ब्रह्मा ) माया का आवरण हटाने के लिए देवी ‘योगमाया’ का आश्रय लेती है।
योगमाया हमारी आत्मा में स्थित परमात्मा स्वरुप विष्णु को जगाती हैं और फिर विष्णु मधु और कैटभ रुपी हमारे द्वंद्वों का वध करते हैं। यहां भगवान ‘मधुसूदन’ के रुप में मोह रुपी मधु ( प्रेम और करुणा के भावों ) के रुप में अर्जुन के अंदर उठे उसी द्वंद्व को समाप्त करने के लिए बोलना शुरु करते हैं। इसीलिए यहां श्रीकृष्ण को ‘मधूसूदन’ की उपमा दी गई है।
इसके अलावा संजय धृतराष्ट्र को यह भी बता रहा है कि श्रीकृष्ण साक्षात ‘मधुसूदन’ विष्णु हैं ।अगर अर्जुन युद्ध से पलायन भी कर जाता है तो भी मधु-कैटभ जैसे दैत्यों को मारने वाले विष्णु अवतार श्रीकृष्ण धृतराष्ट्र के पुत्रों का वध करने के लिए पर्याप्त हैं। महाभारत के युद्ध के पश्चात श्रीकृष्ण अर्जुन को यह बताते हैं कि कौरवों का वध उन्होंने ही किया था , अर्जुन, युधिष्ठिर और भीम तो निमित्तमात्र थे।
श्रीमद्भगद्गीता में श्रीकृष्ण का पहला संवाद
श्रीभगवानुवाच :
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ॥
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन॥2.2॥
अर्थः भगवान ने कहा –” हे अर्जुन! अनार्य जिसका आचरण करते हों, (अथवा- जो आर्यजनों के आचरण के योग्य नहीं है) परलोक विरोधी (अर्थात जो स्वर्ग देने वाला नहीं है) और कीर्तिकारक (यश और सम्मान देने वाला) नहीं है, ऐसी यह कायरता इस विषम वेला में तुझमें कहां से आ गई?”
व्याख्याः- श्रीमद्भगवद्गीता में चार वेदों (ऋग्वेद,सामवेद,यजुर्वेद और अर्थववेद), चार आश्रमों ( ब्रम्हचर्य, गृहस्थ, वानप्रस्थ और संन्यास), चार वर्णों (ब्राह्मण,क्षत्रिय, वैश्य और शूद्र) की चर्चा के साथ सिर्फ चार लोगों ( अपवाद स्वरूप दुर्योधन का एकालाप है, वो किसी से संवाद नहीं कर रहा है) का ही आपस में संवाद है- धृतराष्ट्र- संजय संवाद, अर्जुन-भगवान संवाद।
पहले अध्याय में सिर्फ श्रीमद्भगवद्गीता की भूमिका है, क्योंकि इसमें भगवान का एक भी संवाद नहीं है। पूरी ‘गीता’ में संजय, धृतराष्ट्र और अर्जुन के संवादों को उनके नामों से बताया गया है, लेकिन श्रीकृष्ण के वचनों को ‘भगवान उवाच’ कह कर संबोधित किया गया है। पहले अध्याय में कहीं भी श्रीकृष्ण के लिए भगवान संबोधन नहीं दिया गया है, क्योंकि इस अध्याय में श्रीकृष्ण का कोई भी संवाद नहीं है।
यहां तक कि पूरी श्रीमद्भगवदगीता में संजय और अर्जुन भी श्रीकृष्ण के लिए ‘भगवान’ संबोधन नहीं देते हैं। यह अवश्य है कि प्रथम अध्याय में संजय और अर्जुन श्रीकृष्ण के लिए भगवान श्री हरि विष्णु की उपाधियों जैसे जनार्दन, माधव, केशव, ह्षीकेश, मधुसूदन आदि का प्रयोग करते जरुर हैं, लेकिन अभी तक इन दोनों ने श्रीकृष्ण के सीधे भगवान कह कर संबोधित नहीं किया है।
तो श्रीकृष्ण के लिए सबसे पहले ‘भगवान उवाच’ संबोधन किसने दिया है? अभी यहां तक हम मान सकते हैं कि महाभारत के लेखक श्रीकृष्ण द्वैपायन व्यास ( वेद व्यास ) ही श्रीकृष्ण के लिए भगवान संबोधन का प्रयोग कर रहे हैं, क्योंकि वही हैं जो श्रीकृष्ण के ईश्वरीय सत्ता को पहले से जानते हैं।
महाभारत के ‘अनुशासन पर्व’ में ‘विष्णु सहस्त्रनाम’ में व्यास ने ही भगवान, भगहा, नंदी कह कह श्रीकृष्ण की स्तुति की है। वेद व्यास जी ने श्रीमद् भागवत में भी श्रीकृष्ण को साक्षात भगवान कहा है –
‘कृष्णस्तु भगवान् स्वयम् ’(श्रीमद् भागवत 1-3-28)
इस श्लोक में भगवान ने अर्जुन को उसके सीधे नाम से ही संबोधित किया है। अर्जुन अर्थात अ- ऋजु। ‘ऋजु’ का अर्थ सीधा और सपाट होता है। ऋजु का अर्थ है जो सरल और संशयहीन हो। लेकिन ‘अर्जुन ‘का अर्थ है– जो सरल नहीं हो, संशययुक्त हो। ‘अर्जुन’ के नाम का एक अर्थ सफेद भी होता है। सफेद रंग सात्विक होता है। अर्जुन भले ही क्षत्रिय गुणों की वजह से राजसी गुण से युक्त हो, लेकिन उसकी आत्मा निर्मल और सात्विक है।
श्रीकृष्ण अर्जुन को यहां उसके इसी नाम से इसलिए पुकारते हैं कि अपने सात्विक गुण की वजह से ही वोअपने स्वजनों के प्रति करुणाशील और दयालु है ।लेकिन अर्जुन के अंदर की यह दयालुता एक संशय भी उत्पन्न कर रही है। अर्जुन इसी सात्विक संशय का प्रतीक है। अर्जुन आगे चलकर अपने इन गुणों को तब सिद्ध भी कर देता है, जब वो श्रीकृष्ण की शरण में जाकर सांसारिक और मायावी वस्तुओं की इच्छा नहीं करता और श्रीकृष्ण से वह मार्ग पूछता है जो कल्याणकारक हो।
श्रीकृष्ण अर्जुन के इस विषाद और पलायन को ‘अनार्यों’ के जैसा आचरण करने वाला कहते हैं (अनार्यजुष्टम)। ‘आर्य’ का अर्थ ‘श्रेष्ठ’ होता है। लेकिन श्रीकृष्ण को अर्जुन का यह व्यवहार श्रेष्ठ या आर्यो के जैसा आचरण नहीं नज़र आता बल्कि अनार्यों (निम्न श्रेणी) के व्यवहार जैसा लगता है।श्रीकृष्ण अर्जुन के इस व्यवहार को देख कर आश्चर्यचकित हो जाते हैं। उन्हें लगता है कि वह अर्जुन जो थोड़ी देर पहले युद्ध घोष के लिए अपने देवदत्त शंख को बजा चुका था, जिसने प्रहार करने के लिए अपना प्रसिद्ध धनुष गांडीव को उठा लिया था, उसे अचानक और असमय यह शोक कैसे उत्पन्न हो गया?
इस श्लोक में ‘कश्मल’ शब्द शोकवाचक है,क्योंकि शुद्ध श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 1 के अंतिम श्लोक में अर्जुन के लिए ‘शोक – संविग्नमानसः’ अर्थात ‘शोक में निमग्न हो जाने वाला’ कहा गया है। इसके आगे अध्याय 2 के ही श्लोक 8 में ‘यच्छोकमुच्छोषणम्'( सुखाने वाला शोक) में भी शोक शब्द आया है।
इसलिए श्रीकृष्ण अर्जुन के इस असमय आए शोक पर आश्चर्य करते हैं। श्रीकृष्ण जानते हैं कि युद्ध एक क्षत्रिय के लिए उल्लास का समय होता है। क्षत्रिय के लिए पराक्रम और वीरता दिखाने का समय होता है। एक क्षत्रिय योद्धा पूरे जीवन ऐसे युद्ध में अपना पराक्रम दिखाने के लिए इंतज़ार करता है। श्रीकृष्ण यह भी जानते हैं कि अर्जुन कायर नहीं है, बल्कि वो संसार का सबसे बड़ा योद्धा है। इसलिए श्रीकृष्ण अर्जुन के इस असमय शोक को दूर करने के लिए उसके अंदर फिर से उल्लास जाग्रत करना चाहते हैं।
श्रीमद्भगवगद्गीता में युद्ध का दर्शन
अक्सर ये आरोप लगाया जाता रहा है कि श्रीमद्भगवद्गीता युद्ध के लिए प्रेरित करती है। ये शांति का ग्रंथ न होकर हिंसा और युद्ध के लिए प्रेरित करने वाला ग्रंथ है। लेकिन ये आरोप बिल्कुल गलत हैं। श्रीमद्भगवद्गीता युद्ध के लिए प्रेरित नहीं करती बल्कि समाज के प्रति कर्तव्यों को पूरा करने के लिए प्रेरित करती है। जब समाज दूषित हो और अत्याचारियों का राज हो जाए तो समाज में आई कुरीतियों को दूर करने के लिए शस्त्र भी उठाना पड़ता है।
श्रीकृष्ण अर्जुन को सिर्फ युद्ध करने के लिए उकसा नहीं रहे, बल्कि अत्याचारियों का वध करने के लिए प्रेरित कर रहे हैं। अर्जुन के पलायन से समाज और राष्ट्र में फैले अधर्म का खात्मा नही होगा, बल्कि इस पलायन से राष्ट्र और धर्म को खतरा पैदा हो सकता है।श्रीकृष्ण अर्जुन के इसी असमय पलायन से चिंतित हैं क्योंकि श्रीकृष्ण अर्जुन के इस असमय पलायन के दुष्परिणामों से अवगत हैं।
श्रीकृष्ण अर्जुन को कहते हैं कि ” तुम्हारा अनार्यो जैसा आचरण ‘स्वर्ग देने वाला’ नहीं है और न ही कीर्ति को देने वाला है।”
युद्ध एक प्रकार का व्यवसाय है। इस व्यवसाय में सिर्फ लाभ ही लाभ है। या तो युद्ध के दौरान वीरोचित मृत्यु के बाद स्वर्ग की प्राप्ति होती है या फिर विजय के बाद संसार का सुख मिलता है। अगर पराजय के बाद मृत्यु भी मिलती है तो भी परलोक में स्वर्ग और इस संसार में भी कीर्ति की प्राप्ति तय है।
स्वर्ग की परिकल्पना वैदिक युग से मानी जा सकती है। वैदिक ऋचाएं एक प्रकार से ईश्वर के साथ सीधे सरल व्यवासायिक लेन- देन पर आधारित हैं। वैदिक आर्य यज्ञ करते हैं और बदले में इंद्र आदि देवता उन्हें इस जीवन में अश्व, अन्न और युद्ध में विजय देते हैं। वैदिक युग में आर्य एक स्थान पर स्थिर नहीं रहते थे। वो लगातार युद्ध करते थे और अपने युद्ध के देवता इंद्र की सहायता से विजय प्राप्त करते थे। वैदिक आर्यों के जीवन में कुछ भी स्थिर नही था। वे न तो किसी स्थान पर वो स्थिर रहते थे और न ही उनके पास जीवन जीने का कोई संसाधन ही स्थिर रहता था।
इसलिए अस्थिर आर्यों के देवता इंद्र भी स्वयं स्थिर नहीं रहते थे। उनका अपना सिंहासन भी डोलता रहता था। इंद्र के पास अपने आर्यों को देने के लिए भी एक अस्थिर संसार ही था। इंद्र लौकिक जगत में आर्यों को शीघ्र समाप्त होने वाले अन्न, अश्व और गाय दे सकते थे । अलौकिक जगत में इंद्र आर्यों को मृत्यु के बाद एक अस्थिर लोक यानी स्वर्ग दे सकता था। स्वर्ग वह अस्थिर लोक था, जहां आर्य अपनी मृत्यु के बाद तभी तक रह सकते हैं ,जब तक उनके पास उनके पुण्य का भंडार शेष रहता था। पुण्य के क्षीण होने के साथ ही जीवात्मा को फिर से पृथ्वी पर जन्म लेना पड़ता था।
अर्जुन भी जिन पाप और पुण्य के सिद्धांतों के आधार पर युद्ध से पलायन की बात कर रहा है उन सिद्धांतों का आधार भी वैदिक नैतिकताएं ही हैं। इसलिए श्रीकृष्ण पहले अर्जुन से उन वैदिक सिद्धांतों के आधार पर ही पूछ रहे हैं कि वो शोक क्यों कर रहा है? क्योंकि यह शोक न तो उस लोक में स्वर्ग प्रदान करेगा और न ही इस लोक में कीर्ति प्रदान करेगा। इसीलिए श्रीकृष्ण अर्जुन के आचरण की तुलना अनार्यों के आचरण से करते हैं, क्योंकि ये आर्यों के वैदिक सिद्धांतों के विपरीत भी है।
क्लैब्यं मा स्म गमः पार्थ नैतत्त्वय्युपपद्यते।
क्षुद्रं हृदयदौर्बल्यं त्यक्त्वोत्तिष्ठ परन्तप॥2.3॥
अर्थः “हे पार्थ, तू नपुंसकता न ग्रहण कर,यह तुझे शोभा नहीं देती। हे परन्तप ! ह्रदय की तुच्छ दुर्बलता का त्याग करके खड़ा हो जा।”
व्याख्याः इस श्लोक में श्रीकृष्ण अर्जुन को ‘पार्थ’ कह कर संबोधित करते हैं। युधिष्ठिर, भीम और अर्जुन तीनों के लिए ‘पार्थ’ संबोधन इसलिए दिया जाता था क्योंकि ये तीनों पृथा के पुत्र थे। ‘पृथा’ महारानी कुंती का मूल नाम है। राजा कुंतीभोज की पुत्री होने के कारण ही पृथा कुंती के नाम से प्रसिद्ध हुई।
श्रीकृष्ण अर्जुन को ‘पार्थ’ कह कर उसे उसकी वीर और वंदनीय माता की याद दिलाते हैं। महाभारत के ‘उद्योग पर्व’ में श्रीकृष्ण शांतिदूत बन कर कौरवों की सभा में जाते हैं और अपना विश्वरुप दिखाते हैं। श्रीकृष्ण जब पांडवों के पास लौटने लगते हैं तो वो पहले विदुर जी के यहां जाते हैं जहां उनकी भेंट अर्जुन की माता महारानी कुंती से होती है।
श्रीकृष्ण कुंती से पांडवों के लिए कोई संदेश मांगते हैं। कुंती अपने वीर पुत्रों को युद्ध के लिए तैयार होने का संदेश देती हैं। कुंती विदुला नामक एक वीर क्षत्रिय माता और उसके कायर पुत्र की कथा कहती हैं। विदुला का पुत्र संजय युद्ध में सिंधुराज से पराजित होकर कायरों की तरह बैठ जाता हैतब विदुला अपने कायर पुत्र के अंदर वीरता का संचार करती हैं और वापस उस पुत्र के अंदर शौर्य भर कर उसे युद्ध के लिए तैयार करती है। इस कथा के द्वारा कुंती अपने पुत्रों के अंदर ओज भरती हैं और उन्हें कौरवों से युद्ध के लिए ललकारती हैं।
कुंती उद्योग पर्व (अध्याय 137) में अर्जुन के लिए श्रीकृष्ण के द्वारा विशेष संदेश पहुंचाती हैं। कुंती कहती हैं –
अर्जुनं केशव ब्रूयास्त्वयि जाते स्म सूतके।
उपोपविष्टा नारीभिराश्रमे परिवारिता।।
अथांतरिक्षे वागासिद् दिव्यरुपा मनोरमा।
सहस्त्राक्षसमः कुंति भविष्यतेष ते सुतः।।
महाभारत, उद्योगपर्व, अध्याय 137, श्लोक 1
अर्थः कुंती श्रीकृष्ण से कहती हैं – “हे केशव! तुम अर्जुन से जाकर कहना, तुम्हारे जन्म के समय जब मैं नारियों से घिरी हुई आश्रम के सूतिकागार गृह में बैठी हुई थी,उसी समय आकाश में यह दिव्यरुपा मनोरम वाणी सुनाई दी- ‘ कुंती!- तेरा यह पुत्र इंद्र के समान पराक्रमी होगा’।”
पुत्रस्ते पृथिवीं जेता यशश्चास्य दिवं स्पृशेत्।
हत्वा कुरुंश्च संग्रामे वासुदेवसहायवान्।।
महाभारत, उद्योगपर्व, अध्याय 137, श्लोक 4
अर्थः “तेरा यह पुत्र श्रीकृष्ण के साथ रह कर इस भूमंडल को जीत लेगा,इसका यश स्वर्गलोक तक फैल जाएगा और संग्राम में विपक्षी कौरवों को मार कर अपने पैतृक राज्य का उद्धार करेगा।”
श्रीकृष्ण यहां अर्जुन को ‘पार्थ’ के नाम से संबोधित कर एक तो उसकी माता कुंती के अपने पुत्र से की गई उम्मीदों की याद दिला रहे हैं, दूसरे वो ईश्वरीय भविष्यवाणी की तरफ भी इशारा कर रहे हैं कि अर्जुन का भविष्य जंगल में पलायन नहीं है, बल्कि कौरवों से युद्ध कर अपने पैतृक राज्य का उद्धार करना है। तीसरे, अर्जुन को यह सारा कार्य श्रीकृष्ण की सहायता से ही करना है। ये सारी भविष्यवाणियां अर्जुन के जन्म के समय ही हो चुकी हैं। अर्जुन को केवल अब अपने कर्म के द्वारा इन भविष्यवाणियो को सत्य करना है।
श्रीकृष्ण अर्जुन को ‘क्लीव'( क्लैब्यं) अर्थात नपुंसक के जैसा व्यवहार करने वाला कहते हैं। अर्जुन ‘नर’ अवतार हैं और श्रीकृष्ण नारायण अवतार। नारायण श्रीकृष्ण उस नरावतार अर्जुन को नपुंसक कह कर उसकी वीरता को ललकारते हैं। जिस अर्जुन को पूरा विश्व महावीर मानता है उसकी दुर्बलता को देख कर श्रीकृष्ण पहले तो उसे उसकी माता का संदेश याद दिलाते हैं और फिर उसके अंदर की वीरता को जाग्रत करने के लिए उसे क्लीव( नपुंसक), दुर्बल और क्षुद्र ह्रदय वाला कह कर पुकारते हैं।
अर्जुन करुणा और विषाद से भर कर रथ के पिछले भाग में जाकर बैठ गया था। विषाद के फलस्वरुप उसके हाथों से उसका गांडीव धनुष छूटा जा रहा था । उसके शरीर में कंपन होने लगा था, उसकी त्वचा जलने लगी थी और वो आंसुओं से भर कर कांपते पैरों के साथ बैठ गया था।इस श्लोक के उतरार्द्ध में श्रीकृष्ण अर्जुन को ‘परंतप’ कह कर संबोधित करते हैं। ‘परंतप’ का अर्थ शत्रुओं को ताप पहुंचाने वाला होता है। श्रीकृष्ण अर्जुन की शत्रुनाशक वीरता की याद भी दिलाते हैं और उसे वापस खड़ा होने के लिए कहते हैं।
अर्जुन उवाच :
कथं भीष्ममहं सङ्ख्ये द्रोणं च मधुसूदन।
इषुभिः प्रतियोत्स्यामि पूजार्हावरिसूदन॥2.4
अर्थः अर्जुन ने कहा- “हे मधुसूदन! मैं युद्ध में भीष्म और द्रोण के प्रति बाणों से कैसे युद्ध करुंगा? हे अरिसूदन! ये दोनों ही पूजा के योग्य हैं।”
व्याख्याः अर्जुन श्रीकृष्ण को ‘मधुसूदन’ कह कर संबोधित करता है। वो मानता है कि भगवान उसके अंदर के उठे मधुरता रुपी मोह को समझ रहे हैं और वही उसके इस मोह को समाप्त कर सकते हैं। इसीलिए वह श्रीकृष्ण के सामने अपने वृद्ध पितामह और अपने गुरु के प्रति उत्पन्न मोह को व्यक्त करता है। वह कहता है कि “पितामह भीष्म उसके कुल में सबसे वृद्ध हैं और सबसे ज्यादा ज्ञानी भी हैं। द्रोण तो वृद्ध होने के साथ -साथ उसके गुरु भी हैं।”
सनातन धर्म में कुल के सबसे वृद्ध पुरुष और गुरु को पूजा के योग्य सम्मानित माना गया है। अर्जुन श्रीकृष्ण से प्रश्न करता है कि इन दोनों पूज्य व्यक्तियों पर बाण चलाना कैसे उचित होगा? शास्त्रों में भी वृद्धजनों और गुरुजनों को मारना पाप माना गया है। ऐसे में वह श्रीकृष्ण से अपने इस संशय का निवारण करने के लिए यह प्रश्न पूछता है।
अर्जुन श्रीकृष्ण के बारे में जानता है कि वो विष्णु के अवतार हैं और ‘मधु’ नामक महादैत्य का वध कर चुके हैं। अगर अर्जुन युद्ध नहीं भी करता है तो भी धर्म की संस्थापना के लिए स्वयं श्रीकृष्ण इस युद्ध में आए अधर्मियों का वध किसी भी क्षण कर सकते हैं। इस लिए वह श्रीकृष्ण को ‘अरिसूदन’ अर्थात ‘शत्रुओं का दमन करने वाला’ कह कर उनकी इस क्षमता को भी बताता है।
गुरूनहत्वा हि महानुभावान् श्रेयो भोक्तुं भैक्ष्यमपीह लोके।
हत्वार्थकामांस्तु गुरूनिहैव भुंजीय भोगान् रुधिरप्रदिग्धान् ॥2.5॥
अर्थः ‘महानुभाव’ गुरुजनों को न मार कर इस लोक में भीख का अन्न खाना ही अच्छा है क्योंकि इन ‘अर्थकामी’ गुरुजनों को मार कर यहां उनके रुधिर(रक्त) से सने हुए भोगों को ही तो भोगना है।
व्याख्याः अर्जुन पिछले श्लोक में जिन गुरु(द्रोण) को पूज्य मानता है. अब अन्य गुरुजनों को भी इस श्लोक में शामिल कर लेता है। अर्जुन के ‘गुरुजनों’ में द्रोण के अलावा कृपाचार्य और गुरुपुत्र अश्वत्थामा भी आ जाते हैं। अर्जुन जानता है कि ये सारे गुरुजन कौरवों के साथ ‘अर्थ'(Finance) से बंधे हुए हैं।
सनातन धर्म परंपरा में द्रोणाचार्य पहले ऐसे गुरु है जिन्हें पहला शिक्षक भी माना जाता है। ‘शिक्षक’ अर्थात जो शिक्षा देने के बदले वेतन लेता हो।कौरवों के यहां द्रोणाचार्य, कृपाचार्य और अश्वत्थामा वैतनिक कर्मचारी जैसे थे। वैतनिक कर्मचारी होने की वजह से ही ये सारे लोग द्रौपदी का चीरहरण होते देख कर भी अपने नमक का हक अदा करते रहे और मौन रह कर द्रौपदी के साथ हुए इस अधर्म को देखते रहे।
हालाँकि द्रोण कौरवों के वैतनिक कर्मचारी थे लेकिन अर्जुन के लिए वो एक गुरु थे। अर्जुन ने हमेशा उनका सम्मान एक गुरु मान कर ही किया था। एक तरफ जहाँ कौरव द्रोण को एक उच्च पदवीधारी शिक्षक से ज्यादा महत्व नहीं देते थे , वहीं अर्जुन और अन्य पांडव भाई द्रोण को गुरु का दर्जा देते थे। अर्जुन द्रोण को ही नहीं उनके पुत्र अश्वत्थामा को भी सम्मान देता था। कृपाचार्य को भी अर्जुन गुरु का ही दर्जा देता था और उनका सम्मान करता था।
स्वयं द्रोण ने युधिष्ठिर के सामने अपनी असमर्थता को व्यक्त करते हुए कहा था –
इति सत्यं महाराज बद्धोSस्मयर्थेन कौरवेः – महाभारत, भीष्म पर्व,अध्याय 43, श्लोक 56
अर्थात- “हे महाराज ! यह सत्य बात है कि मैं कौरवों के साथ अर्थ या पैसे से बंधा हुआ हूं।”
अर्जुन जानता है कि जहां द्रोण, कृपाचार्य और अश्वत्थामा कौरवों के साथ ‘अर्थ’(Finance) से बंधें हुए हैं, वहीं भीष्म भी कौरवों के साथ अपनी ‘प्रतिज्ञा से बंधे हुए हैं। भीष्म की वफादारी सिर्फ सिंहासन के साथ है। जो भी सिंहासन पर बैठेगा वो उसकी ही बात को मानने के लिए बाध्य रहेंगे, चाहे सिंहासन पर अधर्मी धृतराष्ट्र क्यों न बैठा हो?
लेकिन अपने गुरुजनों के इस तमाम दोषों को जानने के बाद भी अर्जुन के अंदर उनके प्रति सम्मान और करुणा का भाव है, क्योंकि ह्रदय से ये सभी पांडवों के साथ खड़े थे। भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य कौरवों के पक्ष में जरुर खड़े थे लेकिन ये सभी पांडवों से ही प्रेम करते थे। इसलिए भीअर्जुन युद्ध मे भीष्म, द्रोण और कृपाचार्य को नहीं मारना चाहता है।
अर्जुन कहता है कि “इन सम्मानित महानुभावों और गुरुजनों को मारने से बेहतर है कि मैं भीख मांग कर जी लूँ।” एक क्षत्रिय के लिए अपनी भुजाओं के बल से ही अर्जन को महान कर्म बताया गया है। एक क्षत्रिय कभी भी किसी से दया स्वरुप भीख में मिले अन्न को स्वीकार नहीं कर सकता, लेकिन अर्जुन अपने गुरुजनों के लिए अपने इस क्षत्रिय धर्म का त्याग करने को भी तैयार है।
अर्जुन का मानना है कि अपने प्रिय गुरुजनों के रक्त से सने इस सिंहासन को प्राप्त करने के बाद भी वह उसे वह भोग नहीं पाएगा और पाप के भाव से युक्त होकर हमेशा पश्चाताप करता रहेगा।
न चैतद्विद्म: कतरन्नो गरीयो यद्वा जयेम यदि वा नो जयेयु: ।
यानेव हत्वा न जिजीविषामस्तेऽवस्थिता: प्रमुखे धार्तराष्ट्रा: ।।2.6।।
अर्थः “हम यह भी नहीं जानते कि हमारे लिए क्या करना अच्छा है, अथवा हम जीतेंगे या वे हमें जीतेंगे? जिन्हें मार कर हम जीना भी नहीं चाहते वे ही धृतराष्ट्र पुत्र आज हमारे सामने उठकर खड़ें हैं।”
व्याख्याः अर्जुन श्लोक 4 में भीष्म और द्रोण के प्रति अपना मोह दर्शाता है,इसके बाद श्लोक 5 में अर्जुन अपने गुरुजनों ( कृपाचार्य और गुरुपुत्र अश्वत्थामा) आदि को ले आता है। अब श्लोक 6 में अर्जुन धृतराष्ट्र पुत्रों के प्रति भी अपना मोह दिखा रहा है।
अर्जुन जानता है कि ‘जहां श्रीकृष्ण हैं वहीं विजय है’। महाभारत के युद्ध के ठीक पहले जब युधिष्ठिर युद्ध के परिणाम को लेकर आशंकित थे, तब अर्जुन ही युधिष्ठिर को बताता है कि ‘जहां स्वयं श्रीकृष्ण हैं वहीं विजय होनी निश्चित है’-
एवं राजन् विजानीहि ध्रुवोSस्माकं रणे जयः।
यथा तु नारदः प्राह यतः कृष्णस्ततो जयः।।
महाभारत, भीष्मपर्व, अध्याय22, श्लोक12
अर्थात : अर्जुन युधिष्ठिर को युद्ध में पराजय की आशंका से हुए विषाद को दूर करने के लिए समझाते हुए कहते हैं कि “ हे राजन ! इसी नियम के अनुसार आप भी यह निश्चित रुप से जान लें कि युद्ध में हमारी विजय अवश्यंभावी है। जैसा कि नारद जी ने कहा है कि ‘ जहां श्रीकृष्ण हैं वहीं विजय है’।”
गुणभूतो जयः कृष्णे पृष्ठतोSभ्येति माधवम्।
महाभारत, भीष्मपर्व, अध्याय22, श्लोक13
अर्थात : ” विजय तो श्रीकृष्ण का एक गुण है जो सदा उनके पीछे-पीछे चलता है।”
अनंततेजा गोविंदः शत्रुपूगेषू निव्यर्थः।
पुरुषः सनातनमयो यतः कृष्णस्ततो जय।।
महाभारत, भीष्मपर्व, अध्याय22, श्लोक14
अर्थातः “भगवान गोविंद का तेज अनंत है,वे शत्रुओं के समुदाय में कभी व्यथित नहीं होते, क्योंकि वो सनातन पुरुष (परमात्मा) हैं। अतः ‘जहां श्रीकृष्ण हैं वहीं विजय है’।”
जब अर्जुन जानता है कि ‘जहां श्रीकृष्ण हैं वहीं विजय है’, तो फिर वो ऐसी बात क्यों कह रहा है? क्यों अर्जुन ये कह रहा है कि उसे नहीं पता कि किसकी विजय होगी ? क्या अच्छा है और क्या बुरा है ? ऐसा इसलिए क्योंकि उसका मन भ्रमित है। ऐसा अर्जुन अध्याय 1 में पहले ही कह चुका है –
न च शक्नोम्यवस्थातुं भ्रमतीव च मे मनः॥
श्रीमद् भगवद्गीता, अध्याय1, श्लोक 30
अर्थः अर्जुन कह रहा कि वो खड़े हो पाने में भी खुद को असमर्थ पा रहा है और उसका मन पूरी तरह से भ्रमित है।
मोह से बुद्धि का नाश हो जाता है, बुद्धि भ्रमित हो जाती है। अर्जुन अपने स्वजनों के मोह से ग्रस्त हो चुका है। वो यह जानते हुए भी कि उसके साथ श्रीकृष्ण हैं, उसे अपने विजय पर ही संदेह हो रहा है।
अर्जुन का यह भ्रम अपने गुरुजनों, वृद्धजनों ( भीष्म) और अपने बांधवों धृतराष्ट्र के पुत्रों के प्रति है।
कार्पण्यदोषोपहतस्वभाव: पृच्छामि त्वां धर्मसम्मूढचेता: ।
यच्छ्रेय: स्यान्निश्चितं ब्रूहि तन्मे शिष्यस्तेऽहं शाधि मां त्वां प्रपन्नम्। ।2.7।।
अर्थः “दीनता के दोष के उपहत स्वभाव वाला( यानि दबी हुई स्वाभाविक वीरवृति वाला), धर्म के विषय में मोहित अंतःकरण वाला मैं आपसे पूछता हूं। जो निश्चित रुप से कल्याणकारी हो, वह (बात) मेरे लिए कहिए। मैं आपका शिष्य हूं। अपने शरणापन्न मुझे शिक्षा दीजिए।”
व्याख्याः अर्जुन यहां स्वयं को ‘कृपणता’ के दोषों से युक्त बतलाता है।‘कृपणता’ का सीधा अर्थ होता है, जिसके पास पर्याप्त धन हो, लेकिन वो उसका व्यय न करे अर्थात जो कंजूस हो। सीधे अर्थ में अर्जुन इस अर्थ में कृपण है कि उसके पास युद्ध को जीतने के लिए पर्याप्त वीरता है, लेकिन वो उसका प्रयोग नहीं करना चाहता है।
श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 2 के 49वें श्लोक में ‘कृपणाः फलहेतवः’ से अर्थ ‘फल के आसक्ति से कर्म करने वाले मनुष्य का लिया गया है।‘ लेकिन अर्जुन तो कर्म से पलायन कर रहा है। इसलिए यहां निश्चित रुप से ‘कृपण’ शब्द का कोई अन्य अर्थ भी हो सकता है।
यहां प्रकरण अर्थ निर्णायक होने से ‘कृपण’ शब्द ‘कारुण्य’ वाचक है। अर्जुन अपनी करुणा को अपना दोष मानता है, क्योंकि क्षत्रिय के लिए अधर्मियों के प्रति करुणा एक दोष ही है। फिर भी उसका चित्त मोहित हो गया है। इसीलिए वो करुणा के दोषों को जानते हुए श्रीकृष्ण से इससे निकलने का वह मार्ग पूछता है, जो निश्चित रुप से कल्याणकारी हो।
अर्जुन यहां भगवान श्रीकृष्ण का शिष्य हो जाता है और उनके शरण में चला जाता है। मोह और करुणा से ग्रस्त अर्जुन भगवान श्रीकृष्ण से कल्याणकारी शिक्षा प्राप्त करना चाहता है ,ताकि उसका मोहित और भ्रमित अंतःकरण साफ हो सके और वो अपने लिए निर्धारित निश्चित और कल्याणकारी कर्मों को कर सके।
न हि प्रपश्यामि ममापनुद्याद् यच्छोकमुच्छोषणमिन्द्रियाणाम् ।
अवाप्य भूमावसपत्रमृद्धं राज्यं सुराणामपि चाधिपत्यम् ॥2.8॥
अर्थः “क्योंकि पृथ्वी पर निष्कंटक समृद्ध राज्य और देवताओं का आधिपत्य पाकर भी इंद्रियों को सुखाने वाला मेरा जो शोक नष्ट हो जाए ऐसा नहीं देखता हूं।”
व्याख्याः भले ही अर्जुन श्रीकृष्ण का शिष्य हो जाने की बात कर रहा हो और शरणागत होकर निश्चित और कल्याणकारी शिक्षा मांग रहा हो( श्रीमद्भगवद्गीता, श्लोक, 2.7), लेकिन इसी श्लोक में अर्जुन श्रीकृष्ण की बात को काटने का प्रयास भी कर रहा है।
श्रीकृष्ण ने अर्जुन को अध्याय 2 के श्लोक में क्या कहा था एक बार फिर से याद कीजिए-
कुतस्त्वा कश्मलमिदं विषमे समुपस्थितम् ।
अनार्यजुष्टमस्वर्ग्यमकीर्तिकरमर्जुन॥2.2॥
अर्थः भगवान ने कहा – “हे अर्जुन! अनार्य जिसका आचरण करते हों,(अथवा- जो आर्यजनों के आचरण के योग्य नहीं है) परलोक विरोधी( अर्थात जो स्वर्ग देने वाला नहीं है) और कीर्तिकारक( यश और सम्मान देने वाला) नहीं है, ऐसी यह कायरता इस विषम वेला में तुझमें कहां से आ गई?”
अब अर्जुन इस श्लोक में श्रीकृष्ण की बात का प्रतिकार करते हुए कह रहा है कि “मुझे न तो इस लोक का वो समृद्ध और निष्कंटक राज्य चाहिए जिसकी बात आप कह रहे हैं, और न ही परलोक में स्वर्ग का राज्य चाहिए, जिसका आप आश्वासन दे रहे हैं।”
अर्जुन कह रहा है कि मुझे ये दोनों ही नहीं चाहिए, क्योंकि ये दोनों ही मेरे इंद्रियों को सुखाने वाले शोक को नष्ट करने के लिए पर्याप्त नहीं हैं। अर्जुन यहां श्रीकृष्ण से उस शिक्षा को प्राप्त करने के लिए शरणागत हो रहा है जो निश्चित रुप से कल्याणकारी हो और इंद्रियों को सुखाने वाले शोक को दूर करने वाला हो। अर्जुन को अब युद्ध करने या न करने से मतलब नहीं रहा। उसे इंद्रियों को प्रभावित करने वाले विषयों से परे उस ज्ञान को जानना है जिससे वो मुक्त हो जाए।
संजय उवाच :
एवमुक्त्वा हृषीकेशं गुडाकेशः परन्तप।
न योत्स्य इतिगोविन्दमुक्त्वा तूष्णीं बभूव ह॥2.9॥
अर्थः संजय बोले- “हे परंतप(शत्रुओं के संतापक) राजन्! ऐसा कह कर निद्रा विजयी (गुडाकेश) अर्जुन ‘ह्षीकेश’ ‘गोविंद’ से ‘मैं युद्ध नहीं करुंगा’ यह स्पष्ट रुप से कह कर चुप हो गया।”
व्याख्याः श्लोक 8 में ही अर्जुन ने श्रीकृष्ण से विनती की थी कि अगर राज्य या स्वर्ग भी प्राप्त कर ले तो वो इंद्रियों को सुखाने वाले शोक को नष्ट नहीं कर पाएंगे। श्लोक 2.7 में वो श्रीकृष्ण से निश्चित रुप से कल्याणकारी शिक्षा प्राप्त करने के शरणागत भी होता है। अब इस श्लोक में अर्जुन स्पष्ट रुप से धोषणा भी कर देता है कि वो युद्ध नहीं करेगा। अब तब तक अर्जुन शस्त्र नहीं उठाएगा, जब तक श्रीकृष्ण उसकी इंद्रियो को सुखाने वाले शोक को नष्ट नहीं कर देते।
यहां अर्जुन को ‘गुडाकेश’ कहा गया है, जिसका अर्थ है ‘निद्रा को जीतने वाला’। अर्जुन ने बाल्यकाल में ही अपनी इंद्रियों को जीत लिया था। निद्रा को जीत कर उसने ‘गुडाकेश’ की उपाधि पाई थी। वहीं श्रीकृष्ण के लिए ‘गोविंद’ और ‘ह्षीकेश’ उपाधियों का प्रयोग किया गया है।गोविन्द शब्द ‘गो’ और ‘विन्द’ के संयोग से बना है। ऋग्वेद में ‘गो’ का एक अर्थ ‘इंद्रियों का नियंत्रक’ भी होता है। अर्जुन अपने इंद्रियों को सुखाने वाले शोक से त्रस्त है, और इसके इस शोक को ‘गोविंद’ अर्थात इंद्रियों के नियंत्रक श्रीकृष्ण ही दूर कर सकते हैं।
वहीं श्रीकृष्ण के लिए ‘ह्षीकेश’ उपाधि का प्रयोग एक बार फिर किया गया है। ह्रषी+ क+ ईश से मिलकर ‘ह्र्षीकेश’ शब्द बना है। महाभारत के उद्योग पर्व (अध्याय 70, श्लोक 9) में कहा गया है- ‘हर्षात सुखात सुखैश्वर्याद्द्धिकेशत्वमश्नुते’ अर्थात ‘हर्ष’ यानि प्रसन्नता, ‘क’ यानि सुख और ‘ईश’ यानि ऐश्वर्य से संपन्न होने के कारण श्रीकृष्ण ‘ह्रषीकेश’ कहे जाते हैं।
अर्जुन को जानता है कि यदि उसकी शोक ग्रस्त इंद्रियों का नियंत्रण ‘गोविंद’ श्रीकृष्ण के पास चली जाएंगी तो उसे सुख,प्रसन्नता और ऐश्वर्य के दाता ‘ह्षीकेश’ श्रीकृष्ण, इंद्रियों से परे ज्ञान वाली शिक्षा देकर उसके इस शोक को दूर कर देंगे। इसीलिए वो श्रीकृष्ण का शिष्य बन जाता है और उनकी शरणागति ले लेता है।
तमुवाच हृषीकेशः प्रहसन्निव भारत।
सेनयोरुभयोर्मध्ये विषीदंतमिदं वचः॥2.10॥
अर्थः “हे भारत(यानि भरत के वंश में उत्पन्न धृतराष्ट्र)! दोनों सेनाओं के बीच में विषाद करते हुए उस अर्जुन के प्रति हंसते हुए ह्षीकेश(श्रीकृष्ण) यह वचन बोले।”
व्याख्याः जब अर्जुन ने स्पष्ट रुप से विषाद करते हुए यह घोषणा कर ही दी कि वो युद्ध नहीं करेगा तो श्रीकृष्ण को हंसी आ गई। श्रीकृष्ण के लिए यहां एक बार फिर से ‘ह्रषीकेश’ उपाधि का प्रयोग किया गया है। यहाँ ‘ह्रषीकेश’ उपाधि इसलिए क्योंकि श्रीकृष्ण अर्जुन की तरह विषाद से भरे हुए नहीं हैं ,वो हर्ष से युक्त हैं।
दूसरे, श्रीकृष्ण को इसलिए भी हंसी आ रही है, क्योंकि वो जानते हैं कि अर्जुन का यह विषाद मोह से ग्रस्त है। अगर यही उसके सामने उसके स्वजनों के अलावा कोई और होता तो अर्जुन किसी प्रकार से भी मोह से ग्रस्त नहीं होता और युद्ध के लिए हथियार उठा लेता ।श्रीकृष्ण को हंसी इसलिए भी आ रही है, क्योंकि एकतरफ तो अर्जुन उनके प्रति शरणागत होने की बात करता है और खुद को उनका शिष्य भी घोषित कर देता है, लेकिन बिना अपने गुरु(श्रीकृष्ण) की आज्ञा लिए बिना ही युद्ध न करने की एकतरफा घोषणा कर देता है।
श्रीकृष्ण इस लिए भी हंस रहे हैं क्योंकि वो जानते है कि अर्जुन का यह मोह अज्ञान की वजह से है। अर्जुन जो बड़ी-बड़ी करुणा की बातें कर रहा है उनका कुछ भी मूल्य नहीं है। श्रीमद् भगवद्गीता के अध्याय 2 के श्लोक 10 तक श्रीकृष्ण अर्जुन को कुछ विशेष ज्ञान नहीं देते। बस आश्चर्य प्रगट करते हैं कि अर्जुन को इस असमय शोक क्यों हो रहा है? अर्जुन क्यों इस युद्ध को व्यर्थ और धर्मयुक्त नहीं मान रहा है? अर्जुन अपने क्षत्रिय धर्म से विमुख क्यों हो रहा है? दसअसल इसी श्लोक के बाद से श्री मद् भगवद्गीता के महान ज्ञान का अवतरण होता है।
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