मकर संक्रांति के दिन भगवान सूर्य दक्षिणायन से उत्तरायण हो जाते हैं। आमतौर पर ये माना जाता है कि महाभारत की कथा के अनुसार भीष्म पितामह ने मकर संक्रांति के दिन भगवान सूर्य के उत्तरायण होने के बाद ही अपने शरीर का त्याग किया था। लेकिन ये सच नहीं है। भीष्म पितामह ने सूर्य के उत्तरायण होने का इंतज़ार जरुर किया था लेकिन उन्होंने मकर संक्रांति के दिन अपना शरीर नहीं छोड़ा था। आखिर वो कौन सी तिथि थी जिस दिन भीष्म पितामह ने अपने शरीर का त्याग किया था और वो वसुलोक में चले गए थे?
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भीष्म ने सूर्य के उत्तरायण होने का इंतज़ार क्यों किया ?
आखिर भगवान सूर्य के उत्तरायण होने से भीष्म की इच्छा मृत्यु का क्या संबंध है? क्यों भीष्म ने बाणों की शय्या पर इतने कष्टों को सहते हुए भी एक विशेष समय का इंतज़ार किया? अक्सर लोगों का यही मानना है कि मकर संक्रांति के दिन से ही सनातन धर्म में शुभ दिनों की शुरुआत होती है। परंतु वास्तव में मकर संक्रांति के काफी पहले दिवाली के बाद देवोत्थान एकादशी के दिन से ही सनातन धर्म में शुभ और मंगल दिवसों की शुरुआत हो जाती है । देवोत्थान एकादशी के बाद ही विवाह आदि मंगल कार्य शुरु हो जाते हैं।
फिर भी मकर संक्राति का विशेष महत्व इसलिए है क्योंकि इस दिन सूर्य उत्तरायण होते हैं और इस दिन से देवलोक में दिन का समय शुरु होता है। सनातन धर्म के शास्त्रों के अनुसार मनुष्य लोक में बाहर चंद्रमासों का एक वर्ष माना जाता है और देवलोक के एक पूरे दिन के बराबर होता है। हिंदू पांचाग के अनुसार पौष मास से लेकर आषाढ़ मास तक के छह महीने देवताओं के एक दिन के बराबर होता है और आषाढ़ मास से लेकर अगले पौष मास की एकादशी तिथि तक देवताओं की एक पूरी रात्रि होती है ।
पृथ्वी पर पौष मास की द्वादशी से लेकर आषाढ़ मास तक सूर्य उत्तरायण रहते हैं यानि सूर्य उत्तर दिशा का मार्ग लेकर पूर्व से पश्चिम की यात्रा करते हैं जबकि आषाढ़ मास से लेकर पौष मास की एकादशी तक सूर्य दक्षिण दिशा से होकर पूर्व से पश्चिम की यात्रा करते हैं। इस दौरान सूर्य दक्षिणायन होते हैं, अर्थात् हिंदू पांचांग के अनुसार सूर्य का परिभ्रमण काल दो अयनों – उत्तरायण और दक्षिणायन में विभक्त होता है। उत्तरायण काल देवताओं के लिए एक दिन का काल होता है जबकि दक्षिणायन की अवधि देवताओं के लिए एक रात की अवधि होती है।
चूँकि उत्तरायण के काल में देवतागण देवलोक में सक्रिय होते हैं इसलिए उत्तरायण के काल को मनुष्यों के लिए भी शुभ माना गया है। जबकि दक्षिणायन की अवधि में देवतागण सुप्त अवस्था में रहते हैं इसलिए मनुष्यों के लिए भी दक्षिणायन की अवधि उतनी शुभ नहीं मानी गई है। यह एक बड़ी वजह थी जिसने भीष्म पितामह को सूर्य के उत्तरायण की अवधि में अपने शरीर के त्याग करने के लिए इंतजार करना पड़ा था।
क्या मकर संक्रांति से शुभ दिनों की शुरुआत होती है?
अगर देवोत्थान एकादशी से ही मांगलिक दिनों की शुरुआत हो जाती है तो फिर मकर संक्रांति, सूर्य के उत्तरायण होने तक भीष्म के इंतज़ार करने का रहस्य क्या है। तो सबसे पहले हम भीष्म के जन्म की कथा जानते हैं इसके बाद मकर संक्रांति को सूर्य के उत्तरायण होने तक और बाद में उनके द्वारा इच्छा मृत्यु को स्वीकार करने की मूल वजह जानेंगे ।
भीष्म के जन्म की कथा
महाभारत के आदि पर्व के अध्याय 97 में भीष्म के जन्म की कथा मिलती है। कथा के अनुसार इक्ष्वाकु वंश में महाभिष नामक एक प्रतापी राजा हुए हैं। महाभिषअपने पुण्य कर्मों की वजह से देवताओं की श्रेणी में आ गए थे। एक बार जब देवताओं के साथ राजा महाभिष ब्रह्मा जी की सभा में बैठे हुए थे तब वहां गंगा भी आईं। गंगा जी के वस्त्रों को हवा में उड़ते देख कर महाभिष जी काम के वश में हो गए और गंगा जी के शरीर को निहारने लगे। ब्रह्मा जी ने यह देख कर महाभिष को पृथ्वी पर जन्म लेने का शाप दे दिया।
राजा महाभिष ने शांतनु के रुप में जन्म लिया
राजा महाभिष ने अपने पुण्य प्रताप से इक्ष्वाकु वंश के ही राजा प्रतीप के यहां जन्म लेने का निश्चय किया । राजा प्रतीप बहुत ही संस्कारी और धर्मवान राजा थे। एक बार राजा प्रतीप गंगा नदी के तट पर विहार कर रहे थे तो देवी गंगा स्त्री रुप मे उनकी दायीं जंघा पर आकर बैठ गईं और उनसे विवाह करने का आग्रह किया।
राजा प्रतीप ने गंगा से कहा कि चूंकि वो उनकी दायीं जांघ पर बैठी हैं, इसलिए वो उनकी पुत्री या पुत्रवधू के समान हैं, क्योंकि बायीं जांघ पर सिर्फ पत्नी ही बैठने का अधिकार रखती है। तब गंगा जी ने राजा प्रतीप से कहा कि “उनके घर पर जो भी पुत्र जन्म लेगा वो उससे विवाह करेंगी।” लेकिन देवी गंगा ने शर्त रखी कि वो विवाह के बाद गंगा जी के द्वारा किए गये किसी भी कार्य पर सवाल नहीं उठाएगा। राजा प्रतीप ने यह शर्त स्वीकार कर ली।
गंगा और शांतनु के विवाह की शर्त
राजा प्रतीप के यहां राजा महाभिष ने ब्रह्मा जी के शाप की वजह से पुत्र रुप में जन्म लिया। अपने पिता की तरह शांत होने की वजह से उनका नाम शांतनु पड़ा । जब शांतनु बड़े हुए तो राजा प्रतीप ने उन्हें राजा बना दिया और कहा कि वो गंगा किनारे जाएं, जहां उन्हें एक स्त्री मिलेगी जिससे वो विवाह कर लें।
राजा शांतनु जब गंगा किनारे गए तो गंगा जी एक स्त्री का वेष धारण कर उनके सामने आईं और राजा शांतनु से विवाह का आग्रह किया। राजा शांतनु विवाह के लिये तैयार हो गए । लेकिन गंगा जी ने उनको वो शर्त बताई जो उन्होंने उनके पिता राजा प्रतीप के सामने रखी थीं।ये वही शर्त थी जिसके तहत शांतनु गंगा जी के द्वारा किए गए किसी भी कार्य पर कोई सवाल नहीं करेंगे । अगर सवाल करेंगे तो गंगा जी उसी वक्त शांतनु का त्याग कर देंगी। राजा शांतनु ने अपने पिता के द्वारा गंगा जी को दिए गए इस वचन का पालन करने की प्रतिज्ञा कर ली ।
आठ वसुओं को वसिष्ठ के शाप की कथा
गंगा जी ने यह राजा प्रतीप और राजा शांतनु से यह वचन क्यों लिया था, इसकी भी कथा महाभारत के आदि पर्व में मिलती है। कथा है कि एक बार आठो वसु पृथ्वी पर भ्रमण कर रहे थे तब उन्हें एक अद्भुत गाय दिखाई दी। इस अद्भुत गाय का नाम सुरभि था जो ब्रह्मर्षि वसिष्ठ की गोशाला में रहती थी। इन आठ वसुओ में एक वसु द्यौ की पत्नी ने अपनी सखी के लिए उस गाय की मांग कर दी । वसु द्यौ ने अपने बाकी के सात वसुओं के साथ मिल कर सुरभि गौ का अपहरण कर लिया। वसिष्ठ जब अपने आश्रम लौटे तो उन्होंने अपने योगबल से जान लिया कि यह कार्य इन आठों वसुओं का है।
गंगा के पुत्रों के रुप में आठों वसुओं ने लिया जन्म
वसिष्ठ ने इन आठों वसुओं को शाप दे दिया कि वो पृथ्वी पर मनुष्य योनि के रुप में जन्म लेंगे । जब वसुओं ने वसिष्ठ से क्षमा मांगी तो वसिष्ठ ने वसु द्यौ को छोड़कर बाकि वसुओं को यह वरदान दे दिया कि वो जन्म तो लेंगे लेकिन जन्म के साथ ही वो फिर से वापस मुक्त होकर अपने लोकों मे चले जाएंगे। वसिष्ठ ने कहा कि चूंकि इस अपहरण के कार्य में वसु द्यौ की भूमिका ज्यादा है, इसलिए वसु द्यौ को पृथ्वी पर लंबा वक्त काटना पड़ेगा। हालांकि वसु द्यौ के माफी मांगने पर वसिष्ठ ने यह कहा कि “वो पृथ्वी पर अविवाहित रहेंगे और ज्ञान और वीरता से संपन्न रहेंगे।“
गंगा जी का आठों वसुओं को मुक्त करने का वचन
एक बार जब गंगा जी कहीं जा रही थीं तो उन्होंने इन आठों वसुओं को चिंतित देखा। जब गंगा जी ने उनसे इस चिंता का कारण बताया तो इन वसुओं ने वसिष्ठ के शाप की कहानी बताई। तब गंगा जी ने आश्वासन दिया कि जब वो पृथ्वी पर राजा प्रतीप के बेटे की पत्नी बनेंगी तो अपने गर्भ से इन आठो वसुओं को जन्म देंगी । जन्म के बाद सात वसुओं को वो अपने गंगा जल मे डूबों कर मार देंगी ताकि वे सभी मुक्त हो जाएं।
जब गंगा जी और राजा शांतनु का विवाह हो गया तब एक -एक कर सातो वसुओं ने गंगा जी के गर्भ से जन्म लिया। हरेक बार गंगा जी ने एक – एक कर सातो वसुओं को जन्म के साथ ही गंगा जी में डूबो दिया और उन्हें जन्म मरण के बंधन से मुक्त कर उनके लोक भेज दिया ।इस प्रकार वसु द्यौ को छोड़कर बाकी सभी वसु अपने वसुलोक में चले गए।
भीष्म पितामह थे आठवें वसु के अवतार
लेकिन जैसे ही आठवें वसु अर्थात द्यौ का गंगा जी के गर्भ से जन्म हुआ, शांतनु ने उन्हे गंगा जल में डूबोने पर विरोध कर दिया । इसके बाद गंगा जी ने शांतनु को सातो वसुओं को डूबोने की कथा सुनाई और बताया कि आठवां वसु उनके पुत्र गंगादत्त के नाम से विख्यात होगा । यही गंगादत्त बाद भीष्म पितामह के रुप में प्रसिद्ध हुए । वसिष्ठ के शाप की वजह से और सत्यवती को दिए वचन के मुताबिक गंगादत्त( वसु द्यौ) ने आजीवन ब्रह्मचारी रहने की प्रतीज्ञा की और भीष्म के नाम से प्रसिद्ध हुए ।
श्रीमद्भगवद्गीता में है भीष्म की मृत्यु का रहस्य
अब बात भीष्म के द्वारा सूर्य के उत्तरायण होने के बाद किए गये अपने देहत्याग की वजह हम आपको बताते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के आठवें अध्याय में भगवान श्रीकृष्ण प्राण त्याग करने के बाद आत्मा के द्वारा दो रास्तों के चयन की बात करते हैं – पहला है देवयान और दूसरा है पितृयान
शुक्ल कृष्णे गती ह्येते जगतः शाश्वते मते ।
एकया यात्यनावृत्ति मन्ययावर्तते पुनः ৷৷8.26৷৷
śuklakṛṣṇē gatī hyētē jagataḥ śāśvatē matē.
ēkayā yātyanāvṛttimanyayā৷৷vartatē punaḥ ৷৷8.26৷৷
अर्थः – “क्योंकि जगत के ये दो प्रकार के- शुक्ल और कृष्ण अर्थात देवयान और पितृयान मार्ग सनातन माने गए हैं। इनमें एक द्वारा गया जिससे वापस नहीं लौटना पड़ता, उस परमगति को प्राप्त होता है और दूसरे के द्वारा गया हुआ फिर वापस आता है अर्थात् जन्म-मृत्यु को प्राप्त होता है।”
देवयान और पितृयान मार्ग क्या हैं ?
भगवान इसके पहले के दो श्लोकों में देवयान और पितृयान के बारे में बताते हैं। श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक 23 और 24 में भगवान कहते हैं कि –
यत्र काले त्वनावत्तिमावृत्तिं चैव योगिनः ।
प्रयाता यान्ति तं कालं वक्ष्यामि भरतर्षभ ৷৷8.23৷৷
yatra kālē tvanāvṛttimāvṛttiṅ caiva yōginaḥ.
prayātā yānti taṅ kālaṅ vakṣyāmi bharatarṣabha৷৷8.23৷৷
अर्थ : “हे अर्जुन! जिस काल में (यहाँ काल शब्द से मार्ग समझना चाहिए, क्योंकि आगे के श्लोकों में भगवान ने इसका नाम ‘सृति’, ‘गति’ ऐसा कहा है।) शरीर त्याग कर गए हुए योगीजन तो वापस न लौटने वाली गति को और जिस काल में गए हुए वापस लौटने वाली गति को ही प्राप्त होते हैं, उस काल को अर्थात दोनों मार्गों को कहूँगा ।”
अग्निर्ज्योतिरहः शुक्लः षण्मासा उत्तरायणम् ।
तत्र प्रयाता गच्छन्ति ब्रह्म ब्रह्मविदो जनाः ৷৷8.24৷৷
agnirjyōtirahaḥ śuklaḥ ṣaṇmāsā uttarāyaṇam.
tatra prayātā gacchanti brahma brahmavidō janāḥ৷৷8.24৷৷
अर्थ: “जिस मार्ग में ज्योतिर्मय अग्नि-अभिमानी देवता हैं, दिन का अभिमानी देवता है, शुक्ल पक्ष का अभिमानी देवता है और उत्तरायण के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मर कर गए हुए ब्रह्मवेत्ता योगीजन उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले जाए जाकर ब्रह्म को प्राप्त होते हैं।”
देवयान के मार्ग से जाने वाले को ही मिलता है मोक्ष
भगवान कहते है कि” मकर संक्रांति को जब सूर्य उत्तरायण के छह माह तक रहते हैं, तब शुक्ल पक्ष में दिन के वक्त जो पुण्यात्मा देह त्याग करते है वो देवयान मार्ग का अनुसरण करते हुए ब्रह्म को प्राप्त करते हैं और उनका फिर से जन्म नहीं होता है।” दूसरे मार्ग पितृयान के बारे में श्रीमद्भगवद्गीता के श्लोक 25 में भगवान कहते हैं कि –
धूमो रात्रिस्तथा कृष्ण षण्मासा दक्षिणायनम् ।
तत्र चान्द्रमसं ज्योतिर्योगी प्राप्य निवर्तते ৷৷8.25৷৷
dhūmō rātristathā kṛṣṇaḥ ṣaṇmāsā dakṣiṇāyanam.
tatra cāndramasaṅ jyōtiryōgī prāpya nivartatē৷৷8.25৷৷
अर्थ: “जिस मार्ग में धूमाभिमानी देवता है, रात्रि अभिमानी देवता है तथा कृष्णपक्ष का अभिमानी देवता है और दक्षिणायन के छः महीनों का अभिमानी देवता है, उस मार्ग में मरकर गया हुआ सकाम कर्म करने वाला योगी उपयुक्त देवताओं द्वारा क्रम से ले गया हुआ चंद्रमा की ज्योत को प्राप्त होकर स्वर्ग में अपने शुभ कर्मों का फल भोगकर वापस आता है।”
पितृयान के मार्ग से मिलता है स्वर्ग
भगवान यहां कहते हैं कि “मकर संक्रांति के बाद से जब सूर्य दक्षिणायन में छह माह तक रहते हैं, उस काल में कृष्णपक्ष में रात्रि के वक्त जिसकी मृत्यु होती है वह अपने सकाम कर्मों के द्वारा अर्जित पुण्य बल से स्वर्ग में जाता है । जब उसके पुण्य का क्षय हो जाता है तब वो वापस पृथ्वी पर जन्म लेता है।
भीष्म का यह आखिरी जन्म था
भीष्म आठ वसुओ में एक थे। उनका पृथ्वी पर यह पहला और आखिरी जन्म था। भीष्म पितामह सूर्य के दक्षिणायन के महीनों में पितृयान मार्ग का अनुसरण नहीं कर सकते थे क्योंकि इससे उन्हें स्वर्ग तो मिलता लेकिन फिर कुछ काल बाद वापस पृथ्वी पर लौटना पड़ता। चूंकि वो एक देवता थे इसलिए उनके लिए ब्रह्मा का साहचर्य ही एक मात्र मंजिल थी। शाप की वजह से भी भीष्म पितामह के रुप में जन्में वसु द्यौ का ये एकमात्र जन्म था इसलिए उन्हें पृथ्वी पर वापस जन्म लेने वाले मार्ग का अनुसरण नहीं करना था।
यही वजह थी कि भीष्म पितामह को सूर्य के उत्तरायण होने का इंतज़ार करना पड़ा ताकि वो वापस अपने वसुलोक में चले जाएँ और वापस कभी पृथ्वी पर जन्म न लें। भीष्म पितामह मूल रुप से वसु द्यौ होने की वजह से मकर संक्रांति के बाद से सूर्य के उत्तरायण होने के बाद खुलने वाले देवयान मार्ग का ही अनुसरण कर सकते थे। यही वजह थी कि आठवें वसु द्यौ (जिन्होंने भीष्म के रुप में जन्म लिया था) ने देवयान मार्ग को चुनने के लिए मकर संक्रांति को सूर्य के उत्तरायण होने तक का इंतज़ार किया।
भीष्म पितामह की मृत्यु की तारीख क्या थी?
भीष्म पितामह ने मकर संक्रांति के दिन अपने देह का त्याग नहीं किया था। मकर संक्रांति के दिन भीष्म पितामह की मृत्यु की बात झूठी है। महाभारत को ठीक से पढ़ने से पता चलता है कि मकर संक्रांति की तिथि को भीष्म की मृत्यु नहीं हुई थी और न ही भीष्म ने मकर संक्रांति के दिन को अपनी मृत्यु का दिन चुना था। ये सच है कि उन्होंने मकर संक्रांति की तिथि तक सूर्य के उत्तरायण होने का इंतज़ार किया था लेकिन भीष्म मकर संक्रांति के दिन नहीं मरे थे।
महाभारत के शांतिपर्व के अध्याय 47 और अनुशासनपर्व के अध्याय 167में भीष्म पितामह की मृत्यु की तारीख का पता चलता है। इन दोनों ही अध्यायों से पता चलता है कि भीष्म पितामह की मृत्यु मकर संक्राति के दिन नहीं हुई थी। महाभारत के इन दोनों ही पर्वों के गहन अध्ययन से पता चलता है कि भीष्म पितामह ने हिंदू पांचाग के अनुसार माघ माह की अष्टमी तिथि को प्राण त्याग किया था। महाभारत के शांति पर्व के अध्याय 47 का ये श्लोक देखिए
शुक्लपक्षस्य चाष्टमयां माघमासस्य पार्थिव।
प्रजापत्ये च नक्षत्रे मध्यं प्राप्ते दिवाकरे।।
निवृत्तमात्रे त्वयन उत्तरे वै दिवाकरे।
समावेशयदात्मानमात्मन्येव समाहितः ।।
अर्थातः वैशम्पायन राजा जनमेजय को कहते हैं कि “राजन् ! जब दक्षिणायन समाप्त हुआ और सूर्य उत्तरायण में आ गए , तब माघ मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि को रोहिणी नक्षत्र में मध्यान्ह के समय भीष्म जी ने ध्यान मग्न होकर अपने मन को परमात्मा में लगा दिया।”
इस श्लोक के बाद हम महाभारत के अनुशासनपर्व के अध्याय 167 के श्लोक को देखते हैं तो यहाँ भी पाते हैं कि भीष्म पितामह ने हिंदू पांचाग के अनुसार माघ मास के शुक्लपक्ष की अष्टमी तिथि को ही अपनी मृत्यु का वरण किया था। इस अध्याय में प्रसंग ये है कि भीष्म के आदेशानुसार युधिष्ठिर उनके अंतिम संस्कार की सामग्री लेकर भीष्म के पास पहुंचते हैं तो भीष्म उनसे कहते हैं –
दिष्टया प्राप्तोSसि कौन्तेय सहामात्यो युधिष्ठिर ।
परिवृत्तो हि भगवान सहस्त्रांशुर्दिवाकरः ।।
अष्टपंचाशतं रात्र्यः शयानस्याद्य मे गताः।
शरेषु निशितग्रेषु यथा वर्षशतं तथा ।।
अर्थः- कुंती के पुत्र युधिष्ठिर ! सौभाग्य की बात है कि तुम मंत्रियो सहित यहाँ आ गए। सहस्त्र किरणों से सुशोभित भगवान सूर्य अब दक्षिणायन से उत्तरायण की ओर लौट चुके हैं। इन तीखे अग्रभाग वाले बाणों की शय्या पर शयन करते हुए मुझे आज 58 दिन हो गए, किंतु ये दिन मेरे लिए सौ वर्षों के समान बीते हैं।
माघोSयं समनुप्राप्तो मासः सौम्यो युधिष्ठिर।
त्रिभागशेषः पक्षोSयं शुक्लो भवितुर्महति ।।
अर्थः- “युधिष्ठिर ! इस समय चंद्रमास के अनुसार माघ का महीना चल रहा है ।इसका ये शुक्लपक्ष चल रहा है, जिसका एक भाग बीत चुका है और तीन भाग बाकी है( शुक्लपक्ष के मास का आरंभ मानने पर इसके चार भाग करने पर ये अष्टमी की तिथि मालूम होती है) ।”
इसके बा भीष्म पितामह दो घड़ी तक चुपचाप पड़े रहे। इसके बाद वो मनसहित अपनी प्राणवायु को क्रमशछ भिन्न भिन्न धारणाओं( योग की एक स्थिति) में स्थापित करने लगे। इस तरह यौगिक क्रिया द्वारा रोके हुए महात्मा भीष्म के प्राण क्रमशः उपर चढ़ने लगे। उस समय वहाँ एकत्रित सभी लोगों ने एक आश्चर्यजनक घटना देखी। योगयुक्त हुए भीष्म के प्राण जिस- जिस अंग को त्याग कर ऊपर उठते थे, उस-उस अंग के बाण अपने आप निकल जाते और घाव भर जाता ।
इस प्रकार देखते ही देखते भीष्म पितामह का शरीर क्षण भर में बाणों से रहित हो गया। भीष्म जी ने अपने देह के सभी द्वारों को बंद करके प्राणों को सब ओर से रोक लिया था। इसलिए वह प्राणवायु उनके मस्तक( ब्रह्मरन्ध्र) को फोड़कर आकाश में चला गया। भीष्म के प्राण त्याग के साथ ही आकाश में देवताओं की दुंदुभियाँ बजने लगी और पुष्पों की वर्षा होने लगी। भीष्म जी का प्राण उनके ब्रह्मरन्ध्र से निकल कर भारी उल्का की तरह आकाश में उड़ा और अंतर्धान हो गया।