श्रीमद्भगवद्गीता में ज्ञानलब्ध होने से पूर्व मनुष्य को एक विशेष प्रक्रिया से गुज़रने की अनिवार्यता की बात कही गई है। श्रीमद्भगवद्गीता में मनुष्य को सत् की प्राप्ति हेतु एक विशेष स्थिति तक पहुंचने की बात कही गई है। श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार मनुष्य बिना स्थितिप्रज्ञ हुए उस अविनाशी सत् को प्राप्त नहीं कर सकता है जो सृष्टि का मूल तत्व है। स्थितिप्रज्ञता की स्थिति बिना बुद्धि को स्थिर किये प्राप्त नहीं की जा सकती है। बुद्धि उसी स्थिति में स्थिर हो सकती है जब हमारे चित्त में उठने वाले संशयों का अंत हो जाए। हमारे चित्त के अंदर उठने वाले संशयों के प्रवाह की गति समाप्त हो जाए।
भगवान श्रीमद्भगवद्गगीता के अध्याय 4 के श्लोक 40 में संशय में रहने वालों के विनष्ट हो जाने की बात कहते हैं। भगवान कहते हैं कि‘संशयात्मा विनश्यति’ अर्थात जो संशय में है वो विनाश को उपलब्ध हो जाता है। एक लोकोक्ति भी है कि हकीम लुकमान के पास भी शक का इलाज़ नहीं था। शक या संशय हमारे चित्त को विचलित कर देती है और हम किसी एक लक्ष्य की तरफ केंद्रित करने में असफल रहते हैं।
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श्रीमद्भगवद्गीता में अर्जुन का संशय
अर्जुन लगातार मोह और भ्रम की स्थिति में युद्ध की आवश्यकता और परिणामों को लेकर संशय करता आ रहा है । अर्जुन गीता के अध्याय 1 के श्लोक 29 से ही संशय करना शुरु कर देता है। उसका शरीर शिथिल होने लगता है, उसकी बुद्धि भ्रमित होने लगती है। अर्जुन युद्ध से पलायन की घोषणा कर देता है। तब भगवान अर्जुन को सत् के सिद्धांत से अवगत कराते हैं और कहते हैं कि “कोई किसी को नहीं मारता , सभी उसी अविनाशी सत् के अंश हैं जो नित्य और सनातन है।” भगवान अर्जुन को युद्ध में वापस खड़ा होने के लिए कहते हैं और कर्म योग का सिद्धांत बताते हैं। लेकिन अर्जुन का संशय अभी तक खत्म नहीं हुआ है।
श्रीमद्भगवद्गीता में समत्व बुद्धि से कर्म करने का उपदेश :
भगवान अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता के अध्याय 2 के श्लोक 48 में समबुद्धि की अवस्था को प्राप्त कर कर्म योग करने का उपदेश देते हैं-
योगस्थः कुरु कर्माणि संग त्यक्त्वा धनंजय ।
सिद्धयसिद्धयोः समो भूत्वा समत्वं योग उच्यते ॥2.48॥
yōgasthaḥ kuru karmāṇi saṅgaṅ tyaktvā dhanañjaya.
siddhyasiddhyōḥ samō bhūtvā samatvaṅ yōga ucyatē৷৷2.48৷৷
अर्थः- “धनंजय! योग में स्थित हो, अपनी आसक्ति को त्याग कर, तथा सिद्धि और असिद्धि में सम होकर, तू कर्म कर । इस समता का नाम ही योग है।”
भगवान अर्जुन के मोह और भ्रम से युक्त संशयात्मक स्थिति को जानते हैं, इसलिए वो अर्जुन को गीता के अध्याय 2 के श्लोक 52 में कहते हैं कि –
यदा ते मोहकलिलं बुद्धिर्व्यतितरिष्यति ।
तदा गन्तासि निर्वेदं श्रोतव्यस्य श्रुतस्य च ॥2.52॥
yadā tē mōhakalilaṅ buddhirvyatitariṣyati.
tadā gantāsi nirvēdaṅ śrōtavyasya śrutasya ca৷৷2.52৷৷
अर्थः- “जब तेरी बुद्धि मोह रुपी कीचड़ या दलदल को पार कर जाएगी, तब तू पहले सुने हुए और भविष्य में सुनने में आने वाले फलों या भोग से वैराग्य प्राप्त कर लोगे।”
भगवान गीता के अध्याय 2 के श्लोक 53 में अर्जुन को उपदेश देते हुए कहते हैं कि मेरे उपदेश को सुन कर अपनी बुद्धि को स्थिर करो, तभी तुम कर्मयोगी बन पाओगे।
श्रुतिविप्रतिपन्ना ते यदा स्थास्यति निश्चला ।
समाधावचला बुद्धिस्तदा योगमवाप्स्यसि ॥2.53॥
śrutivipratipannā tē yadā sthāsyati niścalā.
samādhāvacalā buddhistadā yōgamavāpsyasi৷৷2.53৷৷
अर्थः- “मेरे द्वारा सुने गए उपदेश से भली भांति प्रपन्न हुई तेरी बुद्धि जब अचल होकर मन (यानि समाधि) में निश्चल भाव से ठहर जाएगी तब तू योग को प्राप्त होगा।”
भगवान यहां स्पष्ट रुप से कह रहे हैं कि जब तक बुद्धि स्थिर और अचल नहीं होगी किसी भी कर्म को तू निश्चयात्मक बुद्धि से नहीं कर पाएगा और हमेशा संशय में रहेगा ।
*श्रीमद्भगवद्गीता में स्थिरबुद्धि पुरुष के लक्षण :
अर्जुन उवाच-
स्थितप्रज्ञस्य का भाषा समाधिस्थस्य केशव ।
स्थितधीः किं प्रभाषेत किमासीत व्रजेत किम् ॥2.54॥
sthitaprajñasya kā bhāṣā samādhisthasya kēśava.
sthitadhīḥ kiṅ prabhāṣēta kimāsīta vrajēta kim৷৷2.54৷৷
अर्थः- अर्जुन बोले- “हे केशव ! समाधि में स्थित स्थितिप्रज्ञ पुरुष के क्या लक्षण हैं, वह स्थिर बुद्धि पुरुष कैसे बोलता है, कैसे बैठता है और कैसे चलता है?”
व्याख्याः- अर्जुन यहां भगवान को ‘केशव’ के नाम से संबोधित कर रहा है । ‘केशव’ का अर्थ होता है ‘जो क्लेशो को हर लें’। ‘केशव’ नाम का संधि विच्छेद ‘क’ तथा ‘ईश’ है। ‘क’ यानि ब्रह्मा और ‘ईश’ यानि शिव। अर्थात जो अपने भीतर ब्रह्मा और शिव दोनों को धारण करे वही ‘केशव’ है।
स्वयं भगवान शिव ने स्कंदपुराण में ‘केशव’ नाम को पारिभाषित करते हुए कहा है –
क इति ब्रह्म्णो नाम इशोहं सर्वदेहिनाम ।
आवां तवांगेसम्भूतौ तस्मात् केशव नामवान् ।।
अर्थः- ‘क’ यह ब्रह्मा का नाम है और सब देहों वालों का ‘ईश’ अर्थात मैं शिव हूं। हम दोनों देव आपके अंग में रहते हैं,इसीलिए आपका नाम ‘केशव’ है।
अर्जुन के चार प्रश्न :
अर्जुन भगवान केशव से इस श्लोक में चार प्रश्न करता है –
- समाधिस्थित स्थितिप्रज्ञ पुरुष की क्या भाषा अर्थात लक्षण है?
- समाधिस्थित स्थितिप्रज्ञ पुरुष कैसे बोलता है?
- समाधिस्थित स्थितिप्रज्ञ पुरुष कैसे बैठता है?
- समाधिस्थित स्थितिप्रज्ञ पुरुष कैसे चलता है?
स्थितिप्रज्ञता क्या होती है?
भारतीय संप्रदायों में मन और बुद्धि को स्थिर किए बिना उच्चतम स्थिति की प्राप्ति को असंभव माना गया है। बुद्धि जब स्थिर हो जाती है, तभी ईश्वर या सत् या परमात्मा या परमतत्व का साक्षात्कार या अनुभव संभव माना गया है। स्थितिप्रज्ञता वह स्थिति है, जब आप संसार में रह कर भी खुद को उससे निरपेक्ष कर लेते हैं। आप एक प्रकार से संसार को वैसे ही देखते हैं जैसे कोई दर्शक खेल को देखता है , लेकिन खुद खेल का भागी नहीं बनता ।
स्थितिप्रज्ञता और बौद्ध धर्म में साक्षी भाव :
बौद्ध धर्म में बुद्धि को स्थिर करने के लिए आष्टांग मार्गों’ का वर्णन किया गया है, जिसमें सम्यक दृष्टि को सबसे महत्वपूर्ण माना गया है। सम्यक दृष्टि अर्थात सभी वस्तुओं, प्राणियों और स्थितियों के दौरान अपनी बुद्धि और मन को अचल रखना होता है। सम्यक दृष्टि जिसे प्राप्त हो जाती है वो साक्षी भाव को उपलब्ध हो जाता है।
बौद्ध धर्म में साक्षी भाव और गीता में स्थितिप्रज्ञता दोनों एक ही स्थिति को बताते हैं। जब मनुष्य लाभ- हानि, सुख- दुख , जय- पराजय, लोभ-मोह , राग- विराग सभी स्थितियों से परे हो जाता है और संसार को निर्लिप्त भाव से देखता है। संसार के प्रति उसका कोई भी लगाव या जुड़ाव नहीं रहता है। वो कमल की भांति कीचड़ से निकल कर भी संसार रुपी कीचड़ से अलग हो जाता है । ऐसी स्थिति में मनुष्य साक्षी भाव को प्राप्त कर लेता है।
बौद्ध धर्म में सम्यक दृष्टि के द्वारा प्राप्त साक्षी भाव की स्थिति के बिना निर्वाण की प्राप्ति वैसे ही नहीं हो सकती जैसे स्थितिप्रज्ञता की स्थिति को प्राप्त किए बिना अविनाशी सत् की प्राप्ति नहीं हो सकती ।
समाधि क्या है? :
स्थितिप्रज्ञता की अगली उच्च स्थिति का नाम समाधि है । जब हम संख्यात्मक और द्वैतात्मक द्वंद्व से उपर उठ जाते हैं और निरपेक्ष हो जाते हैं, तब हम अपनी बुद्धि और मन को अविनाशी सत् में स्थित कर लेते हैं। स्थिर मन की इसी उच्च अवस्था का नाम समाधि है।समाधि दो प्रकार की होती है। पहली ‘सविकल्प समाधि’ और दूसरी ‘निर्विकल्प समाधि।‘ सविकल्प समाधि में हमारे मन में स्थित सत् का परम सत् के साथ साक्षात्कार होता है, लेकिन हमारी चेतना बनी रहती है और हम वापस अपनी पूर्व और सामान्य दैहिक और मानसिक अवस्था में लौट जाते हैं।
निर्विकल्प समाधि की स्थिति में हमारे मन में स्थित सत् का परम सत् के साथ विलय हो जाता है और हम परम स्थिति को प्राप्त हो जाते हैं। इस परम स्थिति को ही शास्त्रों में मोक्ष कहा गया है। जन्म मरण के बंधन से मुक्त होकर हमारे अंदर स्थित सत् का परमसत् के साथ विलय होना ही मोक्ष कहलाता है। मोक्ष की स्थिति को प्राप्त कर लेने के बाद हमारे अंदर स्थिति अविनाशी सत् को फिर से शरीर धारण करने की आवश्यकता समाप्त हो जाती है।
स्थितिप्रज्ञता के लिए कामनाओं का त्याग आवश्यक है :
श्रीभगवानुवाच
प्रजहाति यदा कामान् सर्वान्पार्थ मनोगतान् ।
आत्मयेवात्मना तुष्टः स्थितप्रज्ञस्तदोच्यते ॥2.55॥
prajahāti yadā kāmān sarvān pārtha manōgatān.
ātmanyēvātmanā tuṣṭaḥ sthitaprajñastadōcyatē৷৷2.55৷৷
अर्थः- भगवान कहते हैं – “हे पार्थ ! मन से उसी में तुष्ट साधक जब सभी मनोगत कामनाओं को पूर्ण रुप से त्याग देता है, तब वह स्थितिप्रज्ञ कहा जाता है ।”
व्याख्याः- यहां ‘आत्मना’ पद ‘मन’ अर्थात स्वयं का वाचक है। भगवान यहां कह रहे हैं कि “जो पुरुष अपने मन या स्वयं को स्वयं अर्थात मन में स्थिर कर लेता है या तुष्ट कर लेता तो वो अपनी सभी सांसारिक कामनाओं का त्याग कर देता है, क्योंकि फिर उसके मन में सिर्फ उसी सत् रुपी तत्व का बोध रहता है । ऐसी स्थिति में वो स्थिर हो जाता है और सिर्फ अपने अंदर स्थित सत् के प्रति ही केंद्रित रह जाता है, ऐसी स्थिति को ही स्थितिप्रज्ञ कहा गया है।” भगवान यहां अर्जुन के पहले प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं । अर्जुन ने पूछा था कि “स्थितिप्रज्ञ पुरुष के क्या लक्षण हैं? इसलिए भगवान ने अर्जुन को स्थितिप्रज्ञ पुरुष की पहचान का लक्षण बताया।
दुःखेष्वनुद्विग्नमनाः सुखेषु विगतस्पृहः ।
वीतरागभयक्रोधः स्थितधीर्मुनिरुच्यते ॥2.56॥
duḥkhēṣvanudvignamanāḥ sukhēṣu vigataspṛhaḥ.
vītarāgabhayakrōdhaḥ sthitadhīrmunirucyatē৷৷2.56৷৷
अर्थः- “दुःखों में उद्वेगरहित मन वाला, सुख में स्पृहारहित और राग- भय और क्रोध से रहित मुनि स्थिर बुद्धि का कहलाता है।”
व्याख्याः- भगवान यहां अर्जुन को स्थिर बुद्धि वाले पुरुष के लक्षण बताते हुए कहते हैं कि “वह पुरुष जिसने अपने मन को अपने मन के अंदर स्थित सत् के भाव से जोड़ लिया वो समस्त कामनाओं से मुक्त हो जाता है और स्थिर बुद्धि का हो जाता है। ऐसा पुरुष न तो दुःख में व्यथित होता है, न सुख में लिप्त होता है , न उसे किसी के प्रति मोह या राग होता है और न किसी के विछोह का भय होता है, वह मनुष्य स्थिर बुद्धि हो जाता है और मौन धारण करने वाला मुनि कहलाता है।”
भगवान इस श्लोक में अर्जुन के दूसरे प्रश्न का विस्तार से उत्तर दे रहे हैं कि स्थितिप्रज्ञ पुरुष क्या बोलता है? भगवान कहते हैं कि स्थितिप्रज्ञ पुरुष की भाषा मौन हैं, इसलिए वो मुनि कहलाता है। भगवान अध्याय 10 के श्लोक 38 में कहते हैं – ‘मौनं चैवास्मि गुह्रानां’ अर्थात् “गोपनीय भावों में मैं मौन हूं।” मौन वह आतंरिक भाव है जिसमें समस्त कामनाओं के ज्वार शांत हो चुके होते हैं और मन के अंदर किसी भी तरह के कोई विचार या संवाद नहीं चल रहे होते हैं।
ऋषि, मुनि, संत, महात्मा, साधु,योगी और सिद्ध किन्हें कहते हैं?
आमतौर पर हम ऋषि- मुनि, संत, महात्मा, साधु, महंत, पुरोहित, पुजारी, आचार्य, गुरु, सिद्ध, योगी, पंडित, ब्राह्म्ण, और ज्ञानी के बीच भेद नहीं कर पाते हैं । किसी भी धार्मिक और आध्यात्मिक कर्म से जुड़े व्यक्ति के लिए इनमें से कोई भी संज्ञा प्रयुक्त कर लेते हैं। जबकि मूल रुप से अगर देखें तो इन सबके अर्थ, कार्य और विशेषताएं एक दूसरे से एकदम अलग- अलग हैं।
ऋषि कौन हैं :
‘ऋषि’ संज्ञा उस व्यक्ति के लिए प्रयोग की जाती है जिसने वैदिक ऋचाओं और मंत्रों की रचना की है और अपने द्वारा रचित मंत्र या ऋचा के द्वारा परम सत् या परम तत्व का साक्षात्कार किया है। वैदिक ऋचाओं के रचयिताओं को मंत्रद्रष्टा कहा गया है। विश्वामित्र, वशिष्ठ, अगत्स्य, अत्रि, अंगिरा आदि महान ऋषि हुए हैं । ऋषि वैदिक ग्रंथों और मंत्रों के रचयिता थे।
मुनि कौन हैं :
‘मुनि’ संज्ञा उस व्यक्ति के लिए प्रयोग की जाती है, जिसके मन में किसी भी कामना का कोई भी ज्वार नहीं उठता है। उसका मन एकदम शांत हो जाता है। मुनि का संबंध बाहरी मौन से नहीं है। आमतौर पर यह माना जाता है कि जिसने मौन व्रत धारण कर लिया है वही मुनि है ।वास्तव में ऐसा नहीं है, हम कई बार मौन धारण करते हैं, लेकिन फिर भी हमारे अंदर लगातार कोई न कोई विचार चलता रहता है । आप सड़क पर चलते हुए लोगों को ध्यान से देखें तो वो भले ही उपर से मौन हों ,लेकिन उनके अंदर विचारों का प्रवाह लगातार चलता रहता है।
जो जहां है वो वहां उपस्थित नहीं दिखता । कोई बड़बड़ाता जा रहा है तो कोई अपने उपर झुंझलाते हुए रास्ते में जा रहा है , तो कोई आनंद में गीत गाता जा रहा है। उन सबके भीतर लगातार कोई न कोई संवाद चल रहा है। अपने आप से संवाद करते रहना हीअस्थिर बुद्धि का लक्षण है। अस्थिर बुद्धि वाले उपर से मौन जरुर दिख सकते हैं लेकिन उनकी बुद्धि के अंदर लगातार शोर हो रहा है।
जिसने अपने अंदर की सभी भावनाओं के ज्वार से खुद को मुक्त कर लिया है, उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है । वह व्यक्ति अगर आपसे बात भी कह रहा है या मौन व्रत का त्याग भी कर लिया है तो भी वह व्यक्ति मुनि कहा जाता है। मुनि का अर्थ है जिसके अंदर कामनाओं और विचारों का संवाद और विवाद खत्म हो गया है। जिसका मन स्थिर हो गया है वही मुनि है।
संत, महात्मा और साधु किसे कहते हैं :
‘संत’ वो है जिसने अविनाशी सत् को जान लिया है। ‘महात्मा’ वह है जिसकी आत्मा किसी भी क्षुद्र विचारों से व्यथित नहीं होती, वो महान और पवित्र कार्यों के संलग्न है। ‘साधु’ एक सरल स्वभाव है जो किसी के भी अंदर हो सकता है। संत का ह्रदय निर्मल हो जाता है । महात्मा का मन महान हो जाता है। साधु का मन सरल हो जाता है।
योगी और सिद्ध किसे कहते हैं :
श्रीमद्भगवद्गीता के अनुसार जिसने कर्म योग के द्वारा समत्व बुद्धि को प्राप्त कर अविनाशी सत् के साथ खुद का योग करा लिया है, वही योगी है। ‘सिद्ध’ वो है जिसने कुंडलिनी जागरण के द्वारा अविनाशी सत् का साक्षात्कार किया है। सिद्ध राजयोग की क्रियाओं के द्वारा अपने शरीर के अंदर स्थित इड़ा और पिंगला नाड़ियों की ऊर्जा को सुष्मना नाड़ी के अंदर से प्रवाहित करते हैं और उनके अंदर स्थित कुंडलिनी चक्रों का भेदन कर परम तत्व का साक्षात्कार कर लेते हैं।
महंत, पुजारी और पुरोहित कौन हैं :
सनातन धर्म को राजनैतिक और धार्मिक तथा नैतिकता से जोड़ने का कार्य करने वाले व्यक्तियों को इस संज्ञा में रखा जा सकता है। महंत किसी संप्रदाय विशेष की धार्मिक व्यवस्था का उच्चतम अधिकारी होता है। पुरोहित उन धार्मिक कर्मकांडों को संपन्न कराने वाला व्यक्ति होता है। पुजारी ईश्वर की मूर्ति की सेवा करने वाला सेवक है।
आचार्य और गुरु कौन हैं :
‘आचार्य’ धार्मिक पुस्तकों के ज्ञाता होते हैं। ये सनातन धर्म की महान परंपरा के अंदर लिखी गई पुस्तकों के व्याख्याकार होते हैं। ये एक प्रकार के धार्मिक शिक्षक होते हैं। ये धर्म के ज्ञाता हो सकते हैं। ये किसी विद्या में प्रवीण व्यक्ति भी हो सकते हैं और दूसरों को उस विद्या की शिक्षा देने के अधिकारी हो सकते हैं। जैसे द्रोण धनुर्विद्या और शस्त्रविद्या में प्रवीण थे और पांडवों तथा कौरवों को शस्त्र चलाने की शिक्षा देते थे। इसी वजह से द्रोण को आचार्य द्रोण या द्रोणाचार्य भी कहते थे ।
‘गुरु’ वो है जो किसी भी व्यक्ति की चेतना को ईश्वर की परम चेतना से मिला देता है। गुरु की महिमा ऋषि, मुनि, साधु और संतों सबने गाई है । बिना गुरु के बताए रास्ते के कोई भी न तो ऋषि हो सकता है, न मुनि बन सकता है और न ही संत, महात्मा, आचार्य या योगी बन सकता है। गुरु एक सार्वभौम उपाधि है जो किसी भी शिक्षक, आचार्य, ऋषि, मुनि, साधु के लिए सम्मानपूर्वक संबोधन भी है । गुरु वह संत, महात्मा, योगी या आचार्य है, जो ईश्वर का साक्षात्कार कराने में समर्थ है।
बुद्धि की स्थिरता के लिए द्वैत से उपर उठना आवश्यक है :
यः सर्वत्रानभिस्नेहस्तत्तत्प्राप्य शुभाशुभम् ।
नाभिनंदति न द्वेष्टि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥2.57॥
yaḥ sarvatrānabhisnēhastattatprāpya śubhāśubham.
nābhinandati na dvēṣṭi tasya prajñā pratiṣṭhitā৷৷2.57৷৷
भावार्थ : “जो पुरुष सर्वत्र स्नेहरहित हुआ उस-उस शुभ या अशुभ वस्तु को प्राप्त होकर न प्रसन्न होता है और न द्वेष करता है, उसकी बुद्धि स्थिर है।”
व्याख्याः- भगवान अर्जुन को आगे समझाते हुए कहते हैं कि “स्थिर बुद्धि उसी पुरुष की होती है जो किसी भी वस्तु के प्रति नेह या लगाव नहीं रखता है। जिसे किसी भी वस्तु के प्राप्त होने और उसके खो जाने पर किसी भी प्रकार का आनंद या दुःख नहीं होता वही स्थिर बुद्धि का कहलाता है।” यहां भी भगवान अर्जुन के पहले प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं कि “स्थितिप्रज्ञ पुरुष के क्या लक्षण हैं?
इंद्रियो को वश में कैसे करें :
यदा संहरते चायं कूर्मोऽङ्गनीव सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥2.58॥
yadā saṅharatē cāyaṅ kūrmō.ṅgānīva sarvaśaḥ.
indriyāṇīndriyārthēbhyastasya prajñā pratiṣṭhitā৷৷2.58৷৷
अर्थः- “जैसे कछुआ अपने अंगों को समेट लेता है उसी प्रकार यह पुरुष जब अपनी इंद्रियों को इंद्रियों के विषयों से सब ओर से समेट लेता है तब उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।”
इंद्रिय और उसके विषय क्या हैं :
व्याख्याः- सनातन दर्शन, अध्यात्म और योग में पांच प्रकार की इंद्रियां कही गई है- श्रोत्र, चक्षु,रसना, घ्राण और त्वचा। श्रोत्र इंद्रिय अर्थात् कानों से हम सुनने का कार्य करते हैं। चक्षु इंद्रिय अर्थात् आंखो से हम देखने का कार्य करते हैं। रसना अर्थात् जीभ से हम किसी भी वस्तु के स्वाद का अनुभव करते हैं । घ्राण इंद्रिय अर्थात् नाक से हम किसी अच्छी गंध या दुर्गंध का अनुभव करते हैं तथा त्वचा से हम उष्म, शीतल, नर्म और कठोर वस्तुओं का अनुभव करते हैं।
हम इन पांच इंद्रियों से पांच विषयों का अनुभव करते हैं। श्रोत्र इंद्रिय से शब्द, चक्षु से रुप, रसना से रस या स्वाद, घ्राण से गंध और त्वचा से स्पर्श का अनुभव करते हैं।
ये सभी विषय मधुर या कटु हो सकते हैं। ये दुःख या सुख का अनुभव कराते हैं। जैसे श्रोत्र इंद्रिय से हम अच्छी या बुरी बातें सुन कर सुख या दुःख का अनुभव करते हैं। चक्षु इंद्रिय से हम सुंदर या कुरुप चीजों या व्यक्तियों या प्राणियों को देख कर आनंद या विषाद रुपी विषय का अनुभव करते हैं। रसना इंद्रिय अर्थात जीभ से हम मधुर या तीखे स्वाद रुपी विषय का अनुभव करते हैं।
बुद्धि सभी भावनाओं का केंद्र है :
सारे विषयों का मूल केंद्र हमारी बुद्धि होती है। अगर हमें इंद्रियो और वस्तुओं या प्राणियों के संयोग से मधुर अनुभव होते हैं तो हम आनंद और सुख से भर जाते हैं, लेकिन अगर ये अनुभव कटु होता है तो हम दुःखित हो जाते हैं। ये सारी गतिविधियां हमारे मस्तिष्क या बुद्धि के अंदर होती है। इन विषयों के संयोग की वजह से हमारी बुद्धि अस्थिर हो जाती है।
लेकिन, अगर हम अपनी इंद्रियों को उनके विषयों से अलग कर देते हैं तो हमारी बुद्धि विचलित नही होती और वो स्थिर हो जाती है। भगवान अर्जुन को इंद्रियों और इससे उत्पन्न सुख, दुःख, मधुर- कटु आदि विषयों से मुक्त कराने की बात कहते हैं। ठीक वैसे ही जैसे कछुआ अपने अंगो को समेट लेता है उसी प्रकार जो मनुष्य अपने इंद्रियों को अपने इंद्रियों के विषय से दूर कर लेता है तो उसकी बुद्धि स्थिर हो जाती है।
इंद्रिय नहीं इंद्रियों के विषय बुद्धि के शत्रु हैं :
हम कई बार सुनते हैं कि किसी ने फलों का त्याग कर दिया या किसी ने खुद को वासना से मुक्त करने के लिए अपनी आंखे फोड़ ली , ताकि किसी सुंदर स्त्री को देख कर उसकी बुद्धि भ्रष्ट न हो जाए। या किसी ने अपने कानों में छेद कर लिया ताकि सुंदर संगीत से उसका मन भटक न जाए।लेकिन क्या आप जानते हैं कि वैज्ञानिक रुप से दृष्टिहीन व्यक्ति के अंदर सेक्स की भावना नेत्रों से युक्त व्यक्ति से 33 प्रतिशत ज्यादा होती है।
इंद्रियों को क्षति पहुंचाने मात्र से इंद्रियों से उत्पन्न विषय खत्म नहीं हो जाते। कई लोग बुद्धि को स्थिर करने के लिए अपने मन को दबाते हैं। इससे सिर्फ विकृति उत्पन्न होती है, क्योंकि इंद्रियो से उत्पन्न विषयों की धारा अंदर की तरफ मुड़ जाती है।इस विकृति के फलस्वरुप व्यक्ति मानसिक रुप से बीमार हो जाता है। अगर हमने अपनी आंखों को बंद भी कर लिया तो भी हमारे अंदर इंद्रियों के विषय जीवित रहते हैं, हम कल्पना में ही सुंदर स्त्री या पुरुष को देखने लगते हैं और कल्पना से ही आनंद की प्राप्ति करने लगते हैं।
वास्तव में इंद्रियां हमारी बुद्धि की शत्रु नहीं है, बल्कि इंद्रियों से उत्पन्न विषयों से हमारी बुद्धि अस्थिर होती है। इसलिए भगवान कहते है कि “इंद्रियों को नष्ट न करो बल्कि इंद्रियों से उत्पन्न विषयों से इंद्रियों को दूर करो और सत् की प्राप्ति की तरफ लगा दो, इसके बाद बुद्धि अपने आप स्थिर हो जाएगी।” भगवान इसके लिए कछुए के द्वारा अपने अंगो को समेट लेने का उदाहरण देते हैं।
विषयों से निवृति कैसे हो सकती है :
विषया विनिवर्तन्ते निराहारस्य देहिनः ।
रसवर्जं रसोऽप्यस्य परं दृष्टवा निवर्तते ॥2.59॥
viṣayā vinivartantē nirāhārasya dēhinaḥ.
rasavarjaṅ rasō.pyasya paraṅ dṛṣṭvā nivartatē৷৷2.59৷৷
अर्थः-“निराहारी (विषयों से इंद्रियों को हटा लेने वाले) पुरुष के विषय तो निवृत्त हो जाते हैं, लेकिन रस यानि राग को छोड़कर (यानि विषय लालसा बनी रहती है)। इस स्थितिप्रज्ञ पुरुष का तो विषय-राग भी परम का साक्षात्कार कर निवृत्त हो जाता है।”
व्याख्याः- भगवान कहते हैं कि “सिर्फ विषयों से इंद्रियों को हटा लेना भर पर्याप्त नहीं है, बल्कि इंद्रियों को आत्म तत्व में स्थिर करने से ही स्थितिप्रज्ञता आ सकती है।” भगवान ने उदाहरण दिया है है कि लोग निराहार करते हैं , व्रतों के दौरान उपवास करते हैं, वो अपने रस की इंद्रिय को भोजन रुपी विषय से हटा लेते हैं लेकिन इसके बावजूद उनके अंदर भोजन के प्रति आसक्ति बनी ही रह जाती है। उनके मन में यह ख्याल आते रहते हैं कि जैसे ही व्रत खत्म हो या उपवास का वक्त खत्म हो तो वो पकवान खा लें। यह आसक्ति बनी रहती है।
लेकिन स्थितिप्रज्ञता की स्थिति तब ही आती है जब इंद्रियों से इंद्रियों के विषयों को हटा लेने के बाद इंद्रियों को परमतत्व में केंद्रित किया जाए। ऐसी अवस्था में ही स्थितिप्रज्ञता को प्राप्त किया जा सकता है।
इंद्रियों का दमन नहीं, इसका रुपांतरण आवश्यक है :
यततो ह्यपि कौन्तेय पुरुषस्य विपश्चितः ।
इन्द्रियाणि प्रमाथीनि हरन्ति प्रसभं मनः ॥2.60॥
yatatō hyapi kauntēya puruṣasya vipaśicataḥ.
indriyāṇi pramāthīni haranti prasabhaṅ manaḥ৷৷2.60৷৷
अर्थः- भगवान कहते हैं –” हे कौन्तेय! क्योंकि प्रमथन स्वभाव वाली इंद्रियां यत्न करते हुए विवेकशील पुरुष के भी मन को बलपूर्वक हर लेती हैं।”
व्याख्याः- भगवान यहां अर्जुन को समझाते हुए कहते हैं कि “इंद्रियों को उनके विषयों से अलग करना इतना आसान नहीं है। यह इतना कठिन है कि विवेकशील मनुष्य के मन को भी वो विचलित कर देती है, बलपूर्वक उससे वो कार्य करवा लेती हैं जिन्हें करने के वो बचना चाहता है।”अक्सर हम अपनी इच्छाओं का दमन करते हैं। इच्छा यानि विषय। विषय ही तृष्णा का मूल कारण है। हम यह चाहते हैं कि हम खुद को रुपांतरित करें और अपने मन को ईश्वर के प्रति लगाएं। लेकिन जैसे ही हम अपनी इंद्रियों को उनके विषयों से अलग करते हैं , हमारी इंद्रियां प्रतिक्रिया स्वरुप हमारे मन पर हावी होने लगती हैं।
गंजे राजा और तेल की कथा :
एक कथा है कि एक राजा था जिसके सिर पर बाल नहीं थे। वो पूरी तरह से गंजा था। राजा अपने सिर पर बालों के न होने से बड़ा चिंतित रहता था। एक बार उसने घोषणा करवा दी कि “जो भी उसके सिर पर बालों को वापस उगा देगा उसे वो अपना आधा राज्य दे देगा।” एक बार एक वैद्य उसके दरबार में आया और उसने कहा कि “उसके पास एक दवाई है जिससे 7 दिनों में बाल दोबारा उगाए जा सकते हैं।” राजा ने उससे कहा कि “अगर उसके बाल 7 दिनों में वापस नहीं आए तो वो उसे मृत्युदंड दे देगा।”
वैद्य ने कहा कि “वो हर सजा के लिए तैयार है लेकिन इस दवाई के इस्तेमाल करने की एक शर्त है। वो शर्त यह है कि दवाई के इस्तेमाल के वक्त बंदर की याद नहीं आनी चाहिए।” राजा को लगा कि ये तो बड़ा आसान है कि बंदर को याद नहीं करना है।लेकिन जैसे ही राजा तेल लगाने गया अचानक उसके दिमाग में बंदर का ख्याल आ गया । जब – जब राजा तेल लगाने जाता उसके मन में बंदर का ख्याल आ जाता । जितना वो बंदर के ख्याल से दूर भागता उसके दिमाग में बंदर का ही ख्याल आता। इस प्रकार राजा कभी तेल नहीं लगा पाया ।
हमारी इंद्रियां भी ऐसे ही कार्य करती हैं। जैसे ही हम बलात् उसे उसके विषयों से अलग करते हैं वो उन विषयों की कल्पना हमारे मन और दिमाग पर डालने लगता है। और हम चाहे अनचाहे उसी विषय के बारे में सोचने लगते हैं। जैसे ही हम किसी सुंदर स्त्री को देखते हैं तो हम उसे पाने की कामना से भर जाते हैं। लेकिन हम नैतिकता वश उसे भूलने का प्रयास करते हैं। जब- जब हम उसे भूलने का प्रयास करते हैं, बार-बार उस स्त्री की छवि हमारे मानस पटल पर उभर जाती है। ऐसा इसलिए होता है क्योंकि हमारी चक्षु इंद्रिय से निकलने वाला कामवासना का विषय हमारे चित्त को घेर लेता है ।
योगी कौन है? योगी के लक्षण क्या हैं? :
तानि सर्वाणि संयम्य युक्त आसीत मत्परः ।
वशे हि यस्येन्द्रियाणि तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥2.61॥
tāni sarvāṇi saṅyamya yukta āsīta matparaḥ.
vaśē hi yasyēndriyāṇi tasya prajñā pratiṣṭhitā৷৷2.61৷৷
अर्थः- “अतः युक्त पुरुष (योगी) उन सबको (इंद्रियों को) ठीक से रोक कर मेरे परायण होकर बैठे, क्योंकि जिसकी इंद्रियां वश में है, उसकी बुद्धि स्थिर है।”
व्याख्याः- भगवान यहां अर्जुन के सामने अपने ईश्वरत्व की घोषणा करते हैं। भगवान स्वयं अविनाशी सत् स्वरुप हैं। त्रिगुणात्मक माया को धारण कर वो साकार शरीर रुप में प्रगट हुए हैं , लेकिन उन्हें अपने अविनाशी परमतत्व होने का भान शरीर धारण करने के बाद भी है, इसीलिए वो ईश्वर या परमात्मा हैं।
भगवान कहते हैं कि” सिर्फ इंद्रियों को इंद्रियों के विषयों से हटा लेने से आसक्ति खत्म नहीं होती, बुद्धि स्थिर नहीं होती। इंद्रियों को विषयों से हटाने के बाद उसे मुझ परमात्मा की तरफ लगाना होता है।” परमात्मा की तरफ अपनी इंद्रियों को पूरी सावधानी और सजगता से लगाने के बाद ही इंद्रियां वश में आती हैं। भगवान कहते हैं कि जिन्होंने अविनाशी सत् या परमात्मा की तरफ अपनी इंद्रियों को लगाया, उन्हीं की बुद्धि स्थिर हो सकती है।
योगी की परिभाषा क्या है :
भगवान कहते हैं कि परमात्मा या अविनाशी सत् की तरफ अपनी इंद्रियों को कोई योगी ही लगा सकता है। योगी की परिभाषा है –
युक्त इत्युच्यते योगी, समलोष्टाश्मकांचनः(गीता, अध्याय 6, श्लोक 8)
अर्थात योगी युक्त पुरुष वह है जो ढेले , पत्थर और सुवर्ण को समान समझता है। अर्थात् जो समत्व की स्थिति को प्राप्त कर लेता है । वही योगी युक्त पुरुष अपनी इंद्रियों को विषयों से हटा कर मुझ सत् रुपी (अविनाशी परमेश्वर) सत्ता की तरफ अपनी इंद्रियों को लगाता है ,ऐसे युक्त योगी की बुद्धि स्थिर हो जाती है।
भगवान यहां अर्जुन के तीसरे प्रश्न का उत्तर दे रहे हैं कि स्थितिप्रज्ञ मनुष्य कैसे बैठता है? भगवान कहते हैं कि स्थितिप्रज्ञ मनुष्य अपनी इंद्रियों को वश में कर मेरे परायण बैठता है।
विषयों में ही आसक्ति का विष मौजूद है
ध्यायतो विषयान्पुंसः संगस्तेषूपजायते ।
संगात्संजायते कामः कामात्क्रोधोऽभिजायते ॥2.62॥
dhyāyatō viṣayānpuṅsaḥ saṅgastēṣūpajāyatē.
saṅgāt saṅjāyatē kāmaḥ kāmātkrōdhō.bhijāyatē৷৷2.62৷৷
अर्थः- “(मेरे परायण न हो) विषयों का ध्यान करने वाले पुरुष की उन विषयों में आसक्ति हो जाती है। आसक्ति से काम उत्पन्न होता है, काम से क्रोध का आविर्भाव होता है ।”
व्याख्याः- भगवान गीता के इसी अध्याय 2 के श्लोक 61 में यह बता चुके हैं कि “मेरे परायण होकर सावधानी पूर्वक अपने इंद्रियों को विषयों से हटा कर जो बैठता है, वही स्थिर बुद्धि का हो सकता है।” भगवान इस श्लोक में अपने पूर्ण और परम अविनाशी सत् अर्थात परमात्मा ईश्वर होने की घोषणा करते हैं।
भगवान श्लोक 62 में अर्जुन को कहते हैं कि “जो परम अविनाशी सत् अर्थात परमात्मा की तरफ परायण होकर नहीं बैठता है तो चाहे वो अपनी इंद्रियों को भले ही वश में कर ले लेकिन इंद्रियां बलपूर्वक फिर से उसके मन को हर लेती हैं और फिर से आसक्तियों की तरफ ले जाती हैं।”भगवान कहते हैं कि “बिना परम सत् की तरफ उन्मुख हुए इंद्रियों का वश करने से फिर से इंद्रियों की विषयों की तरफ आसक्ति हो जाती है। इस आसक्ति से काम उत्पन्न होता है और काम से क्रोध का आविर्भाव होता है।”
विषयों के प्रति तृष्णा ही काम और क्रोध का मूल है
पांचों इंद्रियों- श्रोत्र,चक्षु,रसना, घ्राण, और त्वचा के विषयों शब्द,रुप, रस,गंध और स्पर्श आदि के भीतर विष है, इसलिए इन्हे विषय(Lust) कहा जाता है। इंद्रियों के ये विषय हमारे मन में इनसे संबंधित वस्तुओं और प्राणियों के प्रति आसक्ति या तृष्णा उत्पन्न करते हैं। जब हम किसी सुंदर स्त्री या पुरुष को देखते हैं तो हमारी आंखों को उस सुंदर पुरुष या स्त्री के रुप के प्रति आसक्ति या तृष्णा उत्पन्न होती है। हम उस रुप के प्रति आसक्त हो कर उसे पाने की इच्छा करते हैं । किसी वस्तु या प्राणी को पाने की इच्छा ही काम है ।
अगर उस वस्तु या प्राणी को प्राप्त करने की इच्छा अर्थात कामना को पूर्ण करने में हम असमर्थ होते हैं, तो हमारे मन और बुद्धि में क्रोध का आविर्भाव होता है।इसलिए भगवान यह संकेत देते हैं कि “जिन लोगों ने अपनी इंद्रियों को इंद्रियों के विषयों से हटा तो लिया है, लेकिन मेरी तरफ परायण नहीं किया है । अगर उन्होंने मेरी तरफ परायण किए बिना तप,यज्ञ और दमन आदि के द्वारा अपनी इंद्रियों को वश में भी कर लिया है, तो भी वो मेरे अर्थात परम सत् के अभाव में वो वापस आसक्ति की तरफ गिर जाते हैं।” यहीं से परम सत् या परमात्मा के प्रति भक्ति के भाव के सिद्धांत की भी शुरुआत होती है।
क्रोध, मनुष्य के नाश का कारण है
क्रोधाद्भवति सम्मोहः सम्मोहात्स्मृतिविभ्रमः ।
स्मृतिभ्रंशाद् बुद्धिनाशो बुद्धिनाशात्प्रणश्यति ॥2.63॥
krōdhādbhavati saṅmōhaḥ saṅmōhātsmṛtivibhramaḥ.
smṛtibhraṅśād buddhināśō buddhināśātpraṇaśyati৷৷2.63৷৷
अर्थः- “क्रोध से संमोह( मूढ़ता यानी विवेक शून्यता) होता है, संमोह( अविवेक) से स्मृतिभ्रंश, स्मृतिभ्रंश से बुद्धि का नाश होता है और बुद्धि के नाश से वह बिल्कुल नष्ट हो जाता है।”
व्याख्याः- भगवान कहते हैं कि” आसक्ति से काम उत्पन्न होता है, काम से क्रोध की उत्पत्ति होती है। क्रोध से मूढ़ता का जन्म होता है और मूढ़ता यानी विवेकशून्यता से स्मृतिभ्रंश होता है और स्मृतिभ्रंश से बुद्धि का नाश हो जाता है । भगवान ने यहां इंद्रियों के विषयों के प्रति अनुराग से होने वाले महान दोषों का एक क्रम बताया है।”
जैसे ही हम किसी वस्तु या प्राणी के रुप, गंध या अन्य गुणों के प्रति आसक्त होते हैं हमारे अंदर स्वाभाविक रुप से उसे पाने की इच्छा होती है । इस कामना की पूर्ति न होने पर हम क्रोधित हो जाते हैं। क्रोध में व्यक्ति अच्छे बुरे का ज्ञान भूल जाता है (स्मृतिभ्रंश) और अविवेकी हो जाता है।अविवेकी मनुष्य को कुछ भी दिखाई या सुनाई नहीं पड़ता। वह पूर्व में पढ़े और सुने गए सारे ज्ञान को भूला देता है। वो यह भी भूल जाता है कि उसे इंद्रियों को उसके विषयों से हटा लेना था। इस स्मृतिदोष से उसकी बुद्धि का नाश हो जाता है और वो उसे फिर से अपना दास बना लेती हैं। इस प्रकार वह पुरुष अपने विषयों का दास होकर पूर्ण रुप से नष्ट हो जाता है।
अंतःकरण की निर्मलता की प्राप्ति का ज्ञान
रागद्वेषवियुक्तैस्तु विषयानिन्द्रियैश्चरन् ।
आत्मवश्यैर्विधेयात्मा प्रसादमधिगच्छति ॥2.64॥
rāgadvēṣaviyuktaistu viṣayānindriyaiścaran.
ātmavaśyairvidhēyātmā prasādamadhigacchati৷৷2.64৷৷
अर्थः- “परंतु मन को वश में रखने वाला पुरुष राग- द्वेष से रहित , अपने वश में की गई इंद्रियों द्वारा विषयों का सेवन करते हुए भी अंतःकरण की निर्मलता को प्राप्त करता है।”
व्याख्याः- भगवान अर्जुन को श्रीमद्भगवद्गीता के इसी अध्याय 2 के श्लोक 61 यह बता चुके हैं कि इंद्रियों को विषयों से हटा कर परम सत् या परमात्मा की ओर परायण करके वश में करने से बुद्धि स्थिर हो जाती है। भगवान एक बार फिर इसी बात का विस्तार करते हुए कह रहे हैं कि “मेरे परायण होकर अपने मन को वश में रखने वाला पुरुष राग- द्वेष से रहित हो जाता है। ऐसा पुरुष अपने वश में की गई इंद्रियों द्वारा विषयों का सेवन करते हुए भी अंतःकरण की निर्मलता को प्राप्त करता है।”
उदाहरण के लिए अगर ऐसा मनुष्य किसी प्राणी या वस्तु की सुंदरता की ओर भी आकर्षित होता है तो उसमें भी उसे परम सत् या परमात्मा ही नज़र आता है। ऐसे भाव से वो उस सुंदर वस्तु या प्राणी का सेवन करता हुआ भी अंतःकरण से निर्मल होता है। हम कई कवियों और गीतकारों की रचनाओं में पढ़ते हैं कि “मुझे तुझमें रब दिखता है।” तो दरअसल यह वही स्थिति होती है जब आपको अपनी प्रेमिका में भी ईश्वर नज़र आने लगता है , जब आपको अपने प्रिय में भी ईश्वर दिखने लगता है तो आप इंद्रियों के विषयों का सेवन करते हुए भी अंतःकरण की निर्मलता को प्राप्त कर लेते हैं।
अंतःकरण की निर्मलता से दुःखों का नाश हो जाता है
प्रसादे सर्वदुःखानां हानिरस्योपजायते ।
प्रसन्नचेतसो ह्याशु बुद्धिः पर्यवतिष्ठते ॥2.65॥
prasādē sarvaduḥkhānāṅ hānirasyōpajāyatē.
prasannacētasō hyāśu buddhiḥ paryavatiṣṭhatē৷৷
अर्थः- “अंतःकरण की निर्मलता पाने पर इसके सभी दुःखों का नाश हो जाता है, क्योंकि प्रसन्न चित्त वाले पुरुष की बुद्धि शीघ्र स्थिर हो जाती है।”
व्याख्याः- भगवान पूर्वोक्त श्लोक नंबर 64 में कही गई अपनी बात को विस्तार देते हुए कहते हैं कि “जिस पुरुष ने अपनी इंद्रियों को अविनाशी परम सत् (जो वे खुद हैं) की ओर परायण कर वश में कर लिया है, वो इंद्रियों से उत्पन्न विषयो का भोग भी निरपेक्ष भाव से करते हैं , और ऐसा करते हुए भी वो अंतःकरण से निर्मल होते हैं।” अंतःकरण की निर्मलता को पाने पर इनके इंद्रियों के विषयों से उत्पन्न सभी दुःखों का नाश हो जाता है। जब दुःखों का नाश हो जाता है तो चित्त प्रसन्न हो जाता है। प्रसन्न चित्त मनुष्य सभी प्रकार के राग- द्वेष से मुक्त हो जाता है और उसकी बुद्धि शीघ्र स्थिर हो जाती है।
बुद्धिहीन पुरुष को शांति नहीं मिलती
नास्ति बुद्धिरयुक्तस्य न चायुक्तस्य भावना ।
न चाभावयतः शान्तिरशान्तस्य कुतः सुखम् ॥2.66॥
nāsti buddhirayuktasya na cāyuktasya bhāvanā.
na cābhāvayataḥ śāntiraśāntasya kutaḥ sukham৷৷2.66৷৷
अर्थः- “अयुक्त( यानि मुझ में अपने मन को परायण न करने वाले) पुरुष की बुद्धि (आत्म विषयक) नहीं होती और न ही अयुक्त पुरुष की भावना ही होती है। भावना रहित पुरुष को शांति नहीं मिलती और अशांत पुरुष को सुख कहां से मिल पाएगा?”
व्याख्याः- भगवान यहां ‘युक्त’ और ‘अयुक्त’ पुरुषों के लक्षण बता रहे हैं। इस श्लोक के ठीक पहले श्लोक में भगवान ने कहा है कि युक्त पुरुष अर्थात वो जिसने अपने मन को अविनाशी परम सत् ( जो कि स्वयं भगवान हैं) के प्रति लगा दिया हो, उसकी इंद्रियां वश में हो जाती हैं और उसका चित्त निर्मल हो जाता है।
अयुक्त पुरुष कौन है?
अयुक्त पुरुष अर्थात इंद्रियों को वश में रखने वाला वो पुरुष है, जिसने अविनाशी परम सत् के सिवा किसी भी अन्य सांसारिक या भौतिक वस्तु या प्राणी की तरफ अपनी इंद्रियों और विषयों को लगाया है। ऐसे पुरुष की बुद्धि नष्ट हो जाती है। भगवान कहते हैं कि ऐसे बुद्धिहीन पुरुष के अंदर भावना नहीं होती । यहां भावना से तात्पर्य परम सत् के प्रति भक्ति से है। सासांरिक वस्तुओं और प्राणियों के प्रति पुरुष का अनुराग क्षणिक होता है। लोभ- मोह, राग- द्वेष से भरा होता है। ये अनुराग जैसे ही उस वस्तु या प्राणी से मोहभँग होता है , वो खत्म हो जाती है।
भगवान यहां कहते हैं कि “अविनाशी परम सत् के प्रति इंद्रियों को वश में करके ध्यान करने वाले मनुष्य की भावना स्थिर होती है , इसलिए उसकी बुद्धि भी स्थिर होती है और वो परम और अचिंत्य शांति का अनुभव करता है।”लेकिन अयुक्त पुरुष की न तो भावना होती है और जब भावना ही नहीं होगी तो उसकी बुद्धि भी नष्ट हो जाएगी। वो द्वैत भावों – सुख- दुःख , राग-द्वेष, जय- पराजय में भी फंसा रहेगा । भगवान कहते हैं कि “ऐसे भावना रहित और बुद्धि रहित पुरुष को फिर शांति कहां से मिल सकेगी ?”
इंद्रियों को वश में करना बहुत कठिन है
इन्द्रियाणां हि चरतां यन्मनोऽनुविधीयते ।
तदस्य हरति प्रज्ञां वायुर्नावमिवाम्भसि ॥2.67॥
indriyāṇāṅ hi caratāṅ yanmanō.nuvidhīyatē.
tadasya harati prajñāṅ vāyurnāvamivāmbhasi৷৷2.67৷৷
अर्थः- “क्योंकि विषयों में विचरने वाली इंद्रियों के पीछे जो मन लगाया जाता है ,वह उसकी बुद्धि को वैसे ही हर लेता है जैसे वायु जल में नौका को ।”
व्याख्याः- भगवान इस श्लोक में पिछले श्लोक को ही विस्तार देते हुए अर्जुन को समझा रहे हैं। श्री विष्णु पुराण में कहा गया है –
मन एव मनुष्याणां कारणं बन्धमोक्षयो अर्थात् “मन ही मनुष्य के बंधन और मोक्ष का कारण है ।” भगवान अर्जुन को कहते हैं कि “अयुक्त पुरुष वो है जो अपने इंद्रियों को वश में करने का प्रयास तो करता है, लेकिन इंद्रियों को विषयों से हटा कर उसे अविनाशी परम सत् अर्थात ईश्वर में नहीं लगाता है। ऐसे पुरुष को अपने इंद्रियो को बार – बार विषयों से हटाना पड़ता है, लेकिन इसमें वो असफल रहता है। उसकी इंद्रियां फिर से वापस विषयों की तरफ प्रवृत हो जाती हैं और मन विषयों की तरफ विचरने लगता है।”
जब हम अयुक्त होते हैं अर्थात् अपने मन को ईश्वर की तरफ नहीं लगाते हैं तो हमारा मन विषयों की तरफ विचरने लगता है। जैसे हमारी चक्षु इंद्रिय जब किसी रुप की तरफ आकर्षित होती हैं , तो हम अपनी आंखों को उस रुप की तरफ से हटाने का प्रयास भी करते हैं तो भी हम उसी रुप की तरफ और भी ज्यादा आकर्षित होने लगते हैं। हमारी बुद्धि उसी दिशा की तरफ बलपूर्वक जाने लगती है।
भगवान इसके लिए उस नौका का उदाहरण देते हैं जिसके प्रवाह को वायु हर लेती है। जिधर वायु जाती है नौका उधर ही चलने लगती है। हमारे मन पर हमारा वश खत्म हो जाता है और हम विषयों के अधीन हो जाते हैं।मन इतना बलशाली होता है कि वो हमें बार- बार विषयों की तरफ आकर्षित करता है। ऋषि विश्वामित्र, जैमिनी जैसे ऋषि भी विषयों के प्रति आसक्ति से बच नहीं पाएं और इंद्रियों के दमन की तपस्या के दौरान वो असफल हो गए।
विषयों से निग्रह से बुद्धि स्थिर होती है
तस्माद्यस्य महाबाहो निगृहीतानि सर्वशः ।
इन्द्रियाणीन्द्रियार्थेभ्यस्तस्य प्रज्ञा प्रतिष्ठिता ॥2.68॥
tasmādyasya mahābāhō nigṛhītāni sarvaśaḥ.
indriyāṇīndriyārthēbhyastasya prajñā pratiṣṭhitā৷৷2.68৷৷
अर्थः- “इसलिए हे महाबाहो ! जिसकी इंद्रियां(Senses) अपने विषयों से सभी ओर से निग्रह की हुई हैं, उसकी बुद्धि स्थिर होती है।”
व्याख्याः- भगवान अर्जुन को ‘महाबाहो’ कह कर संबोधित कर रहे हैं। अर्जुन निश्चय ही महान बलशाली हैं और उसकी भुजाओं में अतुलनीय बल है जिससे वो गांडीव धनुष चलाता है। अर्जुन भी कई श्लोकों में भगवान को ‘महाबाहो’ कह कर संबोधित करता है।
भगवान कहते हैं कि “जिसने अपनी इंद्रियों को सभी विषयों – रुप, स्पर्श,रस,घ्राण, और श्रवण से हटा लिया हो और मेरे परायण हो गया हो, उसकी ही बुद्धि स्थिर होती है। भगवान इस श्लोक और इसके पहले के श्लोक में अर्जुन के चौथे प्रश्न का जवाब दे रहे हैं। अर्जुन का चौथा प्रश्न था कि स्थितिप्रज्ञ मनुष्य कैसे विचरता है?
अविनाशी परम सत् की ओर उनमुख होना ही जागरण है
या निशा सर्वभूतानां तस्यां जागर्ति संयमी ।
यस्यां जाग्रति भूतानि सा निशा पश्यतो मुनेः ॥2.69॥
yā niśā sarvabhūtānāṅ tasyāṅ jāgarti saṅyamī.
yasyāṅ jāgrati bhūtāni sā niśā paśyatō munēḥ৷৷2.69৷৷
अर्थः- “संपूर्ण प्राणीवर्ग की जो रात्रि है, उसमें संयमी जागता है और जिसमें समस्त भूतवर्ग ( यानी प्राणीवर्ग) जागते हैं, वह आत्मदर्शी मुनि के लिए रात्रि है।”
व्याख्याः- हमने उपर ही आपको बताया है कि मुनि कौन है? मुनि वो है जिसके अंदर की कामनाएं मौन हो गई हैं। उसके मन के भीतर चलने वाले द्वंद्वात्मक विचार- संवाद समाप्त हो गए हैं ।भगवान कहते हैं कि “संपूर्ण प्राणीवर्ग की जो रात्रि है , उसमें संयमी जागता है।” इसका अर्थ यह है कि संपूर्ण प्राणीवर्ग ब्रह्म की चैतन्यता को लेकर अज्ञान के अंधकार रुपी रात्रि से ग्रस्त हैं। उनके लिए अविनाशी परम सत् एकदम अनजाना है।अयुक्त पुरुष जिन्होंने अपनी इंद्रियों को इंद्रियों के विषयों की ओर उन्मुख कर रखा है, वो प्रकाशमय अविनाशी परमसत् के प्रति अज्ञान रुपी अंधकार से भरे हुए हैं, इस लिए वो परमनिशा अंधकारमय सांसारिक जगत में भ्रमण कर रहे हैं।
संयमी कौन है?
संयमी वो है जिसने अपनी इंद्रियों को इंद्रियों के विषय से हटा कर प्रकाशमय परम सत् की तरफ उन्मुख कर लिया है। इसलिए जो अयुक्त पुरुष के लिए रात्रि स्वरुप अज्ञान का अंधकार है , उसमें संयमी प्रकाशमय अविनाशी परम सत् को देख सकता है औऱ वह उसके लिए दिन के जागरण के समान है । इसलिए वो अविनाशी परम सत् के प्रति जागृत है ।
‘सम्यक् यम’ जिस पुरुष में हो उसे संयमी कहते हैं। पातंजल योगशास्त्र में जिस आष्टांग योग का वर्णन है उसमें ‘यम’ सर्वप्रथम अंग है । ‘यम’ के अंतर्गत दस क्रियाएं है जिससे अपनी इंद्रियों को इंद्रियों के विषयों से हटाया जा सकता है। ये हैं –
- अहिंसा
- सत्य
- अस्तेय
- ब्रह्मचर्य
- दया
- कोमलता
- क्षमा
- धीरता
- अल्पाहार
- शौच
इन 10 ‘यमों’ के पालन के द्वारा ही कोई संयमी हो सकता है। संयमी पुरुष इसी प्रकार से अपनी इंद्रियों को इंद्रियों के विषयों से दूर कर उसे परम सत् की ओर उन्मुख करता है । अर्थात् संयमी वो है, जिसने अपनी कामनाओं के प्रवाह को अविनाशी प्रकाशमय परम सत् की तरफ उन्मुख कर लिया है । उसके अंदर द्वैत रुपी कामनाओं का अंत हो चुका है ।
वह संयमी ‘आत्मदर्शी’ हो जाता है। आत्मदर्शी अर्थात अपने अंदर स्थित अविनाशी परमसत् को देखने वाला । जैसे ही संयमी आत्मदर्शी की स्थिति में पहुंचता है उसके अंदर कामनाओं के द्वंद्वात्मक विचार- संवाद प्रवाह समाप्त हो जाते हैं और वो मुनि हो जाता है । इसके बाद मुनि अपने मन के प्रवाह को अविनाशी परम प्रकाशमय सत् की तरफ मोड़ देता है , उसे फिर सांसारिक कामनाएं दिखनी बंद हो जाती है।जिन विषयों के प्रति सांसारिक प्राणीवर्ग जाग्रत रहते हैं, मुनि के लिए वही सांसारिक कामनाएं रात्रि के समान अंधकारमय हो जाती हैं।
कामनाएं मनुष्य को अशांत रखती हैं
आपूर्यमाणमचलप्रतिष्ठं
समुद्रमापः प्रविशन्ति यद्वत् ।
तद्वत्कामा यं प्रविशन्ति सर्वे
स शान्तिमाप्नोति न कामकामी ॥2.70॥
āpūryamāṇamacalapratiṣṭhaṅ
samudramāpaḥ praviśanti yadvat.
tadvatkāmā yaṅ praviśanti sarvē
sa śāntimāpnōti na kāmakāmī৷৷2.70৷৷
अर्थः- “सब ओर से परिपूर्ण अर्थात भरे हुए अचल प्रतिष्ठा वाले समुद्र में जैसे नदियों का जल समा जाता है, वैसे ही जिस पुरुष में समस्त काम या विषय( Sensual pleasures) प्रवेश कर जाते हैं, वही शांति को प्राप्त करता है, भोगों की कामना करने वाला नहीं ।”
व्याख्याः- भगवान यहां समुद्र में विभिन्न नदियों के मिलने का उदाहरण देते हैं। जैसे समस्त नदियां अगर समुद्र में मिल भी जाती हैं तो फिर समुद्र में कोई विचलन नहीं होता है। ठीक उसी प्रकार जो पुरुष अपने समस्त इंद्रियों को विषयों से हटा कर अपने अंदर स्थित समुद्ररुपी अविनाशी परम सत् में विलीन कर देता है, उस पुरुष की बुद्धि स्थिर हो जाती है और वो शांति को प्राप्त करता है।जबकि इंद्रियों को विषयों (Sensual pleasures) की तरफ उन्मुख करने वाला पुरुष विचलन का शिकार होता रहता है। विषय (Sensual Pleasures) प्रतिपल बदलते रहते हैं। वो इन विषयों के भोग के प्रति भागता रहता है,इसलिए वो हमेशा अशांत रहता है।
शांति कैसे प्राप्त की जा सकती है?
विहाय कामान्यः सर्वान्पुमांश्चरति निःस्पृहः ।
निर्ममो निरहंकारः स शान्तिमधिगच्छति ॥2.71॥
vihāya kāmānyaḥ sarvānpumāṅścarati niḥspṛhaḥ.
nirmamō nirahaṅkāraḥ sa śāṅtimadhigacchati৷৷2.71৷৷
अर्थः- “जो पुरुष सब विषयों को छोड़कर, उनमें स्पृहाहीन होकर ममता और अभिमान से रहित होकर आचरण करता है, वही शांति प्राप्त करता है।”
व्याख्याः- भगवान यहां अर्जुन के चौथे प्रश्न का एक बार फिर से उत्तर देते हैं । अर्जुन का चौथा प्रश्न था कि स्थितिप्रज्ञ मनुष्य कैसे चलता है अर्थात उसका आचरण कैसा होता है? भगवान कहते हैं कि “स्थितिप्रज्ञ मनुष्य सब विषयों को छोड़ देता है और ममता( मोह) और अभिमान रहित हो कर आचरण करता है। भगवान कहते हैं कि ऐसा स्थितिप्रज्ञ पुरुष शांति प्राप्त करता है।”
अविनाशी परम सत् रुपी ब्रह्म की प्राप्ति
एषा ब्राह्मी स्थितिः पार्थ नैनां प्राप्य विमुह्यति ।
स्थित्वास्यामन्तकालेऽपि ब्रह्मनिर्वाणमृच्छति ॥2.72॥
ēṣā brāhmī sthitiḥ pārtha naināṅ prāpya vimuhyati.
sthitvā.syāmantakālē.pi brahmanirvāṇamṛcchati৷৷2.72৷৷
अर्थः- ठहे पार्थ! यह ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है। इसको पाकर मनुष्य फिर मोहित नहीं होता ।अंतकाल में भी इसमें स्थित होकर आत्यंतिक सुख स्वरुप ब्रह्म को प्राप्त होता है।ठ
व्याख्याः- भगवान विषयों के बाहरी प्रवाह को अविनाशी परम सत् की तरफ प्रवाहित करने का फल बता रहे हैं। भगवान ने पहले भी कहा है कि इस मार्ग में आरंभ का नाश नहीं है और उल्टा फलरुप दोष भी नहीं लगता है( गीता , अध्याय 2, श्लोक 40)। भगवान इसी बात को अध्याय 2 के अंत में स्पष्ट कर रहे हैं कि “जो इस स्थिति को प्राप्त कर लेता है अर्थात अपने इंद्रियो को विषयों से हटाकर अविनाशी परम सत् की तरफ मोड़ देता है अर्थात युक्त हो जाता है , वो स्थितिप्रज्ञ हो जाता है। एक बार अविनाशी परम सत् के संपर्क स्थापित होने के बाद फिर वो वापस सांसारिक विषयों की तरफ नहीं जाता । वह फिर कभी मोहित नहीं होता है।”
भगवान ने यहां अविनाशी परम सत् को ‘ब्रह्म’ के नाम से पुकारा है। भगवान कहते हैं कि “ऐसा पुरुष फिर अंतकाल में भी ( क्योंकि एक बार अविनाशी ब्रह्म से संपर्क हो जाने के बाद यह निरंतर बना रहता है) सुख स्वरुप ब्रह्म को ही प्राप्त होता है। चूंकि, वह फिर से मोहित नहीं होता , इसलिए उसे फलरुप उल्टा दोष नहीं लगता है।” भगवान कहते हैं कि “यही ब्रह्म को प्राप्त हुए पुरुष की स्थिति है।”
इसलिए अर्जुन को वो पहले अविनाशी परम सत् अर्थात ब्रह्म का ज्ञान अध्याय 1 और 2 में देते हैं । इसके बाद उस ब्रह्म को प्राप्त करने के लिए इंद्रियों को वश में कर उसे विषयों से हटा कर अविनाशी परम सत् की तरफ मोड़ने का कर्म योग बताते हैं। अंत में वो इसका फल भी बताते हैं कि ऐसा पुरुष सुख स्वरुप ब्रह्म को प्राप्त हो जाता है।
द्वितीय अध्याय समाप्त