असुर, राक्षस, दैत्य और दानवों की उत्पत्ति की रहस्यमय कथा

आमतौर पर हम राक्षस, दैत्य, दानव और असुरों को एक ही तरह के प्राणी के रुप में समझते हैं, जबकि इन सभी के बीच एक व्यापक भेद हैं और राक्षस, दैत्य, दानव और असुर सभी अलग- अलग प्राणी के रुप में सनातन धर्म में पाए जाते रहे हैं। इन सभी को ही आमतौर पर दुष्ट और अत्याचारी माना जाता रहा है और इन्हें अक्सर मनुष्यों और देवताओं के शत्रु के रुप में दिखाया जाता रहा है। लेकिन यह बात पूरी तरह से सत्य नहीं है।

दैत्य कौन हैं और इनकी उत्त्पत्ति कैसे हुई?

सनातन धर्म के लगभग सभी पुराणों और अन्य ग्रंथों में दैत्यों की उत्पत्ति की कथा दी गई है। इस कथा के अनुसार ऋषि कश्यप की 14 पत्नियों में दिति और अदिति नामक दो प्रसिद्ध पत्नियां हुई हैं। अदिति के गर्भ से 12 आदित्यों का जन्म हुआ । ये 12 आदित्य हैं – इंद्र, वरुण, मित्र, अर्यमा, विवस्वान, पूषा, त्वष्टा, भग, सविता, धाता, विधाता और वामन । इन्हें ही देवता भी कहा जाता है।

दिति के पुत्र हैं दैत्य

ऋषि कश्यप की दूसरी पत्नी दिति के गर्भ के हिरण्याक्ष और हिरण्यकश्यप नामक दो दैत्यों का जन्म हुआ। दिति के पुत्र होनें की वजह से इन्हें दैत्य कहा गया । हिरण्याक्ष का वध भगवान विष्णु के वराह अवतार के द्वारा किया गया , जबकि हिरण्यकश्यप का वध भी भगवान विष्णु के नृसिंह अवतार के द्वारा किया गया । 

हिरण्यकश्यप के पुत्र प्रह्लाद को भगवान विष्णु का महान भक्त माना जाता है । प्रह्लाद के पुत्र विरोचन हुए और विरोचन के पुत्र दैत्यराज बलि हुए । दैत्यराज बलि ने जब देवताओं से तीनों लोकों को जीत लिया तब उनसे स्वर्ग और पृथ्वी लोक को वापस लेने के लिए विष्णु के अवतार के रुप में भगवान वामन का जन्म हुआ ।

 वामन अवतार के रुप मे भगवान विष्णु ने राजा बलि से तीन पगों के रुप में तीनों लोक ले लिये। राजा बलि को वामन भगवान ने अमरता का वरदान दिया और उन्हें पताललोक का राजा बना दिया ।

असुर कौन हैं और इनकी उत्पत्ति कैसे हुई?

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असुर कौन हैं? इसको लेकर काफी मतभेद रहे हैं। ऋग्वेद में कई बार ‘असुर’ शब्द का प्रयोग हुआ है। ‘असुर’ शब्द ऋ्ग्वेद में 105 बार उल्लिखित हुआ है, जिसमें अधिकांशतः यह एक सम्मान योग्य विशेषण के रुप में प्रयुक्त किया गया है। इंद्र को भी कई स्थानों पर असुर कह कर संबोधित किया गया है। वरुण और मित्र के लिए भी कई बार असुर विशेषण का इस्तेमाल किया गया है। 

यास्क के निरुक्त के अनुसार ‘असुर’ शब्द की परिभाषा है -‘असुरिति प्राणनामास्तःशरीरे भवति।’ अर्थात् जो प्राणवंत या प्राणशक्ति रुपी शरीर से युक्त है वही असुर है। 

असुरों को पूर्वदेवाः कह कर भी पुकारा गया है । इससे लगता है कि वो ऋ्ग्वैदिक युग से पहले से ही विद्यमान थे। इन्हीं पूर्वदेवों या प्राचीन आर्य देवताओं को ‘अयज्ञा’ और ‘अनिंद्रा’ भी कह कर पुकारा गया है । ‘अयज्ञा’ का अर्थ है जो यज्ञों को मान्यता नहीं देते थे । ‘अनिंद्रा’ का अर्थ है कि वो लोग जो इंद्र को अपना देवता नहीं मानते थे। 

व्रात्य और असुरों का संबंध

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असुरों के पूजक के रुप में एक अलग वर्ग का उल्लेख वेदों और बाद के ग्रंथों में बार- बार आता है और वो हैं व्रात्य।  व्रात्य कौन हैं? यह भी एक अनसुलझी पहली है । लेकिन यह स्पष्ट रहा है कि व्रात्य यज्ञों के विरोधी थे और असुरों की पूजा करते थे और देवताओं के उपासकों के साथ उनका युद्ध भी हुआ था ।

 कीकट देश के व्रात्य राजा पुगमंद के विरुद्ध देवताओं के उपासक आर्यों ने इंद्र का आह्वान किया था और पुगमंद की गायों और धन का अपहऱण कर लिया था। 

अर्थववेद में व्रात्यों के लिए ‘अन्यव्रत’ और ‘अपव्रत’ विशेषणों का प्रयोग किया गया है, जिसका अर्थ होता है किसी अन्य रीति से व्रत करने वाले । वेदों को मानने वाले आर्यों ने बाद में इन व्रात्यों को अपने धर्म में शामिल करने के लिए ‘व्रात्योस्तोम’ यज्ञ की विधि का निर्माण किया । इस विधि के द्वारा वैदिक आर्य व्रात्यों को वैदिक धर्म में शामिल करते थे। 

अर्थववेद की एक ऋचा के अनुसार ‘सुर’ और ‘असुर’ का भेद स्पष्ट करते हुए कहा गया है कि जिनके पू्र्वजों ने सुरापान या अमृतपान नहीं किया है वो व्रात्य हैं। जिन्होंने सुरा या अमृत का पान किया वो सुर या देवता कहे गए और जिन्होंने सुरा या अमृत का पान नहीं किया वो असुर या व्रात्य कहे गए हैं।

 अर्थववेद में इन असुरों या व्रात्यों को सम्मान देते हुए इन्हें पूजनीय कहा गया है। व्रात्य भी पूर्ववैदिक काल से थे, लेकिन वो आर्य ही थे और इन्हे असुरों की संज्ञा दे दी गई क्योंकि ये वेदों के पालन में विश्वास नहीं रखते थे। 

पुराणों में दैत्यों, दानवों और राक्षसों के लिए ‘असुर’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा। चूंकि ये सभी वेदोक्त प्रक्रिया का पालन नहीं करते थे और ‘सुरों'(Gods) अर्थात देवताओं के विरोधी थे इसलिए इन सबके लिए ‘असुर’ शब्द का प्रयोग किया जाने लगा ।

पारसियों के धर्मग्रंथ में ‘असुर’

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ईरानी आर्यों या पारसियों के महान प्राचीन ग्रंथ जेंदावेस्ता में भी ‘असुर’ या ‘अहुर’ शब्द का इस्तेमाल सम्मानित लोगों के लिए किया गया है। जेंदावेस्ता में पारसियों के प्रधान देवता के रुप में ‘अहुर्मज्दा’ प्रमुख रुप से वंदनीय माने गये हैं। जेंदावेस्ता के अनुसार ‘असुर’ या ‘अहुर’ का अर्थ ‘मेधावी’ होता है।

 इससे स्पष्ट होता है कि वैदिक आर्यों और पारिसियों के बीच ‘असुर’ या ‘अहुर’ एक सम्मानित विशेषण था, लेकिन बाद में उत्तर वैदिक काल में ‘असुर’ विशेषण का इस्तेमाल उन लोगों के लिए किया जाने लगा जिनकी वेदों में श्रद्धा नहीं थी और वो आर्यों के शत्रु थे।   

दरअसल असुर प्राचीन आर्य ही थे और वो कालांतर में वेदों को न मानने की वजह से वैदिक परंपरा में शत्रु और दुष्ट के रुप में दिखाए जाने लगे । अर्थववेद के पृथ्वी सूक्त में ‘असुरानभ्यवर्तयन’ उपवाक्य है जिसका अर्थ है – जिस पृथ्वी पर पुराने लोगों ने कार्य किए उन असुरों पर देवताओं ने हमले किये ।

दानव कौन हैं और इनकी उत्पत्ति कैसे हुई?

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 दानव भी एक प्रकार की आर्य जाति ही थी जिसे वैदिक धर्म में दुष्ट और अच्छे दोनों रुपों में दिखाया गया है । सनातन ग्रंथों में दानवों की उत्पत्ति ऋषि कश्यप की एक अन्य पत्नी दनु से हुई है ।

 दनु के पुत्र ही दानव कहलाए और इनका भी देवताओं के साथ युद्ध होता रहता था। दानवों को आकाशीय जल का स्वामी माना गया था और वो बादलों के अंदर स्थित जल पर नियंत्रण करते थे। 

दनु के पुत्र वृत्र को असुर कहा गया है, क्योंकि वो वैदिक देवता इंद्र का शत्रु था और उसने मेघों में स्थित जल के प्रवाह को रोक दिया था। इंद्र ने अपने वज्र से वृत्रासुर का संहार कर दिया और जल की वर्षा की । ऋ्ग्वेद के अलावा बाद के ग्रंथों में भी इस युद्ध का जिक्र बार- बार किया गया है। 

पौराणिक कथाओं के अनुसार दानवों को इंद्र ने स्वर्ग से निकाल दिया। इसके बाद दानवों ने विंध्य पर्वत के पास शरण ली। दानवों में नमुचि, वृत्र, अयोमुख, शम्बर आदि प्रमुख हैं जिनका इंद्र के साथ संघर्ष हुआ। 

दानवों में मय दानव का उल्लेख रामायण और महाभारत में भी आता है और उसे विश्वकर्मा की तरह महान शिल्पकार बताया गया है। उसके पास मायावी शक्तियां थीं और वो मायावी महलों का निर्माता था। 

राक्षसों की उत्पत्ति का रहस्य

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जहां एक तरह दानवों को आकाशीय जल का स्वामी माना जाता था वहीं राक्षसों की उत्पत्ति समुद्रगत जल के अंदर रहने वाले प्राणियों की रक्षा के लिए हुआ था। पौराणिक कथाओं के अनुसार ब्रह्मा ने  समुद्र के अंदर रहने वाले प्राणियों के लिए दो प्रकार के जीवों का निर्माण किया। 

समुद्रगत जल के अंदर रहने वाले प्राणियों की रक्षा के लिए राक्षसों का निर्माण किया और जल के अंदर रहने वाले प्राणियों के अंदर वैदिक धर्म का विस्तार करने के लिए यक्षों की उत्पत्ति की । 

यक्षों ने जहां यज्ञों के प्रचार का कार्य लिया वहीं राक्षसों को रक्षा का भार दिया गया । ये वैसे ही था जैसे पृथ्वी पर ब्राह्म्णों को धर्म के प्रचार का कार्य सौंपा गया था तो क्षत्रियों को समाज की रक्षा का दायित्व सौंपा गया था।

 दरअसल राक्षस और यक्ष जल के अंदर के संसार के क्षत्रिय और ब्राह्मण थे। राक्षसों ने रक्ष संस्कृति की स्थापना की और यक्षों ने यक्ष संस्कृति की स्थापना की । 

वाल्मीकि रामायण में राक्षसों की उत्पत्ति की कथा

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वाल्मीकि रामाय़ण के उत्तरकांड में राक्षसों और यक्षों की उत्पत्ति का वर्णन इस प्रकार है –

 प्रजापतिः पुरा सृष्टवा अपः सलिलसंभवः ।

  तासां गोपायने सत्त्वानसृजत् पद्मसंभव।।

अर्थः- जल से प्रकट हुए कमल से उत्पन्न प्रजापति ब्रह्मा जी ने पूर्वकाल में समुद्रगत जल की सृष्टि करके उसकी रक्षा के लिए अनेक प्रकार के जल जंतुओं को उ्त्पन्न किया। 

ते सत्त्वाः सत्त्वकर्तारं विनीतवदुपस्थिताः।

किं कुर्म इति भाषन्तः क्षुत्पपासाभयार्दिता ।।

अर्थः- वे जन्तु भूख- प्यास के भय से पीड़ित हो ‘अब हम क्या करें’? ऐसी बातें करते हुए अपने जन्मदाता ब्रह्मा जी के पास विनीतभाव से गए ।

प्रजापतिस्तु तान् सर्वान् प्रत्याह प्रहसन्निव ।

आभाष्य वाचा यत्नेन रक्षध्वमिति मानद ।।

अर्थः- दूसरों का मान देने वाले रघुवीर ! उन सबको आया देख कर प्रजापति ने उन्हें वाणी के द्वारा संबोधित करके हँसते हुए कहा – ‘जल जंतुओं तुम यत्नपूर्वक जल की रक्षा करो।’

रक्षाम इति तत्रान्यैर्यक्षाम इति चापरैः।
भुक्षिताभुक्षितैरुक्तस्ततस्तानाह भूतकृत् ।।

अर्थःः वे सब जन्तु भूखे और प्यासे थे । उनमें से कुछ ने कहा – ‘हम सब इस जल की रक्षा करेंगे’ और दूसरे ने कहा कि ‘हम इसका यक्षण ( पूजन) करेंगे।’ तब उन भूतों की सृष्टि करने वाले प्रजापति ने कहा ।

रक्षाम इति यैरुक्तं राक्षसास्ते भवन्तु वः ।
यक्षाम इति यैरुक्तं यक्षा एव भवन्तु वः ।।

 अर्थः- ‘तुममें से जिन लोगों ने रक्षा करने की बात कही है , वे राक्षस के नाम से प्रसिद्ध होंगे और जिन्होंने यक्षण (पूजन ) करना स्वीकार किया है , वे लोग यक्ष के नाम से विख्यात हों । ‘इस प्रकार वे जीव राक्षस और यक्ष दो जातियों में विभक्त हो गए। 

राक्षसों की उन्नति की कथा

इन्हीं राक्षसों में हेति और प्रहेति नामक दो भाई हुए। इनमें प्रहेति ने संन्यास और धर्म का आश्रय ले लिया औऱ हेति  राक्षसों का अधिपति बन गया। हेति का विवाह काल की पुत्री भया के साथ हो गया। भया और हेति का पुत्र विद्युतकेशी हुआ । विद्युतकेशी का विवाह संध्या की पुत्री सालकंटंकटा से हुआ । सालकंटंकटा ने हेति से एक पुत्र को जन्म दिया और जन्म देते ही उसे त्याग कर कहीं और चली गई।

इस पुत्र को शिव और पार्वती ने देखा और पार्वती ने उसे अपने पुत्र के समान प्रेम देकर उसका नाम सुकेश रखा । भगवान शिव ने सुकेश को अमरता का वरदान दे दिया। सुकेश के तीन महाबलि पुत्र माल्यवान, सुमाली और माली थे। माल्यवान, सुमाली और माली ने लंका को अपना निवास स्थान बनाया। इसके बाद इन तीनों ने तीनों लोकों को जीतने के लिए देवताओं से युद्ध छेड़ दिया। इस युद्ध मे राक्षसों की पराजय हुई और उन्हें लंका छोड़कर वापस पाताललोक चले गए ।

इन्ही सुमाली की पुत्री सुकेशी ने ऋषि पुलत्स्य से विवाह की याचना की और सुकेशी के तीन पुत्र रावण, कुंभकर्ण और विभीषण हुए और एक पुत्री शूर्पनखा का जन्म हुआ। समस्त राक्षस जाति का विस्तार सुकेश और उसके पुत्रों के द्वारा ही हुआ

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